ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 04
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
चौथा अध्याय
सरस्वती की पूजा का विधान तथा कवच

नारदजी ने कहा भगवन्! आपके कृपा-प्रसाद से यह अमृतमयी सम्पूर्ण कथा मुझे सुनने को मिली है। अब आप इन प्रकृति-संज्ञक देवियों के पूजन का प्रसंग विस्तार के साथ बताने की कृपा कीजिये । किस पुरुष ने किन देवी की कैसे आराधना की है? मर्त्यलोक में किस प्रकार उनकी पूजा का प्रचार हुआ ? मुने! किस मन्त्र से किनकी पूजा तथा किस स्तोत्र से किनकी स्तुति की गयी है ? किन देवियों ने किनको कौन-कौन-से वर दिये हैं ? मुझे देवियों के कवच, स्तोत्र, ध्यान, प्रभाव और पावन चरित्र के साथ-साथ उपर्युक्त सारी बातें बताने की कृपा कीजिये ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


नारायण ऋषि बोले — नारद! गणेशजननी दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री — ये पाँच देवियाँ सृष्टि की पञ्चविध प्रकृति कही जाती हैं। इनकी पूजा और अद्भुत प्रभाव प्रसिद्ध है । इनका अमृतोपम चरित्र समस्त मङ्गलों की प्राप्ति का कारण है। ब्रह्मन्! जो प्रकृति की अंशभूता और कलास्वरूपा देवियाँ हैं, उनके पुण्य चरित्र तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो। इन देवियों के नाम हैं- वाणी, वसुन्धरा, गङ्गा, षष्ठी, मङ्गल-चण्डिका, तुलसी, मनसा, निद्रा, स्वधा, स्वाहा और दक्षिणा । ये तेज, रूप और गुण में मेरी समानता करने वाली हैं। इनके चरित्र पुण्यदायक तथा श्रवण सुखद हैं; जीवों के कर्मों का सुखद परिणाम प्रकट करने वाले हैं । दुर्गा और राधा का चरित्र बहुत विस्तृत है । संक्षेप से उसे पीछे कहूँगा । इस समय क्रमशः सुनो, मुनिवर !

सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्ण ने सरस्वती की पूजा की है, जिनके प्रसाद से मूर्ख भी पण्डित बन जाता है। इन कामस्वरूपिणी देवी ने श्रीकृष्ण को पाने की इच्छा प्रकट की थी। ये सरस्वती सबकी माता कही जाती हैं । सर्वज्ञानी भगवान् श्रीकृष्ण ने इनका अभिप्राय समझकर सत्य, हितकर तथा परिणाम में सुख देने वाले वचन कहे ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — साध्वी ! तुम नारायण की सेवा स्वीकार करो। वे मेरे ही अंश हैं। उनकी चार भुजाएँ हैं । उन परम सुन्दर तरुण पुरुष में मेरे ही समान सभी सद्गुण वर्तमान हैं । करोड़ों कामदेवों के समान उनकी सुन्दरता है । वे कामिनियों की कामना पूर्ण करने में समर्थ हैं। मैं सबका स्वामी हूँ। सभी मेरा अनुशासन मानते हैं । किंतु राधा की इच्छा का प्रतिबन्धक मैं नहीं हो सकता। कारण, वे तेज, रूप और गुण – सबमें मेरे समान हैं। सबको प्राण अत्यन्त प्रिय हैं, फिर मैं अपने प्राणों की अधिष्ठात्री देवी इन राधा का त्याग करने में कैसे समर्थ हो सकता हूँ ? भद्रे ! तुम वैकुण्ठ पधारो। तुम्हारे लिये वहीं रहना हितकर होगा।

