ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 55
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
पचपनवाँ अध्याय
श्रीराधा के ध्यान, षोडशोपचार पूजन, परिचारिका पूजन, परिहार स्तवन, पूजन-महिमा तथा स्तुति एवं उसके माहात्म्य का वर्णन

श्रीपार्वती ने पूछा — भगवन् ! आप पुरुषों के ईश्वर श्रीकृष्ण के मन्त्र के होते हुए उन वैष्णव नरेश सुयज्ञ ने राधा का मन्त्र क्यों ग्रहण किया ? सुतपा ने राजा को श्रीराधा की पूजा का कौन-सा विधान बताया ? तथा किस ध्यान, किस स्तोत्र, किस कवच और किस मन्त्र का उपदेश दिया ? श्रीराधा की पूजा-पद्धति क्या है ? ये सब बातें बताइये ।

श्रीमहेश्वर बोले — प्रिये ! राजा ने यह प्रश्न किया था कि ‘हे विप्र ! हे मुने! मैं किसका भजन करूँ ? किसकी आराधना से शीघ्र गोलोक प्राप्त कर लूँगा ?’ उनके ऐसा कहने पर उन ब्राह्मण-शिरोमणि ने राजेन्द्र सुयज्ञ से कहा — ‘महाराज ! श्रीकृष्ण की सेवा से उनके लोक को तुम बहुत जन्मों में प्राप्त करोगे, अतः उनके प्राणों की अधिष्ठात्री देवी परात्परस्वरूपा श्रीराधा का भजन करो। वे कृपामयी हैं। उनके प्रसाद से साधक शीघ्र ही उनके धाम को प्राप्त कर लेता है’ — ऐसा कहकर मुनि ने उन्हें राधा के इस षडक्षर-मन्त्र का उपदेश दिया।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

वह मन्त्र इस प्रकार है- ‘ॐ राधायै स्वाहा।’ इसके बाद प्राणायाम, भूतशुद्धि, मन्त्रन्यास, करन्यास, अङ्गन्यास, उनके सर्व-दुर्लभ ध्यान, स्तोत्र और कवच की भक्तिभाव से राजा को शिक्षा दी । राजा ने उसी क्रम से उस मन्त्र का जप किया। साथ ही श्रीकृष्ण ने पूर्वकाल में जिस ध्यान के द्वारा श्रीराधा का चिन्तन एवं पूजन किया था, उसी सामवेदोक्त ध्यान के अनुसार उनके स्वरूप का चिन्तन किया। वह ध्यान मङ्गलों के लिये भी मङ्गलकारी है।

श्वेतचम्पकवर्णाभां कोटिचन्द्रसमप्रभाम् ।
शरत्पार्वणचन्द्रास्यां शरत्पङ्कजलोचनाम् ॥ १० ॥
सुश्रोणीं सुनितम्बां च पक्वबिम्बाधरां वराम् ।
मुक्तापंक्तिप्रतिनिधिदन्तपंक्तिमनोहराम् ॥ ११ ॥
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां भक्तानुग्रहकारिकाम् ।
वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नमालाविभूषिताम् ॥ १२ ॥
रत्नकेयूरवलयां रत्नमञ्जीररञ्जिताम् ।
रत्नकुण्डलयुग्मेन विचित्रेण विराजिताम् ॥ १३ ॥
सूर्य्यप्रभाप्रतिकृतिगण्डस्थलविराजिताम् ।
अमूल्यरत्नखचितग्रैवेयकविभूषिताम् ॥ १४ ॥
सद्रत्नसारखचितकिरीटमुकुटोज्ज्वलाम् ।
रत्नांगुलीयसंयुक्तां रत्नपाशकशोभिताम् ॥ १५ ॥
बिभ्रतीं कबरीभारं मालतीमाल्यशोभिताम् ।
रूपाधिष्ठातृदेवीं च मत्तवारणगामिनीम् ॥ १६ ॥
गोपीभिः सुप्रियाभिश्च सेवितां श्वेतचामरैः ।
कस्तूरीबिन्दुभिः सार्द्धमधश्चन्दनबिन्दुना ॥ १७ ॥
सिन्दूरबिन्दुना चारुसीमन्ताधःस्थलोज्ज्वलाम् ।
नित्यं सुपूजितां भक्त्या कृष्णेन परमात्मना ॥ १८ ॥
कृष्णसौभाग्यसंयुक्तां कृष्णप्राणाधिकां वराम् ।
कृष्णप्राणाधिदेवीं च निर्गुणां च परात्पराम् ॥ १९ ॥
महाविष्णुविधात्रीं च प्रदात्रीं सर्वसम्पदाम् ।
कृष्णभक्तिप्रदां शान्तां मूलप्रकृतिमीश्वरीम् ॥ २० ॥
वैष्णवीं विष्णुमायां च कृष्णप्रेममयीं शुभाम् ।
रासमण्डलमध्यस्थां रत्नसिंहासनस्थिताम् ॥ २१ ॥
रासे रासेश्वरयुतां राधां रासेश्वरीं भजे ॥ २२ ॥

