ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 18
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
अठारहवाँ अध्याय
श्रीवन के समीप यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों की पत्नियों का ग्वालबालों सहित श्रीकृष्ण को भोजन देना तथा उनकी कृपा से गोलोकधाम को जाना, श्रीकृष्ण की माया से निर्मित उनकी छायामयी स्त्रियों का ब्राह्मणों के घरों में जाना तथा विप्रपत्नियों के पूर्वजन्म का परिचय

नारदजी बोले — मुनिश्रेष्ठ ! ज्ञानसिन्धो ! मैं आपका शरणागत शिष्य हूँ । आप मुझे श्रीकृष्ण-लीलामृत का पान कराइये ।

भगवान् श्रीनारायण ने कहा — एक दिन बलराम सहित श्रीकृष्ण ग्वालबालों को साथ ले श्रीमधुवन में गये, जहाँ यमुना के किनारे कमल खिले हुए थे। उस समय सब बालक सहस्रों गौओं के साथ वहाँ विचरने और खेलने लगे । खेलते-खेलते वे थक गये और उन्हें भूख-प्यास सताने लगी। तब सब गोपशिशु बड़ी प्रसन्नता के साथ श्रीकृष्ण के पास आये और बोले – ‘ कन्हैया ! हमें बड़ी भूख लगी है। हम सेवकों को आज्ञा दो, क्या करें ?’

ग्वाल-बालों की बात सुनकर प्रसन्नमुख और नेत्र वाले दया-निधान श्रीहरि ने उनसे यह हितकर तथा सच्ची बात कही ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

श्रीकृष्ण बोले बालको! जहाँ ब्राह्मणों का सुखदायक यज्ञस्थान है, वहाँ जाओ। जाकर उन यज्ञ-तत्पर ब्राह्मणों से शीघ्र ही भोजन के लिये अन्न माँगो । वे सभी आङ्गिरस गोत्र वाले ब्राह्मण हैं और श्रीवन के निकट अपने आश्रम में यज्ञ करते हैं। उन्होंने श्रुतियों और स्मृतियों का विशेष ज्ञान प्राप्त किया है । वे सब निःस्पृह वैष्णव हैं और मोक्ष की कामना से मेरा ही यजन कर रहे हैं। परंतु माया से आच्छादित होने के कारण उन्हें इस बात का पता नहीं है कि योग-माया से मनुष्यरूप धारण करके प्रकट हुआ मैं ही उनका आराध्य देव हूँ। केवल यज्ञ की ओर ही उन्मुख रहने वाले वे ब्राह्मण यदि तुम्हें अन्न न दें तो शीघ्र ही जाकर उनकी पत्नियों से माँगनाः क्योंकि वे बालकों के प्रति दया से भरी हुई हैं ।

श्रीकृष्ण की बात सुनकर वे श्रेष्ठ गोपबालक ब्राह्मणों के सामने जा मस्तक झुकाकर खड़े हो गये और बोले – ‘विप्रवरो ! हमें शीघ्र भोजन दीजिये ।’ परंतु उनमें से कुछ द्विजों ने तो उनकी बात सुनी ही नहीं और कुछ लोग सुनकर भी ज्यों-के-त्यों खड़े रह गये। तब वे पाकशाला में गये, जहाँ ब्राह्मणियाँ भोजन बना रही थीं । उन बालकों ने ब्राह्मण-पत्नियों को सिर झुकाकर प्रणाम किया । प्रणाम करके वे सब बालक उन पतिव्रता ब्राह्मणियों से बोले — ‘ माताओं ! हम सब बालक भूख से पीडित हैं । हमें भोजन दो ।’

उन बालकों की बात सुनकर और उनकी मनोहर आकृति देखकर उन सती-साध्वी ब्राह्मणियों ने मुस्कराते हुए मुखारविन्द से आदरपूर्वक पूछा ।

ब्राह्मणपत्नियाँ बोलीं —समझदार बालको ! तुमलोग कौन हो ? किसने तुम्हें भेजा है ? और तुम्हारे नाम क्या हैं ? हम तुम्हें व्यञ्जनसहित नाना प्रकार का श्रेष्ठ भोजन प्रदान करेंगी।

ब्राह्मणियों की बात सुनकर वे सभी स्निग्ध एवं हृष्ट-पुष्ट गोपबालक प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए बोले ।

