October 21, 2024 | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 01 ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः पहला अध्याय मङ्गलाचरण, नैमिषारण्य में आये हुए सौति से शौनक के प्रश्न तथा सौति द्वारा ब्रह्मवैवर्तपुराण का परिचय देते हुए इसके महत्त्व का निरूपण गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥ १ ॥ गणेश, ब्रह्मा, महादेवजी, देवराज इन्द्र, शेषनाग आदि सब देवता, मनु, मुनीन्द्र, सरस्वती, लक्ष्मी तथा पार्वती आदि देवियाँ भी जिन्हें मस्तक झुकाती हैं, उन सर्वव्यापी परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूँ। स्थूलास्तनूर्विदधतं त्रिगुणं विराजं विश्वानि लोमविवरेषु महान्तमाद्यम् । सृष्ट्युन्मुखः स्वकलयापि ससर्ज सूक्ष्मं नित्यं समेत्य हृदि यस्तमजं भजामि ॥ २ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय जो सृष्टि के लिए उन्मुख हो, तीन गुणों को स्वीकार करके ब्रह्मा, विष्णु और शिव नाम वाले तीन दिव्य स्थूल शरीरों को ग्रहण करते तथा विराट पुरुष रूप हो अपने रोमकूपों में सम्पूर्ण विश्व को धारण करते हैं, जिन्होंने अपनी कला द्वारा भी सृष्टि-रचना की है तथा जो सूक्ष्म तथा अन्तर्यामी आत्मा रूप से सदा सबके हृदय में विराजमान हैं, उन महान आदिपुरुष अजन्मा परमेश्वर का मैं भजन करता हूँ । ध्यायन्ते ध्याननिष्ठाः सुरनरमनवो योगिनो योगरूढा सन्तः स्वप्नेऽपि सन्तं कतिकतिजनिभिर्यं न पश्यन्ति तप्त्वा । ध्याये स्वेच्छामयं तं त्रिगुणपरमहो निर्विकारं निरीहं भक्तध्यानैकहेतोर्निरुपमरुचिरश्यामरूपं दधानम् ॥ ३ ॥ ध्यानपरायण देवता, मनुष्य और स्वायम्भुव आदि मनु जिनका ध्यान करते हैं, योगारूढ़ योगीजन जिनका चिन्तन करते हैं, जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति सभी अवस्थाओं में विद्यमान होने पर भी जिन्हें बहुत-से साधक संत कितने ही जन्मों तक तपस्या करके भी देख नहीं पाते हैं तथा जो केवल भक्त पुरुषों के ध्यान करने के लिये स्वेच्छामय अनुपम एवं परम मनोहर श्याम रूप धारण करते हैं, उन त्रिगुणातीत निरीह एवं निर्विकार परमात्मा श्रीकृष्ण का मैं ध्यान करता हूँ । वन्दे कृष्णं गुणातीतं परं ब्रह्माच्युतं यतः । आविर्बभूवुः प्रकृतिब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ 4 ॥ जिनसे प्रकृति, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि का आविर्भाव हुआ है, उन त्रिगुणातीत परब्रह्म परमात्मा अच्युत श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ । हे भोले-भाले मनुष्यों ! व्यासदेव ने श्रुतिगणों को बछड़ा बनाकर भारती रूपिणी कामधेनु से जो अपूर्व, अमृत से भी उत्तम, अक्षय, प्रिय एवं मधुर दूध दुहा था, वही यह अत्यन्त सुन्दर ब्रह्म वैवर्त पुराण है । तुम अपने श्रवणपुटों द्वारा इसका पान करो, पान करो । