March 15, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 121 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय शृगालोपाख्यान श्रीनारायण कहते हैं — नारद! एक समय की बात है। श्रीकृष्ण अपने गणों के साथ सुधर्मा- सभा में विराजमान थे। उसी समय वहाँ एक ब्राह्मणदेवता आये, जो ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे। वहाँ आकर उन्होंने पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का दर्शन किया और भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति की। फिर वे शान्त एवं भयभीत हो विनयपूर्वक मधुर वचन बोले । ब्राह्मण ने कहा — प्रभो ! वासुदेव शृगाल नामक एक मण्डलेश्वर राजाधिराज है; वह आपकी अत्यन्त निन्दा करता है और कहता है कि ‘वैकुण्ठ में चतुर्भुज देवाधिदेव लक्ष्मीपति वासुदेव मैं ही हूँ। मैं ही लोकों का विधाता और ब्रह्मा का पालक हूँ। पृथ्वी का भार उतारने के लिये ब्रह्मा ने मेरी प्रार्थना की थी; इसी कारण भारतवर्ष में मेरा आगमन हुआ है। मैंने महाबली दैत्यराज हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, मधु और कैटभ को मारकर सृष्टि की रक्षा की है। मैं ही स्वयं ब्रह्मा, मैं ही स्वयं शिव तथा मैं ही लोकों का पालक एवं दुष्टों का संहारक विष्णु हूँ। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सभी मनुगण तथा मुनि-समुदाय मेरे अंशकला से उत्पन्न हुए हैं। मैं स्वयं प्रकृति से परे निर्गुण नारायण हूँ । भद्र ! अब तक मैंने तुम्हें लज्जा तथा कृपा के कारण मित्र-बुद्धि से क्षमा कर दिया था; किंतु जो बीत गया, सो बीत गया; अब तुम मेरे साथ युद्ध करो। मैंने दूत के मुख से सुना है कि तुम्हारा अहंकार बहुत बढ़ गया है; अतः उसका दमन करना उचित है। ऊँचे सिर उठाने वालों को कुचल डालना राजा का परम धर्म है और इस समय मैं ही पृथ्वी का शासक हूँ। मैं स्वयं चतुर्भुजरूप धारण करके शङ्ख-चक्र-गदा-पद्म लेकर सेनासहित युद्ध के लिये उस द्वारका को जाऊँगा । यदि तुम्हारी इच्छा हो तो युद्ध करो; अन्यथा मेरी शरण ग्रहण करो । यदि तुम शरणागत होकर मेरी शरण में नहीं आ जाओगे तो मैं क्षणभर में ही द्वारका को भस्म कर डालूँगा। मैं अकेला ही लीलापूर्वक क्षणभर में सेना, पुत्र, गण और बन्धु-बान्धवों सहित तुम्हें जला डालने में समर्थ हूँ ।’ मनु ! यों कहकर वह ब्राह्मण मौन हो गया । उसे सुनकर सदस्यों सहित श्रीकृष्ण ठठाकर हँस पड़े। फिर उन्होंने ब्राह्मण का भली-भाँति आदर-सत्कार करके उन्हें चारों प्रकार के पदार्थ (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य) भोजन कराये । शृगाल के वाग्बाण उनके मन में कसक पैदा कर रहे थे; इसलिये बड़े क्षोभ से उन्होंने वह रात बितायी । प्रातःकाल होते ही वे बड़ी उतावली के साथ हर्षपूर्वक गणोंसहित रथ पर सवार हो सहसा वहाँ जा पहुँचे, जहाँ राजा शृगाल था । उनके आने का समाचार सुनकर राजा शृगाल कृत्रिम रूप से चार भुजा धारण करके गणोंसहित युद्ध के लिये श्रीहरि के स्थान पर आया । श्रीकृष्ण ने मित्र-बुद्धि से उसकी ओर स्नेहभरी दृष्टि से देखकर मुस्कराते हुए मधुर वचनों द्वारा लौकिक रीति से उससे वार्तालाप किया। राजा शृगाल ने श्रीकृष्ण को निमन्त्रित किया; परंतु उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। तब वह श्रीकृष्ण से भयभीत हो उनके दर्शन से दम्भ को त्यागकर यों कहने लगा । शृगाल बोला — प्रभो ! आप चक्र द्वारा मेरा शिरश्छेदन करके शीघ्र ही द्वारका को लौट जाइये, जिससे मेरा यह अनित्य एवं नश्वर पापी शरीर समाप्त हो जाय । भगवन्! जय-विजय की तरह मैं