ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 07
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
सातवाँ अध्याय
कलियुग के भावी चरित्र का, कालमान का तथा गोलोक की श्रीकृष्ण-लीला का वर्णन

भगवान् नारायण कहते हैं — नारद ! तदनन्तर सरस्वती अपनी एक कला से तो पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में पधारीं तथा पूर्ण अंश से उन्हें भगवान् श्रीहरि के निकट रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भारत में पधारने से ‘भारती’, ब्रह्मा की प्रेमभाजन होने से ‘ब्राह्मी’ तथा वचन की अधिष्ठात्री होने से वे ‘वाणी’ नाम से विख्यात हुईं। श्रीहरि सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त रहते हुए भी सागर के जल-स्रोत में शयन करते देखे जाते हैं; अतः ‘सरस्’ युक्त होने के कारण उनका एक नाम ‘सरस्वान्’ है और उनकी प्रिया होने से इन देवी को ‘सरस्वती’ कहा जाता है । नदीरूप से पधारकर ये सरस्वती परम पावन तीर्थ बन गयीं। पापीजनों के पापरूपी ईंधन को भस्म करने के लिये ये प्रज्वलित अग्निस्वरूपा हैं ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारद ! तत्पश्चात् वाणी के शाप से गङ्गा अपनी कला से धरातल पर आयीं । भगीरथ के सत्प्रयत्न से इनका शुभागमन हुआ। ये गङ्गा आ ही रही थीं कि शंकर ने इन्हें अपने मस्तक पर धारण कर लिया। कारण, गङ्गा के वेग को केवल शंकर ही सँभाल सकते थे। अतएव उन के वेग को सहने में असमर्थ पृथ्वी की प्रार्थना से वे इस कार्य के लिये प्रस्तुत हो गये।

फिर पद्मा अर्थात् लक्ष्मी अपनी एक कला से भारतवर्ष में नदी-रूप से पधारीं । इनका नाम ‘पद्मावती’ हुआ। ये स्वयं पूर्ण अंश से भगवान् श्रीहरि की  सेवामें उनके समीप ही रहीं । तदनन्तर अपनी एक-दूसरी कला से वे भारत में राजा धर्मध्वज के यहाँ पुत्रीरूप से प्रकट हुईं। उस समय इनका नाम ‘तुलसी’ पड़ा। पहले सरस्वती के शाप से और फिर श्रीहरि की आज्ञा से इन विश्वपावनी देवी ने अपनी कला द्वारा वृक्षमय रूप धारण किया ।

कलि में पाँच हजार वर्षों तक भारतवर्ष में रहकर ये तीनों देवियाँ सरित्-रूप का परित्याग कर के वैकुण्ठ में चली जायँगी। काशी तथा वृन्दावन के अतिरिक्त अन्य प्रायः सभी तीर्थ भगवान् श्रीहरि की आज्ञा से उन देवियों के साथ वैकुण्ठ चले जायँगे । शालग्राम, श्रीहरि की मूर्ति पुरुषोत्तम भगवान् जगन्नाथ कलि के दस हजार वर्ष व्यतीत होने पर भारतवर्ष को छोड़कर अपने धाम को पधारेंगे।

इन के साथ ही साधु, पुराण, शङ्ख, श्राद्ध, तर्पण तथा वेदोक्त कर्म भी भारतवर्ष से उठ जायँगे । देवपूजा, देवनाम, देवताओं के गुणों का कीर्तन, वेद, शास्त्र, पुराण, संत, सत्य, धर्म, ग्रामदेवता, व्रत, तप और उपवास – ये सब भी उन के साथ ही इस भारत से चले जायँगे । (इन में लोगों की श्रद्धा नहीं रह जायगी ।)