ध्यान — श्रीराधा की अङ्गकान्ति श्वेत चम्पा के समान गौर है। वे अपने अङ्गों में करोड़ों चन्द्रमाओं के समान मनोहर कान्ति धारण करती हैं। उनका मुख शरद-ऋतु की पूर्णिमा के चन्द्रमा को लज्जित करता है। दोनों नेत्र शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों की शोभा को छीने लेते हैं। उनके श्रोणिदेश एवं नितम्बभाग बहुत ही सुन्दर हैं । अधर पके हुए बिम्बफल की लाली धारण करते हैं । वे श्रेष्ठ सुन्दरी हैं । मुक्ता की पंक्तियों को तिरस्कृत करनेवाली दन्तपङ्क्ति उनके मुख की मनोहरता को बढ़ाती है। उनके वदन पर मन्द मुस्कान-जनित प्रसन्नता खेलती रहती है । वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये व्याकुल रहती हैं । अग्निशुद्ध चिन्मय वस्त्र उनके श्रीअङ्गों को आच्छादित करते हैं। वे रत्नों के हार से विभूषित हैं । रत्नमय केयूर और कंगन धारण करती हैं। रत्नों के ही बने हुए मंजीर उनके पैरों की शोभा बढ़ाते हैं । रत्ननिर्मित विचित्र कुण्डल उनके दोनों कानों की श्रीवृद्धि करते हैं। सूर्य-प्रभा की प्रतिमारूप कपोल-युगल से वे सुशोभित होती हैं। अमूल्य रत्नों के बने हुए कण्ठहार उनके ग्रीवा- प्रदेश को विभूषित करते हैं । उत्तम रत्नों के सारतत्त्व से निर्मित किरीट-मुकुट उनकी उज्ज्वलता को जाग्रत् किये रहते हैं । रत्नों की मुद्रिका और पाशक (चेन या पासा आदि) उनकी शोभा बढ़ाते हैं । वे मालती के पुष्पों और हारों से अलंकृत केशपाश धारण करती हैं । वे रूप की अधिष्ठात्री देवी हैं और गजराज की भाँति मन्द गति से चलती हैं । जो उन्हें अत्यन्त प्यारी हैं, ऐसी गोप-किशोरियाँ श्वेत चँवर लेकर उनकी सेवा करती हैं। कस्तूरी की बेंदी, चन्दन के बिन्दु और सिन्दूर की टीकी से उनके मनोहर सीमन्त का निम्नभाग अत्यन्त उद्दीप्त दिखायी देता है । रास में रासेश्वर के सहित विराजित रासेश्वरी राधा का मैं भजन करता हूँ।

इस प्रकार ध्यान कर मस्तक पर पुष्प अर्पित करके पुनः जगदम्बा श्रीराधा का चिन्तन करे और फूल चढ़ावे । पुनः ध्यान के पश्चात् सोलह उपचार अर्पित करे। आसन, वसन, पाद्य, अर्घ्य, गन्ध, अनुलेपन, धूप, दीप, सुन्दर पुष्प, स्नानीय, रत्नभूषण, विविध नैवेद्य, सुवासित ताम्बूल, जल, मधुपर्क तथा रत्नमयी शय्या – ये सोलह उपचार हैं। राजा ने इनमें से प्रत्येक को वेदमन्त्र के उच्चारणपूर्वक भक्तिभाव से अर्पित किया। शिवे ! इन उपचारों के समर्पण के लिये जो सर्वसम्मत मन्त्र हैं, उन्हें सुनो।