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॐ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ परमपुरुष नारायण, नरश्रेष्ठ नर, इनकी लीलाओं को प्रकट करने वाली देवी सरस्वती तथा उन लीलाओं का गान करने वाले वेदव्यास को नमस्कार करके फिर जय का उच्चारण (इतिहास-पुराण का पाठ) करना चाहिये । भारतवर्ष के नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक आदि ऋषि प्रातःकाल नित्य और नैमित्तिक क्रियाओं का अनुष्ठान करके कुशासन पर बैठे हुए थे । इसी समय सूतपुत्र उग्रश्रवा अकस्मात वहाँ आ पहुँचे । आकर उन्होंने विनीत भाव से मुनियों के चरणों में प्रणाम किया । उन्हें आया देख ऋषियों ने बैठने के लिये आसन दिया । मुनिवर शौनक ने भक्तिभाव से उन नवागत अतिथि का भली-भाँति पूजन करके प्रसन्नतापूर्वक उनका कुशल-समाचार पूछा । शौनक जी शम आदि गुणों से सम्पन्न थे, पौराणिक सूत जी भी शान्त चित्त वाले महात्मा थे । अब वे रास्ते की थकावट से छूटकर सुस्थिर आसन पर आराम से बैठे थे । उनके मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी । उन्हें पुराणों के सम्पूर्ण तत्त्व का ज्ञान था । शौनक जी भी पुराण-विद्या के ज्ञाता थे । वे मुनियों की उस सभा में विनीत भाव से बैठे थे और आकाश में ताराओं के बीच चन्द्रमा की भाँति शोभा पा रहे थे । उन्होंने परम विनीत सूत जी से एक ऐसे पुराण के विषय में प्रश्न किया, जो परम उत्तम, श्रीकृष्ण की कथा से युक्त, सुनने में सुन्दर एवं सुखद, मंगलमय, मंगलयोग्य तथा सर्वदा मंगलधाम हो, जिसमें सम्पूर्ण मंगलों का बीज निहित हो; जो सदा मंगलदायक, सम्पूर्ण अमंगलों का विनाशक, समस्त सम्पत्तियों की प्राप्ति कराने वाला, और श्रेष्ठ हो; जो हरि भक्ति प्रदान करने वाला, नित्य परमानन्ददायक, मोक्षदाता, तत्त्वज्ञान की प्राप्ति कराने वाला तथा स्त्री-पुत्र एवं पौत्रों की वृद्धि करने वाला हो । शौनक जी ने पूछा — सूत जी ! आपने कहाँ के लिये प्रस्थान किया है और कहाँ से आप आ रहे हैं ? आपका कल्याण हो । आज आपके दर्शन से हमारा दिन कैसा पुण्यमय हो गया । हम सभी लोग कलियुग में श्रेष्ठ ज्ञान से वंचित होने के कारण भयभीत हैं । संसार-सागर में डूबे हुए हैं और इस कष्ट से मुक्त होना चाहते हैं । हमारा उद्धार करने के लिये ही आप यहाँ पधारे हैं । आप बड़े भाग्यशाली साधु पुरुष हैं । पुराणों के ज्ञाता हैं । सम्पूर्ण पुराणों में निष्णात हैं और अत्यन्त कृपानिधान हैं । महाभाग ! जिसके श्रवण और पठन से भगवान श्रीकृष्ण में अविचल भक्ति प्राप्त हो तथा जो तत्त्वज्ञान को बढ़ाने वाला हो, उस पुराण की कथा कहिये । सूतनन्दन ! जो मोक्ष से भी बढ़कर है, कर्म का मूलोच्छेद करने वाली तथा संसार रूपी कारागार में बँधे हुए जीवों की बेड़ी काटने वाली है, वह कृष्ण-भक्ति ही जगत्-रूपी दावानल से दग्ध हुए जीवों पर अमृत-रस की वर्षा करने वाली है । वही जीवधारियों के हृदय में नित्य-निरन्तर परम सुख एवं परमानन्द प्रदान करती है । श्रीकृष्णे निश्चला भक्तिर्यतो भवति शाश्वती । तत् कथ्यतां महाभाग पुराणं ज्ञानवर्द्धनम् ॥ गरीयसी या मोक्षाच्च कर्ममूलनिकृन्तनी । संसारसंनिबद्धानां निगडच्छेदकर्तरी ॥ भवदावाग्रिदग्धानां पीयूषवृष्टिवर्षिणी । सुखदाऽऽनन्ददा सौते शश्वच्चेतसि जीविनाम् ॥ (ब्रह्मखण्ड १ । १२-१४) आप वह पुराण सुनाइये, जिसमें पहले सबके बीज (कारणतत्त्व) का प्रतिपादन तथा परब्रह्म के स्वरूप का निरूपण हो । सृष्टि के लिये उन्मुख हुए उस परमात्मा की सृष्टि का भी उत्कृष्ट वर्णन हो । मैं यह जानता हूँ कि परमात्मा का स्वरूप साकार है या निराकार ? ब्रह्म का स्वरूप कैसा है ? उसका ध्यान अथवा चिन्तन कैसे करना चाहिये ? वैष्णव महात्मा किसका ध्यान करते हैं ? तथा शान्तचित्त योगीजन किसका चिन्तन किया करते हैं ? वेद में किन के गूढ़ एवं प्रधान मत का निरूपण किया गया है ? वत्स ! जिस पुराण में प्रकृति के स्वरूप का निरूपण हुआ हो, गुणों का लक्षण वर्णित हो तथा ‘महत्’ आदि तत्त्वों का निर्णय किया गया हो; जिसमें गोलोक, वैकुण्ठ, शिवलोक तथा अन्यान्य स्वर्गादि लोकों का वर्णन हो तथा अंशों और कलाओं का निरूपण हो, उस पुराण को श्रवण कराइये । सूतनन्दन ! प्राकृत पदार्थ क्या है ? प्रकृति क्या है तथा प्रकृति से परे जो आत्मा या परमात्मा है, उसका स्वरूप क्या है ? जिन देवताओं और देवांगनाओं का भूतल पर गूढ़ रूप से जन्म या अवतरण हुआ है, उनका भी परिचय दीजिये । समुद्रों, पर्वतों और सरिताओं के प्रादुर्भाव की भी कथा कहिये । प्रकृति के अंश कौन हैं ? उसकी कलाएँ और उन कलाओं की भी कलाएँ क्या हैं ? उन सबके शुभ चरित्र, ध्यान, पूजन और स्तोत्र आदि का वर्णन कीजिये । जिस पुराण में दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी और सावित्री का वर्णन हो, श्रीराधिका का अत्यन्त अपूर्व और अमृतोपम आख्यान हो, जीवों के कर्मविपाक का प्रतिपादन तथा नरकों का भी वर्णन हो, जहाँ कर्मबन्धन का खण्डन तथा उन कर्मों से छूटने के उपाय का निरूपण हो, उसे सुनाइये । जिन जीवधारियों को जहाँ जो-जो शुभ या अशुभ स्थान प्राप्त होता हो, उन्हें जिस कर्म से जिन-जिन योनियों में जन्म लेना पड़ता हो, इस लोक में देहधारियों को जिस कर्म से जो-जो रोग होता हो तथा जिस कर्म के अनुष्ठान से उन रोगों से छुटकारा मिलता हो, उन सबका प्रतिपादन कीजिये । सूतनन्दन ! जिस पुराण में मनसा, तुलसी, काली, गंगा और वसुन्धरा पृथ्वी — इन सबका तथा अन्य देवियों का भी मंगलमय आख्यान हो, शालग्राम-शिलाओं तथा दान के महत्त्व का निरूपण हो अथवा जहाँ धर्माधर्म के स्वरूप का अपूर्व विवेचन उपलब्ध होता हो, उसका वर्णन कीजिये । जहाँ गणेश जी के चरित्र, जन्म और कर्म का तथा उनके गूढ़ कवच, स्तोत्र और मन्त्रों का वर्णन हो, जो उपाख्यान अत्यन्त अद्भुत और अपूर्व हो, तथा कभी सुनने में न आया हो, वह सब मन-ही-मन याद करके इस समय आप उसका वर्णन करें । परमात्मा श्रीकृष्ण सर्वत्र परिपूर्ण हैं तथापि इस जगत् में पुण्य-क्षेत्र भारतवर्ष में जन्म लेकर उन्होंने नाना प्रकार के लीला-विहार किये । मुने ! जिस पुराण में उनके इस अवतार तथा लीला-विहार का वर्णन हो, उसकी कथा कहिये । उन्होंने किस पुण्यात्मा के पुण्यमय गृह में अवतार ग्रहण किया