ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 130
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
एक सौ तीसवाँ अध्याय
नारायण के आदेश से नारद का विवाह के लिये उद्यत हो ब्रह्मलोक में जाना, ब्रह्मा का दल-बल के साथ राजा संजय के पास आना, संजय-कन्या और नारद का विवाह, सनत्कुमार द्वारा नारद को श्रीकृष्ण-मन्त्रोपदेश, महादेवजी का उन्हें श्रीकृष्ण का ध्यान और जप-विधि बतलाना, तप के अन्त में नारद का शरीर त्यागकर श्रीहरि के पादपद्म में लीन होना

नारद ने कहा — महाभाग ! मेरी जो कुछ सुनने की लालसा थी; वह सब कुछ सुन लिया । अब कुछ भी अवशिष्ट नहीं है। कामना की पूर्ति करने वाला यह ब्रह्मवैवर्तपुराण कैसा अद्भुत है ! जगद्गुरो ! मैं तप करने के लिये हिमालय पर जाना चाहता हूँ, इसके लिये मुझे आज्ञा दीजिये अथवा अब मैं क्या करूँ, वह मुझे बतलाने की कृपा करें ।

श्रीनारायण बोले — नारद! इस समय तो तुम ब्रह्मा के पुत्र हो; परंतु पूर्वजन्म में तुम उपबर्हण नामक गन्धर्व थे। तुम्हारे पचास पत्नियाँ थीं। उनमें से एक सती-साध्वी सुन्दरी कामिनी ने तपस्या द्वारा भगवान् शंकर की आराधना की और वररूप में नारद को अपना मनोनीत पति प्राप्त किया। वही राजा संजय की कन्या होकर पैदा हुई है । उसका नाम स्वर्णवी (स्वर्णष्ठीवी) है। वह इच्छा की सहोदरा बहिन है । वह सुन्दरियों में परम सुन्दरी, कोमलाङ्गी, लक्ष्मी की कला, पतिव्रता, महाभागा, मनोहरा, अत्यन्त प्रिय बोलने वाली, कामुकी, कमनीया और सदा सुस्थिर यौवन वाली है। तुम उसके साथ विवाह कर लो; क्योंकि शंकर की आज्ञा व्यर्थ कैसे हो सकती है ? ब्रह्मा ने जो प्राक्तन कर्म लिख दिया है; उसे कौन मिटा सकता है ? अपना किया हुआ शुभ अथवा अशुभ कर्म अवश्य ही भोगना पड़ता है; चाहे सौ करोड़ कल्प बीत जायँ तो भी बिना भोग किये कर्म का नाश नहीं होता ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

सूतजी कहते हैं — शौनक ! नारायण का कथन सुनकर नारदका मन खिन्न हो गया। वे नारायण को प्रणाम करके शीघ्र ही राजा संजय की राजधानी की ओर चल दिये ।

शौनक ने कहा — महाभाग सूतजी ! अहो, यह कैसा परम अद्भुत, पुरातन, सरस, अपूर्व रहस्य है। इसे तो मैंने सुन लिया। अब मैं नारद का विवाह-वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ; क्योंकि नारदमुनि तो अतीन्द्रिय और ब्रह्मा के पुत्र थे ।

सूतजी कहते हैं — शौनक ! नारद पर मोह ने अपना अधिकार जमा लिया था; अतः वे विष्णु- व्रतपरायणा महाभागा तपस्विनी संजय-कन्या को देखकर ब्रह्माजी की रमणीय सभा में गये । वह सभा सभी देवताओं से खचाखच भरी थी । वहाँ उन्होंने पिता ब्रह्मा को प्रणाम करके उनसे सारा रहस्य कह सुनाया। उस शुभ समाचार को सुनकर ब्रह्मा का मुख प्रसन्नतासे खिल उठा। फिर तो जगत्पति ब्रह्मा अपने तपस्वी पुत्र नारद से बातचीत करके शुभ मुहूर्त में देवताओं के साथ पुत्र को आगे करके रत्ननिर्मित विमान द्वारा संजय के महल को चल पड़े। उस समाचार को सुनकर राजा संजय ने अपनी रत्ननिर्मित आभूषणों से विभूषित सुन्दरी कन्या को लेकर हर्षपूर्वक नारद को सौंप दिया। साथ ही अपना सारा मणिमुक्ता आदि दहेज में दिया । फिर हाथ जोड़कर उन्होंने वह सारा कार्य सम्पन्न किया ।

तत्पश्चात् योगिश्रेष्ठ राजा संजय अपनी कन्या ब्रह्मा को समर्पित करके ‘वत्से ! वत्से !’ यों कहकर फूट-फूटकर रोते हुए कहने लगे ‘कमललोचने ! तुम मेरे घरको सूना करके कहाँ जा रही हो। बेटी ! तुम्हें त्यागकर तो मैं जीते-जी मृतक तुल्य हो गया हूँ; अतः मैं घोर वन में चला जाऊँगा ।’

