ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 58
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
अठावनवाँ अध्याय
तारा और चन्द्रमा का दोष निवारण

नारद बोले — धार्मिकों में श्रेष्ठ राजा सुरथ किसके वंश में उत्पन्न हुआ ? और ज्ञानिप्रवर श्री मेधस् ऋषि से उसने कैसे ज्ञान प्राप्त किया ? हे ब्रह्मन् ! हे मुनिसत्तम ! मेधस् ऋषि किस वंश में उत्पन्न हुए ? और राजा का मुनि के साथ संवाद किस स्थान पर हुआ ? हे प्रभो ! हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! राजा सुरथ और समाधि नामक वैश्य की मित्रता कहाँ हुई थी ? मैं यह सब विस्तार से सुनना चाहता हूँ ।

नारायण बोले — ब्रह्मा के पुत्र अत्रि और उनके चन्द्रमा नामक पुत्र हुए, जो राजसूय यज्ञ सुसम्पन्न करने के कारण ‘द्विज-राज’ कहलाये थे । उन्होंने गुरु ( बृहस्पति) की पत्नी तारा में बुध नामक पुत्र उत्पन्न किया । बुध के पुत्र चैत्र और चैत्र के पुत्र सुरथ हुए ।

नारद बोले — हे महामुने ! गुरुपत्नी तारा में उन्होंने कैसे पुत्र उत्पन्न किया, क्योंकि यह तो देव का व्यतिक्रम है, अतः उसे अवश्य बताने की कृपा कीजिये ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायण बोले — एक बार धन-मदान्ध और महाकामी चन्द्रमा गंगा के किनारे विचरण कर रहे थे। उसी समय स्नान के लिए आई हुई पतिव्रता तारा को उन्होंने देखा, जो देवगुरु ( बृहस्पति) की पत्नी और धर्मात्मा थी । वह रमणीय सुन्दरी उत्तम देह वाली, सुन्दर दाँतों की पंक्ति, कोमल अंग, नवयौवन, सूक्ष्म वस्त्र एवं रत्नों के भूषणों से भूषित थी । उसके भाल पर कस्तूरी की बिन्दी के साथ नीचे चन्दन-बिन्दु था और सुन्दर तथा उज्ज्वल माँग में सिन्दूर लगा था ।

उसी बीच वायु के झकोरे से अधोवस्त्र हट गया । तब रक्तवर्ण के नेत्र, शारदीय पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुख और पके बिम्बाफल के समान अधरोष्ठ वाली वह कामिनी, मन्द मुसुकाती, नीचे मुख किये, लज्जा की ओट में चन्द्रमा को देखती हुई अति हर्ष से मतवाले हाथी की सी चाल से अपने घर जाने लगी । हे मुने ! उसे देखकर चन्द्रमा अति कामपीड़ित हो गये। इससे उन्होंने लज्जा त्याग कर शरीर के सर्वांग में पुलकायमान होने के नाते काम-भावना से उससे कहा।

चन्द्र बोले — हे रमणीश्रेष्ठ ! एवं रसिक ललनाओं में उत्तम ! क्षणमात्र ठहर जाओ! हे सुदक्षे ! तुम चतुर पुरुषों के मन का निरन्तर अपहरण करती हो । हे काम-सागरे ! बृहस्पति ने सहस्रों जन्म श्री दुर्गा जी की सेवा करके उस तपस्या के फलस्वरूप तुम बृहत् श्रोणी भाग वाली स्त्री को प्राप्त किया है । किन्तु उस बृहस्पति के साथ समागम में तुम्हें कौन सुख मिलता होगा। क्योंकि विदग्धा ( चतुर स्त्री) का विदग्ध ( चतुर ) पुरुष के ही साथ जब समागम होता है, तब सुखसागर उमड़ पड़ता है ।

