March 11, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 101 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) एक सौ एकवाँ अध्याय नन्द आदि समागत अभ्यागतों की बिदाई और वसुदेव-देवकी का अनेकविध वस्तुओं का दान करना नारायण बोले — मुने! इस प्रकार जब देवताओं और मुनियों ने मन-ही-मन श्रीकृष्ण की स्तुति करके विराम लिया, तब आँगन में पीले वस्त्र से सुशोभित श्रीकृष्ण को देखा। उस समय उनकी वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसी मालती की माला से सुशोभित बकपङ्क्ति तथा बिजली से युक्त नूतन मेघ की होती है। उनके ललाट पर कस्तूरीयुक्त चन्दन का मण्डलाकार तिलक बादल में छिपे हुए कलङ्कयुक्त चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहा था। उनके दो भुजाएँ थीं । उन राधाकान्त का शरीर श्याम, कमनीय और मनोहर था । उनके प्रसन्नमुख पर मन्द मुस्कान की छटा थी । वे भक्तानुग्रह-मूर्ति तथा रत्नों के बाजूबंद, कङ्कण और करधनी से सुशोभित थे और बलरामसहित पिता की गोद में विराज रहे थे। तदनन्तर मनोरम शुभ लग्न के आने पर जब कि लग्नेश उच्च स्थान में स्थित था, उस पर सौम्य ग्रहों की दृष्टि पड़ रही थी, केवल सद्ग्रह ही उसे देख रहे थे तथा वह असद्ग्रहों की दृष्टि से परे था। ऐसे मङ्गल-काल में देवताओं और ब्राह्मणों की आज्ञा से वसुदेवजी ने स्वस्तिवाचन पूर्वक शुभकर्म आरम्भ किया। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय उस समय उन्होंने ब्राह्मण को आदरसहित सौ मोहरें दान देकर देवगण, मुनिगण, पुरोहित गर्गजी, गणेश, सूर्य, अग्नि, शंकर और पार्वती को नमस्कार किया । फिर उस देवसमाज में छः प्रधान देवताओं की भक्तिपूर्वक अक्षतसहित षोडशोपचार द्वारा पूजा करके वेदमन्त्रोच्चारणपूर्वक पुत्र का अधिवासन (सुगन्धित पदार्थ का अनुलेप अर्थात् हरिद्राकर्म) किया। फिर अनेकानेक देवताओं, दिक्पालों और नवग्रहों का भलीभाँति पूजन करके षोडश मातृकाओं को भक्तिपूर्वक पञ्चोपचार समर्पित किया। घी से सात बार वसुधारा दिया। पुन: चेदिराज वसु का पूजन- नमस्कार करके वे आगे बढ़े और वृद्धिश्राद्ध को समाप्त करके जो कुछ अन्य देवसम्बन्धी कार्य था; उसे सम्पन्न किया। इसके बाद वेदोक्त यज्ञ करके हर्षपूर्वक अग्रज बलदेव और परमात्मा श्रीकृष्ण को यज्ञसूत्र (जनेऊ) पहनाया। मुनिवर सांदीपनि ने उन दोनों को गायत्री मन्त्र प्रदान किया। पहले-पहल पार्वती ने बड़े आदर के साथ बहुमूल्य रत्न द्वारा निर्मित पात्र में रखे हुए मोती, माणिक्य और हीरों को भिक्षारूप में समर्पित किया। पिता वसुदेवजी ने हीरे का बना हुआ हार देकर श्वेत पुष्प और दूर्वाङ्कुर द्वारा शुभाशीर्वाद प्रदान किया। तत्पश्चात् अदिति, दिति, मुनिपत्नियाँ, देवकी, यशोदा, रोहिणी, सावित्री और सरस्वती – इन सभी ने हर्षपूर्वक अलग- अलग मणि और सुवर्ण से भूषित भिक्षा प्रदान की। इसके बाद जिनके नेत्र स्निग्ध थे और मुख पर मुस्कान की छटा छा रही थी; वे देवकन्याएँ, नागकन्याएँ, राजकन्याएँ, पतिव्रताएँ, भाई-बन्धुओंकी स्त्रियाँ, इन्द्राणी, वरुणानी, पवन – पत्नी, रोहिणी, कुबेर- पत्नी, स्वाहा और कामदेव की प्रियतमा रति- इन लोगों ने पृथक्- पृथक् रत्नाभरणों से विभूषित भिक्षा दी। तब बलरामसहित