February 11, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 06 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ छठवाँ अध्याय पार्वतीजी का व्रतारम्भ के लिये उद्योग, ब्रह्मादि देवों तथा ऋषि आदि का आगमन, शिवजी द्वारा उनका सत्कार तथा श्रीविष्णु से पुण्यक व्रत के विषय में प्रश्न, श्रीविष्णु का व्रत के माहात्म्य तथा गणेश की उत्पत्ति का वर्णन करना नारदजी ने पूछा — मुनिश्रेष्ठ ! पार्वतीजी ने पति की आज्ञा से किस प्रकार उस शुभदायक व्रत का पालन किया था, वह मुझे बतलाइये। ब्रह्मन् ! तत्पश्चात् उत्तम व्रत वाली पार्वती के द्वारा उस व्रत के पूर्ण किये जाने पर गोपीश श्रीकृष्ण ने किस प्रकार जन्म धारण किया, वह मुझे बतलाने की कृपा कीजिये । श्रीनारायण ने कहा — नारद! शिवजी यद्यपि स्वयं ही तप के विधाता हैं तथापि वे पार्वती से व्रत की विधि तथा उसकी दिव्य कथा का वर्णन करके तप करने के लिये चले गये । यद्यपि शिवजी श्रीहरि के ही पृथक् स्वरूप हैं तथापि वे वहाँ श्रीहरि की आराधना में संलग्न होकर उन्हीं के ध्यान में तत्पर हो श्रीहरि की भावना करने लगे। वे सनातनदेव ज्ञानानन्द में निमग्न तथा परमानन्द से परिपूर्ण थे और प्रकटरूप से विष्णुमन्त्र के स्मरण में इस प्रकार तल्लीन थे कि उन्हें रात-दिन का आना-जाना ज्ञात नहीं होता था। इधर शुभदायिनी पार्वतीदेवी ने पति के आज्ञानुसार हर्षपूर्ण मन से व्रतकार्य के लिये ब्राह्मणों तथा भृत्यों को प्रेरित किया और व्रतोपयोगी सभी वस्तुओं को मँगवाकर शुभ मुहूर्त में व्रत करना आरम्भ किया । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय उसी समय ब्रह्मा के पुत्र भगवान् सनत्कुमार वहाँ आ पहुँचे। वे तेज के मूर्तिमान् राशि थे और ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे। तदनन्तर पत्नी सहित ब्रह्मा भी प्रसन्नतापूर्वक ब्रह्मलोक से वहाँ पधारे । अत्यन्त भयभीत हुए भगवान् महेश्वर भी वहाँ आये। नारद! जो क्षीरसागर में शयन करते हैं तथा जगत् के शासक और पालन-पोषण करनेवाले हैं, जिनके गले में वनमाला लटकती रहती है, जो रत्नों के आभूषणों से विभूषित हैं तथा जिनके शरीर का वर्ण श्याम है, वे चार भुजाधारी भगवान् विष्णु लक्ष्मी तथा पार्षदों के साथ बहुत-सी सामग्री लिये हुए रत्नजटित विमान पर आरूढ़ हो वहाँ उपस्थित हुए । तत्पश्चात् सनक, सनन्दन, कपिल, सनातन, आसुरि, क्रतु, हंस, वोढु, पञ्चशिख, आरुणि, यति, सुमति, अनुयायियोंसहित वसिष्ठ, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, भृगु, अङ्गिरा, अगस्त्य, प्रचेता, दुर्वासा, च्यवन, मरीचि, कश्यप, कण्व, जरत्कारु, गौतम, बृहस्पति, उतथ्य, संवर्त, सौभरि, जाबालि, जमदग्नि, जैगीषव्य, देवल, गोकामुख, वक्ररथ, पारिभद्र, पराशर, विश्वामित्र, वामदेव, ऋष्यशृङ्ग, ऋष्यशृङ्ग, विभाण्डक, मार्कण्डेय, मृकण्डु, पुष्कर, लोमश, कौत्स, वत्स, दक्ष, बालाग्नि, अघमर्षण, कात्यायन, कणाद, पाणिनि, शाकटायन, शङ्कु, आपिशलि, शाकल्य, शङ्ख —ये तथा और भी बहुत-से मुनि शिष्योंसहित वहाँ पधारे। मुने! धर्मपुत्र नर-नारायण भी आये । पार्वती के उस व्रत में दिक्पाल, देवता, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर और गणों सहित सभी पर्वत भी उपस्थित हुए। शैलराज हिमालय, जो अनन्त रत्नों के उद्भवस्थान