February 23, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 23 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ तेईसवाँ अध्याय धेनुक के पूर्वजन्म का परिचय, बलि-पुत्र साहसिक तथा तिलोत्तमा का स्वच्छन्द विहार, दुर्वासा का शाप और वर, साहसिक का गदहे की योनि में जन्म लेना तथा तिलोत्तमा का बाणपुत्री ‘उषा’ होना नारदजी ने पूछा — भगवन् ! किस पाप से बलि-पुत्र साहसिक को गदहे की योनि प्राप्त हुई ? दुर्वासाजी ने किस अपराध से दानवराज को शाप दिया ? नाथ! फिर किस पुण्य से दानवेश्वर ने सहसा महाबली श्रीहरि का धाम एवं उनके साथ एकत्व (सायुज्य) मोक्ष प्राप्त कर लिया ? संदेह- भंजन करने वाले महर्षे ! इन सब बातों को आप विस्तारपूर्वक बताइये । अहो ! कवि के मुख में काव्य पद-पद पर नया-नया प्रतीत होता है । भगवान् श्रीनारायण ने कहा — वत्स ! नारद ! सुनो। मैं इस विषय में प्राचीन इतिहास कहूँगा । मैंने इसे पिता धर्म के मुख से गन्धमादन पर्वत पर सुना था । यह विचित्र एवं अत्यन्त मनोहर वृत्तान्त पाद्म-कल्प का है और श्रीनारायणदेव की कथा से युक्त होने के कारण कानों के लिये उत्तम अमृत है । जिस कल्प की यह कथा है, उसमें तुम उपबर्हण नामक गन्धर्व के रूप में थे। तुम्हारी आयु एक कल्प की थी। तुम शोभायमान, सुन्दर और सुस्थिर यौवन से सम्पन्न थे । पचास कामिनियों के पति होकर सदा शृङ्गार में ही तत्पर रहते थे । ब्रह्माजी के वरदान से तुम्हें सुमधुर कण्ठ प्राप्त हुआ था और तुम सम्पूर्ण गायकों के राजा समझे जाते थे। उन्हीं दिनों दैववश ब्रह्मा का शाप प्राप्त होने से तुम दासीपुत्र हुए और वैष्णवों के अवशिष्ट भोजन-जनित पुण्य से इस समय साक्षात् ब्रह्माजी के पुत्र हो । अब तो तुम असंख्य कल्पों तक जीवित रहने वाले महान् वैष्णव-शिरोमणि हो । ज्ञानमयी दृष्टि से सब कुछ देखते और जानते हो तथा महादेवजी के प्रिय शिष्य हो । मुने! उस पाद्म-कल्प का वृत्तान्त मुझसे सुनो। दैत्य के इस सुधा-तुल्य मधुर वृत्तान्त को मैं तुम्हें सुना रहा हूँ । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय एक दिन की बात है । बलि का बलवान् पुत्र साहसिक अपने तेज से देवताओं को परास्त करके गन्धमादन की ओर प्रस्थित हुआ । उसके सम्पूर्ण अङ्ग चन्दन से चर्चित थे । वह रत्नमय आभूषणों से विभूषित हो रत्न के ही सिंहासन पर विराजमान था। उसके साथ बहुत बड़ी सेना थी। इसी समय स्वर्ग की परम सुन्दरी अप्सरा तिलोत्तमा उस मार्ग से आ निकली। उसने साहसिक को देखा और साहसिक ने उसको । पुंश्चली स्त्रियों का आचरण दोषपूर्ण होता ही है। वहीं दोनों एक-दूसरे के प्रति आकर्षित हो गये । चन्द्रमा के समीप जाती हुई तिलोत्तमा वहाँ बीच में ही ठहर गयी । कुलटा स्त्रियाँ कैसी दुष्टहृदया होती हैं और वे किसी भी पाप का विचार न करके सदा पापरत ही रहा करती हैं — यह सब बतलाकर भी तिलोत्तमा ने अपने बाह्य रूप-सौन्दर्य से साहसिक को मोहित कर लिया । तदनन्तर वे दोनों गन्धमादन के एकान्त रमणीय स्थान में जाकर यथेच्छ विहार करने लगे। वहीं मुनिवर दुर्वासा योगासन से विराजमान होकर श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों का चिन्तन कर रहे थे । तिलोत्तमा और साहसिक उस समय कामवश चेतनाशून्य थे। उन्होंने अत्यन्त निकट ध्यान लगाये बैठे हुए मुनि को नहीं देखा । उनके उच्छृङ्खल अभिसार से मुनि का ध्यान सहसा भङ्ग हो गया। उन्होंने उन