प्रायः सभी लोग मद्य और मांस का सेवन करेंगे। झूठ और कपट से किसी को घृणा न होगी । उपर्युक्त देवी एवं देवताओं के भारतवर्ष छोड़ देने के पश्चात् शठ, क्रूर, दाम्भिक, अत्यन्त अहंकारी, चोर, हिंसक – ये सब संसार में फैल जायँगे। पुरुषभेद ( परस्पर मैत्री का अभाव ) होगा। अपने अथवा पुरुष का भेद, स्त्री का भेद, विवाह, वाद-निर्णय, जाति या वर्ण का निर्णय, अपने या पराये स्वामी का भेद तथा अपनी-परायी वस्तुओं का भेद भी आगे चलकर नहीं रहेगा। सभी पुरुष स्त्रियों के अधीन होकर रहेंगे । घर-घर में पुंश्चलियों का निवास होगा। वे दुराचारिणी स्त्रियाँ सदा डॉट-फटकारकर अपने पतियों को पीटेंगी । गृहिणी घर की पूरी मालकिन बनी रहेगी, घर का स्वामी नौकर से भी अधिक अधम समझा जायगा। घर में जो बलवान् होंगे, उन्हीं को कर्ता माना जायगा ।

भाई-बन्धु वे ही समझे जायँगे, जिनका सम्बन्ध योनि या जन्म को लेकर होगा, जैसे पुत्र, भाई आदि । (अर्थात् जरा भी दूर के सम्पर्क वाले को लोग भाई-बन्धु भी नहीं मानेंगे।) विद्याध्ययन से सम्बन्ध रखने वाले गुरु- भाई आदि के साथ कोई बात भी नहीं करेगा। पुरुष अपने ही परिवार के लोगों से अन्य अपरिचित व्यक्तियों की भाँति व्यवहार करेंगे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – चारों वर्ण अपनी जाति के आचार-विचार को छोड़ देंगे । संध्या-वन्दन और यज्ञोपवीत आदि संस्कार तो प्रायः बंद ही हो जायँगे। चारों ही वर्ण म्लेच्छ के समान आचरण करेंगे। प्रायः सभी लोग अपने शास्त्रों को छोड़कर म्लेच्छ-शास्त्र पढ़ेंगे।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – चारों वर्णों के लोग  सेवावृत्ति से जीविका चलायेंगे। सम्पूर्ण प्राणियों में सत्य का अभाव हो जायगा। जमीन पर धान्य नहीं उपजेंगे। वृक्ष फलहीन हो जायँगे । गौओं में दूध देने की शक्ति नहीं रहेगी। लोग बिना मक्खन के दूध का व्यवहार करेंगे। स्त्री और पुरुष में प्रेम का अभाव होगा । गृहस्थ असत्य भाषण करेंगे। राजाओं का तेज-अस्तित्व समाप्त हो जायगा । प्रजा भयानक ‘कर’  के भारों से अत्यन्त कष्ट पायेगी। चारों वर्णों में धर्म और पुण्य का नितान्त अभाव हो जायगा । लाखों में कोई एक भी पुण्यवान् न हो सकेगा । बुरी बातें और बुरे शब्दों का ही व्यवहार होगा । जंगलों में रहने वाले लोग भी ‘कर’  के भार से कष्ट भोगेंगे। नदियों और तालाबों पर धान्य होंगे। अर्थात् समयोचित वर्षा के अभाव से अन्यत्र खेती न होने के कारण लोग इनके तट पर ही खेती करेंगे । कलियुग में सम्भ्रान्त कुल के पुरुषों की अवनति होगी।

नारद ! कलि के मनुष्य अश्लीलभाषी, धूर्त, शठ और असत्यवादी होंगे। भली-भाँति जोते-बोये हुए खेत भी धान्य देने में असमर्थ रहेंगे । नीच वर्ण वाले धनी होने के कारण श्रेष्ठ माने जायँगे। देवभक्तों में नास्तिकता आ जायगी। नगरनिवासी हिंसक, निर्दयी तथा मनुष्यघाती होंगे। कलि में प्राय: स्त्री और पुरुष – रोगी, थोड़ी उम्रवाले और युवा अवस्था से रहित होंगे। सोलह वर्ष में ही उन के सिर के बाल पक जायँगे । बीस वर्ष में उन्हें बुढ़ापा घेर लेगा । कलियुग में भगवन्नाम बेचा जायगा । मिथ्या दान होगा – मनुष्य अपनी कीर्ति बढ़ाने के लिये दान देकर स्वयं पुनः उसे वापस ले लेंगे। देववृत्ति, ब्राह्मणवृत्ति अथवा गुरुकुलवृत्ति – चाहे वह अपनी दी हुई हो अथवा दूसरे की – कलि के मानव उसे छीन लेंगे।