तब वह कन्या रोते हुए पिता और रोती हुई माता को प्रणाम करके स्वयं भी रोती हुई ब्रह्मा के रथ पर सवार हुई । ब्रह्मा हर्षमग्न हो भार्यासहित पुत्र को लेकर देवेन्द्रों और मुनियों के साथ ब्रह्मलोक को प्रस्थित हुए। वहाँ पहुँचकर उन्होंने दुन्दुभि का घोष कराया और ब्राह्मणों, देवताओं तथा सिद्धों को भोजन से तृप्त किया। मुनिश्रेष्ठ नारद तो अपने पूर्वकर्म से बाधित थे; क्योंकि विप्रवर! जिसका जो प्राक्तन कर्म होता है; उसका उल्लङ्घन करना दुष्कर है। उसे भला कौन हटा सकता है ?

इस प्रकार विवाह करके उससे विरत हो मुनिश्रेष्ठ नारद ब्रह्मलोक में मनोहर वटवृक्ष के नीचे बैठे हुए थे। उसी समय वहाँ साक्षात् भगवान् सनत्कुमार आ पहुँचे । बालक की तरह उनका नग्न-वेष था। वे ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे । सृष्टि के पूर्व में उनकी जो आयु थी, वही पाँच वर्ष की अवस्था अब भी थी। उनका चूडाकर्म और उपनयन-संस्कार नहीं हुआ था तथा वे वेदाध्ययन और संध्या से रहित थे। उनके नारायण गुरु हैं। वे अनन्त कल्पों से तीनों भाइयों के साथ कृष्ण-मन्त्र का जप कर रहे थे । वे वैष्णवों के अग्रणी, ईश्वर और ज्ञानियों के गुरु थे । सत्पुरुषों में श्रेष्ठ अपने भाई सनत्कुमार को सहसा निकट आया देखकर नारद दण्ड की भाँति भूमि पर लेट गये और चरणों में सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया। तब बालकरूप सनत्कुमारजी हँसकर नारद से पारमार्थिक वचन बोले ।

सनत्कुमारजी ने कहा — अरे भाई ! क्या कर रहो हो ? युवतीपते ! कुशल तो है न ? स्त्री-पुरुष का प्रेम सदा बढ़ता रहता है और वह नित्य नूतन ही होता है। वह ज्ञानमार्ग की साँकल, भक्तिद्वार का किवाड़, मोक्षमार्ग का व्यवधान और चिरकालिक बन्धन का कारण है; फिर भी पापी नराधम अमृत-बुद्धि से उस विष को पीते हैं। जिसका मन परम पुरुष नारायण को छोड़कर विषय में रचा-पचा रहता है, उसे मानो माया ने ठग लिया है; जिससे वह अमृत का त्याग करके विष का सेवन करता है । अतः भाई ! इस मायामयी प्रियतमा पत्नी को छोड़ो और तप के लिये निकल जाओ । परम पुण्यमय भारतवर्ष में जाकर तपस्या द्वारा माधव का भजन करो। अपना पद प्रदान करने वाले अपने स्वामी परम पुरुष नारायण के स्थित रहते जो विषयी पुरुष विषयों में मत्त रहता है; उसे निश्चय ही माया ने ठग लिया है। अब तुम मेरे ‘कृष्ण’ इस दो अक्षर वाले मन्त्र को ग्रहण करो । यह मन्त्र सभी मन्त्रों का सार तथा परात्पर है। सभी पुराणों, चारों वेदों, धर्मशास्त्रों और तन्त्रों में इससे उत्तम दूसरा मन्त्र नहीं है । इसे नारायण ने मुझे सूर्यग्रहण के अवसर पर पुष्करक्षेत्र में प्रदान किया था । असंख्यों कल्पों से इसका जप करके मैं सर्वपूजित हो भ्रमण करता रहता हूँ ।

यों कहकर उन्होंने नारद को स्नान कराया और फिर उन्हें उस परमोत्कृष्ट मन्त्र का उपदेश दिया, जिसे वे मणियों की पावन माला पर रात-दिन जपते रहते हैं । इस प्रकार वैष्णवों के अग्रणी सनत्कुमारजी नारद को वह मन्त्र और शुभाशीर्वाद देकर सनातन भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिये गोलोक को चले गये। इधर जब नारद को वह सर्वसिद्धिप्रद श्रीकृष्ण में निश्चल भक्ति प्रदान करने वाला तथा कर्मों का उच्छेदक श्रेष्ठ मन्त्र प्राप्त हो गया; तब वे अपनी मायामयी भार्या का त्याग करके तपस्या करने के लिये भारतवर्ष में आये । यहाँ उन्हें कृतमाला नदी के तट पर भगवान् शंकर के दर्शन हुए। सहसा उन्हें देखकर नारदमुनि ने शिवजी के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम किया। तब भक्तवत्सल जगदीश्वर शिव अपने भक्त नारद से बोले ।