सर्वसमर्थ विष्णु को अपना स्वामी बनाकर दीर्घ काल तक आनन्द का अनुभव करो। तेज, रूप और गुण में तुम्हारे ही समान उनकी एक पत्नी लक्ष्मी भी वहाँ हैं । लक्ष्मी में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मान और हिंसा — ये नाममात्र भी नहीं हैं। उनके साथ तुम्हारा समय सदा प्रेमपूर्वक सुख व्यतीत होगा। विष्णु तुम दोनों का समानरूप से सम्मान करेंगे । सुन्दरि ! प्रत्येक ब्रह्माण्ड में माघ शुक्ल पञ्चमी के दिन विद्यारम्भ के शुभ अवसर पर बड़े गौरव के साथ तुम्हारी विशाल पूजा होगी। मेरे वर के प्रभाव से आज से लेकर प्रलय-पर्यन्त प्रत्येक कल्प में मनुष्य, मनुगण, देवता, मोक्षकामी प्रसिद्ध मुनिगण, वसु, योगी, सिद्ध, नाग, गन्धर्व और राक्षस — सभी बड़ी भक्ति के साथ सोलह प्रकार के उपचारों के द्वारा तुम्हारी पूजा करेंगे।

उन संयमशील जितेन्द्रिय पुरुषों के द्वारा कण्वशाखा (कण्व शाखा शुक्ल यजुर्वेद की सबसे पुरानी शाखा (“शाखा” या “पुनरावृत्ति”) है । कण्व परंपरा का पालन ज्यादातर तमिलनाडु , उड़ीसा , कर्नाटक , महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों , मध्य प्रदेश , गुजरात और आंध्र प्रदेश में किया जाता है । कण्व शाखा शंकराचार्य के जन्म काल के आसपास काफी प्रचलित थी । शुक्ल यजुर्वेद के परम्परा आचार्य ( मुख्य संस्थापक गुरु) ऋषि याज्ञवल्क्य थे । कण्व शाखा के लिए मुख्य संहिता कण्व संहिता है और संबंधित ब्राह्मण कण्व शतपथ ब्राह्मण है । कण्व शाखा के मुख्य उपनिषद ईशावास्य उपनिषद और बृहदारण्यक उपनिषद हैं । कण्व शाखा का श्रौत सूत्र कात्यायन श्रौत सूत्र है और गृह्य सूत्र पारस्कर गृह सूत्र है ।) में कही हुई विधि के अनुसार तुम्हारा ध्यान और पूजन होगा। वे कलश अथवा पुस्तक में तुम्हें आवाहित करेंगे। तुम्हारे कवच को भोजपत्र पर लिखकर उसे सोने की डिब्बी में रख गन्ध एवं चन्दन आदि से सुपूजित करके लोग अपने गले में अथवा दाहिनी भुजा में धारण करेंगे। पूजा के पवित्र अवसर पर विद्वान् पुरुषों के द्वारा तुम्हारा सम्यक् प्रकार से स्तुति-पाठ होगा ।

इस प्रकार कहकर सर्वपूजित भगवान् श्रीकृष्ण ने देवी सरस्वती की पूजा की। तत्पश्चात् ब्रह्मा, विष्णु शिव, अनन्त, धर्म, मुनीश्वर, सनकगण, देवता, मुनि, राजा और मनुगण — इन सबने भगवती सरस्वती की आराधना की। तब से ये सरस्वती सम्पूर्ण प्राणियों द्वारा सदा पूजित होने लगी ।

नारदजी बोले — वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ प्रभो ! आप भगवती सरस्वती की पूजा का विधान, स्तवन, ध्यान, अभीष्ट कवच, पूजनोपयोगी नैवेद्य, फूल तथा चन्दन आदि का परिचय देने की कृपा कीजिये । इसे सुनने के लिये मेरे हृदय में बड़ा कौतूहल हो रहा है।

मुनिवर भगवान् नारायण ने कहा — नारद! सुनो। कण्वशाखा में कही हुई पद्धति बतलाता हूँ । इसमें जगन्माता सरस्वती के पूजन की विधि वर्णित है । माघ शुक्ल पञ्चमी विद्यारम्भ की मुख्य तिथि है । उस दिन पूर्वाह्नकाल में ही प्रतिज्ञा करके संयमशील एवं पवित्र हो, स्नान और नित्य-क्रिया के पश्चात् भक्तिपूर्वक कलशस्थापन करे । फिर नैवेद्य आदि से निम्नाङ्कित छः देवताओं का पूजन करे।