कलियुग में मनुष्य को अगम्यागमन में कोई हिचक न रहेगी । कलियुग में स्त्रियों और पतियों का निर्णय नहीं हो सकेगा। अर्थात् सभी स्त्री-पुरुषों में अवैध व्यवहार होंगे। प्रजा किन्हीं ग्रामों और धनों पर अपना पूर्ण अधिकार नहीं प्राप्त कर सकेगी। प्रायः सब लोग अप्रिय वचन बोलेंगे। सभी चोर और लम्पट होंगे। सभी एक-दूसरे की हिंसा करने वाले एवं नरघाती होंगे । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – सब के वंशजों में पाप प्रवेश कर जायगा। सभी लोग लाख, लोहा, रस और नमक का व्यापार करेंगे। पञ्च-यज्ञ करने में द्विजों की प्रवृत्ति न होगी । यज्ञोपवीत पहनना उन के लिये भार हो जायगा । वे संध्या- वन्दन और शौच से विहीन रहेंगे । पुंश्चली, सूद से जीविका चलाने वाली तथा कुटनी स्त्री रजस्वला रहती हुई भी ब्राह्मणों के घर भोजन बनायेगी । अन्नों में, स्त्रियों में और आश्रमवासी मनुष्यों में कोई नियम नहीं रहेगा। घोर कलि में प्रायः सभी म्लेच्छ हो जायँगे ।

इस प्रकार जब सम्यक् प्रकार से कलियुग आ जायगा, तब सारी पृथ्वी म्लेच्छों से भर जायगी । तब विष्णुयशा नामक ब्राह्मण के घर उनके पुत्ररूप से भगवान् कल्कि प्रकट होंगे। सुप्रसिद्ध पराक्रमी ये कल्कि भगवान् नारायण के अंश हैं। ये एक बहुत ऊँचे घोड़े पर चढ़कर अपनी विशाल तलवार  से म्लेच्छों का विनाश करेंगे और तीन रात  में ही पृथ्वी को म्लेच्छ-शून्य कर देंगे। यों वसुधा को म्लेच्छ-रहित कर के वे स्वयं अन्तर्धान हो जायँगे। तब एक बार पृथ्वी पर अराजकता फैल जायगी। डाकू सर्वत्र लूट-पाट मचाने लगेंगे। तदनन्तर मोटी धार  से असीम जल बरसने लगेगा। लगातार छः दिन-रात वर्षा होगी। पृथ्वी पर सर्वत्र जल ही जल दिखायी पड़ेगा । पृथ्वी प्राणी, वृक्ष, गृह से शून्य हो जायगी ।

मुने ! इस के बाद बारह सूर्य एक साथ उदय होंगे, जिन के प्रचण्ड तेज  से पृथ्वी सूख जायगी। यों होने पर दुर्धर्ष कलियुग समाप्त हो जायगा, तब तप और सत्त्व  से सम्पन्न धर्म का पूर्णरूप  से प्राकट्य होगा । उस समय तपस्वियों, धर्मात्माओं और वेदज्ञ ब्राह्मणों से पुनः पृथ्वी शोभा पायेगी । घर-घर  में स्त्रियाँ पतिव्रता और धर्मात्मा होंगी । धर्मप्राण न्याय-परायण क्षत्रियों के हाथ  में राज्य का प्रबन्ध होगा। वे सभी ब्राह्मणों के भक्त, मनस्वी, तपस्वी, प्रतापी, धर्मात्मा और पुण्यकर्म के प्रेमी होंगे। वैश्य व्यापार में तत्पर रहेंगे। वे मन  में धार्मिक भावना रखते हुए ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा रखेंगे। शूद्र धर्म पर आस्था रखते हुए पवित्रतापूर्वक  सेवा करेंगे । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के वंशज भगवती जगदम्बा शक्ति के परम उपासक होंगे। उन के द्वारा देवी के मन्त्र का निरन्तर जप होने लगेगा। सब लोग देवी के ध्यान में तत्पर रहेंगे । समयानुसार व्यवहार करने वाले पुरुषों में श्रुति, स्मृति और पुराण का पूर्ण ज्ञान प्राप्त रहेगा । इसी को सत्ययुग कहते हैं । इस युग में धर्म पूर्णरूप से रहता है। त्रेता धर्म तीन पैर से, द्वापर में दो पैर से और कलि में केवल एक पैर से रहता है। घोर कलि आने पर तो यह सम्पूर्ण पैरों से हीन हो जाता है !