(१) आसन
रत्नसारविकारं च निर्मितं विश्वकर्मणा ।
वरं सिंहासनं रम्यं राधे पूजासु गृह्यताम् ॥
राधे ! पूजा के अवसर पर विश्वकर्मा द्वारा रचित रमणीय श्रेष्ठ सिंहासन, जो रत्नसार का बना हुआ है, ग्रहण करो।आसन आदि के स्थान पर साधारण लोग पुष्प आदि का आसन तथा अन्य उपचार, जो सर्वसुलभ हैं, दे सकते हैं; परंतु मानसिक भावना द्वारा उसे रत्नसिंहासन आदि मानकर ही अर्पित करें। इस भावना के अनुसार ये पूजा सम्बन्धी मन्त्र हैं। मानसिक भावना द्वारा उत्तम-से-उत्तम वस्तु इष्टदेव को अर्पित की जा सकती है।
( २ ) वसन
अमूल्यरत्नखचितममूल्यं सूक्ष्ममेव च ।
वह्निशुद्धं निर्मलं च वसनं देवि गृह्यताम् ॥
देवि! बहुमूल्य रत्नों से जटित सूक्ष्म वस्त्र, जिसका मूल्य आँका नहीं जा सकता, आपकी सेवामें प्रस्तुत है । यह अग्नि से शुद्ध किया गया, चिन्मय एवं स्वभावतः निर्मल है। इसे स्वीकार करो ।
(३) पाद्
सद्रत्नसारपात्रस्थं सर्वतीर्थोदकं शुभम् ।
पादप्रक्षालनार्थं च राधे पाद्यं च गृह्यताम् ॥
राधे! उत्तम रत्नसार द्वारा निर्मित पात्र में सम्पूर्ण तीर्थों का शुभ जल तुम्हारी सेवामें अर्पित किया गया है । तुम्हारे दोनों चरणों को पखारने के लिये यह पाद्य जल है। इसे ग्रहण करो ।
( ४ ) अर्ध्य
दक्षिणावर्त्तशङ्खस्थं सदूर्वापुष्पचन्दनम् ।
पूतं युक्तं तीर्थतोयै राधेऽर्घ्यं प्रतिगृह्यताम् ॥
राधे! दक्षिणावर्त शङ्ख में रखा हुआ दूर्वा, पुष्प, चन्दन तथा तीर्थजल से युक्त यह पवित्र अर्घ्य प्रस्तुत है । इसे स्वीकार करो ।
(५) गन्ध
पार्थिवद्रव्यसम्भूतमतीवसुरभीकृतम्
मङ्गलार्हं पवित्रं च राधे गन्धं गृहाण मे ॥
राधे ! पार्थिव द्रव्यों से सम्भूत अत्यन्त सुगन्धित मङ्गलोपयोगी तथा पवित्र गन्ध मुझसे ग्रहण करो ।
(६) अनुलेपन ( चन्दन)
श्रीखण्डचूर्णं सुस्निग्धं कस्तूरीकुङ्कुमान्वितम् ।
सुगन्धयुक्तं देवेशि गृह्यतामैनुलेपनम् ॥
देवेश्वरि! कस्तूरी, कुङ्कुम और सुगन्ध से युक्त यह सुस्निग्ध चन्दनचूर्ण अनुलेपन के रूप में तुम्हारे सामने प्रस्तुत है । इसे स्वीकार करो ।
(७) धूप
वृक्षनिर्याससंयुक्तं पार्थिवद्रव्यसंयुतम् ।
अग्निखण्डशिखाजातं धूपं देवि गृहाण मे ॥
देवि ! वृक्ष की गोंद (गुग्गुल) तथा पार्थिव द्रव्यों संयुक्त यह धूप प्रज्वलित अग्नि-शिखा से निर्गत रूप प्रस्तुत है। मेरी इस वस्तु को ग्रहण करो ।
(८) दीप
अन्धकारे भयहरममूल्यमणिशोभितम् ।
रत्नप्रदीपं शोभाढ्यं गृहाण परमेश्वरि ॥
परमेश्वरि ! अमूल्य रत्नों का बना हुआ यह परम उज्ज्वल शोभाशाली रत्नप्रदीप अन्धकार-भय को दूर करने वाला है । इसे स्वीकार करो ।
(९) पुष्प
पारिजातप्रसूनं च गन्धचन्दनचर्चितम् ।
अतीव शोभनं रम्यं गृह्यतां परमेश्वरि ॥
परमेश्वरि ! गन्ध और चन्दन से चर्चित, अत्यन्त शोभायमान यह रमणीय पारिजात-पुष्प ग्रहण करो ।
(१०) स्नानीय
सुगन्धामलकीचूर्णं सुस्निग्धं सुमनोहरम् ।
विष्णुतैलसमायुक्तं स्नानीयं देवि गृह्यताम् ॥
देवि ! विष्णुतैल से युक्त यह अत्यन्त मनोहर एवं सुस्निग्ध सुगन्धित आँवले का चूर्ण सेवामें प्रस्तुत है । इस स्नानोपयोगी वस्तु को तुम स्वीकार करो ।
(११) भूषण
अमूल्यरत्ननिर्माणं केयूरवलयादिकम्।
शखं सुशोभनं राधे गृह्यतां भूषणं मम ॥
राधे ! अमूल्य रत्नों के बने हुए केयूर, कङ्कण आदि आभूषणों को तथा परम शोभाशाली शङ्ख की चूड़ियों को मेरी ओर से ग्रहण करो ।
(१२) नैवेद्य
कालदेशोद्भवं पक्वफलं च लड्डुकादिकम् ।
परमान्नं च मिष्टान्नं नैवेद्यं देवि गृह्यताम् ॥
देवि ! देश-काल के अनुसार उपलब्ध हुए पके फल तथा लड्डू आदि उत्तम मिष्टान्न नैवेद्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसे स्वीकार करो।
(१३) ताम्बूल और (१४) जल
ताम्बूलं च वरं रम्यं कर्पूरादिसुवासितम्।
सर्वभोगाधिकं स्वादु सलिलं देवि गृह्यताम् ॥
देवि ! कर्पूर आदि से सुवासित, सब भोगों से उत्कृष्ट, रमणीय एवं सुन्दर ताम्बूल तथा स्वादिष्ट जल ग्रहण करो ।
(१५) मधुपर्क
अशनं रत्नपात्रस्थं सुस्वादु सुमनोहरम् ।
मया निवेदितं भक्त्या गृह्यतां परमेश्वरि ॥
परमेश्वरि ! रत्नमय पात्र में रखा हुआ यह अशन (मधुपर्क) अत्यन्त स्वादिष्ट तथा परम मनोहर है । मैंने भक्तिभाव से इसे सेवामें समर्पित किया है। कृपया स्वीकार करो ।
(१६) शय्या
रत्नेन्द्रसारनिर्माणं वह्निशुद्धांशुकान्वितम् ।
पुष्पचन्दनचर्चाढ्यं पर्य्यङ्कं देवि गृह्यताम् ॥
देवि! श्रेष्ठ रत्नों के सारभाग से निर्मित, अग्निशुद्ध निर्मल वस्त्र से आच्छादित तथा पुष्प और चन्दन से चर्चित यह शय्या प्रस्तुत है । इसे ग्रहण करो ।