बालकों ने कहा — माताओ ! हमें बलराम और श्रीकृष्ण ने भेजा है। हम लोग भूख से बहुत पीड़ित हैं। हमें भोजन दो। हम शीघ्र ही उनके पास लौट जायँगे । यहाँ से थोड़ी दूर पर वन के भीतर भाण्डीर – वट के निकट मधुवन में बलराम और केशव बैठे हैं। वे दोनों भाई भी थके-माँदे और भूखे हैं तथा भोजन माँग रहे हैं । माताओ! आपको अन्न देना है या नहीं देना है, यह शीघ्र हमें इसी समय बता दो ।

गोपों की बात सुनकर ब्राह्मणियाँ हर्ष से खिल उठीं। उनके नेत्रों में आनन्द के आँसू छलक आये । सारे अङ्ग पुलकित हो उठे। उनके मन में बड़ी इच्छा थी कि हमें श्रीकृष्ण-चरणों के दर्शन हों । उन्होंने सोने, चाँदी और फूल की थालियों में प्रसन्नतापूर्वक भाँति-भाँति के व्यञ्जनों से युक्त अत्यन्त मनोहर अगहनी के चावल का भात, खीर, स्वादिष्ट पीठा, दही, दूध, घी और मधु रखकर श्रीकृष्ण के निकट प्रस्थान किया। वे मन-ही-‍मन नाना प्रकार के मनोरथ लेकर जाने को उत्सुक हुईं। ब्राह्मणपत्नियाँ धन्य और पतिव्रतपरायणा थीं । इसीलिये उनके मन में श्रीकृष्णद-र्शन की उत्कण्ठा जाग उठी। उन्होंने वहाँ पहुँचकर बालकों सहित श्रीकृष्ण और बलराम के दर्शन किये।

श्रीकृष्ण वट के मूलभाग के निकट बालकों के बीच में बैठे थे; अतः तारों के बीच विराजमान चन्द्रमा के समान शोभा पा रहे थे । श्याम अङ्ग, किशोर अवस्था और शरीरपर रेशमी पीताम्बर से वे बड़े सुन्दर लगते थे। मुख पर मन्द मुस्कान खेल रही थी। शान्तस्वरूप राधाकान्त बड़े मनोहर प्रतीत होते थे। उनका मुख शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा को लज्जित कर रहा था। वे रत्नमय अलंकारों से विभूषित थे तथा रत्ननिर्मित दो कुण्डलों से उनके गण्डस्थल की बड़ी शोभा हो रही थी । हाथों में रत्नमय केयूर और कङ्गन तथा पैरों में रत्ननिर्मित नूपुर उनके आभूषण थे। उन्होंने गले में आजानुलम्बिनी शुभ्र रत्नमाला धारण कर रखी थीं। मालती की माला से उनके कण्ठ और वक्षःस्थल दोनों सुशोभित थे । चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम से उनके श्रीअङ्ग चर्चित थे । नखों और कपोलोंका सौन्दर्य देखने ही योग्य था । सुन्दर लाल रंग के ओठ पके बिम्बफल को लज्जित कर रहे थे । वे परिपक्व अनार के दानों की भाँति सुन्दर दन्तपङ्क्ति धारण किये थे । सिर पर मोरपंख का मुकुट शोभा दे रहा था। कानों के मूलभाग में दो कदम्ब के फूल उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। वे परात्पर परमात्मा योगियों के भी ध्यान में नहीं आनेवाले हैं। तथापि भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये व्याकुल रहते हैं । ब्रह्मा, शिव, धर्म, शेषनाग तथा बड़े-बड़ मुनीश्वर उनकी स्तुति करते हैं।

ऐसे परमेश्वर के दर्शन करके ब्राह्मण-पत्नियों ने भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम किया और अपने ज्ञान के अनुरूप उन मधुसूदन की स्तुति की।