हैं, कौतुकवश अपनी कन्या के व्रत में रत्नाभरणों से अलंकृत हो पत्नी, पुत्र, गण और अनुयायियों सहित पधारे। उनके साथ नाना प्रकार के द्रव्यों से संयुक्त बहुत बड़ी सामग्री थी । उसमें व्रतोपयोगी मणि-माणिक्य और रत्न थे । अनेक प्रकार की ऐसी वस्तुएँ थीं, जो संसार में दुर्लभ हैं । एक लाख गज-रत्न, तीन लाख अश्व-रत्न, दस लाख गो-रत्न, एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ, चार लाख मुक्ता, एक सहस्र कौस्तुभमणि और अत्यन्त स्वादिष्ट तथा मीठे पदार्थों के एक लाख भार थे। इसके अतिरिक्त पार्वती के व्रत में ब्राह्मण, मनु, सिद्ध, नाग और विद्याधरों के समुदाय तथा संन्यासी, भिक्षुक और बंदीगण भी आये । उस समय कैलास पर्वत के राजमार्गों पर चन्दन का छिड़काव किया गया था । पद्मरागमणि के बने हुए शिवमन्दिर में आम के पल्लवों की बंदनवारें बँधी थीं। कदली के खंभे उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । वह दूब, धान्य, पत्ते, खील, फल और पुष्पों से सुसज्जित था । उपस्थित सारा जन-समुदाय आनन्दपूर्वक उसे निहार रहा था। सारे कैलासवासी परमानन्द में निमग्न थे । तदनन्तर शंकरजी ने समागत अतिथियों को ऊँचे-ऊँचे सिंहासनों पर बैठाकर उनका आदर-सत्कार किया । पार्वती के इस व्रत में इन्द्र दानाध्यक्ष, कुबेर कोषाध्यक्ष, स्वयं सूर्य आदेश देने वाले और वरुण परोसने के काम पर नियुक्त थे । उस समय दही, दूध, घृत, गुण, चीनी, तेल और मधु आदि की लाखों नदियाँ बहने लगी थीं। इसी प्रकार गेहूँ, चावल, जौ और चिउरे आदि के पहाड़ों-के-पहाड़ लग गये थे । महामुने! पार्वती के व्रत में कैलास पर्वत पर सोना, चाँदी, मूँगा और मणियों के पर्वत-सरीखे ढेर लगे हुए थे । लक्ष्मी ने भोजन तैयार किया था, जिसमें परम मनोहर खीर, पूड़ी, अगहनी का चावल और घृत से बने हुए अनेकविध व्यञ्जन थे । देवर्षिगणों के साथ स्वयं नारायण ने भोजन किया। उस समय एक लाख ब्राह्मण परोसने का काम कर रहे थे । ( भोजन कर लेने के पश्चात्) जब वे रत्न-सिंहासनों पर विराजमान हुए, तब परम चतुर लाखों ब्राह्मणों ने उन्हें कर्पूर आदि से सुवासित पान के बीड़े समर्पित किये। ब्रह्मन् ! देवर्षियों से भरी हुई उस सभा में जब क्षीरसागरशायी भगवान् विष्णु रत्नसिंहासन पर आसीन थे, प्रसन्न मुख वाले पार्षद उन पर श्वेत चँवर डुला रहे थे, ऋषि, सिद्ध तथा देवगण उनकी स्तुति कर रहे थे, वे गन्धर्वों के मनोहर गीत सुन रहे थे, उसी समय ब्रह्मा की प्रेरणा से शंकरजी ने हाथ जोड़कर भक्तिपूर्वक उन ब्रह्मेश से अपने अभीष्ट कर्तव्य व्रत के विषय में प्रश्न किया । श्रीमहादेवजी ने पूछा — प्रभो ! आप श्रीनिवास, तपःस्वरूप, तपस्याओं और कर्मों के फलदाता, सबके द्वारा पूजित, सम्पूर्ण व्रतों, जप-यज्ञों और पूजनों के बीजरूप से वाञ्छाकल्पतरु और पापों का हरण करने वाले हैं। नाथ! मेरी एक प्रार्थना सुनिये। ब्रह्मन् ! पुत्रशोक से पीड़ित हुई पार्वती का हृदय दु:खी हो गया है, अतः वह पुत्र की कामना से परमोत्तम पुण्यक व्रत करना चाहती है । वह सुव्रता व्रत के फलस्वरूप में उत्तम पुत्र और पति-सौभाग्य की याचना कर रही है। इनके बिना उसे संतोष नहीं है । प्राचीन काल में इस मानिनी ने अपने पिता के यज्ञ में मेरी निन्दा होने के कारण अपने शरीर का त्याग कर दिया था और अब पुनः हिमालय के