हे ईश्वरि ! तुम कामिनी होकर जो काम द्वारा व्यर्थ जल रही हो, यह कर्मवश या अपने दोष के नाते हो रहा है। क्योंकि स्त्री के मन को कौन जान सकता है । बृहस्पति तो निरन्तर तपस्या में लगे रहते हैं सोते-जागते सब समय अपने इष्टदेव परमात्मा श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न रहते हैं । वे तो निष्काम हैं और तुम काम के समस्त रस को जानती हो, इससे तुम्हें काम की चाह है, क्योंकि निरन्तर कामुकी बन कर युवा पुरुषों के श्रृंगार का तुम ध्यान करती रहती हो । तुम्हारा मन काम चाहता है और तुम्हारे पति के मन को इससे भिन्न और ही कुछ अभीष्ट है । तो जिस ( पति-पत्नी) के ( मन के) विषय भिन्न-भिन्न हों, उनके समागम में उन्हें कौन सुख मिल सकेगा ? इस निर्जन चन्दन के वन में, जो सुगन्धित और पूर्ण-विकसित पुष्पों से सुशोभित है, भाग्यवती युवती आप ( वहाँ चलकर ) आनन्द लें । चन्दन वन के अनन्तर चम्पक’ वन में चम्पक’ के शीतल वायु के लहरों में चम्पा की रमणीक शय्या पर मेरे साथ विहार करो । हे सुन्दरि ! मन्द चन्दन – वायु से युक्त मन्दराचल की कन्दरा के निर्जन वन में मेरे साथ रमण करो । हे शुभे ! नर्मदा के किनारे स्वर्णरेखा के तटवर्ती वन में – देवताओं के अभीष्ट स्थान में मेरे साथ रति करो ।

इस प्रकार मन्दाकिनी के तट पर मन्दबुद्धि चन्द्रमा, जो काम से उन्मत्त और काम से अधिक सुन्दर थे, इतना कहकर तारा देवी के चरण पर गिर पड़े । चन्द्रमा के इस भाँति मार्ग रोक लेने पर तारा के कण्ठ, ओष्ठ और ताल सूख गये और उसके नेत्र रक्त कमल की भाँति लाल-लाल हो गये । अनन्तर उसने निर्भय होकर क्रोध से कहा।

तारा बोली — हे चन्द्र ! तुम्हें धिक्कार है, मैं तुम्हें तृणवत् समझती हूँ, क्योंकि तुम परस्त्रीलम्पट होने के नाते शठ हो । अत्रि का दुर्भाग्य था, जो तुम्हें पुत्ररूप में प्राप्त किया, क्योंकि तुम्हारा जन्म और जीवन दोनों व्यर्थ हैं । अरे ! राजसूय यज्ञ करके तुम अपने को बड़ा बलवान् समझते हो । ब्राह्मण की स्त्रियों में तुम्हारे मन के दूषित होने के कारण वह तुम्हारा समस्त पुण्य व्यर्थ हो गया है । क्योंकि जिसका चित्त परस्त्रियों में लगा रहता है, वह सभी कर्मों में अपवित्र माना जाता है। इतना ही नहीं, वह पापी समस्त विश्व में सब प्रकार से निन्दित होने के नाते (उत्तम) कर्मफल का भागी नहीं होता है ।

यदि तुमने मेरा सतीत्व नष्ट किया तो तुम्हें यक्ष्मा (तपेदिक) का रोग हो जायगा। क्योंकि वेद में ऐसा सुना गया है कि- जो अत्यन्त उन्नत हो जाता है उसका पतन होता ही है । दुष्टों के अभिमान को नष्ट करने वाले भगवान् कृष्ण तुम्हारे दर्प का हनन करेंगे। अतः हे वत्स ! मैं तुम्हारी माता हूँ, मुझे छोड़ दो, सत्य कहती हूँ, तुम्हारा कल्याण होगा ।

इतना कह कर पतिव्रता तारा ने बार-बार रुदन किया और धर्म, सूर्य, वायु, अग्नि, ब्रह्मा, परमात्मा, आकाश, पवन, पृथ्वी, दिन-रात्रि, सन्ध्या, और समस्त देवों को साक्षी ( गवाही) बनाने लगी ।

हे मुने ! तारा की ऐसी बातें सुनकर चन्द्रमा भयभीत नहीं हुआ अपितु क्रुद्ध हो गया और उसने उस सुन्दरी के दोनों हाथ पकड़ कर बलात् शीघ्रता से रथ पर बैठा लिया। मन की भाँति वेग से चन्द्रमा ने अपने मनोहर रथ का संचालन किया और उस सुन्दरी को पकड़कर उसके साथ रमण किया । पुष्पभद्रा नदी के तट पर देवों के विस्पन्दक नामक चन्दन वन, पुष्कर के किनारे, खिले हुए पुष्पों के उपवन में, पुष्प-चन्दन और वायु द्वारा सुगन्धित पुष्प की शय्या पर तथा मलय-पर्वत के बीच की निर्जन भूमि में स्निग्ध और चन्दनचर्चित पर्वतों, नदी और नदों में केलि करते उन दोनों के, हे नारद! सौ वर्ष का समय मुहूर्त ( दो घड़ी) की भाँति व्यतीत हो गया । अनन्तर ( देवों से) भयभीत होकर चन्द्रमा दैत्यों और उन बलवानों के तेजस्वी गुरु शुक्र की शरण में गया । भृगुनन्दन (शुक्र) ने कृपा करके उसे अभय दान दिया और देवों के गुरु बृहस्पति की, जो उनके शत्रु हैं, हँसी उड़ाने लगे । उस सभा में बलोन्मत्त दैत्यों ने भी भीत और कलंकी चन्द्रमा को अभयदान देकर बृहस्पति की खिल्ली उड़ायी । सती स्त्री का सतीत्व नष्ट करने के कारण पापी चन्द्रमा के निर्मल मण्डल में कलंक मल स्वरूप ही शश (खरहे ) का स्वरूप हो गया है । वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ शुक्र ने महाभयभीत चन्द्रमा से उसके हित, सत्य, वेदानुसार और परिणाम में सुखप्रदायक वचन कहा ।