॥ विप्रपत्नी कृत श्री कृष्ण स्तोत्र ॥

॥ विप्रपत्न्य ऊचुः ॥
त्वं ब्रह्म परमं धाम निरीहो निरहंकृतिः ।
निर्गुणश्च निराकारः साकारः सगुणः स्वयम् ॥ ३६ ॥
साक्षिरूपश्च निर्लिप्तः परमात्मा निराकृतिः ।
प्रकृतिः पुरुषस्त्वं च कारणं च तयोः परम ॥ ३७ ॥
सृष्टिस्थित्यन्तविषये ये च देवास्त्रयः स्मृताः ।
ते त्वदंशाः सर्वबीजा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥ ३८ ॥
यस्य लोम्नां च विवरे चाखिलं विश्वमीश्वर ।
महाविराण्महाविष्णुस्त्वं तस्य जनको विभो ॥ ३९ ॥
तेजस्त्वं चापि तेजस्वी ज्ञानं ज्ञानी च तत्परः ।
वेदेऽनिर्वचनीयस्त्वं कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ॥ ४० ॥
महदादिसृष्टिसूत्रं पञ्चतन्मात्रमेव च ।
बीजं त्वं सर्वशक्तीनां सर्वशक्तिस्वरूपकः ॥ ४१ ॥
सर्वशक्तीश्वरः सर्वः सर्वशक्त्याश्रयः सदा ।
त्वमनीहः स्वयंज्योतिः सर्वानन्दः सनातनः ॥ ४२ ॥
अहोऽप्याकारहीनस्त्वं सर्वविग्रहवानपि ।
सर्वेंद्रियाणां विषयं जानासि नेन्द्रियी भवान् ॥ ४३ ॥
सरस्वती जडीभूता यत्स्तोत्रे यन्निरूपणे ।
जडीभूतो महेशश्च शेषो धर्मो विधिः स्वयम् ॥ ४४ ॥
पार्वती कमला राधा सावित्री वेदसूरपि ।
वेदश्च जडतां याति के वा शक्ता विपश्चितः ॥ ४५ ॥
वयं किं स्तवनं कुर्मः स्त्रियः प्राणेश्वरेश्वर ।
प्रसन्नो भव नो देव दीनबन्धो कृपां कुरु ॥ ४६ ॥
इति पेतुश्च ता विप्रपत्न्यस्तच्चरणाम्बुजे ।
अभयं प्रददौ ताभ्यः प्रसन्नवदनेक्षणः ॥ ४७ ॥
विप्रपत्नीकृतं स्तोत्रं पूजाकाले च यः पठेत् ।
स गतिं विप्रपत्नीनां लभते नात्र संशयः ॥ ४८ ॥

विप्रपत्नियाँ बोलीं — भगवन्! आप स्वयं ही परब्रह्म, परमधाम, निरीह, अहङ्काररहित, निर्गुण-निराकार तथा सगुण-साकार हैं। आप ही सबके साक्षी, निर्लेप एवं आकाररहित परमात्मा हैं। आप ही प्रकृति – पुरुष तथा उन दोनों के परम कारण हैं। सृष्टि, पालन और संहार के विषय में नियुक्त जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव – ये तीन देवता कहे गये हैं, वे भी आपके ही सर्वबीजमय अंश हैं । परमेश्वर ! जिनके रोमकूप में सम्पूर्ण विश्व निवास करता है, वे महाविराट् महाविष्णु हैं और प्रभो! आप उनके जनक हैं। आप ही तेज और तेजस्वी हैं, ज्ञान और ज्ञानी हैं तथा इन सबसे परे हैं। वेद में आपको अनिर्वचनीय कहा गया है; फिर कौन आपकी स्तुति करने में समर्थ है ? सृष्टि सूत्रभूत जो महत्तत्त्व आदि एवं पञ्च-तन्मात्राएँ हैं, वे भी आपसे भिन्न नहीं हैं। आप सम्पूर्ण शक्तियों के बीज तथा सर्व-शक्ति-स्वरूप हैं । समस्त शक्तियों के ईश्वर हैं, सर्वरूप हैं तथा सब शक्तियों के आश्रय हैं। आप निरीह, स्वयंप्रकाश, सर्वानन्दमय तथा सनातन हैं। अहो ! आकारहीन होते हुए भी आप सम्पूर्ण आकारों से युक्त हैं — सब आकार आपके ही हैं । आप सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानते हैं तो भी इन्द्रियवान् नहीं हैं। जिनकी स्तुति करने तथा जिनके तत्त्व का निरूपण करने में सरस्वती जडवत् हो जाती हैं; महेश्वर, शेषनाग, धर्म और स्वयं विधाता भी जडतुल्य हो जाते हैं; पार्वती, लक्ष्मी, राधा एवं वेदजननी सावित्री भी जडता को प्राप्त हो जाती हैं; फिर दूसरे कौन विद्वान् आपकी स्तुति कर सकते हैं ? प्राणेश्वरेश्वर ! हम स्त्रियाँ आपकी क्या स्तुति कर सकती हैं ? देव ! हमपर प्रसन्न होइये । दीनबन्धो ! कृपा कीजिये ।

