ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 127
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय
श्रीकृष्ण का राधा के साथ विभिन्न स्थलों में विहार करके पुनः गोकुल में जाना, वहाँ उनका स्वागत-सत्कार, यशोदा का राधा सहित श्रीकृष्ण को महल में ले जाना और मङ्गल-महोत्सव करना

तदनन्तर राधिका ने कहा — महाभाग ! अब पुण्यमय वृन्दावन में स्थित रासमण्डल को चलिये; वहाँ मैं आपके साथ जल में तथा स्थल पर क्रीड़ा करूँगी। पुनः मलयपर्वत और सुन्दर मणिमन्दिर को चलूँगी। इनके अतिरिक्त जो दूसरे रहस्यमय स्थान हैं, जिन्हें मैंने जन्म से लेकर आज तक सुना ही नहीं है; उन-उन स्थानों में भी आपके साथ चलूँगी — ऐसी मेरी उत्कृष्ट लालसा है ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

यों परस्पर वार्तालाप करते ही वह मङ्गलमयी रात्रि व्यतीत हो गयी। अरुणोदय बेला आ पहुँची तथापि सती राधा ने माधव को छोड़ना नहीं चाहा । तब श्रीकृष्ण ने युक्तिपूर्वक प्रेमभरे वचनों से राधा को समझाया । तदनन्तर शरत्कालीन कमल के से विशाल नेत्रों वाले श्रीहरि प्रात: कृत्य समाप्त करके राधा तथा गोपियों के साथ एक ऐसे रथ पर सवार हुए, जो गोलोक से आया था। वह मनोहर तथा मन के समान वेगशाली रथ एक योजन लंबा-चौड़ा था, उसमें सहस्रों पहिये लगे थे, बहुमूल्य मणियों के बने हुए तीन सौ करोड़ चमकीले गृहों से वह सुशोभित था, तीन करोड़ मणिस्तम्भों और रत्नों की झालरों से उसकी विशेष शोभा हो रही थी; मुक्ता, माणिक्य और उत्तम हीरे के हारों से वह परम सुहावना लग रहा था; वह नाना प्रकार की विचित्र चित्रकारियों, श्वेत चँवर और दर्पणों, अग्निशुद्ध चमकीले वस्त्रों और मालासमूहों से विभूषित था; उसमें रत्नों की बनी हुई पुष्प-चन्दन-चर्चित अनेकों शय्याएँ शोभा दे रही थीं, समान रूप और वेषवाली लाखों गोपियों से वह समावृत था और उसे एक हजार घोड़े खींच रहे थे। उस रथ से भगवान् पुनः वृन्दावन में गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने रात्रि समय जलस्थल पर विहार किया और राधिका को वहाँ के सभी पदार्थों का इस रूप में दिखलाया, मानो सभी नवीन प्रकट हुए हों ।

पुनः सुन्दर शृङ्गार करके वनों और उपवनों में, विस्यन्दक, सुरसन, माहेन्द्र और नन्दनवन में, सुमेरु की चोटी तथा रमणीय गन्धमादन पर्वत पर, सुन्दर- सुन्दर पर्वत, कन्दरा और वन में, अत्यन्त गुप्त पुष्पोद्यानों में, प्रत्येक नदियों और नदों के जल में, समुद्र तट पर, पारिजात वृक्षों के मनोहर वन में सुभद्र, पुष्पभद्र और नारायण सरोवर पर, पवन के आवासस्थान तथा देवताओं की निवासभूमि मलय पर्वत पर, त्रिकूट, भद्रकूट, पञ्चकूट और सुकूटपर, देवों की स्वर्णमयी कमनीय भूमि पर, प्रत्येक समुद्र पर तथा मनोहर द्वीप में, श्रेष्ठ स्वर्गलोक में, पुण्यमय रुचिर चन्द्रसरोवर पर और मुनियों के आश्रमों के आस-पास उन्होंने राधा के साथ विहार किया । पुनः शीघ्र ही पुण्यप्रद जम्बूद्वीप में आकर द्वारका तथा रैवतक पर्वत को दिखलाया। फिर गोप और गो-समूह से व्याप्त गोकुल में आये। वहाँ भाण्डीरवट को देखकर वे पुण्यमय वृन्दावन में गये ।

श्रीकृष्ण का आगमन सुनकर नन्द, यशोदा और बूढ़े गोप तथा गोपियों की आकुलता जाती रही और उनके नेत्रों में हर्ष के आँसू छलक आये । फिर तो उन्होंने गजराज, नटी, नट, नर्तक, पति- पुत्रवती साध्वी ब्राह्मणी और ब्राह्मणों को आगे करके उनका उसी प्रकार स्वागत किया, जैसे देवगण अग्नि का करते हैं। तब माधव नन्द तथा माता यशोदा को देखकर राधा के साथ बालकृष्ण- रूप में उनके निकट आये। फिर मधुसूदन हँसकर माता की गोद में जा बैठे। तब यशोदासहित नन्द उनका मुख-कमल चूमने लगे और स्नेहवश छाती से लगाकर नेत्रों के अश्रुजल से उन्हें सींचने लगे। उधर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण यशोदा का स्तनपान करने में जुट गये। उस समय सभी लोगों ने श्रीकृष्ण को उसी रूप में देखा, जिस रूप में वे मथुरा गये थे। उनके हाथ में मुरली शोभा पा रही थी, वे रत्नों के आभूषणों से विभूषित थे, उनकी ग्यारह वर्ष की किशोर अवस्था थी, पीताम्बर उनकी शोभा बढ़ा रहा था, शिखा में मयूरपिच्छ की निराली छटा थी और वे मालती की मालाओं से सुसज्जित थे। तत्पश्चात् यशोदा राधासहित माधव को महल के भीतर लिवा ले गयीं। वहाँ उन्होंने माङ्गलिक कार्य सम्पन्न करके ब्राह्मणों को भोजन कराया और गोपियों का उसी प्रकार पूजन किया जैसे लोग मुनियों का करते हैं । फिर आनन्दमग्न हो ब्राह्मणों को मोती, माणिक्य, हीरा, गजरत्न, गोरत्न, मनोहर अश्वरत्न, धान्य, फसल लगी हुई खेती और वस्त्र दान किये। राधा के साथ माधव को अपूर्व वस्तु का  मणि, रत्न, मूँगा, उत्तम सुवर्ण, दर्शन कराया। नारद! फिर गोपियों को भी आदरपूर्वक मिष्टान्न का भोजन कराया, दुन्दुभियाँ बजवायीं, मङ्गल कराया और देवगणों को आनन्दपूर्वक मनोहर पदार्थों का भोग समर्पित किया । (अध्याय १२७)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद सप्तविशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२७ ॥

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