ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 39
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
चालीसवाँ अध्याय
परशुराम द्वारा पुत्र सहित राजा सहस्राक्ष का वध, कार्तवीर्य- परशुराम-युद्ध, परशुराम की मूर्च्छा, शिव द्वारा उन्हें पुनर्जीवन दान, कार्तवीर्य-परशुराम संवाद, आकाशवाणी सुनकर शिव का विप्रवेष धारण करके कार्तवीर्य से कवच माँग लेना, परशु द्वारा कार्तवीर्य तथा अन्यान्य क्षत्रियों का संहार, ब्रह्मा का आगमन और परशुराम को गुरुस्वरूप शिव की शरण में जाने का उपदेश देकर स्वस्थान को लौट जाना

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! जब भगवान् विष्णु महालक्ष्मी-कवच तथा दुर्गा-कवच को लेकर वैकुण्ठ को चले गये, तब भृगुनन्दन परशुराम ने पुत्र सहित राजा सहस्राक्ष पुष्कराक्ष का दुसरा नाम प्रतीत होता है।पर प्रहार किया । यद्यपि राजा कवचहीन था तथापि वह प्रयत्नपूर्वक ब्रह्मास्त्र द्वारा एक सप्ताह तक युद्ध करता रहा। अन्ततोगत्वा पुत्र सहित धराशायी हो गया। सहस्राक्ष के गिर जाने पर महाबली कार्तवीर्यार्जुन दो लाख अक्षौहिणी सेना के साथ स्वयं युद्ध करने के लिये आया । वह रत्ननिर्मित खोल से आच्छादित स्वर्णमय रथ पर सवार हो अपने चारों ओर नाना प्रका रके अस्त्रों को सुसज्जित करके रण के मुहाने पर डटकर खड़ा हो गया। परशुराम ने राजराजेश्वर कार्तवीर्य को समरभूमि में उपस्थित देखा । वह रत्ननिर्मित आभूषणों से सुशोभित करोड़ों राजाओं से घिरा हुआ था । रत्ननिर्मित छत्र उसकी शोभा बढ़ा रहा था। वह रत्नों के गहनों से विभूषित था। उसके सर्वाङ्ग में चन्दन की खौर लगी हुई थी। उसका रूप अत्यन्त मनोहर था और वह मन्द मन्द मुस्करा रहा था।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

राजा मुनिवर परशुराम को देखकर रथ से उतर पड़ा और उन्हें प्रणाम करके पुनः रथ पर सवार हो राज-समुदाय के साथ सामने खड़ा हुआ । तब परशुराम ने राजा को समयोचित शुभाशीर्वाद दिया और पुनः यों कहा – ‘अनुयायियोंसहित तुम स्वर्ग में जाओ ।’ नारद! इसके बाद वहाँ दोनों सेनाओं में युद्ध होने लगा। तब परशुराम के शिष्य तथा उनके महाबली भाई कार्तवीर्य से पीड़ित होकर भाग खड़े हुए। उस समय उनके सारे अङ्ग घायल हो गये थे। राजा बाण-समूह से आच्छादित होने के कारण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुराम को अपनी तथा राजा की सेना ही नहीं दीख रही थी। फिर तो परस्पर घोर दिव्यास्त्रों का प्रयोग होने लगा । अन्त में राजा ने दत्तात्रेय के दिये हुए अमोघ शूल को यथाविधि मन्त्रों का पाठ करके परशुराम पर छोड़ दिया । उस सैकड़ों सूर्यों के समान प्रभाशाली एवं प्रलयाग्नि की शिखा के सदृश शूल के लगते ही परशुराम धराशायी हो गये ।

