February 17, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 38 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ अड़तीसवाँ अध्याय सुचन्द्र-पुत्र पुष्कराक्ष के साथ परशुराम का युद्ध, पाशुपतास्त्र छोड़ने के लिये उद्यत परशुराम के पास विष्णु का आना और उन्हें समझाना, विष्णु का विप्रवेष से पुत्र सहित पुष्कराक्ष से लक्ष्मीकवच तथा दुर्गाकवच को माँग लेना, लक्ष्मीकवच का वर्णन श्रीनारायण कहते हैं — ब्रह्मन् ! रणक्षेत्र में राजाधिराजों के शिरोमणि सुचन्द्र के गिर जाने पर तीन अक्षौहिणी सेना के साथ पुष्कराक्ष आ धमका। महान् पराक्रमी राजा पुष्कराक्ष सूर्यवंश में उत्पन्न, महालक्ष्मी का सेवक, लक्ष्मीवान् और सूर्य के समान प्रभाशाली था। वह सुचन्द्र का पुत्र था। उसके गले में महालक्ष्मी का मनोहर कवच बँधा था, जिसके प्रभाव से वह परमैश्वर्य-सम्पन्न और त्रिलोक-विजयी हो गया था । उसे देखकर बुद्धिमान् परशुराम के सभी भाई हाथों में नाना प्रकार के शस्त्रास्त्र धारण करके युद्ध करने के लिये आ डटे। राजा ने लीलापूर्वक बाणसमूह की वर्षा करके उन्हें छेद डाला। तब उन वीरों ने भी हँसते-हँसते उन बाणों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले । फिर तो पुष्कराक्ष के साथ घोर युद्ध आरम्भ हुआ । परशुराम ने पाशुपतास्त्र के सिवा सभी अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया, पर पुष्कराक्ष ने सबको काट गिराया। तब अपने समस्त शस्त्रास्त्रों को विफल देखकर परशुराम ने स्नान करके शिवजी को प्रणाम किया और पाशुपतास्त्र का प्रयोग करना चाहा; इतने में भगवान् नारायण ब्राह्मण का वेष धारण करके वहाँ प्रकट हो गये और बोले — ॐ नमो भगवते वासुदेवाय [ ब्राह्मणवेषधारी ] नारायणने कहा — वत्स भार्गव ! यह क्या कर रहे हो ? तुम तो ज्ञानियों में श्रेष्ठ हो; फिर भ्रमवश क्रोधावेश में आकर मनुष्य का वध करने के लिये पाशुपत का प्रयोग क्यों कर रहे हो ? इस पाशुपत से तो तत्काल ही सारा विश्व भस्म हो सकता है; क्योंकि यह शस्त्र परमेश्वर श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और सबका विनाशक है । अहो ! पाशुपत को जीतने की शक्ति तो सुदर्शन में ही है; क्योंकि श्रीहरि का सुदर्शनचक्र समस्त अस्त्रों का मान मर्दन करने वाला है। शिवजी का पाशुपतास्त्र और श्रीहरि का सुदर्शनचक्र – ये ही दोनों तीनों लोकों में समस्त अस्त्रों में प्रधान हैं। इसलिये ब्रह्मन् ! तुम पाशुपतास्त्र को रख दो और मेरी बात सुनो। इस समय तुम जिस प्रकार महाबली राजा पुष्कराक्ष को जीत सकोगे तथा जिस प्रकार अजेय कार्तवीर्य पर विजय पा सकोगे, वह सारा उपाय तुम्हें बतलाता हूँ; सावधानतया श्रवण करो । महालक्ष्मी का कवच, जो तीनों लोकों में दुर्लभ है, पुष्कराक्ष भक्तिपूर्वक विधि-विधान के साथ अपने गले में धारण कर रखा है और पुष्कराक्ष का पुत्र दुर्गतिनाशिनी दुर्गा का परम अद्भुत एवं उत्तम कवच अपनी दाहिनी भुजा पर बाँधे हुए है। इन कवचों की कृपा से वे दोनों विश्व पर विजय पा लेने में समर्थ हैं। उनके शरीर पर कवचों के वर्तमान रहते त्रिभुवन में उन्हें कौन जीत सकता है। मुने! मैं तुम्हारी प्रतिज्ञा सफल करने के निमित्त उन दोनों के संनिकट माँगने के लिये जाऊँगा और उनसे कवच की याचना करूँगा । ब्राह्मण की बात सुनकर परशुराम का मन भयभीत हो गया, तब वे दुःखी हृदय से उस वृद्ध ब्राह्मण से बोले । परशुरामने कहा — ‘महाप्राज्ञ ! ब्राह्मणरूपधारी आप कौन हैं, मैं यह नहीं जान पा रहा हूँ; अतः मुझ अनजान को शीघ्र ही अपना परिचय दीजिये, तत्पश्चात् राजा के पास जाइये।’ परशुराम का वचन सुनकर ब्राह्मण को हँसी आ गयी, वे ‘मैं विष्णु हूँ’ यों कहकर राजा के पास याचना करने के लिये चले गये। उन दोनों के संनिकट जाकर विष्णु ने उनसे कवच की याचना की। तब विष्णु की माया से मोहित होकर उन्होंने विष्णु को दोनों कवच दान कर दिये । भगवान् विष्णु उन कवचों को लेकर वैकुण्ठ को चले गये । नारदजी ने पूछा — महामुने! भूपाल पुष्कराक्ष को महालक्ष्मी का कवच किसने दिया था ? तथा पुष्कराक्ष के पुत्र को दुर्गा का दुर्लभ कवच किसने बताया था ? आप इसे बतलाने की कृपा करें; क्योंकि इसे सुनने की मेरी प्रबल उत्कण्ठा है। जगद्गुरो ! साथ ही मुझे यह भी बताइये कि उन दोनों के कवच कैसे थे, उनका क्या फल है और वे दोनों मन्त्र किस तरह के थे ? श्रीनारायण ने कहा — नारद! बुद्धिमान् पुष्कराक्ष को महालक्ष्मी का कवच और दशाक्षर-मन्त्र सनत्कुमार ने दिया था। उन्होंने ही गोपनीय स्तोत्र, उसका चरित, पूजा की विधि और सामवेदोक्त मनोहर ध्यान भी बतलाया था । दुर्गा का कवच, गुह्य स्तोत्र और दशाक्षर-मन्त्र पूर्वकाल में दुर्वासा ने पुष्कराक्ष-पुत्र को प्रदान किया था। इसके पश्चात् देवी के उस परम अद्भुत सम्पूर्ण चरित को सुनोगे, जिसे उन्होंने महायुद्ध के आरम्भ में प्रार्थना करने पर बतलाया था। अब मैं तुम्हें महालक्ष्मी का मन्त्र बतलाता हूँ; उसे श्रवण करो । ‘ॐ श्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा’ यही वह परम अद्भुत मन्त्र है। मुने! सनत्कुमार ने बुद्धिमान् पुष्कराक्ष को जो पूजाविधि और सामवेदोक्त ध्यान बतलाया था, उसे सुनो। सहस्रदलपद्मस्थां पद्मनाभप्रियां सतीम् । पद्मालयां षद्मवक्त्रां पद्मपत्राभलोचनाम् ॥ ४७ ॥ पद्मषुष्पप्रिया पद्मपुष्पतल्पाधिशायिनीम् । पद्मिनीं पद्महस्तां च पद्ममालाविभूषिताम् ॥ ४८ ॥ पद्मभूषणभृषाढ्यां पद्मशोभाविवधिनीम् । पद्माटवीं प्रपश्यन्तीं सस्मितां तां भजे मुदा ॥ ४९ ॥ सहस्रदलकमल जिनका आसन है, जो भगवान् पद्मनाभ की सती-साध्वी प्रियतमा हैं, कमल जिनका घर है, जिनका मुख कमल के सदृश और नेत्र कमलपत्र की – सी आभावाले हैं, कमल का फूल जिन्हें अधिक प्रिय है, जो कमल-पुष्प की शय्या पर शयन करती हैं, जिनके हाथ में कमल शोभा पाता है, जो कमल-पुष्पों की माला से विभूषित हैं, कमलों के आभूषण जिनकी शोभा बढ़ाते हैं, जो स्वयं कमलों की शोभा की वृद्धि करनेवाली हैं और मुस्कराती हुई जो कमल-वन की ओर निहार रही हैं; उन पद्मिनी देवी का मैं आनन्दपूर्वक भजन करता हूँ । साधक को चाहिये कि चन्दन का अष्टदल-कमल बनाकर उस पर कमल-पुष्पों द्वारा महालक्ष्मी की पूजा करे । फिर ‘गण’ का भलीभाँति पूजन करके उन्हें षोडशोपचार समर्पित करे । तदनन्तर स्तुति करके भक्तिपूर्वक उनके सामने सिर झुकावे । ब्रह्मन्! अब सबका साररूप कवच तुम्हें बतलाता हूँ; सुनो। श्रीनारायण आगे कहते हैं — विप्रवर ! भगवान् पद्मनाभ ने अपने