पहले गणेश का, फिर सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और पार्वती का पूजन करने के पश्चात् इष्टदेवता सरस्वती का पूजन करना उचित है । फिर ध्यान करके देवी का आवाहन करे । तदनन्तर व्रती रहकर षोडशोपचार से भगवती की पूजा करे । सौम्य ! पूजा के लिये जो-जो उपयोगी नैवेद्य वेद में कथित हैं, उन्हें बताता हूँ — ताजा मक्खन, दही, दूध, धान का लावा, तिल के लड्डू, सफेद गन्ना और उसका रस, उसे पकाकर बनाया हुआ गुड़, स्वस्तिक (एक प्रकार का पकवान ), शक्कर या मिश्री, सफेद धान का चावल जो टूटा न हो (अक्षत), बिना उबाले हुए धान का चिउड़ा, सफेद लड्डू, घी और सेंधा नमक डालकर तैयार किये गये व्यञ्जन के साथ शास्त्रोक्त हविष्यान्न, जौ अथवा गेहूँ के आटे से घृत में तले हुए पदार्थ, पके हुए स्वच्छ केले का पिष्टक, उत्तम अन्न को घृत में पकाकर उससे बना हुआ अमृत के समान मधुर मिष्टान्न, नारियल, उसका पानी, कसेरू, मूली, अदरख, पका हुआ केला, बढ़िया बेल, बेर का फल, देश और काल के अनुसार उपलब्ध ऋतुफल तथा अन्य भी पवित्र स्वच्छ वर्ण के फल — ये सब नैवेद्य के समान हैं।

मुने! सुगन्धित सफेद पुष्प, सफेद स्वच्छ चन्दन तथा नवीन श्वेत वस्त्र और सुन्दर शङ्ख देवी सरस्वती को अर्पण करना चाहिये । श्वेत पुष्पों की माला और श्वेत भूषण भी भगवती को चढ़ावे । महाभाग मुने ! भगवती सरस्वती का श्रेष्ठ ध्यान परम सुखदायी है तथा भ्रम का उच्छेद करने वाला है । वह ध्यान यह है-

नवीनं शुक्लवस्त्रं च शङ्खं च सुमनोहरम् ।
माल्यं च शुक्लपुष्पाणां मुक्ताहीरादिभूषणम् ॥ ४४ ॥
यद्दृष्टं च श्रुतौ ध्यानं प्रशस्तं श्रुतिसुन्दरम् ।
तन्निबोध महाभाग भ्रमभञ्जनकारणम् ॥ ४५ ॥
सरस्वतीं शुक्लवर्णां सस्मितां सुमनोहराम् ।
कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टपुष्टश्रीयुक्तविग्रहाम् ॥ ४६ ॥
वह्निशुद्धांशुकाधानां सस्मितां सुमनोहराम् ।
रत्नसारेन्द्र खचितवरभूषणभूषिताम् ॥ ४७ ॥
सुपूजितां सुरगणैर्ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः ।
वन्दे भक्त्या वन्दिता तां मुनीन्द्रमनुमानवैः ॥ ४८ ॥

‘सरस्वती का श्रीविग्रह शुक्लवर्ण है। ये परम सुन्दरी देवी सदा मुस्कराती रहती हैं । इनके परिपुष्ट विग्रह के सामने करोड़ों चन्द्रमा की प्रभा भी तुच्छ है । ये विशुद्ध चिन्मय वस्त्र पहने हैं । इनके एक हाथ में वीणा है और दूसरे में पुस्तक । सर्वोत्तम रत्नों से बने हुए आभूषण इन्हें सुशोभित कर रहे हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रभृति प्रधान देवताओं तथा सुरगणों से ये सुपूजित हैं। श्रेष्ठ मुनि, मनु तथा मानव इनके चरणों में मस्तक झुकाते हैं । ऐसी भगवती सरस्वती को मैं भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ ।’