तदनन्तर भगवान् शिव ने वहाँ आकर परशुराम को पुनर्जीवन दान दिया। इसी समय वहाँ युद्धस्थल में भक्तवत्सल कृपालु भगवान् दत्तात्रेय शिष्य की रक्षा करने के लिये आ पहुँचे। फिर परशुराम ने क्रुद्ध होकर पाशुपतास्त्र हाथ में लिया; परंतु दत्तात्रेय की दृष्टि पड़ने से वे रणभूमि में स्तम्भित हो गये। तब रण के मुहाने पर स्तम्भित हुए परशुराम ने देखा कि जिनके शरीर की कान्ति नूतन जलधर के सदृश है; जो हाथ में वंशी लिये बजा रहे हैं; सैकड़ों गोप जिनके साथ हैं; जो मुस्कराते हुए प्रज्वलित सुदर्शन चक्र को निरन्तर घुमा रहे हैं और अनेकों पार्षदों से घिरे हुए हैं एवं ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर जिनका स्तवन कर रहे हैं; वे गोपवेषधारी श्रीकृष्ण युद्धक्षेत्र में राजा की रक्षा कर रहे हैं। इसी समय वहाँ यों आकाशवाणी हुई- ‘दत्तात्रेय द्वारा दिया हुआ परमात्मा श्रीकृष्ण का कवच उत्तम रत्न की गुटिका के साथ राजा की दाहिनी भुजा पर बँधा हुआ है, अतः योगियों के गुरु शंकर भिक्षारूप से जब उस कवच को माँग लेंगे, तभी परशुराम राजा का वध करने में समर्थ हो सकेंगे।’

नारद! उस आकाशवाणी को सुनकर शंकर ब्राह्मण का रूप धारण करके गये और राजा से याचना करके उसका कवच माँग लाये । फिर शम्भु ने श्रीकृष्ण का वह कवच परशुराम को दे दिया। इसके बाद देवगण अपने-अपने उत्तम स्थान को चले गये। तब परशुराम ने राजा को युद्ध के लिये प्रेरित करते हुए कहा ।

परशुरामजी बोले राजेन्द्र ! उठो और साहसपूर्वक युद्ध करो; क्योंकि मनुष्यों की जय-पराजय में काल ही कारण है । तुमने विधिपूर्वक शास्त्रों का अध्ययन किया है, दान दिया है, सारी पृथ्वी पर उत्तम रीति से शासन किया है, संग्राम में यशोवर्धक कार्य किया है, इस समय मुझे मूर्च्छित कर दिया है, सभी राजाओं को जीत लिया है, लीलापूर्वक रावण को काबू में कर लिया है और दत्तात्रेय द्वारा दिये गये त्रिशूल से मुझे पराजित कर दिया है; परंतु शंकरजी ने मुझे पुनः जीवित कर दिया है।

परशुराम की बात सुनकर परम धर्मात्मा राजा कार्तवीर्य ने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और यथार्थ बात कहना आरम्भ किया ।

राजा ने कहा — प्रभो ! मैंने क्या अध्ययन किया, क्या दान दिया अथवा पृथ्वी का क्या उत्तम शासन किया ? भूतल पर मेरे समान कितने भूपाल इस लोक से चले गये। मेरी बुद्धि, तेज, पराक्रम, विविध प्रकार की युद्ध-निपुणता, लक्ष्मी, ऐश्वर्य, ज्ञान, दान-शक्ति, लौकिक गुण, आचार, विनय, विद्या, प्रतिष्ठा, परम तप- ये सभी मनोरमा के साथ ही नष्ट हो गये । समय आने पर इन्द्र मानव हो जायँगे। समय आने पर ब्रह्मा भी मरेंगे। समय आने पर प्रकृति श्रीकृष्ण के शरीर में तिरोहित हो जायगी। समय आने पर सभी देवता मर जायँगे और समय आने पर त्रिलोकी में स्थित समस्त चर-अचर प्राणी नष्ट हो जाते हैं । काल का अतिक्रमण करना दुष्कर है। परात्पर श्रीकृष्ण उस काल-के-काल हैं और स्वेच्छानुसार सृष्टि-रचयिता के स्रष्टा, संहारकर्ता के संहारक और पालन करने वाले के पालक हैं। जो महान्, स्थूल से स्थूलतम, सूक्ष्म से सूक्ष्मतम, कृश, परमाणुपरक काल, कालभेदक काल है।