दोनों की कुत्सित चेष्टाएँ देख क्रोध में भरकर कहा । दुर्वासा बोले — ओ गदहे के समान आकार- वाले निर्लज्ज नराधम ! उठ । भक्तशिरोमणि बलि का पुत्र होकर भी तू इस तरह पशुवत् आचरण कर रहा है। देवता, मनुष्य, दैत्य, गन्धर्व तथा राक्षस- ये सभी सदा अपनी जाति में लज्जा का अनुभव करते हैं। पशुओं के सिवा सभी मैथुन-कर्म में लज्जा करते हैं । विशेषतः गदहे की जाति ज्ञान तथा लज्जा से हीन होती है; अतः दानवश्रेष्ठ ! अब तू गदहे की योनि में जा । तिलोत्तमे ! तू भी उठ । पुंश्चली स्त्री तो निर्लज्ज होती ही है । दैत्य के प्रति तेरी ऐसी आसक्ति है तो अब तू दानवयोनि में ही जन्म ग्रहण कर । ऐसा कहकर रोष से जलते हुए दुर्वासामुनि वहाँ चुप हो गये। फिर वे दोनों लज्जित और भयभीत होकर उठे तथा मुनि की स्तुति करने लगे । साहसिक बोला — मुने! आप ब्रह्मा, विष्णु और साक्षात् महेश्वर हैं। अग्नि और सूर्य हैं । आप संसार की सृष्टि, पालन तथा संहार करने में समर्थ हैं। भगवन्! मेरे अपराध को क्षमा करें। कृपानिधे ! कृपा करें। जो सदा मूढों के अपराध को क्षमा करे, वही संत-महात्मा एवं ईश्वर है । यों कहकर वह दैत्यराज मुनि के आगे उच्चस्वर से फूट-फूटकर रोने लगा और दाँतों में तिनके दबाकर उनके चरणकमलों में गिर पड़ा। तिलोत्तमा बोली — हे नाथ! हे करुणासिन्धो ! हे दीनबन्धो ! मुझ पर कृपा कीजिये । विधाता की सृष्टि में सबसे अधिक मूढ स्त्री जाति ही है। सामान्य स्त्री की अपेक्षा अधिक मतवाली एवं मूढ कुलटा होती है, जो सदा अत्यन्त कामातुर रहती है। प्रभो ! कामुक प्राणी में लज्जा, भय और चेतना नहीं रह जाती है । नारद! ऐसा कहकर तिलोत्तमा रोती हुई दुर्वासाजी की शरण में गयी । भूतल पर विपत्ति में पड़े बिना भला किन्हें ज्ञान होता है ? उन दोनों की व्याकुलता देखकर मुनि को दया आ गयी। उस समय उन मुनिवर ने उन्हें अभय देकर कहा । दुर्वासा बोले — दानव ! तू विष्णुभक्त बलि का पुत्र है। उत्तम कुल में तेरा जन्म हुआ है। तू पैतृक परम्परा से विष्णुभक्त है। मैं तुझे निश्चित रूप से जानता हूँ । पिता का स्वभाव पुत्र में अवश्य रहता है । जैसे कालिय के सिर पर अङ्कित हुआ श्रीकृष्ण का चरणचिह्न उसके वंश में उत्पन्न हुए सभी सर्पों के मस्तक पर रहता है । वत्स ! एक बार गदहे की योनि में जन्म लेकर तू निर्वाण (मोक्ष) – को प्राप्त हो जा । सत्पुरुषों द्वारा पहले जो चिरकाल तक श्रीकृष्ण की आराधना की गयी होती है, इसके पुण्य-प्रभाव का कभी लोप नहीं होता । अब तू शीघ्र ही व्रज के निकट वृन्दावन के ताल-वन में जा । वहाँ श्रीहरि के चक्र से प्राणों का परित्याग करके तू निश्चय ही मोक्ष प्राप्त कर लेगा । तिलोत्तमे ! तू भारतवर्ष में बाणासुर की पुत्री होगी; फिर श्रीकृष्ण – पौत्र अनिरुद्ध का आलिङ्गन प्राप्त करके शुद्ध हो जायगी । महामुने! यों कहकर दुर्वासा मुनि चुप हो गये। तत्पश्चात् वे दोनों भी उन मुनिश्रेष्ठ को प्रणाम करके यथास्थान चले गये। इस प्रकार दैत्य साहसिक के गर्दभ-योनि में जन्म लेने का सारा वृत्तान्त मैंने कह सुनाया । तिलोत्तमा बाणासुर की पुत्री उषा होकर अनिरुद्ध की पत्नी हुई । (अध्याय २३) ॥ इति श्रीबह्मवैवर्त्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे तिलोत्तमाबलिपुत्रयोर्ब्रह्मशापप्रस्तावो नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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