यों कह सब ब्राह्मणपत्नियाँ उनके चरणारविन्दों में पड़ गयीं। तब श्रीकृष्णने प्रसन्नमुख एवं नेत्रों से उन सबको अभयदान दिया । जो पूजाकाल में विप्रपत्नियों द्वारा किये गये इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह ब्राह्मणपत्नियों को मिली हुई गति को प्राप्त कर लेता है; इसमें संशय नहीं है ।

भगवान् श्रीनारायण कहते हैं — नारद! उन ब्राह्मणपत्नियों को अपने चरणारविन्दों में पड़ी देख श्रीमधुसूदन ने कहा — ‘ देवियो ! वर माँगो | तुम्हारा कल्याण होगा ।’

श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर विप्रपत्नियों को बड़ी प्रसन्नता हुई, श्रद्धासे उनका मस्तक झुक गया और वे भक्तिभाव से इस प्रकार बोलीं ।

द्विजपत्नियों ने कहा — श्रीकृष्ण ! हम आपसे वर नहीं लेंगी। हमारी अभिलाषा यह है कि आपके चरणकमलों की सेवा प्राप्त हो; अतः आप हमें अपना दास्यभाव तथा परम दुर्लभ सुदृढ़ भक्ति प्रदान करें। केशव ! हम प्रतिक्षण आपके मुखारविन्द को देखती रहें, यही कृपा कीजिये । प्रभो! अब हम पुनः घर को नहीं जायँगी ।

द्विजपत्नियों की यह बात सुनकर करुणानिधान त्रिलोकीनाथ श्रीकृष्णने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। फिर वे बालकों की मण्डली में बैठ गये । तदनन्तर ब्राह्मणपत्नियों ने उन्हें सुधा के समान मधुर अन्न प्रदान किया । भगवान् ने उस अन्न को लेकर गोप-बालकों को भोजन कराया और स्वयं भी भोजन किया। इसी समय विप्रपत्नियों ने देखा कि आकाश से एक सोनेका बना हुआ श्रेष्ठ विमान उतर रहा है । उसमें रत्नमय दर्पण लगे हैं । उसके सभी उपकरण रत्नों के सारतत्त्व से बने हुए हैं। वह रत्नों के ही खम्भों से आबद्ध है तथा उत्तम रत्नमय कलशों से वह और भी उज्ज्वल जान पड़ता है। उसमें श्वेत चँवर लगे हुए हैं। अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र उसकी शोभा बढ़ाते हैं । उस विमान को पारिजात के फूलों की मालाओं के जाल से सजाया गया है। उसमें सौ पहिये हैं । मन के समान वेग से चलने वाला वह विमान बड़ा मनोहर है। वनमाला से विभूषित दिव्य पार्षद उसे सब ओर से घेरे खड़े हैं। उन पार्षदों ने पीताम्बर पहन रखा है। वे रत्नमय अलंकारों से अलंकृत, नूतन यौवन से सम्पन्न, श्यामकान्तिवाले, परम मनोहर, दो भुजाओं से युक्त तथा गोपवेशधारी थे। उनके हाथों में मुरली थी। उन्होंने मोरपङ्ख और गुञ्जा की माला से आबद्ध टेढ़े मुकुट धारण कर रखे थे ।

वे रथ से तुरंत ही उतरकर श्रीहरि के चरणों में प्रणाम करके ब्राह्मणपत्नियों से बोले – ‘ आप लोग इस विमानपर चढ़ जायँ ।’ ब्राह्मणपत्नियाँ श्रीहरि को नमस्कार करके मनोवाञ्छित गोलोक में जा पहुँचीं। वे मानव-देह का त्याग करके तत्काल दिव्य गोपी हो गयीं। तत्पश्चात् श्रीहरि ने वैष्णवी माया के द्वारा उनकी छाया का निर्माण करके स्वयं ही उन्हें ब्राह्मणों के घरों में भेज दिया। ब्राह्मण- लोग अपनी पत्नियों के लिये मन-ही-मन बहुत उद्विग्न थे और सब ओर उनकी खोज कर रहे थे। इसी समय रास्ते में उन्हें अपनी पत्नियाँ दिखायी दीं। उन्हें देखकर सब ब्राह्मणों के मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे। सम्पूर्ण अङ्ग पुलकित हो गये और वे विनयपूर्वक उनसे बोले ।