सारे विश्व जिसके रोयें हैं; वह महाविराट् पुरुष तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश के बराबर है, जिससे क्षुद्र विराट् उत्पन्न हुआ है, जो सबका उत्कृष्ट कारण है। जो स्वयं स्रष्टा है और ब्रह्मा जिसके नाभिकमल से उत्पन्न हुए हैं। उस समय ब्रह्मा यत्नपूर्वक लाखों वर्षों तक भ्रमण करने पर भी जब नाभिकमल के दण्ड का अन्त न पा सके, तब अपने स्थान पर स्थित हो गये। वहाँ उन्होंने वायु का आहार करके एक लाख वर्ष तक तप किया । तदनन्तर उन्हें गोलोक तथा पार्षद सहित श्रीकृष्ण के दर्शन हुए। उस समय श्रीकृष्ण गोप और गोपियों से घिरे हुए थे, उनके दो भुजाएँ थीं, हाथ में मुरली लिये हुए थे, रत्न-सिंहासन पर आसीन थे और राधा को वक्षःस्थल से लगाये हुए थे । उन्हें देखकर ब्रह्मा ने बारंबार प्रणाम किया और ईश्वरेच्छा जानकर उनकी आज्ञा ले सृष्टि की रचना करने में मन लगाया। शिव, जो सृष्टि के संहारक हैं, वे सृष्टि-कर्ता के ललाट से उत्पन्न हुए हैं। श्वेतद्वीपनिवासी क्षुद्र विराट् विष्णु पालनकर्ता हैं । सृष्टि के कारणभूत ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर सभी विश्वों में श्रीकृष्ण की कला से उत्पन्न हुए हैं। प्रकृति सबको जन्म देनेवाली है और श्रीकृष्ण प्रकृति से परे हैं । मायापति परमेश्वर भी उस प्रकृतिरूपिणी शक्ति के बिना सृष्टि का विधान करने में समर्थ नहीं हैं; क्योंकि माया बिना सृष्टि की रचना नहीं हो सकती। वह महेश्वरी माया नित्य है । वह सृष्टि, संहार और पालनकर्ता श्रीकृष्ण में छिपी रहती है और सृष्टि-रचना के समय प्रकट हो जाती है ।

जैसे मिट्टी के बिना कुम्हार घड़ा नहीं बना सकता और स्वर्ण के बिना सोनार कुण्डल का निर्माण कर नेमें असमर्थ है ( उसी तरह स्रष्टा माया के बिना सृष्टि- रचना नहीं कर सकते ) । वह शक्ति ईश्वर की इच्छा से सृष्टिकाल में राधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गादेवी और सरस्वती नाम से पाँच प्रकार की हो जाती हैं। परमात्मा श्रीकृष्ण की जो प्राणाधिष्ठात्री देवी हैं, वह प्राणों से भी बढ़कर प्रियतमा ‘राधा’ कही जाती हैं । जो सम्पूर्ण मङ्गलों को सम्पन्न करने वाली, परमानन्दरूपा तथा ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री देवी हैं: वे ‘पद्मा’ नाम से पुकारी जाती हैं। जो वेद, शास्त्र और योग की जननी, परम दुर्लभ और परमेश्वर की विद्या की अधिष्ठात्री देवी हैं; उनका नाम ‘सावित्री’ है । जो सर्वशक्तिस्वरूपिणी, सर्वज्ञानात्मिका, सर्वस्वरूपा और बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं; वे दुर्गनाशिनी ‘दुर्गा’ कहलाती हैं। जो वाणी की अधिष्ठात्री देवी और सदा शास्त्र-ज्ञान प्रदान करनेवाली हैं तथा जो श्रीकृष्ण के कण्ठ से उत्पन्न हुई हैं; वे देवी ‘सरस्वती’ कही जाती हैं । आदि में स्वयं मूलप्रकृति परमेश्वरीदेवी पाँच प्रकार की थीं । परंतु वे ही पीछे सृष्टि-क्रम से बहुत-सी कलाओं वाली हो गयीं। सृष्टि-काल में माया द्वारा स्त्रियाँ प्रकृति के और पुरुषगण पुरुष के अंश से उत्पन्न हुए; क्योंकि माया-शक्ति बिना सृष्टि नहीं हो सकती । ब्रह्मन् ! प्रत्येक विश्व में सृष्टि सदा ब्रह्मा से ही प्रकट होती है। विष्णु उसके पालक और निरन्तर मङ्गल प्रदान करनेवाले शिव संहारक हैं। परशुराम ! यह ज्ञान दत्तात्रेयजी का दिया हुआ है, उन्होंने पुष्करतीर्थ में माघी पूर्णिमा के दिन दीक्षा के अवसर पर मुनिवरों के संनिकट मुझे दिया था ।

