February 19, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 03 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ तीसरा अध्याय श्रीदामा और राधा का परस्पर शाप नारायण बोले — हे मुने ! राधा ने रति-गृह में जाकर भगवान् को नहीं देखा और विरजा का नदी रूप देखकर अपने भवन लोट गयीं । अनन्तर श्रीकृष्ण ने अपनी प्रेयसी विरजा को नदी रूप में देखकर उसके जल से मनोहर तट पर शोकमग्न हो गये । तब श्रीकृष्ण की आज्ञा से विरजा साक्षात् राधा के समान सुन्दरी बनकर उनके सामने आकर खड़ी हो गयी। पीताम्बर पहने, मुसकराते हुए मुखकमलवाली वह ताकते हुए प्राणनाथ को कटाक्षों से देखने लगी । उस सुन्दरी को देखकर प्रेमातिरेक होने से जगत्पति भगवान् ने सहसा उसका आलिंगन किया । उस एकान्तवास के कारण सती विरजा गर्भवती हो गयी । विरजा ने दिव्य सौ वर्ष तक गर्भधारण उपरान्त अति मनोहर सात पुत्रों को जन्म दिया । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भगवान् श्रीकृष्ण की वह प्रेयसी पत्नी, जो सात पुत्रों की माता हुई, अपने सातों पुत्रों समेत सुखपूर्वक वहाँ रहने लगी । उसी बीच कनिष्ठ (छोटा) पुत्र भ्राताओं द्वारा पीड़ित एवं भयभीत होकर माता के पास आया और गोद में बैठ गया । कृपानिधान भगवान् ने अपने पुत्र को भीत देखकर विरजा का त्याग कर दिया । बालक को समझा-बुझाकर शांत करने के उपरान्त विरजा अपने प्राणेश्वर भगवान् को अपने समीप न देखकर शृंगारोपभोग से अतृप्त मन रहने के कारण उस छोटे पुत्र को उसने शाप दिया कि — “तुम लवण-सागर (खारा समुद्र ) हो जाओ, जिससे कोई भी जीव तुम्हारा जल पान नहीं करेगा । फिर अन्य पुत्रों को भी शाप दिया कि मूढ़ ! तुम लोग भूतल पर चले जाओ । मनोहर जम्बूद्वीप में पहुँचने पर तुम मूर्खो की स्थिति एकत्र न रह जायेगी । पृथक्-पृथक् द्वीपों में अपनी स्थिति करके तुम लोग वहाँ सदा सुखपूर्वक निवास करोगे और निर्जन स्थान में रहते हुए, द्वीप की नदियों के साथ क्रीड़ा करोगे।” उस कनिष्ठ पुत्र ने सभी बालकों को माता का शाप कह सुनाया, जिससे दुःखी होकर सभी बालक माता के पास आये और वहाँ अपने सम्बन्ध की विशेष बातें सुनने पर भक्तिपूर्वक सिर झुकाये माता की चरण-वन्दना करते हुए उन लोगों ने भूतल के लिए प्रस्थान किया । हे मुने ! इस प्रकार वे विभागपूर्वक . सात द्वीपों में, सात समुद्र होकर स्थित हुए और कनिष्ठ से ज्येष्ठ तक के एक-दूसरे का क्षेत्रफल क्रमशः दुगुना-दुगुना हो गया। वे लवण (खारा), इक्षु (ऊख), सुरा (मद्य), सपि (घृत), दही, दूध और जल नामक समुद्र हुए । उन सातों समुद्रों ने सातों द्वीपवाली पृथिवी को व्याप्त कर लिया। ( अनन्तर चलते समय ) सबने माता और भ्राताओं के शोक से दुःखी होकर रोदन किया । और वह पतिव्रता तो पुत्रों तथा पति के वियोग-दुःख से अधीर होकर रोदन करते-करते मूर्च्छित हो गयी । उसे शोक-सागर में निमग्न जानकर