इस प्रकार ध्यान करके विद्वान् पुरुष पूजन के समग्र पदार्थ मूलमन्त्र से विधिवत् सरस्वती को अर्पण कर दे। फिर कवच का पाठ करने के पश्चात् दण्ड की भाँति भूमि पर पड़कर देवी को साष्टाङ्ग प्रणाम करे।

मुने! जो पुरुष भगवती सरस्वती को अपनी इष्ट देवी मानते हैं, उनके लिये यह नित्यक्रिया है । बालकों के विद्यारम्भ के अवसर पर वर्ष अन्त में माघ शुक्ला पञ्चमी के दिन सभी को इन सरस्वतीदेवी की पूजा करनी चाहिये । ‘श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा’ यह वैदिक अष्टाक्षर मूलमन्त्र परम श्रेष्ठ एवं सबके लिये उपयोगी है अथवा जिनको जिस मन्त्र के द्वारा उपदेश प्राप्त हुआ है, उनके लिये वही मूल मन्त्र है । ‘सरस्वती’ इस शब्द के साथ चतुर्थी विभक्ति जोड़कर अन्त में ‘स्वाहा’ शब्द लगा लेना चाहिये । इसके आदि में लक्ष्मी का बीज (‘श्रीं’ ) और मायाबीज (‘ह्रीं’ ) लगावे। यह (‘श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा’ ) मन्त्र साधक के लिये कल्पवृक्षरूप है।

प्राचीनकाल में कृपा के समुद्र भगवान् नारायण ने वाल्मीकि मुनि को इसी का उपदेश किया था। भारतवर्ष में गङ्गा के पावन तट पर यह कार्य सम्पन्न हुआ था । फिर सूर्यग्रहण के अवसर पर पुष्करक्षेत्र में भृगुजी ने शुक्र को इसका उपदेश किया था। मरीचि-नन्दन कश्यप ने चन्द्रग्रहण के समय प्रसन्न होकर बृहस्पति को इसे बताया था। बदरी-आश्रम में परम प्रसन्न ब्रह्मा ने भृगु को इसका उपदेश दिया था । जरत्कारुमुनि क्षीरसागर के पास विराजमान थे। उन्होंने आस्तीक को यह मन्त्र पढ़ाया। बुद्धिमान् ऋष्यशृङ्ग ने मेरुपर्वत पर विभाण्डक मुनि से इसकी शिक्षा प्राप्त की थी । शिव ने आनन्द में आकर गौतम तथा कणाद मुनि को इसका उपदेश किया था। याज्ञवल्क्य और कात्यायन ने सूर्य की दया से इसे पाया था । महाभाग शेष पाताल में बलि के सभाभवन पर विराजमान थे। वहीं उन्होंने पाणिनि, बुद्धिमान् भारद्वाज और शाकटायन को इसका अभ्यास कराया था।

चार लाख जप करने पर मनुष्य के लिये यह मन्त्र सिद्ध हो सकता है। इस मन्त्र के सिद्ध हो जाने पर अवश्य ही मनुष्य में बृहस्पति के समान योग्यता प्राप्त हो सकती है।

विप्रेन्द्र ! सरस्वती का कवच विश्व पर विजय प्राप्त कराने वाला है। जगत्स्रष्टा ब्रह्मा ने गन्धमादन पर्वत पर भृगु के आग्रह से इसे इन्हें बताया था, वही मैं तुमसे कहता हूँ, सुनो।

भृगु ने कहा ब्रह्मन् ! आप ब्रह्मज्ञानीजनों में प्रमुख, पूर्ण ब्रह्मज्ञानसम्पन्न, सर्वज्ञ, सबके पिता, सबके स्वामी एवं सबके परम आराध्य हैं । प्रभो ! आप मुझे सरस्वती का ‘विश्वजय’ नामक कवच बताने की कृपा कीजिये । यह कवच माया के प्रभाव से रहित, मन्त्रों का समूह एवं परम पवित्र है ।