इतना कहकर कार्तवीर्य ने मुस्कराते हुए परशुराम को नमस्कार किया और शीघ्र ही बाणसहित धनुष हाथ में लेकर वह रथ पर जा बैठा । तत्पश्चात् परशुराम ने श्रीहरि का स्मरण करते हुए ब्रह्मास्त्र द्वारा राजा की सेना का सफाया कर दिया । फिर लीलापूर्वक पाशुपतास्त्र का प्रयोग करके राजा की जीवनलीला समाप्त कर दी। इसी प्रकार परशुराम ने शिवजी का स्मरण करते हुए खेल-ही-खेल में क्रमशः इक्कीस बार पृथ्वी को राजाओं से शून्य कर दिया। परशुराम ने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करने के लिये क्षत्रियों के गर्भ में स्थित तथा माता की गोद में खेलने वाले शिशुओं का, नौजवानों का तथा वृद्धों का संहार कर डाला। इस प्रकार कार्तवीर्य गोलोक में श्रीकृष्ण के संनिकट चला गया और परशुराम श्रीहरि का स्मरण करते हुए अपने आश्रम को लौट गये। महेश्वर ने इक्कीस बार पृथ्वी को भूपालों से हीन देख और राम को फरसे द्वारा क्रीडा करते देखकर उनका नाम परशुराम रख दिया।

नारद! तब देवता, मुनि, देवियाँ, सिद्ध, गन्धर्व, किन्नर – ये सभी लोग परशुराम के मस्तक पर पुष्पों की वृष्टि करने लगे । स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बजने लगीं और हरिनाम-संकीर्तन होने लगा। इस प्रकार परशुराम के उज्ज्वल यश से सारा जगत् व्याप्त हो गया। फिर ब्रह्मा, भृगु, शुक्र, च्यवन, वाल्मीकि तथा परम प्रसन्न हुए जमदग्नि ब्रह्मलोक से वहाँ पधारे। उनके सारे अङ्ग पुलकायमान थे और नेत्रों में आनन्द के आँसू छलक आये थे। वे सभी हाथ में दूब और पुष्प लेकर मङ्गलाशासन कर रहे थे। तब परशुराम ने दण्ड की भाँति भूमि पर लेटकर उन सबको प्रणाम किया। तब क्रमशः ‘तात’ यों कहते हुए पहले ब्रह्मा ने उन्हें अपनी गोद में बैठा लिया । फिर जगद्गुरु स्वयं ब्रह्मा परशुराम से हितकारक, नीतियुक्त, वेद का सारतत्त्व और परिणाम में सुखदायक वचन बोले ।

ब्रह्मा ने कहा — राम ! जो सम्पूर्ण सम्पत्तियों को देनेवाला परमोत्कृष्ट, सर्वसम्मत और सत्य है, वह काण्वशाखोक्त वचन कहता हूँ, सुनो। जो सभी पूजनीयों में इष्ट, पूज्यतम और प्रधान है, वह जन्म देने के कारण जनक और पालन करने के कारण पिता कहा जाता है। किंतु मुने! जो अन्नदाता पिता है, वह जन्मदाता पिता से बड़ा है; क्योंकि पिता से उत्पन्न हुआ शरीर अन्न के बिना नित्य क्षीण होता जाता है। माता उन दोनों से सौ गुनी पूज्या, मान्या और वन्दनीया है; क्योंकि गर्भ धारण करने और पालन-पोषण करने से वह उन दोनों से बड़ी है। श्रुति में ऐसा सुना गया है कि अपना अभीष्टदेव उन सबसे सौगुना बढ़कर पूज्य है और ज्ञान, विद्या तथा मन्त्र देने वाला गुरु अभीष्टदेव से भी बढ़कर है । गुरुपुत्र गुरु की भाँति ही मान्य है; किंतु गुरुपत्नी उससे भी अधिक पूज्या है।