श्रीमहादेवजी ने कहा — अहो नारद! अपने तेज से उद्भासित होते हुए तुम्हें देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है; क्योंकि जिस दिन भक्तों का दर्शन प्राप्त हो जाय, वह शरीरधारियों के लिये उत्तम दिन माना जाता है। भक्तों के साथ समागम होना प्राणियों के लिये परम लाभ है। जिसे वैष्णव का दर्शन प्राप्त हो गया, उसने मानो समस्त तीर्थों में स्नान कर लिया। जो समस्त तन्त्रों में परम दुर्लभ है, वह ‘कृष्ण’ रूप महामन्त्र क्या तुम्हें प्राप्त हो गया ? इस मन्त्र को मैंने अपने पुत्र गणेश और स्कन्द को दिया था। श्रीकृष्ण ने इसे गोलोकस्थित रासमण्डल में मुझे, ब्रह्मा और धर्म को बतलाया था। धर्म ने नारायण को तथा ब्रह्मा ने सनत्कुमार को इसका उपदेश दिया था । वही मन्त्र सनत्कुमार ने तुम्हें प्रदान किया है । इस मन्त्र के ग्रहणमात्र से ही मनुष्य नारायण-स्वरूप हो जाता है। इसके जप के लिये शुभ-अशुभ समय-असमय का कोई विचार नहीं है। पाँच लाख जप से ही इसका पुरश्चरण पूर्ण हो जाता है । इसका ध्यान पापनाशक तथा कर्ममूल का उच्छेदक है। शास्त्र में उसका वर्णन किया गया है, उसी ढंग से वैष्णव को श्रीकृष्ण का ध्यान करना चाहिये । ( वह ध्यान यों है – )

कृष्णं नवघनश्यामं किशोरं पीतवाससम् ।
शतकोटीन्दुसौन्दर्यं दधानमतुलं परम् ॥ ५४ ॥
भूषितं भूषणौघैस्तैरमूल्यरत्ननिर्मितैः ।
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं कौस्तुभेन विराजितम् ॥ ५५ ॥
मयूरपिच्छचूडं च मालतीमाल्यमण्डितम् ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यं नित्योपास्यं शिवादिभिः ॥ ५६ ॥
ध्यानासाध्यं दुराराध्यं निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
सर्वेषां परमात्मानं भक्तानुग्रहविग्रहम् ॥ ५७ ॥

‘नूतन जलधर के समान जिनका श्यामवर्ण है, जिनकी किशोर अवस्था है, जो पीताम्बर से सुशोभित हैं, सौ करोड़ चन्द्रमाओं के समान परम अनुपम सौन्दर्य धारण किये हुए हैं, अमूल्य रत्नों के बने हुए भूषणसमूह जिनकी शोभा बढ़ा रहे हैं, जिनके सर्वाङ्ग में चन्दन का अनुलेप हुआ है, कौस्तुभमणि द्वारा जिनकी विशेष शोभा हो रही है, जिनकी मालती की मालाओं से मण्डित शिखा में लगे हुए मयूरपिच्छ की निराली छबि हो रही है, जिनके प्रसन्नमुख पर मन्द मुस्कान की छटा छायी हुई है, शिव आदि देवगण जिनकी नित्य उपासना करते रहते हैं तथा जो ध्यान द्वारा असाध्य, दुराराध्य, निर्गुण, प्रकृति से पर, सबके परमात्मा, भक्तानुग्रहमूर्ति, वेदों द्वारा अनिर्वचनीय और सर्वेश्वर हैं; उन श्रेष्ठ श्रीकृष्ण का मैं भजन करता हूँ ।’

नारद! जो परमानन्द, सत्य, नित्य और परात्पर हैं, उन सनातन भगवान् श्रीकृष्ण का इस ध्यान-विधि से ध्यान करके भजन करो।

इतना कहकर परमेश्वर शम्भु अपने स्थान को चले गये। तब नारद ने उन जगन्नाथ को प्रणाम करके तपस्या में मन लगाया। तत्पश्चात् नारद श्रीहरि का स्मरण करके योगधारणा द्वारा शरीर को त्यागकर पद्मा द्वारा समर्चित श्रीहरि के चरणकमल में विलीन हो गये ।    (अध्याय १३०)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद नारदविवाहादिप्रकरणं नाम त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३० ॥

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