ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 37
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
सैंतीसवाँ अध्याय
महालक्ष्मी के देवलोक-त्याग और इन्द्र के दुःखी होकर बृहस्पति के पास जाने का वर्णन

नारदजी ने पूछा —भगवान् श्रीहरि का गुणगान सुनकर इन्द्र को जब ज्ञान प्राप्त हो गया, तब उन्होंने घर जाकर क्या किया ? यह मुझे बताने की कृपा करें।

भगवान् नारायण बोले — ब्रह्मन् ! श्रीकृष्ण का गुणगान सुनकर इन्द्र संसार के ऐश्वर्य-भोग से विरक्त हो गये। वे दिनोंदिन अपने वैराग्य-भाव को बढ़ाने लगे। मुनिवर दुर्वासा के पास से घर जाकर उन्होंने अपनी अमरावतीपुरी की दशा देखी। वह दैत्यों तथा असुर-समूहों से भरी होने के कारण भय से व्याकुल जान पड़ती थी । उस पुरी में कहीं तो उनके बन्धु-बान्धव विषाद में डूबे थे और कहीं-कहीं के बन्धुजन पुरी छोड़कर बाहर चले गये थे। अपनी पुरी को पिता-माता- पत्नी आदि से रहित, अत्यन्त हलचल से पूर्ण तथा शत्रुओं से आक्रान्त देखकर इन्द्रदेव गुरु बृहस्पति के पास गये।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


उस समय शक्तिशाली बृहस्पतिजी मन्दाकिनी के तट पर विराजमान हो परब्रह्म परमात्मा का ध्यान करते हुए देवराज इन्द्र को दृष्टिगोचर हुए। फिर देखा तो वे गङ्गा के जल में पूर्वाभिमुख खड़े होकर सूर्य का अभिवादन कर रहे थे। उनके नेत्रों में हर्ष के आँसू भरे थे। उनका शरीर पुलकित था । वे अत्यन्त आनन्दित थे । वे परम श्रेष्ठ, गाम्भीर्य-सम्पन्न, धर्मात्मा, श्रेष्ठ पुरुषों से सेवित, बन्धुवर्ग में आदरणीय, भ्रातृ-समुदाय में ज्येष्ठ तथा देव-शत्रुओं के लिये अनिष्टकारी गुरुवर बृहस्पतिजी मन्त्र का जप कर रहे थे ।

देवराज एक पहर तक उन्हें देखते रह गये । तत्पश्चात् उन्हें ध्यान से उपरत देखकर प्रणाम किया। फिर वे गुरुदेव के चरणकमलों में मस्तक झुकाकर उच्च-स्वर से रोने लगे । तदनन्तर दुर्वासाजी के द्वारा दिये गये शाप के सम्बन्ध की सारी बातें इन्द्र ने बृहस्पतिजी को बतायीं । इन्द्र की सारी बातें सुनकर परम बुद्धिमान् एवं वक्ताओं में श्रेष्ठ बृहस्पतिजी ने इस प्रकार कहा ।

बृहस्पति बोले — सुरश्रेष्ठ! मैं सब कुछ सुन चुका हूँ। तुम विषाद मत करो; मेरी बात सुनो। नीतिज्ञ पुरुष विपत्ति के अवसर पर कभी भी घबराता नहीं है; क्योंकि यह विपत्ति और सम्पत्ति स्वप्नरूपिणी है। इसे नश्वर कहा जाता है । यह सम्पत्ति और विपत्ति अपने ही पूर्वजन्म में किये हुए कर्म का फल है। जीव स्वयं ही उन दोनों का निर्माता है । प्रायः सम्पूर्ण प्राणियों के लिये प्रत्येक जन्म में यही शाश्वत नियम है। चक्र की भाँति वह सदा घूमता रहता है; फिर इस विषय में चिन्ता किस बात की ? शुभ हो अथवा अशुभ, जिस किसी प्रकार के अपने कर्मफल को भोगने के लिये ही पुरुष शरीर प्राप्त करता है । शतकोटि कल्प क्यों न बीत जायँ, किंतु बिना भोग किये कर्म का अन्त नहीं होता । अपने किये हुए शुभाशुभ कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।

इस प्रकार की बातें परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण ने ब्रह्माजी को सम्बोधित करके सामवेद की कौथुमी शाखा में कही हैं। किये हुए सम्पूर्ण कर्मों का भोग शेष रह जाने पर कर्मानुसार प्राणियों का भारतवर्ष में अथवा कहीं अन्यत्र जन्म होता है। करोड़ों जन्मों के किये हुए कर्म प्राणी के पीछे लगे रहते हैं। पुरन्दर ! छाया की भाँति वे बिना भोगे अलग नहीं होते। काल, देश और पात्र के भेद से कर्मों में न्यूनाधिकता हुआ ही करती है। जिस प्रकार कुशल कुम्भकार दण्ड, चक्र, शराव और भ्रमण के द्वारा क्रमशः मिट्टी से सुन्दर घट का निर्माण कर लेता है, उसी प्रकार विधाता कर्मसूत्र से प्राणियों को फल प्रदान करते हैं । अतः देवराज! जिनकी आज्ञा से इस जगत् की सृष्टि हुई  है, उन भगवान् नारायण की तुम उपासना करो । वे प्रभु त्रिलोकी में विधाता के विधाता, रक्षक के रक्षक, स्रष्टा के स्रष्टा, संहर्ता के संहारकर्ता तथा काल के भी काल हैं ।

महाविपत्तौ संसारे यः स्मरेन्मधुसूदनम् ।
विपत्तौ तस्य सम्पत्तिर्भवेदित्याह शङ्करः ॥ ४० ॥

जो पुरुष महान् विपत्ति के अवसर पर उन भगवान् मधुसूदन का स्मरण करता है, उसके लिये उस विपत्ति में भी सम्पत्ति की ही भावना उत्पन्न हो जाती है; ऐसा भगवान् शंकर ने आदेश दिया है ।

नारद! इस प्रकार कहकर तत्त्वज्ञानी बृहस्पतिजी ने देवराज इन्द्र को हृदय से लगा लिया और शुभाशीर्वाद देकर उन्हें पूर्णरूप से सारी बातें समझा दीं। (अध्याय ३७ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे बृहस्पतिमहेन्द्रसंवादे महालक्ष्म्युपाख्याने कर्मफलनिरूपणं नाम सप्तत्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३७ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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