इस प्रकार देवी श्रीराधा का सम्यक् पूजन करके उनके लिये तीन बार पुष्पाञ्जलि दे तथा देवी की आठ नायिकाओं का, जो उनकी परम प्रिया परिचारिकाएँ हैं, यत्नपूर्वक भक्ति-भाव से पञ्चोपचार पूजन करे। प्रिये ! उनके पूजन का क्रम पूर्व आदि से आरम्भ करके दक्षिणावर्त बताया गया है। पूर्वदिशा में मालावती, अग्निकोण में माधवी, दक्षिण रत्नमाला, नैर्ऋत्यकोण में सुशीला, पश्चिम में शशिकला, वायव्यकोण में पारिजाता, उत्तर में पद्मावती तथा ईशानकोण में सुन्दरी की पूजा करे । व्रती पुरुष व्रतकाल में यूथिका ( जूही ), मालती और कमलों की माला चढ़ावे । तत्पश्चात् सामवेदोक्त रीति से परिहार नामक स्तुति करे — परिहार के मन्त्र इस प्रकार हैं-

॥ श्रीराधा परिहार स्तोत्रम् ॥
त्वं देवी जगतां माता विष्णुमाया सनातनी ।
कृष्णप्राणाधिदेवी च कृष्णप्राणाधिका शुभा ॥ ४७ ॥
कृष्णप्रेममयी शक्तिः कृष्णे सौभाग्यरूपिणी ।
कृष्णभक्तिप्रदे राधे नमस्ते मङ्गलप्रदे ॥ ४८ ॥
अद्य मे सफलं जन्म जीवनं सार्थकं मम ।
पूजिताऽसि मया सा च या श्रीकृष्णेन पूजिता ॥ ४९ ॥
कृष्णवक्षसि या राधा सर्वसौभाग्यसंयुता ।
रासे रासेश्वरीरूपा वृन्दा वृन्दावने वने ॥ ५० ॥
कृष्णप्रिया च गोलोके तुलसीकानने तु या ।
चम्पावती कृष्णसंगे क्रीडा चम्पककानने ॥ ५१ ॥
चन्द्रावली चन्द्रवने शतशृंगे सतीति च ।
विरजा दर्पहन्त्री च विरजातटकानने ॥ ५२ ॥
पद्मावती पद्मवने कृष्णा कृष्णसरोवरे ।
भद्रा कुञ्जकुटीरे च काम्या वै कम्यके वने ॥ ५३ ॥
वैकुण्ठे च महालक्ष्मीर्वाणी नारायणोरसि ।
क्षीरोदे सिन्धुकन्या च मर्त्ये लक्ष्मीर्हरिप्रिया ॥ ५४ ॥
सर्वस्वर्गे स्वर्गलक्ष्मीर्देवदुःखविनाशिनी ।
सनातनी विष्णुमाया दुर्गा शङ्करवक्षसि ॥ ५५ ॥
सावित्री वेदमाता च कलया ब्रह्मवक्षसि ।
कलया धर्मपत्नी त्वं नरनारायणप्रभोः ॥ ५६ ॥
कलया तुलसी त्वं च गङ्गा भुवनपावनी ।
लोमकूपोद्भवा गोप्यः कलांशा रोहिणी रतिः ॥ ५७ ॥
कला कलांशरूपा च शतरूपा शची दितिः ।
अदितिर्देवमाता च त्वत्कलांशा हरिप्रिया ॥ ५८ ॥
देव्यश्च मुनिपत्न्यश्च त्वत्कलाकलया शुभे ।
कृष्णभक्तिं कृष्णदास्यं देहि मे कृष्णपूजिते ॥ ५९ ॥