शुक्र बोले — अहो ! तुम ब्रह्मा के पौत्र और भगवान् अत्रि महर्षि के पुत्र हो । हे पुत्र ! तुम्हारा यह कर्म नीचों की भांति है, कीर्तिकारी नहीं है । राजसूय यज्ञ के सुसम्पन्न करने पर उसके परिणास्वरूप यह निर्मल कीर्तिमण्डल तुम्हें प्राप्त हुआ था, किन्तु सुधा-समूह में सुराबिन्दु के समान उसमें तुमने कलंक लगा ही लिया । मैं चाहता हूँ, देवगुरु बृहस्पति की पत्नी तुम छोड़ दो। वह ( तुम्हारी ) जननी और महासती है। बृहस्पति भी अत्यन्त धर्मात्मा एवं ब्रह्मणों में श्रेष्ठ हैं । देवों के अधीश्वर शिव हैं, उनके गुरुपुत्र ब्रह्मा हैं तथा उनके पौत्र और अंगिरा के पुत्र बृहस्पति हैं, जो ब्रह्मतेज से नित्य प्रज्वलित रहा करते हैं । शत्रु के भी गुणों को कहना चाहिए और गुरु के दोष भी । क्योंकि उत्तम कुल में उत्पन्न होने वाले सज्जनों का ऐसा ही स्वभाव होता है ।

हे निशाकर ! यद्यपि विश्व में देवगुरु वृहस्पति हमारे परम शत्रु हैं, तथापि इस धर्मसभा में ऐसा कहना स्वाभाविक है। क्योंकि जहाँ धर्मात्मा लोग रहते हैं वहाँ सनातन धर्म रहता है, जहाँ धर्म रहता है, वहाँ कृष्ण रहते हैं और जहाँ कृष्ण हैं विजय वहीं होती है । धर्म ही धार्मिक की रक्षा करता है । देववृन्द, गुरु और ब्राह्मण लोग यद्यपि रक्षा करने में समर्थ हैं तथापि धर्मनाशक पापी प्राणी की ये लोग रक्षा नहीं करते। कुलटा ब्राह्मणपत्नियों के साथ देवता या ब्राह्मण गमन करता है तो उन्हें ब्रह्महत्या का सोलहवाँ भाग पातक अवश्य लगता है और उन स्त्रियों के स्वयं उपस्थित होने पर उन्हें उसका चतुर्थांश भाग पातक लगता है । उनका त्याग करने पर धर्म होता है न कि पाप, ऐसा ब्रह्मा ने कहा है । और सती ब्राह्मणियों के साथ बलप्रयोग द्वारा उपभोग करने पर सौ ब्रह्महत्या का पापभागी होना पड़ता है, ऐसा वेद में निश्चित सुना है ।

इसलिये हे महाभाग धर्माचरण करो, इस समय ब्राह्मणी को छोड़ दो। और जो पाप हो गया है, उसके लिए अनुताप ( पश्चात्ताप ) करो ( जिससे उस पाप से निवृत्त हो जाओ), क्योंकि पापों से निवृत्त होना ही महाफल है । और अन्य किसी उपाय द्वारा भी तुम्हारा पाप निश्चित नष्ट हो सकता है । भयभीत होकर तुम देव होकर भी धर्मतः मेरी शरण आये हो अतः तुम्हारी रक्षा करना मेरा कर्तव्य है, क्योंकि शस्त्र-रहित, भयभीत, दीन, शरणार्थी की जो रक्षा नहीं करता है, वह अधर्मी कुम्भीपाक नरक में निश्चित जाता है । और रक्षा करने से उसे सौ राजसूय यज्ञ के फल प्राप्त होते हैं तथा इस लोक में वह परम ऐश्वर्य से संयुक्त होकर धार्मिक होता है ।