॥ विश्वविजय सरस्वती कवच ॥

॥ ब्रह्मोवाच ॥
शृणु वत्स प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम् ।
श्रुतिसारं श्रुतिसुखं श्रुत्युक्तं श्रुतिपूजितम् ॥ ६२ ॥
उक्तं कृष्णेन गोलोके मह्यं वृन्दावने वने ।
रासेश्वरेण विभुना रासे वै रासमण्डले ॥ ६३ ॥
अतीव गोपनीयं च कल्पवृक्षसमं परम् ।
अश्रुताद्भुतमन्त्राणां समूहैश्च समन्वितम् ॥ ६४ ॥
यद्धृत्वा पठनाद्ब्रह्मन्बुद्धिमांश्च बृहस्पतिः ।
यद्धृत्वा भगवाञ्छुक्रः सर्वदैत्येषु पूजितः ॥ ६५ ॥
पठनाद्धारणाद्वाग्ग्मी कवीन्द्रो वाल्मिकी मुनिः ।
स्वायम्भुवो मनुश्चैव यद्धृत्वा सर्वपूजितः ॥ ६६ ॥
कणादो गौतमः कण्वः पाणिनिः शाकटायनः ।
ग्रन्थं चकार यद्धृत्वा दक्षः कात्यायनः स्वयम् ॥ ६७ ॥
धृत्वा वेदविभागं च पुराणान्यखिलानि च ।
चकार लीलामात्रेण कृष्णद्वैपायनः स्वयम् ॥ ६८ ॥
शातातपश्च संवर्त्तो वसिष्ठश्च पराशरः ।
यद्धृत्वा पठनाद्ग्रन्थं याज्ञवल्क्यश्चकार सः ॥ ६९ ॥
ऋष्यशृङ्गो भरद्वाजश्चास्तीको देवलस्तथा ।
जैगीषव्योऽथ जाबालि यद्धृत्वा सर्व पूजितः ॥ ७० ॥
कवचस्यास्य विप्रेन्द्र ऋषिरेष प्रजापतिः ।
स्वयं बृहस्पतिश्छन्दो देवो रासेश्वरः प्रभुः ॥ ७१ ॥
सर्वतत्त्वपरिज्ञाने सर्वार्थेऽपि च साधने ।
कवितासु च सर्वासु विनियोगः प्रकीर्त्तितः ॥ ७२ ॥
ॐ ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वतः ।
श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदाऽवतु ॥ ७३ ॥
ॐ सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रं पातु निरन्तरम् ।
ॐ श्रीं ह्रीं भारत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदाऽवतु ॥ ७४ ॥
ॐ ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वतोऽवतु ।
ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा श्रोत्रं सदाऽवतु ॥ ७५ ॥
ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्म्यै स्वाहेति दन्तपंक्तीः सदाऽवतु ।
ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदाऽवतु ॥ ७६ ॥
ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धं मे श्रीं सदाऽवतु ।
श्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदाऽवतु ॥ ७७ ॥
ॐ ह्रीं विद्यास्वरूपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम् ।
ॐ ह्रीं ह्रीं वाण्यै स्वाहेति मम पृष्ठं सदाऽवतु ॥ ७८ ॥
ॐ सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदाऽवतु ।
ॐ रागाधिष्ठातृदेव्यै सर्वाङ्गं मे सदाऽवतु ॥ ७९ ॥
ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं जिह्वाप्रवासिन्यै स्वाहाऽग्नि दिशि रक्षतु ॥ ८० ॥
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा ।
सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदाऽवतु ॥ ८१ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्ऋत्यां मे सदाऽवतु ।
कविजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु ॥ ८२ ॥
ॐ सदम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदाऽवतु ।
ॐ गद्यपद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेऽवतु ॥ ८३ ॥
ॐ सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदाऽवतु ।
ॐ सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदाऽवतु ॥ ८४ ॥
ऐं ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाऽधो मां सदाऽवतु ।
ॐ ग्रन्थबीजरूपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु ॥ ८५ ॥
इति ते कथितं विप्र सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।
इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मरूपकम् ॥ ८६ ॥
पुरा श्रुतं धर्मवक्त्रात्पर्वते गन्धमादने ।
तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ॥ ८७ ॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालङ्कार चन्दनैः ।
प्रणम्य दण्डवद्भूमौ कवचं धारयेत्सुधीः ॥ ८८ ॥
पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धं तु कवचं भवेत् ।
यदि स्यात्सिद्धकवचो बृह स्पतिसमो भवेत ॥ ८९ ॥
महावाग्मी कवीन्द्रश्च त्रैलोक्यविजयी भवेत् ।
शक्नोति सर्वं जेतुं स कवचस्य प्रभावतः ॥ ९०॥