विप्र ! सात दिन हैं । सोलह तिथियाँ कही गयी हैं। बारह महिने और छः ऋतुएँ होती हैं । शुक्ल और कृष्ण – दो पक्ष तथा उत्तरायण एवं दक्षिणायन – दो अयन होते हैं। चार पहर का दिन होता है और चार पहर की रात होती है । तीस दिनों का एक महीना होता है। संवत्सर तथा इडावत्सर आदि भेद  से पाँच प्रकार के वर्ष समझने चाहिये । यही काल की संख्या का नियम है । जैसे दिन आते-जाते रहते हैं, ऐसे ही चारों युगों का भी आना-जाना लगा रहता है। मनुष्यों का एक वर्ष पूरा होने पर देवताओं का एक दिन-रात होता है । काल की संख्या के विशेषज्ञ पुरुषों का सिद्धान्त है कि मनुष्यों के तीन सौ साठ युग व्यतीत होने पर देवताओं का एक युग बीतता है । इस प्रकार के इकहत्तर दिव्य युगों को एक मन्वन्तर कहते हैं । एक इन्द्र एक मन्वन्तर-पर्यन्त रहते हैं । इस प्रकार अट्ठाईस इन्द्र बीत जाने पर ब्रह्मा का एक दिन-रात होता है ।

इस मान से एक सौ आठ वर्ष व्यतीत होने पर ब्रह्मा की आयु पूरी हो जाती है। इसी को प्राकृत प्रलय समझना चाहिये । उस समय पृथ्वी नहीं दिखायी पड़ती। पृथ्वी सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जल में लीन हो जाते हैं । ब्रह्मा, विष्णु, शिव और ऋषि आदि सभी परात्पर श्रीकृष्ण में लीन हो जाते हैं। उन्हीं में प्रकृति भी लीन हो जाती है। मुने ! इसी को प्राकृत प्रलय कहते हैं । इस प्रकार प्राकृत प्रलय हो जाने पर ब्रह्मा की आयु समाप्त हो जाती है। मुनिवर ! इतने सुदीर्घ  काल को परमात्मा श्रीकृष्ण का एक निमेष कहते हैं । इस प्रकार श्रीकृष्ण के एक निमेष में सम्पूर्ण विश्व और अखिल ब्रह्माण्ड नष्ट हो जाते हैं । केवल गोलोक, वैकुण्ठ तथा पार्षदों सहित श्रीकृष्ण ही शेष रहते हैं । श्रीकृष्ण का निमेषमात्र ही प्रलय है, जिसमें सारा ब्रह्माण्ड जलमग्न हो जाता है । निमेष काल के अनन्तर फिर सृष्टि का क्रम चालू हो जाता है। इस प्रकार सृष्टि और प्रलय होते रहते हैं। कितने कल्प गये और आये – इस की संख्या कौन जान सकता है ? नारद! सृष्टियों, प्रलयों, ब्रह्माण्डों और ब्रह्माण्ड में रहनेवाले ब्रह्मादि प्रधान प्रबन्धकों की संख्या का परिज्ञान भला किस पुरुष को हो सकता है ?