घर में जन्म धारण किया है। यह सारा वृत्तान्त तो आप जानते ही हैं, आप सर्वज्ञ को मैं क्या बतलाऊँ । तत्त्वज्ञ ! इस विषय में आपकी क्या आज्ञा है ? आप परिणाम में शुभप्रदायिनी अपनी वह आज्ञा बतलाइये । नाथ ! मैंने सब कुछ निवेदन कर दिया है, अब जो कर्तव्य हो, उसे बताने की कृपा कीजिये; क्योंकि परामर्शपूर्वक किया हुआ सारा कार्य परिणाम में सुखदायक होता है । श्रीनारायणजी कहते हैं — नारद! उस सभा में यों कहकर भगवान् शंकर ने कमलापति विष्णु की स्तुति की और फिर ब्रह्मा के मुख की ओर देखकर वे चुप हो गये । शंकरजी का वचन सुनकर जगदीश्वर विष्णु ठठाकर हँस पड़े और हितकारक तथा नीतिपूर्ण वचन कहने लगे । श्रीविष्णु ने कहा — पार्वतीश्वर ! आपकी पत्नी सती संतान प्राप्ति के लिये जिस उत्तम पुण्यक-व्रत को करना चाहती है, वह व्रतों का सारतत्त्व, स्वामि-सौभाग्य का बीज, सबके द्वारा असाध्य, दुराराध्य, सम्पूर्ण अभीष्ट फल का दाता, सुखदायक, सुख का सार तथा मोक्षप्रद है। जो सबके आत्मा, साक्षीस्वरूप, ज्योतिरूप, सनातन, आश्रयरहित, निर्लिप्त, उपाधिहीन, निरामय, भक्तों के प्राणस्वरूप, भक्तों के ईश्वर, भक्तों पर अनुग्रह करने वाले, दूसरों के लिये दुराराध्य, परंतु भक्तों के लिये सुसाध्य, भक्ति के वशीभूत, सर्वसिद्ध और कलारहित हैं, ये ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर जिन पुरुष की कलाएँ हैं, महान् विराट् जिनका एक अंश है, जो निर्लिप्त, प्रकृति से परे, अविनाशी, निग्रहकर्ता, उग्रस्वरूप, भक्तों के लिये मूर्तिमान् अनुग्रहस्वरूप, ग्रहों में उग्र ग्रह और ग्रहों का निग्रह करने वाले हैं, वे भगवान् आपके बिना करोड़ों जन्मों में भी साध्य नहीं हो सकते। सूर्य, शिव, नारायणी माया, कला आदि की दीर्घकाल तक उपासना करने के बाद मनुष्य भक्त-संसर्ग की हेतुस्वरूपा कृष्णभक्ति को पाता है। शिवजी ! उस निष्पक्व भक्ति को पाकर भारतवर्ष में बारंबार भ्रमण करते हुए जब भक्तों की सेवा करने से उसकी भक्ति परिपक्व हो जाती है, तब भक्तों की कृपा से तथा देवताओं के आशीर्वाद से उसे श्रीकृष्ण-मन्त्र प्राप्त होता है, जो परमोत्कृष्ट निर्वाणरूप फल प्रदान करने वाला है । कृष्णव्रत और कृष्णमन्त्र सम्पूर्ण कामनाओं के फल के प्रदाता हैं । चिरकाल तक श्रीकृष्ण की सेवा करने से भक्त श्रीकृष्ण-तुल्य हो जाता है । महाप्रलय के अवसर पर समस्त प्राणियों का विनाश हो जाता है — यह सर्वथा निश्चित है; परंतु जो कृष्णभक्त हैं, वे अविनाशी हैं। उन साधुओं का नाश नहीं होता । शिवजी ! श्रीकृष्णभक्त अत्यन्त निश्चिन्त होकर अविनाशी गोलोक में आनन्द मनाते हैं । महेश्वर ! आप सबका संहार करने वाले हैं, परंतु कृष्णभक्तों पर आपका वश नहीं चलता । उसी प्रकार माया सबको मोहग्रस्त कर लेती है, परंतु मेरी कृपा से वह भक्तों को नहीं मोह पाती । नारायणी माया समस्त प्राणियों की माता है । वह कृष्णभक्ति का दान करने वाली है, वह नारायणी माया मूलप्रकृति, अधीश्वरी, कृष्णप्रिया, कृष्णभक्ता, कृष्णतुल्या, अविनाशिनी, तेजःस्वरूपा और स्वेच्छानुसार शरीर धारण करने वाली है । (दैत्योंद्वारा) सुरनिग्रह के अवसर पर वह देवताओं के तेज से प्रकट हुई थी । उसने दैत्यसमूहों का संहार करके दक्ष के अनेक जन्मों की तपस्या के फलस्वरूप भारतवर्ष में दक्षपत्नी के गर्भ से