(प्रकृतिखण्ड ५५ । ४७-५९ )

श्रीराधे ! तुम देवी हो । जगज्जननी सनातनी विष्णुमाया हो । श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी तथा उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यारी हो । शुभस्वरूपा हो । कृष्णप्रेममयी शक्ति तथा श्रीकृष्णसौभाग्यरूपिणी हो । श्रीकृष्ण की भक्ति प्रदान करनेवाली मङ्गलदायिनी राधे ! तुम्हें नमस्कार है। आज मेरा जन्म सफल है। आज मेरा जीवन सार्थक हुआ; क्योंकि श्रीकृष्ण ने जिसकी पूजा की है, वही देवी आज मेरे द्वारा पूजित हुई । श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल में जो सर्वसौभाग्यशालिनी राधा हैं, वे ही रासमण्डल में रासेश्वरी, वृन्दावन में वृन्दा, गोलोक में कृष्णप्रिया, तुलसी-कानन में तुलसी, कृष्णसंग में चम्पावती, चम्पक-कानन में क्रीडा, चन्द्रवन में चन्द्रावली, शतशृङ्ग पर्वत पर सती, विरजातटवर्ती कानन में विरजादर्पहन्त्री, पद्मवन में पद्मावती, कृष्णसरोवर में कृष्णा, कुञ्जकुटीर में भद्रा, काम्यकवन में काम्या, वैकुण्ठ में महालक्ष्मी, नारायण के हृदय में वाणी, क्षीरसागर में सिन्धुकन्या, मर्त्यलोक में हरिप्रिया लक्ष्मी, सम्पूर्ण स्वर्ग में देवदुःखविनाशिनी स्वर्गलक्ष्मी तथा शंकर के वक्षःस्थल पर सनातनी विष्णुमाया दुर्गा हैं। वही अपनी कला द्वारा वेदमाता सावित्री होकर ब्रह्म-वक्ष में विलास करती हैं। देवि राधे ! तुम्हीं अपनी कला से धर्म की पत्नी एवं मुनि नर-नारायण की जननी हो । तुम्हीं अपनी कला द्वारा तुलसी तथा भुवनपावनी गङ्गा हो । गोपियाँ तुम्हारे रोमकूपों से प्रकट हुई हैं । रोहिणी तथा रति तुम्हारी कला की अंशस्वरूपा हैं । शतरूपा, शची और दिति तुम्हारी कला की कलांशरूपिणी हैं । देवमाता हरिप्रिया अदिति तुम्हारी कलांशरूपा हैं । शुभे ! देवाङ्गनाएँ और मुनिपत्नियाँ तुम्हारी कला की कला से प्रकट हुई हैं । कृष्णपूजिते ! तुम मुझे श्रीकृष्ण की भक्ति और श्रीकृष्ण का दास्य प्रदान करो।

इस प्रकार परिहार एवं स्तुति करके कवच का पाठ करे। यह प्राचीन शुभ स्तोत्र श्रीहरिकी भक्ति एवं दास्य प्रदान करनेवाला है ।

इस प्रकार जो प्रतिदिन श्रीराधा की पूजा करता है, वह भारतवर्ष में साक्षात् विष्णु के समान है । जीवन्मुक्त एवं पवित्र है । उसे निश्चय ही गोलोकधाम की प्राप्ति होती है। शिवे ! जो प्रतिवर्ष कार्तिक की पूर्णिमा को इसी क्रम से राधा की पूजा करता है, वह राजसूय यज्ञ के फल का भागी होता है । इहलोक में उत्तम ऐश्वर्य से सम्पन्न एवं पुण्यवान् होता है और अन्त में सब पापों से मुक्त हो श्रीकृष्णधाम में जाता है।