ब्रह्माजी बोले — वत्स ! मैं सम्पूर्ण कामना पूर्ण करने वाला कवच कहता हूँ, सुनो। यह श्रुतियों का सार, कान के लिये सुखप्रद, वेदों में प्रतिपादित एवं उनसे अनुमोदित है । रासेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण गोलोक में विराजमान थे। वहीं वृन्दावन में रासमण्डल था। रास के अवसर पर उन प्रभु ने मुझे यह कवच सुनाया था। कल्पवृक्ष की तुलना करने वाला यह कवच परम गोपनीय है । जिन्हें किसी ने नहीं सुना है, वे अद्भुत मन्त्र इसमें सम्मिलित हैं । इसे धारण करने के प्रभाव से ही भगवान् शुक्राचार्य सम्पूर्ण दैत्यों के पूज्य बन सके।

ब्रह्मन्! बृहस्पति में इतनी बुद्धि का समावेश इस कवच की महिमा से ही हुआ है । वाल्मीकि मुनि सदा इसका पाठ और सरस्वती का ध्यान करते थे। अत: उन्हें कवीन्द्र कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। वे भाषण करने में परम चतुर हो गये। इसे धारण करके स्वायम्भुव मनु ने सबसे पूजा प्राप्त की । कणाद, गौतम, कण्व, पाणिनि, शाकटायन, दक्ष और कात्यायन – इस कवच को धारण करके ही ग्रन्थों की रचना में सफल हुए । इसे धारण करके स्वयं कृष्णद्वैपायन व्यासदेव ने वेदों का विभागकर खेल-ही-खेल में अखिल पुराणों का प्रणयन किया। शातातप, संवर्त, वसिष्ठ, पराशर, याज्ञवल्क्य, ऋष्यशृङ्ग, भारद्वाज, आस्तीक, देवल, जैगीषव्य और जाबालि ने इस कवच को धारण करके सबमें पूजित हो ग्रन्थों की रचना की थी ।

विप्रेन्द्र ! इस कवच के ऋषि प्रजापति हैं स्वयं बृहती छन्द है। माता शारदा अधिष्ठात्री देवी हैं। अखिल तत्त्वपरिज्ञानपूर्वक सम्पूर्ण अर्थ के साधन तथा समस्त कविताओं के प्रणयन एवं विवेचन में इसका प्रयोग किया जाता है ।