देवता के रुष्ट होने पर गुरु रक्षा कर लेते हैं, परंतु गुरु के क्रुद्ध होने पर कोई भी रक्षा नहीं कर सकता। इसलिये गुरु ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु, गुरु ही महेश्वरदेव, गुरु ही परब्रह्म और ब्राह्मणों से भी बढ़कर प्रिय हैं। गुरु ही ज्ञान देते हैं और वह ज्ञान हरि-भक्ति उत्पन्न करता है । इस प्रकार जो हरि-भक्ति प्रदान करनेवाला है, उससे बढ़कर बन्धु दूसरा कौन है ? अज्ञानरूपी अन्धकार से आच्छादित हुए मनुष्य को जहाँ से ज्ञानरूपी दीपक प्राप्त होता है, जिसे पाकर सब कुछ निर्मल दीखने लगता है, उससे बढ़कर बन्धु जप दूसरा कौन है ? गुरु के दिये हुए मन्त्र का करने से ज्ञान की प्राप्ति होती है और उस ज्ञान से सर्वज्ञता तथा सिद्धि मिलती है; अतः गुरु से बढ़कर बन्धु दूसरा कौन है ? गुरु द्वारा दी गयी जिस विद्या के बल से मनुष्य सर्वत्र सुखपूर्वक विजयी होता है और जगत् में पूज्य भी हो जाता गुरु से बढ़कर बन्धु दूसरा कौन है ? हे पुत्र ! श्रीकृष्ण तुम्हारे अभीष्टदेव हैं और स्वयं शंकर गुरु हैं; अत: तुम अभीष्टदेव से भी बढ़कर पूजनीय गुरु की शरण ग्रहण करो। जिनके आश्रय से तुमने इक्कीस बार पृथ्वी को भूपालों से रहित कर दिया है और श्रीहरि की भक्ति प्राप्त की है; उन शिव की शरण में जाओ । जो मङ्गलस्वरूप, कल्याण की मूर्ति, कल्याणदाता, कल्याण के कारण, पार्वती के आराध्य और शान्तरूप हैं; अपने गुरुदेव उन शिव की शरण में जाओ। तुम्हारे इष्टदेव जो गोलोकनाथ भगवान् श्रीकृष्ण हैं, वे ही अपने अंश से शिव का रूप धारण करके तुम्हारे गुरु हुए हैं, अतः उन्हीं की शरण ग्रहण करो। बेटा! समस्त प्राणियों में श्रीकृष्ण आत्मा हैं, शिव ज्ञान हैं, मैं मन हूँ और विष्णु की सारी शक्तियों से सम्पन्न प्रकृति प्राण है। जो ज्ञानदाता, ज्ञानस्वरूप, ज्ञान के कारण, सनातन मृत्यु को जीतने वाले तथा काल के भी काल हैं; उन गुरु की शरण में जाओ । जो ब्रह्मज्योतिः स्वरूप, भक्तों के लिये मूर्तिमान् अनुग्रह, सर्वज्ञ, ऐश्वर्यशाली और सनातन हैं; उन गुरुदेव की शरण का आश्रय लो। प्रकृतिस्वरूपिणी पार्वती ने लाखों वर्षों तक तपस्या करके जिन परमेश्वर को अपने मनोनीत प्रियतम पति के रूप में प्राप्त किया है; उन गुरुदेव की शरण ग्रहण करो। नारद! इतना कहकर कमलजन्मा ब्रह्मा मुनियों के साथ चले गये । तब परशुराम ने भी कैलास जाने का विचार किया।   ( अध्याय ४० )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे भृगोः कैलासगमनोपदेशो नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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