पार्वति ! आदिकाल में पहले श्रीकृष्ण ने इसी क्रम से वृन्दावन के रासमण्डल में श्रीराधा की स्तुति एवं पूजा की थी। दूसरी बार तुम्हारे वर से वेदमाता सावित्री को पाकर सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने इसी क्रम से राधा का पूजन किया था । नारायण ने भी श्रीराधा की आराधना करके महालक्ष्मी, सरस्वती, गङ्गा तथा भुवनपावनी पराशक्ति तुलसी को प्राप्त किया था । क्षीरसागरशायी श्रीविष्णु ने राधा की आराधना करके ही सिन्धुसुता को प्राप्त किया था। पहले दक्षकन्या की मृत्यु हो जाने पर मैंने भी श्रीकृष्ण की आज्ञा से पुष्कर में श्रीराधा की पूजा की और उसके प्रभाव से तुम्हें प्राप्त किया । पतिव्रता श्रीराधा की पूजा करके उनके दिये हुए वर से कामदेव ने रति को, धर्मदेव ने सती साध्वी मूर्ति को तथा देवताओं और मुनियों ने धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को प्राप्त किया था । इस प्रकार मैंने श्रीराधा की पूजा का विधान बताया है। अब स्तोत्र सुनो।

एक बार श्रीराधाजी मान करके श्रीकृष्ण के समीप से अन्तर्धान हो गयीं। तब ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि सब देवता ऐश्वर्यभ्रष्ट, श्रीहीन, भार्यारहित तथा उपद्रवग्रस्त हो गये। इस परिस्थिति पर विचार करके उन सबने भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ली। उनके स्तोत्र से संतुष्ट हुए सबके परमात्मा श्रीकृष्ण ने स्नान करके शुद्ध हो सती राधिका की पूजा करके उनका इस प्रकार स्तवन किया ।

॥ श्रीराधास्तोत्रम् ॥
॥ श्रीकृष्ण उवाच ॥
एवमेव प्रियोऽहं ते प्रमोदश्चैव ते मयि ।
सुव्यक्तमद्य कापट्यवचनं ते वरानने ॥ ७५ ॥
हे कृष्ण त्वं मम प्राणा जीवात्मेति च सन्ततम् ।
यद्ब्रूहि नित्यं प्रेम्णा त्वं साम्प्रतं तद्गतं द्रुतम् ॥ ७६ ॥
तस्मात्सर्वमलीकं ते वचनं जगदम्बिके ।
क्षुरधारं च हृदयं स्त्रीजातीनां च सर्वतः ॥ ७७ ॥
अस्माकं वचनं सत्यं यद्ब्रवीमि च तच्छ्रुतम् ।
पञ्चप्राणाधिदेवी त्वं राधा प्राणाधिकेति मे ॥ ७८ ॥
शक्तो न रक्षितुं त्वां च यान्ति प्राणास्त्वया विना ।
विनाऽधिष्ठातृदेवीं च को वा कुत्र च जीवति ॥ ७९ ॥
महाविष्णोश्च माता त्वं मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
सगुणा त्वं च कलया निर्गुणा स्वयमेव तु ॥ ८० ॥
ज्योतीरूपा निराकारा भक्तानुग्रहविग्रहा ।
भक्तानां रुचिवैचित्र्यान्नानामूर्त्तीश्च बिभ्रती ॥ ८१ ॥
महालक्ष्मीश्च वैकुण्ठे भारती च सतां प्रसूः ।
पुण्यक्षेत्रे भारते च सती त्वं पार्वती तथा ॥ ८२ ॥
तुलसी पुण्यरूपा च गंगा भुवनपावनी ।
ब्रह्मलोके च सावित्री कलया त्वं वसुन्धरा ॥ ८३ ॥
गोलोके राधिका त्वं च सर्वगोपालकेश्वरी ।
त्वया विनाऽहं निर्जीवो ह्यशक्तः सर्व कर्म्मसु ॥ ८४ ॥
शिवः शक्तस्त्वया शक्त्या शवाकारस्त्वया विना ।
वेदकर्ता स्वयं ब्रह्मा वेदमात्रा त्वया सह ॥ ८५ ॥
नारायणस्त्वया लक्ष्म्या जगत्पाता जगत्पतिः ।
फलं ददाति यज्ञश्च त्वया दक्षिणया सह ॥ ८६ ॥
बिभर्त्ति सृष्टिं शेषश्च त्वां कृत्वा मस्तके भुवम् ।
बिभर्त्ति गङ्गारूपां त्वां मूर्ध्नि गंगाधरः शिवः ॥ ८७ ॥
शक्तिमच्च जगत्सर्वं शवरूपं त्वया विना ।
वक्ता सर्वस्त्वया वाण्या सूतो मूकस्त्वया विना ॥ ८८ ॥
यथा मृदा घटं कर्त्तुं कुलालः शक्तिमान्सदा ।
सृष्टिं स्रष्टुं तथाऽहं च प्रकृत्या च त्वया सह ॥ ८९ ॥
त्वया विना जडश्चाहं सर्वत्र च न शक्तिमान् ।
सर्वशक्तिस्वरूपा त्वं त्वमागच्छ ममान्तिकम् ॥ ९० ॥
वह्नौ त्वं दाहिकाशक्तिर्नाग्निश्शक्तस्त्वया विना ।
शोभास्वरूपा चन्द्रे त्वं त्वां विना न स सुन्दरः ॥ ९१ ॥
प्रभारूपा हि सूर्य्ये त्वं त्वां विना न स भानुमान् ।
न कामः कामिनीबन्धुस्त्वया रत्या विना प्रिये ॥ ९२ ॥