॥ ब्राह्मणा ऊचुः ॥
अहोऽतिधन्या यूयं च दृष्टो युष्माभिरीश्वरः ।
अस्माकं जीवनं व्यर्थं वेदपाठोऽप्यनर्थकः ॥ ६६ ॥
वेदे पुराणे सर्वत्र विद्वद्भिः परिकीर्तिताः ।
हरेर्विभूतयः सर्वाः सर्वेषां जनको हरिः ॥ ६७ ॥
तपो जपो व्रतं ज्ञानं वेदा ध्ययनमर्चनम् ।
तीर्थस्नानमनशनं सर्वेषां फलदो हरिः ॥ ६८ ॥
श्रीकृष्णः सेवितो येन किं तस्य तपसां फलैः ।
प्राप्तः कल्पतरुर्येन किं तस्यान्येन शाखिना ॥ ६९ ॥
श्रीकृष्णो हृदये यस्य तस्य किं कर्मभिः कृतैः ।
किं वा न सागरस्यैव पौरुषं कूपलङ्घने॥ ॥ ७० ॥

ब्राह्मणों ने कहा — अहो ! तुम सब लोग परम धन्य हो; क्योंकि तुमने साक्षात् परमेश्वर के दर्शन किये हैं । हमारा जीवन व्यर्थ है । हम-लोगों का वेदपाठ भी निरर्थक है । वेद और पुराण में सर्वत्र विद्वानों द्वारा श्रीहरि की ही समस्त विभूतियों का वर्णन किया गया है। सबके जनक श्रीहरि ही हैं। तप, जप, व्रत, ज्ञान, वेदाध्ययन, पूजन, तीर्थ-स्नान और उपवास- सबके फलदाता श्रीकृष्ण ही हैं। जिसने श्रीकृष्ण की सेवा कर ली, उसे तपस्याओं के फलों से क्या प्रयोजन है ? जिसे कल्पवृक्ष की प्राप्ति हो गयी, वह दूसरे किसी वृक्ष को लेकर क्या करेगा ? जिसके हृदय में श्रीकृष्ण विराजमान हैं, उसे यज्ञादि कर्मों के अनुष्ठान की क्या आवश्यकता है ? जिसने समुद्र को पी लिया, उसके लिये कुआँ लाँघने में क्या पुरुषार्थ है?

ऐसा कहकर ब्राह्मणलोग उन श्रेष्ठ कामिनियों को साथ ले हर्षपूर्वक अपने घर को लौटे और उनके साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे। उन सबका क्रीड़ा में तथा अन्य सब कर्मों में पहले वाली स्त्रियों की अपेक्षा अधिक प्रेम तथा उदारभाव प्रकट होता था; परंतु मायाशक्ति से प्रभावित होने के कारण ब्राह्मण लोग उसका अनुमान नहीं कर पाते थे ।

उधर सनातन पूर्णब्रह्म नारायणस्वरूप श्रीकृष्ण बलराम तथा ग्वालबालों के साथ शीघ्र ही अपने घर को चले गये। इस प्रकार मैंने श्रीहरि का सम्पूर्ण उत्तम माहात्म्य कह सुनाया। इसे मैंने पूर्वकाल में अपने पिता धर्म मुख से सुना था । नारद! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?

नारदजी ने पूछा — ऋषीन्द्र ! किस पुण्य के प्रभाव से उन ब्राह्मणपत्नियों को ऐसी गति प्राप्त हुई, जो बड़े-बड़े मुनीश्वरों तथा योगसिद्ध पुरुषों के लिये भी दुर्लभ है। पूर्वकाल में ये पुण्यवती स्त्रियाँ कौन थीं और किस दोष से इस भूतल पर आयी थीं। मेरे इस संदेह का निवारण करने वाली बात कहिये ।