इस प्रकार स्वर्ग में मन्दाकिनी नदी के तट पर दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने इतना कहकर स्वयं स्नान किया और उसे भी स्नान कराया एवं भगवान् विष्णु की पूजा की । तथा भगवान् विष्णु के चरण-कमल से निकले हुए गंगाजल और उनके पवित्र नैवेद्य से चन्द्रमा को भोजन कराया । हे मुने ! पुनः उस भयभीत और पाप कर्म से लज्जित चन्द्रमा को शुक्र ने अपनी गोद में बैठा कर उसके हाथ में कुश रखा और बार-बार भगवान का स्मरण करके उससे कहा ।

शुक्र बोले — यदि हमारा तप सत्य है, हरि का पूजाफल सत्य है, व्रत का फल सत्य है, सत्य बोलने का फल सत्य है, तीर्थों का स्नान-फल सत्य है, दान का फल सत्य है और उपवास फल सत्य है, तो आप पापमुक्त हो जायें । तीनों काल की संध्याओं से रहित और भगवान् विष्णु की अर्चना से हीन रहने वाला ब्राह्मण चन्द्रमा के इस अति दारुण ( भीषण) और महाघोर पाप का भागी हो । अपनी स्त्री को जो प्रवंचना ( घूर्तता ) से ठगकर परस्त्री से सम्भोग करता है, वह पापी चन्द्रमा के पाप से युक्त होकर घोर नरक में जाय । जो दुष्ट स्वभाव वाली कटुमुंही स्त्री वाणी द्वारा अपने पति को प्रताड़ित करती है, वह चन्द्रमा के पाप द्वारा लाला (लार) मुख नामक नरक में युगपर्यन्त निश्चित पड़ी रहे । जो द्विज भगवान् को भोग बिना लगाये उस व्यर्थ अन्न का भोजन करता है, वह चन्द्रमा के पाप से चारों युग पर्यन्त कालसूत्र नामक नरक में जाकर रहे । अम्बुवाचीयोग में (जिसमें भूमि खोदना शास्त्रनिषिद्ध है) खोदने वाला नराधम चन्द्रपाप वश सौ युगों तक कालसूत्र नामक नरक में रहे । जो स्त्री अपने पति को वञ्चित कर पर-पुरुष के पास जाती है, वह चन्द्र-पाप से अग्निकुण्ड नामक नरक में चारों युग पर्यन्त रहे ।

जो लोभवश दूसरे की कीर्ति लुप्त कर अपनी कीर्ति बढ़ाता है वह चन्द्र-पाप से एक युग पर्यन्त कुम्भीपाक नरक में जाकर रहे । जो अपने पिता, माता, स्त्री और गुरु का पालन-पोषण नहीं करता है, वह पापी चन्द्रपाप से निश्चित चाण्डाल हो जाये । कुलटा, पतिपुत्रहीना और रजस्वला स्त्री का अन्न जो भोजन करता है, वह पापी चन्द्र पाप का भागी हो और उस पाप से चारों युगों तक कुम्भीपाक नरक में रहने पर अन्त में उस पातकी को चाण्डाल के यहाँ जन्म लेना पड़े । जो महापापी दिन में मैथुन करता है और काम-भावना से गर्भिणी अथवा रजस्वला स्त्री का उपभोग करता है वह पापी महाघोर चन्द्र पाप का भागी होता है और उस पाप के नाते कालसूत्र नामक नरक में चारों युग पर्यन्त रहता है । जो कामी कामपीड़ित होकर परस्त्री के मुख, श्रोणीभाग और स्तन को देखता है, वह चन्द्रपाप का भागी होता है और उस पाप के कारण चारों युगों तक लालाभक्ष्य नामक नरक में पड़ा रहता है। पश्चात् चांडाल, अन्धा एवं नपुंसक होता है ।

चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति और अष्टमी तथा एकादशी या रविवार के दिन जो मांस, मसूर और बढ़हर खाता है तथा मैथुन करता है, वह चन्द्रपाप का भागी होता है और चारों युगपर्यन्त कालसूत्र नामक नरक में रहता है । पुनः उसमें से निकल कर वह पातकी चाण्डाल-योनि में जाता है और सात जन्म तक रोगी, दरिद्र तथा कूबड़ा होता है । एकादशी, भगवान श्रीकृष्ण की जन्माष्टमी तथा शिवरात्रि के दिन जो भोजन करता है वह महापापी चन्द्रपाप का भागी होता है ॥ ८५ ॥ तथा चौदहों इन्द्रों के समय तक कुम्भीपाक नरक में रहता है । और उसी पाप के कारण चाण्डाल-योनि में उत्पन्न होता है । तांबे के पात्र में दुग्ध, महुए की शराब, उच्छिष्ट घृतः काँसे के पात्र में नारियल का जल, लवण समेत दुग्ध, पीने से बचा हुआ जल, खाने से बचा हुआ भात और सूर्यास्त के पहले जो बार-बार भात खाता है, वह दुर्निवार एवं भीषण चन्द्रपाप का भागी होता है और उस पाप के कारण उसे अन्धकूप नरक में चारों युग पर्यन्त रहना पड़ता है । जो ब्राह्मण अपनी कन्या का विक्रय करता है, मन्दिर का पुजारी है, बैलों की सवारी करता है, शूद्रों के शव का दहन एवं उनके भोजन बनाने का काम करता है, पीपल का वृक्ष काटता है, विष्णु और वैष्णवों की निन्दा करता है, उस पापी को अति दारुण चन्द्रपाप लगता है । उस पाप के नाते वह पातकी, तप्तसूर्मी नामक नरक में चौदहों इन्द्रों के समय तक निरन्तर दग्ध होता रहता है । पुनः उसमें से निकलने पर वह पापी चाण्डाल-योनि प्राप्त कर सात जन्मों तक चाण्डाल, पाँच जन्मों तक बैल, सौ जन्मों तक गधा, सात जन्मों तक सूकर, सात जन्मों तक तीर्थ में काक, पाँच जन्मों तक बिष्ट का कीड़ा और सौ जन्मों तक जोंक होकर पश्चात् शुद्ध होता है । जो व्यर्थ मांस भोजन करता है और बिना किसी को दिये अपने लिए अन्न पकाकर खाता है, वह महापापी चन्द्र- पाप का भागी होता है । उस पाप के नाते उसे चारों युग पर्यन्त असिपत्र नामक नरक में रहना पड़ता है । पश्चात् वह सात जन्मों तक सर्प और पशु होता है ।

जो ब्राह्मण ब्याज लेता है, योनि द्वारा जीविका निर्वाह करता है, चिकित्सक है, भगवान् के नामों का विक्रेता है तथा अपना अंग विक्रय करता है, अपना धर्म कहता है, अपनी प्रशंसा करता है, स्याही से जीविका चलाता है, हरकारे का काम करता है, कुलटा स्त्री द्वारा पालित होता है, वह चन्द्रपाप का भागी हो और चन्द्रमा पाप से मुक्त हो जायँ । उस पापवश वह अति भीषण शूलप्रोत नामक नरक में चौदहों इन्द्रों के समय तक उसमें छिद कर टंगा रहे अनन्तर दरिद्र, रोगी और दीक्षाहीन नरपशु हो । लाख (लाह), मांस, रस, तिल, लवण (नमक) अश्व (घोड़े ) और लोहे का विक्रेता, नरघाती तथा कुम्हार का कार्य करने वाला एवं चोरी करने वाला ब्राह्मण चन्द्रपाप का भागी हो । उस पाप से वह अतिदुःसह क्षुरधार नामक नरक में सहस्र इन्द्रों के समय तक छिन्न-भिन्न होता रहे। उसमें से निकलने पर वह सात जन्मों तक स्यार होता है अनन्तर सात जन्मों तक बिलाड़, पाँच जन्मों तक भैंसा सात जन्मों तक भालू सात जन्मों तक कुत्ता, सौ जन्मों तक मछली, पाँच जन्मों तक कर्कटी ( केकड़ा), सौ जन्मों तक गोह, सात जन्मों तक गधा, सात- जन्मों तक मण्डूक (मेढक ) होकर अनन्तर अधम मनुष्य होता है— चर्मकार (चमार), धोबी, तेली, बढ़ई, काछी, शवजीवी, व्याध, सोनार, कुम्हार लोहार के उपरान्त क्षत्रिय होकर पुनः ब्राह्मण के यहाँ उत्पन्न होता है ।

इस भाँति चन्द्रमा को पवित्र करके शुक्र ने तारा से कहा — हे महासाध्वि ! चन्द्रमा को छोड़कर तू अब अपने पति के पास चली जा । क्योंकि शुद्ध मन होने के नाते तू प्रायश्चित्त बिना ही शुद्ध है, कामहीन स्त्री बलवान् जार के द्वारा (दूषित होने पर भी ) अदूषित ही रहती है । मुसकराते हुए चन्द्रमा तथा सती तारा को इस प्रकार कह कर शुक्र ने उन दोनों को शुभ आशीर्वाद प्रदान किया ।  (अध्याय ५८ )

॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृति खण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत दुर्गापाख्यान में तारा चन्द्रमा का दोष निवारण नामक अट्ठावनवाँ अध्याय समाप्त ॥ ५८ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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