श्रीकृष्ण बोले — सुमुखि श्रीराधे ! क्या मैं इसी प्रकार तुम्हारा प्रिय हूँ और मुझमें तुम्हारी प्रीति है ? तुम्हारी वाणी में जो छलना थी, वह आज अच्छी तरह प्रकट हो गयी । ‘हे कृष्ण ! तुम मेरे प्राण हो, जीवात्मा हो’ इस तरह की बातें जो तुम नित्य-निरन्तर प्रेमपूर्वक कहा करती थीं, वे अब तत्काल कहाँ चली गयीं? मैं पहले तुम्हारे सामने जो कुछ कहता था, मेरा वचन आज भी ध्रुव सत्य है । ‘तुम मेरे पाँचों प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हो’, ‘राधा मेरे लिये प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय है ‘ – मेरी ये बातें जैसे पहले सत्य थीं, उसी तरह आज भी हैं। मैं तुम्हें अपने पास रखने में समर्थ न हो सका, अतः तुम्हारे बिना मेरे प्राण चले जा रहे हैं। अधिष्ठात्री देवी के बिना कौन कहाँ जीवित रह सकता है ? तुम महाविष्णु की माता, मूलप्रकृति ईश्वरी हो। अपनी कला से तुम सगुणरूप में | प्रकट होती हो। स्वयं तो निर्गुणा (प्राकृत गुणोंसे रहित) ही हो। ज्योति: पुञ्ज ही तुम्हारा स्वरूप है। तुम वास्तव में निराकार हो। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये ही तुम रूप धारण करती हो । भक्तों की विभिन्न रुचि के कारण नाना प्रकार की मूर्तियाँ ग्रहण करती हो । वैकुण्ठ में महालक्ष्मी और सरस्वती के रूप में तुम्हारा ही निवास है । पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में सत्पुरुषों की जननी भी तुम्हीं हो । सती और पार्वती के रूप में तुम्हारा ही प्राकट्य हुआ है। तुम्हीं पुण्यरूपा तुलसी और भुवनपावनी गङ्गा हो । ब्रह्मलोक में सावित्री के रूप में तुम्हीं रहती हो। तुम्हीं अपनी कला से वसुन्धरा हुई हो, गोलोक में तुम्हीं समस्त गोपालों की अधीश्वरी राधा हो। तुम्हारे बिना मैं निर्जीव हूँ। किसी भी कर्म को करने में असमर्थ हूँ। तुम्हें शक्ति के रूप में पाकर ही शिव शक्तिमान् हैं। तुम्हारे बिना वे शिव नहीं, शव हैं । तुम्हें ही वेदमाता सावित्री के रूप में अपने साथ पाकर साक्षात् ब्रह्माजी वेदों के प्राकट्यकर्ता माने गये हैं । तुम लक्ष्मी का सहयोग मिलने से ही जगत्पालक नारायण जगत् का पालन करते हैं। तुम्हीं दक्षिणारूप से साथ रहती हो, इसलिये यज्ञ फल देता है । पृथ्वी के रूप में तुम्हें मस्तक पर धारण करके ही शेषनाग सृष्टि का संरक्षण करते हैं । गङ्गाधर शिव तुम्हें ही गङ्गारूप में अपने मस्तक पर धारण करते हैं । तुमसे ही सारा जगत् शक्तिमान् है । तुम्हारे बिना सब कुछ शव (मृतक ) – के तुल्य है। तुम वाणी हो। तुम्हें पाकर ही सब लोग वक्ता बनते हैं । तुम्हारे बिना पौराणिक सूत भी मूक हो जाता है । जैसे कुम्हार सदा मिट्टी के सहयोग से ही घड़ा बनाने में समर्थ होता है, उसी प्रकार तुम प्रकृतिदेवी के साथ ही मैं सृष्टि रचना में सफल होता हूँ। तुम्हारे बिना मैं सर्वत्र जड हूँ । कहीं भी शक्तिमान् नहीं हूँ । तुम्हीं सर्वशक्तिस्वरूपा हो । अतः मेरे निकट आओ। अग्नि में तुम्हीं दाहिकाशक्ति हो । तुम्हारे बिना अग्नि दाहकर्म में समर्थ नहीं हैं । चन्द्रमा में तुम्हीं शोभा बनकर रहती हो। तुम्हारे बिना चन्द्रमा सुन्दर नहीं लगेगा। सूर्य में तुम्हीं प्रभा हो । तुम्हारे बिना सूर्यदेव प्रभापूर्ण नहीं रह सकते। प्रिये ! तुम्हीं रति हो। तुम्हारे बिना कामदेव कामिनियों के प्राणवल्लभ नहीं हो सकते।

