ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 109
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
एक सौ नौवाँ अध्याय
बारात की बिदाई, भीष्मक द्वारा दहेज-दान और द्वारका में मङ्गलोत्सव

श्रीनारायण कहते हैं — इसी समय रुक्मिणी की माता महारानी सुन्दरी सुभद्रा आनन्दमग्न हो पति-पुत्रवती साध्वी महिलाओं के साथ वहाँ आयीं और निर्मन्थन आदि मङ्गल-कार्य करके दम्पति को एक ऐसे रत्ननिर्मित महल में लिवा ले गयीं, जो नाना प्रकार की विचित्र चित्रकारी से सुशोभित, हीरे के हार से विभूषित तथा मोती, माणिक्य, रत्न और दर्पण से उद्दीप्त था। वहीं श्रीकृष्ण ने दुर्गतिनाशिनी दुर्गा, सरस्वती, सावित्री, रति, सती, रोहिणी, पतिव्रता देवपत्नी, राजपत्नी और मुनिपत्नियों को देखा, जो रत्नाभरणों से विभूषित हो रत्ननिर्मित सिंहासनों पर आसीन थीं। वे सभी जगदीश्वर श्रीकृष्ण को निकट आया देखकर अपने-अपने आसनों से उठ पड़ीं और प्रसन्नतापूर्वक उन्हें एक रमणीय रत्नसिंहासन पर बैठाया।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

फिर समागत देवाङ्गनाओं तथा मुनिपत्नियों ने अञ्जलि बाँधकर क्रमशः पृथक्-पृथक् उन माधव की स्तुति की। महारानी सुभद्रा ने वरसहित कन्या को भोजन कराया और सुवासित जल तथा कर्पूरयुक्त उत्तम पान प्रदान किया । तदनन्तर वहाँ दुर्गादेवी ने सभी महिलाओं की आज्ञा से श्रीकृष्ण के हाथ में मङ्गल-पत्रिका दी और उनसे उसे पढ़ने के लिये कहा। तब देवियों के उस समाज में श्रीकृष्ण मुस्कराते हुए उस पत्रिका को पढ़ने लगे।

(उसमें लिखा था — ) लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, सावित्री, सती, राधिका, तुलसी, पृथ्वी, गङ्गा, अरुन्धती, यमुना, अदिति, शतरूपा, सीता, देवहूति, मेनका — ये सभी देवियाँ दम्पति का परम मङ्गल करें।

लक्ष्मी सरस्वती दुर्गा सावित्री राधिका सती ॥ १० ॥
तुलसी पृथिवी गङ्गाऽरुन्धति यमुनाऽदितिः ।
शतरूपा च सीता च देवहूतिश्च मेनका ॥ ११ ॥
दैव्यश्चैताश्च दंपत्योः कुर्वन्तु परम् ।

 जब श्रीकृष्णने इस प्रकार पढ़ा, तब वे उसे सुनकर विनोद करने लगीं ।

तदनन्तर राजा भीष्मक ने भी देवगणों, मुनिवरों तथा भूपालों का विधिपूर्वक पूजन किया और उन्हें आदरसहित भोजन कराया। उस समय कुण्डिननग रमें माङ्गलिक वाद्य और संगीत के साथ-साथ ‘लोगो ! खाओ – खाओ, देते जाओ-देते जाओ’ ऐसे शब्द गूँज रहे थे। प्रातः काल होने पर ब्रह्मा, शिव और शेष आदि देवता तथा भूपालगण उतावलीपूर्वक अपने-अपने वाहनों पर सवार हुए। इधर महाराज उग्रसेन और वसुदेवजी ने भी शीघ्रतापूर्वक श्रीकृष्ण और सती रुक्मिणीकी यात्रा करायी।

उस समय रुक्मिणी की माता सुभद्रा कन्या को अपनी छाती से लगाकर उसकी सखियों तथा बान्धवों के साथ उच्च स्वर से रोने लगीं और इस प्रकार बोलीं ।

सुभद्रा ने कहा — वत्से ! तू मुझ अपनी माता का परित्याग करके कहाँ जा रही है ? भला, मैं तुझे छोड़कर कैसे जी सकूँगी ? और तू भी मेरे बिना कैसे जीवन धारण करेगी ? रानी बेटी ! तू महालक्ष्मी है, तूने माया से ही कन्या का रूप धारण कर रखा है । अब तू वसुदेव-नन्दन की प्रिया होकर मेरे घर से वसुदेवजी के भवन को जा रही है ।

यों कहकर रानी ने शोकवश नेत्रों के जल से अपनी कन्या को भिगो दिया। भीष्मक ने भी आँखों में आँसू भरकर अपनी कन्या श्रीकृष्ण को समर्पित कर दी। इस प्रकार उसका परिहार करके वे फूट-फूटकर रोने लगे। तब रुक्मिणीदेवी तथा श्रीकृष्ण भी लीला से आँसू टपकाने लगे । तत्पश्चात् वसुदेवजी ने पुत्र और पुत्रवधू को रथ पर चढ़ाया। इस अवसर पर राजा भीष्मक अपने जामाता को दहेज देने लगे। उन्होंने हर्षपूर्ण हृदय से एक हजार गजराज, छः हजार घोड़े, एक सहस्र दासियाँ, सैकड़ों नौकर, अमूल्य रत्नों के बने हुए आभूषण, एक हजार रत्न, पाँच लाख शुद्ध सुवर्ण की मोहरें, विश्वकर्मा द्वारा निर्मित सोने के सुन्दर-सुन्दर जलपात्र तथा भोजनपात्र, बहुत-सी गायें, एक हजार दूधवाली सवत्सा धेनुएँ और बहुत-से बहुमूल्य रमणीय अग्निशुद्ध वस्त्र प्रदान किये।

तब वसुदेव और उग्रसेन देवताओं और मुनियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र ही द्वारका की ओर चले । वहाँ अपनी रमणीय पुरी में प्रवेश करके उन्होंने मङ्गल- कृत्य कराये, सुन्दर एवं अत्यन्त मनोहर बाजे बजवाये। तदनन्तर देवकी, सुन्दरी रोहिणी, नन्दपनी यशोदा, अदिति, दिति तथा अन्यान्य सौभाग्यवती नारियाँ श्रीकृष्ण और सुन्दरी रुक्मिणी की ओर बारंबार निहारकर उन्हें घर के भीतर लिवा ले गयीं और उन्होंने उनसे मङ्गल-कृत्य करवाये । फिर देवताओं, मुनिवरों, नरेशों और भाई- बन्धुओं को चतुर्विध (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य) भोजन कराकर उन्हें बिदा किया । पुनः हर्षमग्न हो भट्ट ब्राह्मणों को इतने रत्न आदि दान किये, जिससे वे प्रसन्न और संतुष्ट हो गये । उन्हें भोजन भी कराया। इस प्रकार भोजन करके और धन लेकर वे सभी खुशी-खुशी अपने घरों को गये । यों वसुदेव-पत्नी ने सारा मङ्गल-कार्य सम्पन्न कराया ।   (अध्याय १०९)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद रुक्मिण्यु-द्वाहो नाम नवाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०९ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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