था ? किस धन्या, मान्या, पुण्यवती सती नारी ने उनको पुत्ररूप से उत्पन्न किया था ? उसके घर में प्रकट होकर वे भगवान फिर कहाँ और किस कारण से चले गये ? वहाँ जाकर उन्होंने क्या किया और वहाँ से फिर अपने स्थान पर कैसे आये ? किसकी प्रार्थना से उन्होंने पृथ्वी का भार उतारा ? तथा किस सेतु का निर्माण (मर्यादा की स्थापना) करके वे भगवान पुनः गोलोक को पधारे ? इन सबसे तथा अन्य उपाख्यानों से परिपूर्ण जो श्रुति दुर्लभ पुराण है, उसका सम्यक ज्ञान मुनियों के लिये भी दुर्लभ है । वह मन को निर्मल बनाने का उत्तम साधन है । अपने ज्ञान के अनुसार मैंने जो भी शुभाशुभ बात पूछी है या नहीं पूछी है, उसके समाधान से युक्त जो पुराण तत्काल वैराग्य उत्पन्न करने वाला हो, मेरे समक्ष उसी की कथा कहिये । जो शिष्य के पूछे अथवा बिना पूछे हुए विषय की भी व्याख्या करता है तथा योग्य और अयोग्य के प्रति भी समभाव रखता है, वही सत्पुरुषों में श्रेष्ठ सद्गुरु है । सौति बोले — मुने ! आपके चरणारविन्दों का दर्शन मिल जाने से मेरे लिये सब कुशल-ही-कुशल है । इस समय मैं सिद्धक्षेत्र से आ रहा हूँ और नारायणाश्रम को जाता हूँ । यहाँ ब्राह्मण समूह को उपस्थित देख नमस्कार करने के लिये चला आया हूँ । साथ ही भारतवर्ष के पुण्यदायक क्षेत्र नैमिषारण्य का दर्शन भी मेरे यहाँ आगमन का उद्देश्य है । जो देवता, ब्राह्मण और गुरु को देखकर वेगपूर्वक उनके सामने मस्तक नहीं झुकाता है, वह ‘कालसूत्र’ नामक नरक में जाता है तथा जब तक चन्द्रमा और सूर्य की सत्ता रहती है, तब तक वह वहीं पड़ा रहता है । साक्षात् श्रीहरि ही भारतवर्ष में ब्राह्मण रूप से सदा भ्रमण करते रहते हैं । श्रीहरि-स्वरूप उस ब्राह्मण को कोई पुण्यात्मा ही अपने पुण्य के प्रभाव से प्रणाम करता है । भगवन ! आपने जो कुछ पूछा है तथा आपको जो कुछ जानना अभीष्ट है, वह सब आपको पहले से ही ज्ञात है, तथापि आपकी आज्ञा शिरोधार्य कर मैं इस विषय में कुछ निवेदन करता हूँ । पुराणों में सारभूत जो ब्रह्मवैवर्त नामक पुराण है, वही सबसे उत्तम है । वह हरि भक्ति देने वाला तथा सम्पूर्ण तत्त्वों के ज्ञान की वृद्धि करने वाला है । यह भोग चाहने वालों को भोग, मुक्ति की इच्छा रखने वालों को मोक्ष तथा वैष्णवों को हरि भक्ति प्रदान करने वाला है । सबकी इच्छा पूर्ण करने के लिये यह साक्षात कल्पवृक्ष-स्वरूप है । इसके ब्रह्मखण्ड में सर्व बीज स्वरूप उस परब्रह्म परमात्मा का निरूपण है जिसका योगी, संत और वैष्णव ध्यान करते हैं तथा जो परात्पर-रूप है । शौनक जी ! वैष्णव, योगी और अन्य संत महात्मा एक-दूसरे से भिन्न नहीं हैं । जीवधारी मनुष्य अपने ज्ञान के परिणाम स्वरूप क्रमशः संत, योगी और वैष्णव होते हैं । सत्संग से मनुष्य संत होते हैं । योगियों के संग से योगी होते हैं तथा भक्तों के संग से वैष्णव होते हैं । ये क्रमशः उत्तरोत्तर श्रेष्ठ योगी हैं । ब्रह्मखण्ड के अनन्तर प्रकृति खण्ड है, जिसमें देवताओं, देवियों और सम्पूर्ण जीवों की उत्पत्ति का कथन है । साथ ही देवियों के शुभ चरित्र का वर्णन है । जीवों के कर्मविपाक और शालग्राम-शिला के महत्त्व का निरूपण है । उन देवियों के कवच, स्तोत्र, मन्त्र और पूजा-पद्धति का भी प्रतिपादन किया गया है । उस प्रकृति खण्ड में प्रकृति के लक्षण का वर्णन है । उसके अंशों और कलाओं का निरूपण है । उनकी कीर्ति का और कीर्तन तथा प्रभाव का प्रतिपादन है । पुण्यात्माओं और पापियों को जो-जो शुभाशुभ स्थान प्राप्त होते हैं, उनका वर्णन है । पापकर्म से प्राप्त होने वाले नरकों तथा रोगों का कथन है । उनसे छूटने के उपाय का भी विचार किया गया है । प्रकृति खण्ड के पश्चात गणपति खण्ड में गणेश जी के जन्म का वर्णन है । उनके उस अत्यन्त अपूर्व चरित्र का निरूपण है, जो श्रुतियों और वेदों के लिये भी परम दुर्लभ है । गणेश और भृगु जी के संवाद में सम्पूर्ण तत्त्वों का निरूपण है । गणेश जी के गूढ़ कवच और स्तोत्र, मन्त्र तथा तन्त्रों का वर्णन है । तत्पश्चात् श्रीकृष्णजन्म खण्ड का कीर्तन हुआ है । भारतवर्ष के पुण्यक्षेत्र में श्रीकृष्ण के दिव्य जन्म-कर्म का वर्णन है । उनके द्वारा पृथ्वी के भार उतारे जाने का प्रसंग है । उनके मंगलमय क्रीडा-कौतुकों का वर्णन है । सत्पुरुषों के लिये जो धर्मसेतु का विधान है, उसका निरूपण भी श्रीकृष्णजन्म खण्ड में ही हुआ है । विप्रवर शौनक ! इस प्रकार मैंने उत्तम पुराण शिरोमणि ब्रह्मवैवर्त का परिचय दिया । यह ब्रह्म आदि चार खण्डों में बँटा हुआ है । इसमें सम्पूर्ण धर्मों का निरूपण है । यह पुराण सब लोगों को अत्यन्त प्रिय है तथा सबकी समस्त आशाओं को पूर्ण करने वाला है । इसका नाम ब्रह्मवैवर्त है । यह सम्पूर्ण अभीष्ट पदों को देने वाला है । पुराणों में सारभूत है । इसकी तुलना वेद से की गयी है । भगवान् श्रीकृष्ण ने इस पुराण में अपने सम्पूर्ण ब्रह्मभाव को विवृत (प्रकट) किया है, इसीलिये पुराणवेत्ता महर्षि इसे ‘ब्रह्मवैवर्त’ कहते हैं । पूर्वकाल में निरामय गोलोक के भीतर परमात्मा श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा जी को इस पुराण सूत्र का दान दिया था । फिर ब्रह्मा जी ने महान तीर्थ पुष्कर में धर्म को इसका उपदेश दिया । धर्म ने अपने पुत्र नारायण को प्रसन्नतापूर्वक यह पुराण प्रदान किया । भगवान् नारायण ऋषि ने नारद को और नारद जी ने गंगाजी के तट पर व्यासदेव को इसका उपदेश दिया । व्यास जी ने उस पुराण सूत्र का विस्तार करके उसे अत्यन्त विशाल रूप देकर पुण्यदायक सिद्धक्षेत्र में मुझे सुनाया । यह पुराण बड़ा ही मनोहर है । ब्रह्मन् ! अब मैं आपके सामने इसकी कथा आरम्भ करता हूँ । आप इस सम्पूर्ण पुराण को सुनें । व्यास जी ने इस पुराण को अठारह हजार श्लोकों में विस्तृत किया है । सम्पूर्ण पुराणों के श्रवण से मनुष्य को जो फल प्राप्त होता है, वह निश्चय ही इसके एक अध्याय को सुनने से मिल जाता है । ॥ श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डेऽनुक्रमणिका नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Related