भी आपक द्वारपाल हूँ। मेरा नाम सुभद्र है। लक्ष्मी शाप से मैं भ्रष्ट हो गया था; अब मेरा वह समय पूरा हो गया है। सौ वर्ष के बाद शाप के समाप्त हो जाने पर मैं पुनः आपके भवन को जाऊँगा। सर्वज्ञ! आप तो सब कुछ जानते ही हैं; अतः विलम्ब मत कीजिये । श्रीकृष्ण ने कहा — मित्र ! पहले तुम मुझ पर प्रहार करो; तत्पश्चात् मैं युद्ध करूँगा । वत्स ! मैं सारा रहस्य जानता हूँ; अतः अब तुम सुखपूर्वक वैकुण्ठ को जाओ। तब शृगाल ने माधव पर दस बाणों से वार किया; किंतु वे कालरूपी बाण शीघ्र ही श्रीकृष्ण को प्रणाम करके आकाश में विलीन हो गये। फिर राजा शृगाल ने प्रलयकालीन अग्नि की शिखा के समान चमकीली गदा फेंकी, परंतु वह तत्काल ही श्रीकृष्ण के अङ्गस्पर्शमात्र से टूक-टूक हो गयी। तत्पश्चात् उसने परम दारुण कालरूपी खड्ग और धनुष चलाया, किंतु वह उसी क्षण श्रीकृष्ण के अङ्ग का स्पर्श होते ही छिन्न-भिन्न हो गया। इस प्रकार राजा को अस्त्रहीन देखकर कृपालु श्रीकृष्ण ने कहा — ‘ मित्र ! घर जाकर खूब तीखा अस्त्र ले आओ।’ तब शृगाल बोला — प्रभो ! आत्मारूपी आकाश अस्त्र द्वारा बेधा नहीं जा सकता । भला, आत्मा के साथ युद्ध कैसा ? पृथ्वी का उद्धार करने में कारणस्वरूप भगवन्! इस भवसागर से मेरा उद्धार कीजिये । नाथ! भवसागर बड़ा भयंकर है और विषय-विष से भी अधिक दारुण हैं; अतः मेरी स्वकर्मजनित माया-मोहरूपी साँकल को छिन्न-भिन्न कर दीजिये । आप कर्मों के ईश्वर, ब्रह्मा के भी विधाता, शुभ फलों के दाता, समस्त सम्पत्तियों के प्रदाता, प्राक्तन कर्मों के कारण और उनके खण्डन में समर्थ हैं। मैं अपने इस पाञ्चभौतिक प्राकृत नश्वर देह का त्याग करके आपके ही वैकुण्ठ के सातवें द्वार पर जाऊँगा; क्योंकि वही मेरा घर है । इस प्रकारका मित्र का स्तवन और अमृतोपम वचन सुनकर कृपानिधि श्रीकृष्ण कृपापरवश हो वहीं समरभूमि में स्नेहवश रोने लगे । श्रीकृष्ण के नेत्रों से गिरे हुए अश्रुबिन्दुओं से वहाँ सहसा ‘बिन्दुसर’ नामक एक दिव्य सरोवर प्रकट हो गया; जो तीर्थों में परम श्रेष्ठ । उसके जल के स्पर्शमात्र से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है और अपने सात जन्मों के संचित पापों से छूट जाता है; इसमें जरा भी संदेह नहीं है । इसके बाद श्रीभगवान् ने पूछा — मित्र ! यदि तुम्हारा मन इतना निर्मल है तो फिर तुम्हारी ऐसी युद्ध-बुद्धि कैसे हुई और क्यों तुमने दूत के द्वारा ऐसा दारुण निष्ठुर संदेश कहलवाया ? इसपर शृगाल ने कहा — नाथ! मैंने तुम्हारे प्रति ऐसे निष्ठुर वाक्यों का प्रयोग किया, तभी तो तुम क्रोधपूर्वक यहाँ आये। नहीं तो, स्वप्न में भी तुम्हारे दर्शन दुर्लभ हैं। यों कहते-कहते उसने योगावलम्बन करके प्राकृत पाञ्चभौतिक शरीर का त्याग कर दिया और वह श्रीकृष्ण के देखते-देखते ही विमान पर सवार होकर दिव्य धाम को चला गया। उस समय शृगाल के शरीर से सात ताड़ – जितनी लंबी एक महान् ज्योति निकली और वह ब्रह्माजी तथा लक्ष्मीजी के द्वारा पूजित श्रीकृष्ण के चरणकमलों में प्रणाम करके चली गयी। तब अपने साथियों के सहित श्रीमान् कृष्ण इस अद्भुत चरित्र को देखकर प्रफुल्लमुख हो द्वारका की ओर चल दिये। द्वारका पहुँचकर उन्होंने पहले माता-पिता को प्रणाम किया । तदनन्तर रुक्मिणी के महल में जाकर पुष्पशय्या पर शयन किया । (अध्याय १२१) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद शृगालवासुदेव-मोक्षणं नामैकविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२१ ॥ Content is available only for registered users. 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