भगवान् श्रीनारायण बोले — नारद! ये देवियाँ सप्तर्षियों की सुन्दर रूप-गुण-सम्पन्ना पतिव्रता पत्नियाँ थीं। एक बार अनलदेव (अग्निदेव) ने इनका अङ्ग स्पर्श कर लिया। इससे सप्तर्षियों में अङ्गिरा को बड़ा क्षोभ हुआ और उन्होंने अग्नि को ‘सर्वभक्ष्य’ होने का तथा इन पत्नियों को मानुषी योनि में जाने का शाप दे दिया।

ये सब रोती हुई बोलीं — ‘हम लोग निर्दोष हैं, पतिव्रता हैं । हमारा त्याग न करें। आप हम डरी हुई अबलाओं को अभय प्रदान करें ।’

इनके करुण-क्रन्दन से मुनि को दया आ गयी। वे भी दुःखी हो गये । अन्त में उन्होंने कहा कि तुम्हें मानुषी योनि में जाना तो होगा; परंतु तुम्हें वहाँ साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन प्राप्त होंगे। उनके दर्शन होते ही तुम गोलोक में चली जाओगी। फिर श्रीहरि अपनी योगमाया से तुमलोगों की छायामूर्ति का निर्माण करेंगे। वे तुम्हारी छायामूर्तियाँ कुछ समय तक उन ब्राह्मणों के घरों में रहकर फिर हमारे यहाँ लौट आयेंगी। इस प्रकार तुम अपने छायांश से पुनः हमारी पत्नियाँ हो जाओगी। अतएव यह मेरा शाप तुम्हारे लिये वरदान से भी उत्कृष्ट है।

ऐसा कहकर वे मुनि चुप हो गये । उनके मन में इसके लिये बड़ा दुःख था । वे स्त्रियाँ शापवश भूतल पर आकर उन ब्राह्मणों की पत्नियाँ हुईं और श्रीहरि को भक्तिभाव से अन्न समर्पित करके वे उनके धाम को चली गयीं । निश्चय ही उनका शाप उनके लिये श्रेष्ठ सम्पत्ति से भी अधिक महत्त्वशाली हुआ । नीच पुरुष से मिली हुई सम्पत्ति भी निन्दनीय है; किंतु महात्मा पुरुष से प्राप्त हुई विपत्ति भी श्रेष्ठ है । अहो ! साधुपुरुषों का कोप तत्काल ही उपका रमें बदल जाता है। विपत्ति के बिना भूतल पर किसी की महिमा कैसे प्रकट हो सकती है ? पतियों के परित्याग से भूमि पर उत्पन्न हुई ब्राह्मणपत्नियाँ श्रीहरिके दर्शन से सदा के लिये भवबन्धन से मुक्त हो गयीं ।

निन्द्या नीचा च संपत्तिर्विपत्तिर्महतो वरा ।
अहो सद्यः सतां कोपश्चोपकाराय कल्पते ॥ १२५ ॥
विना विपत्तेर्महिमा कुतः कस्य भवेद्भुवि ।
भूताः कान्तपरित्यागान्मुक्ता ब्राह्मणयोषितः ॥ १२६ ॥

 इस प्रकार मैंने श्रीहरि के इस उत्तम चरित्र को पूर्णरूपेण कह सुनाया। उन पुण्यवती ब्राह्मणियों के मोक्ष की यह मनोरम कथा अद्भुत है । विप्रवर! श्रीकृष्ण की लीला-कथा पद-पद में नयी-नयी जान पड़ती है। इसे सुनने वालों को कभी तृप्ति नहीं होती है। भला, श्रेय (कल्याणमयी कथा श्रवण ) – से कौन तृप्त होता है ? मैंने पूज्य पिताजी के मुख से जितना रमणीय भगवच्चरित्र सुना था, उसका वर्णन किया। अब तुम अपनी इच्छा बताओ। फिर क्या सुनना चाहते हो ?

नारदजी ने कहा कृपानिधान ! जगद्गुरो ! आपने पूर्वकाल में पिता के मुख से श्रीकृष्ण की जो- जो मङ्गलमयी लीलाएँ सुनी हैं, वे सब मुझे सुनाइये ।

सूतजी कहते हैं — शौनक ! देवर्षि का यह वचन सुनकर भगवान् नारायण ने स्वयं ही श्रीकृष्ण-महिमा के अन्यान्य प्रसङ्गों का वर्णन आरम्भ किया ।   (अध्याय १८)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराण्रे श्रीकृष्णजन्मखण्डे विप्रपत्नीमोक्षणप्रस्तावोनामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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