जन्म लिया । फिर वह सतीदेवी, जो सनातनी कृष्णशक्ति हैं पिता के यज्ञ में आपकी निन्दा होने के कारण शरीर का त्याग करके गोलोक को चली गयीं। शंकर ! तब पूर्वकाल में आप उनके रूप तथा गुण के आश्रयभूत परम सुन्दर शरीर को लेकर भारतवर्ष में भ्रमण करते हुए दुःखी हो गये थे । उस समय श्रीशैल पर नदी के किनारे मैंने आपको समझाया था। फिर उसी देवी ने शीघ्र ही शैलराज की पत्नी के गर्भ से जन्म लिया । शंकर ! उत्तम व्रत का आचरण करने वाली साध्वी शिवा पुण्यक नामक उत्तम व्रत का अनुष्ठान करें । इस व्रत पालन से सहस्रों राजसूय यज्ञों का पुण्य प्राप्त होता है । त्रिलोचन ! इस व्रत में सहस्रों राजसूय यज्ञों के समान धन का व्यय होता है, अतः यह व्रत सभी साध्वी महिलाओं द्वारा साध्य नहीं है। इस पुण्यक व्रत के प्रभाव से स्वयं गोलोकनाथ श्रीकृष्ण पार्वती के गर्भ से उत्पन्न होकर आपके पुत्र होंगे। वे कृपानिधि स्वयं समस्त देवगणों के ईश्वर हैं, इसलिये त्रिलोकी में ‘गणेश’ नाम से विख्यात होंगे। जिनके स्मरणमात्र से निश्चय ही जगत् विघ्नों का नाश हो जाता है, इस कारण उन विभु का नाम ‘विघ्ननिघ्न’ हो गया। चूँकि पुण्यक – व्रत में उन्हें नाना प्रकार के द्रव्य समर्पित किये जाते हैं, जिन्हें खाकर उनका उदर लंबा हो जाता है; अतः वे ‘लम्बोदर’ कहलायेंगे । शनि की दृष्टि पड़ने से सिर के कट जाने पर पुनः हाथी का सिर जोड़ा जायगा, इस कारण उन्हें ‘गजानन’ कहा जायगा । परशुरामजी के फरसे से जब इनका एक दाँत टूट जायगा, तब ये अवश्य ही ‘एकदन्त’ नाम वाले होंगे। वे ऐश्वर्यशाली शिशु सम्पूर्ण देवगणों के, हम लोगों के तथा जगत् के पूज्य होंगे। मेरे वरदान से उनकी सबसे पहले पूजा होगी । सम्पूर्ण देवों की पूजा के समय सबसे पहले उनकी पूजा करके मनुष्य निर्विघ्नतापूर्वक पूजा के फल को पा लेता है, अन्यथा उसकी पूजा व्यर्थ हो जाती है। मनुष्यों को चाहिये कि गणेश, सूर्य, विष्णु, शम्भु, अग्नि और दुर्गा – इन सबकी पहले पूजा करके तब अन्य देवता का पूजन करे । गणेश का पूजन करने पर जगत् के विघ्न निर्मूल हो जाते हैं। सूर्य की पूजा से नीरोगता आती है । श्रीविष्णु के पूजन से पवित्रता, मोक्ष, पापनाश, यश और ऐश्वर्य की वृद्धि होती है। शंकर का पूजन तत्त्वज्ञान के विषय में परम तृप्ति का बीज है। अग्नि का पूजन अपनी बुद्धि की शुद्धि का उत्पादक कहा गया है। ब्रह्मा द्वारा संस्कृत अग्नि की पूजा से मनुष्य अन्त समय में ज्ञान- मृत्यु को प्राप्त करता है तथा शंकराग्नि के सेवन से दाता और भोक्ता होता है। दुर्गा की अर्चना हरिभक्ति प्रदान करने वाली तथा परम मङ्गलदायिनी होती है। इनकी पूजा के बिना अन्य की पूजा करने से वह पूजन विपरीत हो जाता है। महादेव ! त्रिलोकी के लिये यही क्रम प्रत्येक कल्प में निश्चित है । ये देव निरन्तर विद्यमान रहनेवाले, नित्य तथा सृष्टिपरायण हैं । इनका आविर्भाव और तिरोभाव ईश्वर की इच्छा पर ही निर्भर है। उस सभा के बीच यों कहकर श्रीहरि मौन हो गये। उस समय देवता, ब्राह्मण तथा पार्वतीसहित शंकर परम प्रसन्न हुए । (अध्याय ६ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणेशखण्डे नारदनारायणसंवादे व्रताज्ञाग्रहणं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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