भगवान् श्रीकृष्ण ने भक्तिपूर्वक भिक्षा ग्रहण करके उसका कुछ भाग पुरोहित गर्गजी को तथा कुछ भाग अपने गुरु सांदीपनि मुनि को दे दिया । फिर वैदिक कर्म समाप्त करके गर्गजी को दक्षिणा दी गयी । आदरपूर्वक देवताओं और ब्राह्मणों को भी भोजन कराया गया । तदनन्तर उस यज्ञ में जो-जो लोग आये थे, वे सभी बलदेव और श्रीकृष्ण को शुभाशीर्वाद देकर प्रसन्नमन से अपने-अपने गृह को लौट गये। तब पत्नी सहित नन्द पुत्र के उस शुभकर्म को समाप्त करके बलराम और श्रीकृष्ण को गोद में लेकर उन दोनों का मुख चूमने लगे। उस समय नन्द और पतिव्रता यशोदा उच्चस्वर से रो पड़ीं, तब श्रीकृष्ण ने बड़े यत्न से उन्हें आश्वासन देकर समझाते हुए कहा । श्रीकृष्ण बोले — तात! तुम मेरे परमार्थतः पिता हो और हे माता यशोदा ! तुम्हीं मेरी पालन- पोषण करने वाली माता हो । अब तुम लोग आनन्दपूर्वक शीघ्र ही व्रज को लौट जाओ। पिताजी! इस समय मैं बलरामजी के साथ वेदाध्ययन करने के लिये मुनिवर सांदीपनि के निवासस्थान अवन्तिनगर को जाऊँगा । चिरकाल के बाद वहाँ से लौटने पर पुनः आपके दर्शन होंगे। माताजी ! काल ही ग्रहण करता है और वही भेद उत्पन्न करता है । यहाँ तक कि मनुष्यों के जो वियोग, मिलन, सुख, दुःख, शोक और मङ्गल आदि हैं; उन सबका कर्ता काल ही है। मैंने जो तत्त्व पिताजी को बतलाया है, वह योगियों के लिये भी दुर्लभ है। वे आनन्दपूर्वक वह सारा रहस्य तुम्हें बतलायेंगे। इतना कहकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण वसुदेवजी की सभा में चले गये और क्षणभर वहाँ ठहरकर पिता की आज्ञा से महर्षि सांदीपनि के आश्रम को प्रस्थित हुए । तदनन्तर यशोदासहित नन्दजी विनयपूर्वक वसुदेव-देवकी से वार्तालाप करके दुःखी हृदय से जाने को उद्यत हुए। उस समय देवकी ने नन्दजी को मुक्तामणि, सुवर्ण, माणिक्य, हीरा, रत्न और अग्निशुद्ध वस्त्र भेंट किये। वसुदेवजी और श्रीकृष्ण ने उन्हें आदरपूर्वक श्वेत अश्व, गजराज, सुवर्ण और उत्तम रथ प्रदान किये। फिर नन्द- यशोदा के चलने पर बहुत-से ब्राह्मण, देवकी आदि प्रमुख महिलाएँ, वसुदेव, अक्रूर और उद्धव भी हर्षपूर्वक उनके पीछे-पीछे चले। यमुना के निकट पहुँचकर वे सभी शोक के कारण रोने लगे। फिर परस्पर वार्तालाप करके वे सब-के-सब अपने-अपने घर को चले गये। मुने! तदनन्तर विधवा कुन्ती तरह-तरह के रत्नों और मणियों की भेंट पाकर वसुदेवजी की आज्ञा से पुत्रोंसहित आनन्दपूर्वक अपने गृह को प्रस्थित हुईं। इधर वसुदेव और देवकी ने पुत्र के कल्याण के लिये अनेक प्रकार के रत्न, मणि, वस्त्र, सोना, चाँदी, मोतियों और हीरों के हार और अमृत- तुल्य मिष्टान्न भट्ट ब्राह्मणों को आदरपूर्वक हर्षपूर्ण मन से समर्पित किये । फिर यत्नपूर्वक महोत्सव मनाया गया; जिसमें वेद पाठ, हरिनाम संकीर्तन और ब्राह्मणों को भोजन कराया गया। इसके बाद जाति-भाइयों को यथोचित रूप से मनोहर मणि, माणिक्य, मोती और वस्त्र पुरस्काररूप में दिये। (अध्याय १०१ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे भगवदुपनयनं नामैकाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०१ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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