राधिकापति भगवान् श्रीकृष्ण पुनः उसके पास आये, जिनका मुखारविन्द मन्द हास कर रहा था । अपने कान्त भगवान् को देखते ही उसने शोक और रोदन दोनों का त्याग कर दिया, आनन्द-सागर में वह मग्न हो गयी । उसने भगवान् को अपने अंक में कस लिया और उस समय उस पुत्र-परित्यक्ता के ऊपर भगवान् भी प्रसन्न हो रहे थे । भगवान् ने उससे प्रीतिपूर्वक कहा — ‘कान्ते ! मैं नित्य तुम्हारे स्थान पर निश्चित रूप से आऊंगा । राधा के समान ही तुम मेरी प्रिया होगी और मेरे वरदान के प्रभाव से तुम नित्य अपने पुत्रों को देखोगी । विरजा के पास रहकर भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि — राधा की सखियों ने पुनः जाकर ईश्वरी राधा से कह दिया, जिसे सुनकर राधा देवी क्रुद्ध होकर कोपभवन में चली गयीं। इसी बीच भगवान् श्रीकृष्ण राधा के पास आये । राधिका देवी रुष्ट होने के कारण भूमि पर पड़ी ही रह गयीं, उठीं नहीं । करोड़ों दासियाँ जो बाहर द्वार पर खड़ी थीं और कुछ हाथ में बेंत लिये, जो उन्हीं की आयु की थीं, द्वारपाल के रूप में नियुक्त थीं । उन द्वारपालिकाओं ने कृष्ण को भीतर जाने से रोक दिया। कुछ द्वारपालिकाओं ने उन्हें वहाँ से हटा दिया — आगे नहीं जाने दिया, सर्वेश्वर भगवान् शान्त, क्रोधरहित एवं मन्द मुसुकान करते हुए वहाँ से हट गये । गोपियों के रोकने से जगत्-कारणों के कारण भगवान् कृष्ण के दूसरे महल में चले जाने पर श्रीदामा बहुत क्रुद्ध हुआ । उसने परमेश्वरी राधिका से, जो रुष्ट होने के कारण नेत्रों को रक्तकमल की भाँति लाल किये हुई थीं, क्रुद्ध भाव से कहना आरम्भ किया । श्रीदामा बोले — हे मातः ! मेरे स्वामी को तुम इस प्रकार की कटु वाणी क्यों कह रही हो ? हे देवि ! बिना विचारे तुम उन्हें व्यर्थ ही डांट-फटकार रही हो । जो ब्रह्मा अनन्त शिव और देवताओं के प्रभु, संसार के कारणों के कारण, वाणी (सरस्वती), लक्ष्मी, माया और प्रकृति के अधीश्वर, निर्गुण, अपने आत्मा में रमण करने- वाले एवं पूर्णकाम हैं तुम उनकी इतनी विडम्बना ( भद्द) क्यों करती हो ? जिसकी सेवा करने से तुम देवियों में श्रेष्ठ हुई हो और जिसकी चरण-सेवा से ही तुम सबकी महान् अधीश्वरी हुई हो, हे कल्याणि ! क्या तुम उसे नहीं जानती हो, क्या मैं उसे कहने में कभी समर्थ हो सकता हूँ । अपनी भौंहों को तिरछी करते ही लीला द्वारा कृष्ण तुम्हारे समान करोड़ों-करोड़ों देवियाँ बनाने में समर्थ हैं, क्या उस निर्गुण को तुम नहीं जानती हो । वैकुण्ठ में इन्हीं भगवान् के चरण-कमल को अपने केशों द्वारा पोंछती हुई लक्ष्मी भक्तिपूर्वक उनकी सेवा नित्य करती हैं । कान को अमृत की भाँति सुन्दर लगनेवाले स्तोत्रों से सरस्वती भक्तिपूर्वक निरन्तर जिनकी स्तुति करती हैं, क्या उस ईश्वर को तुम नहीं जानती हो ? सबकी बीजरूपा प्रकृति माया भीत रहती हुई भक्तिपूर्वक निरन्तर जिसकी प्रार्थना करती है, हे मानिनि ! क्या उसे तुम नहीं जानती हो ? वेदगण निरन्तर जिनकी महिमा की सोलहवीं कला की स्तुति करते हैं और कभी भी उसे जान नहीं पाते हैं, हे भामिनि ! क्या उसे तुम नहीं जानती हो ? हे ईश्वरि ! वेदों के जनक विभु ब्रह्मा अपने चारों मुखों द्वारा स्तुति करते हुए जिसके चरण-कमल की सेवा करते हैं, योगियों के गुरु शिव अपने पांचों मुखों द्वारा जिसकी स्तुति करते हैं तथा सजल नयन और पुलकित होकर जिसके चरण-कमल की सेवा करते हैं, शेष अपने सहस्रों मुखों द्वारा भक्तिपूर्वक जिस परमात्मा ईश्वर की सतत स्तुति करते रहते हैं तथा चरण-कमल की सेवा करते हैं, धर्मं सबका रक्षक, साक्षी तथा संसार का स्वामी होकर जिसके चरण-कमल की सेवा सदा भक्तिपूर्वक करता है, श्वेत-द्वीप के निवासी विष्णु जो विभु एवं रक्षक हैं, ये स्वयं जिसके अंश हैं, और जो अनेक परम अविनाशी रूप को धारण किये हुए हैं, देव, असुर मुनिवृन्द, मनुगण, विद्वान् मनुष्य जिसके चरण-कमल की निरन्तर सेवा करते हैं और स्वप्न में भी जिनको नहीं देख पाते हैं, उस हरि के चरण-कमल की सेवा क्रोध त्यागकर शीघ्र करो, वह अपने भ्रूभंग मात्र से सृष्टि का संहार करनेवाला है । उसी के एक निमेष मात्र समय बीतने से ब्रह्मा का पतन ( अंत ) हो जाता है और उसके एक दिन व्यतीत होने पर अट्ठाईस इन्द्र समाप्त हो जाते हैं । हे राधे ! इस प्रकार एक सौ आठ वर्ष की आयु जिसकी है उसी मेरे ईश्वर के अधीन तुम क्या अन्य सभी देवियाँ और समस्त ब्रह्माण्ड हैं । हे ब्रह्मन् ! श्रीदामा की इस प्रकार कटुपूर्ण स्वच्छ बातें सुनकर भगवान् की प्राणेश्वरी राधा तुरन्त क्रुद्ध हो गयीं । रासेश्वरी ने, जिनका उस समय ओंठ फड़क रहा था, केशपाश खुल गया था एवं नेत्र रक्तकमल की भाँति लाल हो गये थे, बाहर निकलकर श्रीदामा से कहा । राधिका बोलीं — तुम्हीं सब कुछ जानते हो, मैं तुम्हारे ईश्वर को नहीं जानती हूँ । रे अधम ! श्रीकृष्ण तुम्हारे ही ईश्वर हैं हम लोगों के नहीं, अतः भाग जाओ यहाँ से । मैं जानती हूँ, तुम सदा पिता की प्रशंसा करते हो और माता की निन्दा । जिस प्रकार असुरगण देवों की निरन्तर निन्दा किया करते हैं, उसी भाँति तुम मेरी निन्दा कर रहे हो इसलिए तुम असुर हो जाओ । हे गोप ! गोलोक से बाहर होकर आसुरी योनि में जन्म ग्रहण करो । मूढ़ ! मैंने तुम्हें आज शाप दे दिया है, देखती हूँ, अब तुम्हें कौन बचाने में समर्थ है । रासेश्वरी राधा उससे कहकर चुप हो गयीं, किन्तु राधा की बातें सुनकर श्रीदामा का भी होंठ फड़फड़ाने लगा । उसने भी शाप दिया कि — तुम भी मनुष्य योनि में जाओ । श्रीदामा बोले — हे अम्बिके ! तुम्हारा भी क्रोध मनुष्य के ही समान है अतः मेरे शाप के कारण तुम्हें भी भूतल में मनुष्य होना पड़ेगा, इसमें संदेह नहीं है । पराशक्ति की छाया या कला द्वारा वहाँ भूतल में प्रकट होने पर मूर्ख लोग तुम्हें रायण वैश्य की पत्नी कहेंगे, जो वृन्दावन