इस प्रकार श्रीराधा की स्तुति करके जगत्प्रभु श्रीकृष्ण ने उन्हें प्राप्त किया। फिर तो सब देवता सश्रीक, सस्त्रीक और शक्तिसम्पन्न हो गये । गिरिराजनन्दिनि ! तदनन्तर सारा जगत् सस्त्रीक हो गया। श्रीराधा की कृपा से गोलोक गोपाङ्गनाओं से परिपूर्ण हो गया। इसी प्रकार हरिप्रिया श्रीराधा की स्तुति करके राजा सुयज्ञ गोलोकधाम में चले गये ।

जो मनुष्य श्रीकृष्ण द्वारा किये गये इस राधास्तोत्र का पाठ करता है, वह श्रीकृष्ण की भक्ति और दास्यभाव प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है । स्त्री से वियोग होने पर जो पवित्रभाव से एक मास तक इस स्तोत्र का श्रवण करता है, वह शीघ्र ही सती, सुन्दरी और सुशीला स्त्री को प्राप्त कर लेता है । जो भार्या और सौभाग्य से हीन है, वह यदि एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण करे तो उसे भी शीघ्र ही सुन्दरी, सुशीला एवं सती भार्या की प्राप्ति हो जाती है। पार्वति ! पूर्वकाल में जब दक्ष-कन्या सती की मृत्यु हो गयी थी, तब परमात्मा श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर मैंने इसी स्तोत्र से श्रीराधा की स्तुति की और तुम्हें पा लिया । पूर्वकाल में ब्रह्माजी को भी इसी स्तोत्र के प्रभाव से सावित्री की प्राप्ति हुई थी । पूर्वकाल में दुर्वासा शाप से जब देवतालोग श्रीहीन हो गये, तब इसी स्तोत्र से श्रीराधा की स्तुति करके उन्होंने परम दुर्लभ लक्ष्मी प्राप्त की थी । पुत्र की इच्छावाला पुरुष यदि एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण करे तो उसे पुत्र प्राप्त हो जाता है। इस स्तोत्र के प्रसाद से मनुष्य बहुत बड़ी व्याधि एवं रोगों से मुक्त हो जाता है। जो कार्तिक की पूर्णिमा को श्रीराधा का पूजन करके इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह अविचल लक्ष्मी को पाता है तथा राजसूय-यज्ञ के फल का भागी होता है । यदि नारी इस स्तोत्र का श्रवण करे तो वह पति के सौभाग्य से सम्पन्न होती है। जो भक्तिपूर्वक इस स्तोत्र को सुनता है, वह निश्चय ही बन्धन से मुक्त हो जाता है । जो प्रतिदिन भक्तिभाव से श्रीराधा की पूजा करके प्रेमपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह भवबन्धन से मुक्त हो गोलोकधाम में जाता है। (अध्याय ५५)

॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादान्तर्गतहरगौरीसंवादे श्रीराधिकोपाख्याने राधापूजास्तोत्रादिकथनंनाम पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५५ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

(See Also- “ह्रीं श्रीराधायै स्वाहा” श्रीराधा-उपासना – देवी भागवत अनुसार )

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