नाभि-कमल पर स्थित ब्रह्मा को लक्ष्मी का जो परम शुभकारक कवच प्रदान किया था, उसे सुनो। उस कवच को पाकर ब्रह्मा ने कमल पर बैठे-बैठे जगत् की सृष्टि की और महालक्ष्मी की कृपा से वे लक्ष्मीवान् हो गये। फिर पद्मालया से वरदान प्राप्त करके ब्रह्मा लोकों के अधीश्वर हो गये। उन्हीं ब्रह्मा ने पद्मकल्प में अपने प्रिय पुत्र बुद्धिमान् सनत्कुमार को यह परम अद्भुत कवच दिया था। नारद! सनत्कुमार ने वह कवच पुष्कराक्ष को प्रदान किया था, जिसके पढ़ने एवं धारण करने से ब्रह्मा समस्त सिद्धों के स्वामी, महान् परमैश्वर्य से सम्पन्न और सम्पूर्ण सम्पदाओं से युक्त हो गये । ॥ श्रीलक्ष्मीकवचम् ॥ ॥ नारायण उवाच ॥ सर्वसंपत्प्रदस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः । ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवी पद्मालया स्वयम् ॥ ६४ ॥ धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः । पुण्यबीजं च महतां कवचं परमाद्भुतम् ॥ ६५ ॥ ॐ ह्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा मे पातु मस्तकम् । श्रीं मे पातु कपालं च लोचने श्रीं श्रियै नमः ॥ ६६ ॥ ॐ श्रीं श्रियै स्वाहेति च कर्णयुग्मं सदाऽवतु । ॐ श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा मे पातु नासिकाम् ॥ ६७ ॥ ॐ श्रीं पद्मालयायै च स्वाहा दन्तान्तदाऽवतु । ॐ श्रीं कृष्णप्रियायै च दन्तरन्ध्रं सदाऽवतु ॥ ६८ ॥ ॐ श्रीं नारायणेशायै मम कण्ठं सदाऽवतु । ॐ श्रीं केशवकान्तायै मम स्कन्धं सदाऽवतु ॥ ६९ ॥ ॐ श्रीं पद्मनिवासिन्यै स्वाहा नाभिं सदाऽवतु । ॐ ह्रीं श्रीं संसारमात्रे मम वक्षः सदाऽवतु ॥ ७० ॥ ॐ श्रीं मों कृष्णकान्तायै स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु । ॐ ह्रीं श्रीं श्रियै स्वाहा च मम हस्तौ सदाऽवतु ॥ ७१ ॥ ॐ श्रीनिवासकान्तायै मम पादौ सदाऽवतु । ॐ ह्रीं श्रीं श्रियै स्वाहा सर्वाङ्गं मे सदाऽवतु ॥ ७२ ॥ प्राच्यां पातु महालक्ष्मीराग्नेय्यां कमलालया । पद्मा मां दक्षिणे पातु नैर्ऋत्यां श्रीहरिप्रिया ॥ ७३ ॥ पद्मालया पश्चिमे मां वायव्यां पातु सा स्वयम् । उत्तरे कमला पातु चैशान्यां सिन्धुकन्यका ॥ ७४ ॥ नारायणी च पातूर्ध्वमधो विष्णुप्रियाऽवतु । संततं सर्वतः पातु विष्णुप्राणाधिका मम ॥ ७५ ॥ इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् । सर्वैश्वर्यप्रदं नाम कवचं परमाद्भतम् ॥ ७६ ॥ सुवर्णपर्वतं दत्त्वा मेरुतुल्यं द्विजातये । यत्फलं लभते धर्मी कवचेन ततोऽधिकम् ॥ ७७ ॥ गुरुमभ्यर्च्य विधिवत्कवचं धारयेत्तु यः । कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ स श्रीमान्प्रतिजन्मनि ॥ ७८ ॥ अस्ति लक्ष्मीगृहे तस्य निश्चला शतपूरुषम् । देवेन्द्रैश्चासुरेन्द्रैश्च सोऽवध्यो निश्चितं भवेत् ॥ ७९ ॥ स सर्वपुण्यवान्धीमान्सर्वयज्ञेषु दीक्षितः । स स्नातः सर्वतीर्थेषु यस्येदं कवचं गले ॥ ८० ॥ यस्मै कस्मै न दातव्यं लोभमोहभयैरपि । गुरुभक्ताय शिष्याय शरण्याय प्रकाशयेत् ॥ ८१ ॥ इदं कवचमज्ञात्वा जपेल्लक्ष्मीं जगत्प्रसूम् । कोटिसंख्यं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ ८२ ॥ सम्पूर्ण सम्पत्तियों प्रदाता इस कवच के प्रजापति ऋषि हैं, बृहती छन्द है, स्वयं पद्मालया देवी हैं और धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष में इसका विनियोग किया जाता है। यह परम अद्भुत कवच महापुरुषों के पुण्य का कारण है। ‘ॐ ह्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा’ मेरे मस्तक की रक्षा करे । ‘श्रीं’ मेरे कपाल की और ‘श्रीं श्रियै नमः’ नेत्रों की रक्षा करे । ‘ॐ श्रीं श्रियै स्वाहा’ सदा दोनों कानों की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा’ मेरी नासिका की रक्षा करे। ‘ॐ श्रीं पद्मालयायै स्वाहा’ सदा दाँतों की रक्षा करे । ॐ श्रीं कृष्णप्रियायै स्वाहा’ सदा दाँतों के छिद्रों की रक्षा करे । ‘ॐ श्रीं नारायणेशायै स्वाहा’ सदा मेरे कण्ठ की रक्षा करे । ‘ॐ श्रीं केशवकान्तायै स्वाहा’ सदा मेरे कंधों की रक्षा करे। ‘ॐ श्रीं पद्मनिवासिन्यै स्वाहा’ सदा नाभि की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं श्रीं संसारमात्रे स्वाहा’ सदा मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे । ‘ॐ श्रीं श्रीं कृष्णकान्तायै स्वाहा’ सदा पीठ की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं श्रीं श्रियै स्वाहा’ सदा मेरे हाथों की रक्षा करे। ‘ॐ श्रीं निवासकान्तायै स्वाहा’ सदा मेरे पैरों की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं श्रियै स्वाहा’ मेरे सर्वाङ्ग की रक्षा करे । पूर्व दिशा में ‘महालक्ष्मी’ और अग्निकोण में ‘कमलालया’ मेरी रक्षा करें। दक्षिण में ‘पद्मा’ और नैर्ऋत्यकोण में ‘श्रीहरिप्रिया’ मेरी रक्षा करें। पश्चिम में ‘पद्मालया’ और वायव्यकोण में स्वयं ‘श्री’ मेरी रक्षा करें। उत्त रमें ‘कमला’ और ईशानकोण में ‘सिन्धुकन्यका’ रक्षा करें। ऊर्ध्वभाग में ‘नारायणेशी’ रक्षा करें। अधोभाग में ‘विष्णुप्रिया‘ रक्षा करें। ‘विष्णुप्राणाधिका’ सदा सब ओर से मेरी रक्षा करें। वत्स ! इस प्रकार मैंने तुमसे इस सर्वैश्वर्यप्रद नामक परम अद्भुत कवच का वर्णन कर दिया। यह समस्त मन्त्र-समुदाय का मूर्तिमान् स्वरूप है। धर्मात्मा पुरुष ब्राह्मण को मेरु के समान सुवर्ण का पहाड़ दान करके जो फल पाता है, उससे कहीं अधिक फल इस कवच से मिलता है। जो मनुष्य विधिवत् गुरु की अर्चना करके इस कवच को गले में अथवा दाहिनी भुजा पर धारण करता है, वह प्रत्येक जन्म में श्रीसम्पन्न होता है और उसके घर में लक्ष्मी सौ पीढ़ियों तक निश्चलरूप से निवास करती हैं। वह देवेन्द्रों तथा राक्षसराजों द्वारा निश्चय ही अवध्य हो जाता है। जिसके गले में यह कवच विद्यमान रहता है, उस बुद्धिमान् ने सभी प्रकार के पुण्य कर लिये, सम्पूर्ण यज्ञों में दीक्षा ग्रहण कर ली और समस्त तीर्थों में स्नान कर लिया। लोभ, मोह और भयसे भी इसे जिस किसी को नहीं देना चाहिये; अपितु शरणागत एवं गुरुभक्त शिष्य के सामने ही प्रकट करना चाहिये । इस कवच का ज्ञान प्राप्त किये बिना जो जगज्जननी लक्ष्मी का जप करता है, उसके लिये करोड़ों की संख्या में जप करने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता । (अध्याय ३८) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे श्रीलक्ष्मीकवचवर्णनं नामाष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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