में भगवान् श्रीकृष्ण के अंश से समुत्पन्न होगा । तदुपरांत भगवान् से तुम्हारा सौ वर्ष का वियोग होगा और उसके पश्चात् पुनः भगवान् से मिलकर उनके साथ गोलोक आओगी । उनसे ऐसा कहकर और नमस्कार करके श्रीदामा भगवान् के पास चला आया । वहाँ उन्हें प्रणाम करने के उपरान्त उनसे शाप की सभी बातें क्रमश: बता दीं । वह बार-बार रोदन करने लगा। उसी समय भगवान् ने उससे कहा — तुम अब पृथ्वी पर चले जाओ, तुम्हें जीतनेवाला तीनों लोकों में भी कोई राक्षस राजा नहीं होगा, तुम असुरों के राजा होगे और समयानुसार शंकर के शूल द्वारा निधन होने पर देहत्यागपूर्वक यहाँ चले आओगे। मैं आशीर्वाद दे रहा हूँ । पचास युग के समय तक तुम वहाँ रहोगे ।’ भगवान् श्रीकृष्ण की बातें सुनकर शोकाकुल होकर उसने पुनः उनसे कहा ( आपकी आज्ञा शिरोधार्य है किन्तु ) वहाँ मुझे अपनी भक्ति से रहित न करियेगा । इतना कहकर भगवान् को नमस्कार करके वह आश्रम से बाहर हो गया । राधा देवी भी पीछे- पीछे चलने लगीं और बार-बार रोदन करते हुए कहने लगीं — ‘ हे वत्स ! कहाँ जा रहे हो ? ऐसा कहकर उस सती ने अत्यन्त विलाप किया। श्रीदामा ने भी उस समय उन्हें नमस्कार करके प्रेमाकुल होकर बहुत रोदन किया । वही तुलसी का पति शंखचूड़ हुआ । श्रीदामा के चले जाने पर राधा देवी ने भी भगवान् कृष्ण के समीप गमन किया, वहाँ जाकर उनसे सब वृत्तान्त कह सुनाया, भगवान् ने उसका उत्तर भी दिया । राधा को शोक-सागर में निमग्न देखकर भगवान् ने उन अपनी प्रेयसी को बहुत समझाया । वह शंखचूड़ समयानुसार पुनः गोलोक आकर ईश्वर का पार्षद हुआ । हे मुने ! इधर राधा ने भी वाराह कल्प में भगवान् के साथ भूतल पर जाकर गोकुल में वृषभानु के घर जन्म ग्रहण किया । इस प्रकार मैंने भगवान् श्रीकृष्ण का मंगल आख्यान, जो सभी लोगों को तत्त्वरूप से अभीष्ट है, तुम्हें सुना दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो । उधर विरजादेवी नदी हो गयीं और उनके श्रीकृष्ण के द्वारा जो सात सुन्दर पुत्र हुए थे — वे लवण, इक्षु, सुरा, घृत, दधि, दुग्ध और जलरूप सात समुद्र हो गये ( यह सब श्रीराधा और श्रीकृष्ण की लीला ही है, जो व्रज में परम दिव्य पवित्रतम विलक्षण प्रेमरसधारा बहाने के लिये निमित्तरूप से की गयी थी ) । इसी निमित्त से लीलामय श्रीराधा और श्रीकृष्ण वाराहकल्प में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए। श्रीराधाजी गोकुल में श्रीवृषभानु के घर प्रकट हुईं। यह कथा प्रसङ्गानुसार पहले भी आ चुकी है। (भगवान् श्रीराधा-कृष्ण के अवतार तथा व्रज की मधुरतम लीला का यह एक निमित्त कारणमात्र है | ) ( अध्याय ३) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखंडे नारायणनारदसंवादे सप्तसमुद्रजन्म राधाश्रीदामशापोद्भवो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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