परमात्मा श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के एकमात्र ईश्वर हैं, जो प्रकृति से परे हैं। उन का विग्रह सत्, चित् और आनन्दमय है । ब्रह्मा प्रभृति देवता, महाविराट् और स्वल्पविराट् – सभी उन परम प्रभु परमात्मा के अंश हैं । प्रकृति भी उन्हीं का अंश कही गयी है। वे श्रीकृष्ण दो रूपों में विभक्त हो जाते हैं – एक द्विभुज और दूसरे चतुर्भुज । चतुर्भुज श्रीहरि वैकुण्ठ में विराजते हैं और स्वयं द्विभुज श्रीकृष्ण का गोलोक में निवास है। ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त समस्त चराचर जगत् (प्राकृत सर्ग के अन्तर्गत ) है । जो- जो प्राकृतिक सृष्टि है, वह सब नश्वर ही है। इस प्रकार सृष्टि कारणभूत परब्रह्म परमात्मा नित्य, सत्य, सनातन, स्वतन्त्र, निर्गुण, निर्लिप्त और प्रकृति से परे हैं; उनकी न कोई लौकिक उपाधि है और न कोई भौतिक आ कार । भक्तों पर अनुग्रह करना उन का स्वरूप है- सहज स्वभाव है । वे अत्यन्त कमनीय हैं। उनकी अङ्ग कान्ति नूतन जलधर के समान है। उनके दो भुजाएँ हैं । हाथ में मुरली है । गोपों- जैसा वेष और किशोर अवस्था है । वे सर्वज्ञ, सर्व सेव्य, परमात्मा एवं ईश्वर हैं । तुम उनके स्वरूप को ऐसा ही जानो ।

इन्हीं दिये हुए ज्ञान से विराट् पुरुष (विष्णु) – के नाभिकमल से उत्पन्न ज्ञानस्वरूप ब्रह्मा अखिल ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं तथा सम्पूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता मृत्युञ्जय शिव संहार का  कार्य सँभालते हैं उन्हीं के दिये ज्ञान से तथा उन्हीं के लिये किये गये तप के प्रभाव से वे उनके समान ही महान् एवं सर्वेश्वर हुए हैं। उन परमात्मा श्रीकृष्ण के ज्ञान के प्रभाव से ही भगवान् विष्णु महान् विभूति से सम्पन्न, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वव्यापी, सबके रक्षक, सम्पूर्ण सम्पत्ति प्रदान करने में समर्थ, सर्वेश्वर तथा समस्त जगत् के अधिपति हुए हैं। उन्हीं के ज्ञान से, उन्हीं के लिये की गयी तपस्या से तथा उन्हींके प्रति भक्ति और उन्हीं की  सेवा से प्रकृति सर्वशक्तिमती महामाया और सर्वेश्वरी हुई है। उन्हीं के ज्ञान, भजन, तपस्या एवं  सेवा करने से देवमाता सावित्री वेदों की अधिष्ठात्री देवी और वेदमाता हुई हैं, वेदज्ञा तथा द्विजों की पूजनीया हो गयी हैं ।

परमात्मा श्रीकृष्ण की सेवा और तप का ही प्रभाव है कि सरस्वती को समस्त विद्या की अधिष्ठात्री माना जाता है। अखिल विद्वान् उनकी उपासना करते हैं । सनातनी महालक्ष्मी धन और सस्य की अधिष्ठात्री देवी तथा सब सम्पत्तियों को देने में समर्थ हुई हैं। इन्हीं की उपासि का होने से दुर्गा को सब लोग पूजते हैं और वे सर्वेश्वरी सब की कामनाएँ पूर्ण कर देती हैं। इतना ही नहीं, वे दुर्गति-नाशिनी दुर्गा इन्हीं की कृपा से समस्त गाँवों की ग्रामदेवी, सम्पूर्ण सम्पत्ति देने में समर्थ, सबके द्वारा स्तुत्य और सर्वज्ञ हुई हैं। उन्होंने सर्वेश्वर शिव को जो पतिरूप में प्राप्त किया है, वह उनकी श्रीकृष्ण-सेवा का ही फल है।