श्रीं ह्रीं -स्वरूपिणी भगवती सरस्वती के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सब ओर से मेरे सिर की रक्षा करें। ॐ श्रीं वाग्देवता के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा मेरे ललाट की रक्षा करें। ॐ ह्रीं भगवती सरस्वती के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे निरन्तर कानों की रक्षा करें। ॐ श्रीं ह्रीं भारती के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा दोनों नेत्रों की रक्षा करें। ऐं ह्रीं -स्वरूपिणी वाग्वादिनी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सब ओर से मेरी नासिका की रक्षा करें। ॐ ह्रीं विद्या की अधिष्ठात्री देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे होठ की रक्षा करें। ॐ श्रीं ह्रीं भगवती ब्राह्मी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे दन्त-पङ्क्ति की निरन्तर रक्षा करें । ‘ऐं’ यह देवी सरस्वती का एकाक्षर-मन्त्र मेरे कण्ठ की सदा रक्षा करे। ॐ श्रीं ह्रीं मेरे गले की तथा श्रीं मेरे कंधों की सदा रक्षा करे। ॐ श्रीं विद्या की अधिष्ठात्री देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा वक्षःस्थल की रक्षा करें। ॐ ह्रीं विद्यास्वरूपा देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे मेरी नाभि की रक्षा करें। ॐ ह्रीं-क्लीं-स्वरूपिणी देवी वाणी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सदा मेरे हाथों की रक्षा करें । ॐ – स्वरूपिणी भगवती सर्ववर्णात्मिका के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे दोनों पैरों को सुरक्षित रखें। ॐ वाग् की अधिष्ठात्री देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे मेरे सर्वस्व की रक्षा करें। सबके कण्ठ में निवास करनेवाली ॐ स्वरूपा देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे पूर्व दिशा में सदा मेरी रक्षा करें। जीभ के अग्रभाग पर विराजने वाली ॐ ह्रीं -स्वरूपिणी देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे अग्निकोण में रक्षा करें । ‘ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा ।’ इसको मन्त्रराज कहते हैं । यह इसी रूप में सदा विराजमान रहता है । यह निरन्तर मेरे दक्षिण भाग की रक्षा करे । ‘ऐं ह्रीं श्रीं ‘ – यह त्र्यक्षरमन्त्र नैर्ऋत्यकोण में सदा मेरी रक्षा करे । कवि की जिह्वा के अग्रभाग पर रहने वाली ॐ- स्वरूपिणी देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे पश्चिम दिशा में मेरी रक्षा करें। ॐ- स्वरूपिणी भगवती सर्वाम्बिका के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे वायव्यकोण में सदा मेरी रक्षा करें। गद्य-पद्य में निवास करने वाली ॐ ऐं श्रीं मयी देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे उत्तर दिशा में मेरी रक्षा करें। सम्पूर्ण शास्त्रों में विराजने वाली ऐं-स्वरूपिणी देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे ईशानकोण में सदा मेरी रक्षा करें। ॐ ह्रीं -स्वरूपिणी सर्वपूजिता देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे ऊपर से मेरी रक्षा करें। पुस्तक में निवास करने वाली ऐं ह्रीं -स्वरूपिणी देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे मेरे निम्नभाग की रक्षा करें। ॐ- स्वरूपिणी ग्रन्थबीज स्वरूपा देवी के लिये श्रद्धा की आहुति दी जाती है, वे सब ओर से मेरी रक्षा करें।

विप्र ! यह सरस्वती-कवच तुम्हें सुना दिया । असंख्य ब्रह्ममन्त्रों का यह मूर्तिमान् विग्रह है । ब्रह्मस्वरूप इस कवच को ‘विश्वजय’ कहते हैं।

 प्राचीन समय की बात है — गन्धमादन पर्वत पर पिता धर्मदेव के मुख से मुझे इसे सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। तुम मेरे परम प्रिय हो । अतएव तुमसे मैंने कहा है । तुम्हें अन्य किसी के सामने इसकी चर्चा नहीं करनी चाहिये। विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वस्त्र, चन्दन और अलंकार आदि सामानों से विधिपूर्वक गुरु की पूजा करके दण्ड की भाँति जमीन पर पड़कर उन्हें प्रणाम करे। तत्पश्चात् उनसे इस कवच का अध्ययन करके इसे हृदय में धारण करे । पाँच लाख जप करने के पश्चात् यह कवच सिद्ध हो जाता है। इस कवच के सिद्ध हो जाने पर पुरुष को बृहस्पति के समान पूर्ण योग्यता प्राप्त हो सकती है। इस कवच के प्रसाद से पुरुष भाषण करने में परम चतुर, कवियों का सम्राट् और त्रैलोक्यविजयी हो सकता है। वह सबको जीतने में समर्थ होता है। मुने! यह कवच कण्व – शाखा के अन्तर्गत है । अब स्तोत्र, ध्यान, वन्दन और पूजा का विधान बताता हूँ, सुनो । ( अध्याय ४ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सरस्वतीकवचं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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