श्रीकृष्ण के वामभाग से प्रकट हुई श्रीराधा श्रीकृष्ण की प्रेम से आराधना और  सेवा करके ही उनके प्रेम की अधिष्ठात्री तथा उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय हुई हैं। श्रीकृष्ण की सेवा से ही उन्होंने सब से अधिक मनोहर रूप, सौभाग्य, मान, गौरव तथा श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल में स्थान — उनका पत्नीत्व प्राप्त किया है । पूर्व-काल में राधा ने शतशृङ्ग पर्वत पर एक सहस्र दिव्य युगों तक निराहार रहकर तपस्या की । इससे वे अत्यन्त कृश-काय हो गयीं। श्रीकृष्ण ने देखा, राधा चन्द्रमा की एक कला के समान अत्यन्त कृश हो गयी हैं, अब इनके शरीर में साँस का चलना भी बंद हो गया है, तब वे प्रभु करुणा से द्रवित हो उन्हें छाती से लगाकर फूट-फूटकर रोने लगे। उन्होंने राधा को वह सारभूत वर दिया, जो अन्य सब लोगों के लिये दुर्लभ है।

श्रीकृष्ण बोले — ‘प्राणवल्लभे ! तुम्हारा स्थान मेरे वक्षःस्थल पर है, तुम यहीं रहो। मुझमें तुम्हारी अविचल प्रेम-भक्ति हो । सौभाग्य, मान, प्रेम और गौरव की दृष्टि से तुम मेरे लिये सबसे श्रेष्ठ और सर्वाधिक प्रियतमा बनी रहो। संसार की समस्त युवतियों में तुम्हारा सब से ऊँचा स्थान है । तुम सबसे अधिक महत्त्व तथा गौरव प्राप्त करो। मैं सदा तुम्हारे गुण गाऊँगा, पूजा करूँगा। तुम सदा मुझे अपने अधीन समझो। मैं तुम्हारी प्रत्येक आज्ञा का पालन करने के लिये बाध्य रहूँगा ।’

ऐसा कहकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने उन्हें सचेत किया और अपनी उन प्राणवल्लभाको सौत के कष्ट से मुक्त कर दिया।

जिन-जिन देवताओं की जो-जो देवियाँ पतिद्वारा सम्मानित हुई हैं, उनके उस सम्मान में श्रीकृष्ण की आराधना ही कारण है। मुने ! जिनकी जैसी तपस्या है, उन्हें वैसा ही फल प्राप्त हुआ है। देवी दुर्गा ने सहस्र दिव्य वर्षों तक हिमालय पर तप करते हुए श्रीकृष्ण-चरणों का ध्यान किया । इससे वे सबकी पूजनीया हो गयीं। सरस्वती श्रीकृष्ण की श्रीकृष्ण की आराधना करके समस्त सम्पदाओं को देने में समर्थ हुई हैं। सावित्री मलयाचल पर साठ हजार दिव्य वर्षों तक तप एवं श्रीकृष्ण चरणों का चिन्तन करके द्विजों की पूजनीया हो गयी हैं।

मुने ! पूर्व काल में ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव ने सौ मन्वन्तरों तक श्रीकृष्ण -प्रीति के लिये तपस्या करके सृष्टि, पालन और संहार का अधिकार प्राप्त किया था। धर्म सौ मन्वन्तरों तक तप करके सर्वपूज्य हुए। नारद ! शेषनाग, सूर्यदेव, इन्द्र तथा चन्द्रमा ने भी एक-एक मन्वन्तर तक भक्तिपूर्वक श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये तप किया था। वायुदेवता सौ दिव्य युगों तक भक्तिभाव से तपस्या करके सबके प्राण, सबके द्वारा पूजनीय तथा सबके आधार बन गये । इस प्रकार श्रीकृष्ण-प्रीति के लिये तपस्या करके सब देवता, मुनि, मानव, राजा तथा ब्राह्मण लोक में पूजित हुए हैं। इस प्रकार मैंने तुम से यह पुराण तथा आगम का सारभूत सारा तत्त्व सुना दिया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ? ( अध्याय ७)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारद नारायणसंवादे युगतन्माहात्म्यमन्वन्तरकालेश्वरगुणनिरूपणं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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