ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 30
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
तीसवाँ अध्याय
भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अष्टावक्र (देवल) – के शव का संस्कार तथा उनके गूढ़ चरित्र का परिचय

नारदजी ने पूछा — ब्रह्मन् ! ( नारायणदेव ! ) उन महामुनि का कौन-सा अद्भुत रहस्य सुना गया ? मुनि अष्टावक्रके देह त्याग के पश्चात् भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण ने क्या किया ?

भगवान् श्रीनारायण बोले — मुनि को मरा देख भगवान् श्रीकृष्ण उनके शरीर का दाह-संस्कार करने को उद्यत हुए । महात्मा अष्टावक्र का वह रक्त, मांस एवं हड्डियों से हीन शरीर साठ हजार वर्षों तक निराहार रहा; अतः प्रज्वलित हुई जठराग्नि ने उस शरीर के रक्त, मांस तथा हड्डियों को दग्ध कर दिया था । मुनि का चित्त श्रीहरि के चरणारविन्दों के चिन्तन में ही लगा था; अतः उन्हें बाह्य ज्ञान बिलकुल नहीं रह गया था । मधुसूदन श्रीकृष्ण ने चन्दन-काष्ठ की चिता बनाकर उसमें अग्निसम्बन्धी कार्य (संस्कार) किया और फिर शोक-लीला करते हुए अश्रुपूर्ण नेत्रों से मुनि के शव को उस चिता पर स्थापित कर दिया । तदनन्तर शव के ऊपर भी काठ रखकर चिता में आग लगा दी। मुनि का शरीर जलकर भस्म हो गया । आकाश में देवता दुन्दुभियाँ बजाने लगे और तत्काल ही वहाँ से फूलों की वर्षा होने लगी।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

इसी बीच वहाँ रत्नों के सारतत्त्व से निर्मित, मन के समान तीव्र गति से चलने वाला तथा वस्त्रों और पुष्पहारों से अलंकृत एक सुन्दर विमान गोलोक से उतरा और श्रीहरि के सामने प्रकट हो गया । उसमें श्रीकृष्ण के समान ही रूप और वेश-भूषा वाले श्रेष्ठ पार्षद विराजमान थे। वे उत्तम पार्षद तत्काल ही विमान से उतर गये। उन सबके आकार श्रीकृष्ण से मिलते-जुलते थे। उन्होंने राधिका और श्यामसुन्दर को प्रणाम करके सूक्ष्म – देहधारी मुनीश्वर अष्टावक्र को भी मस्तक झुकाया और उन्हें उस विमान पर बिठाकर वे उत्तम गोलोकधाम को चले गये। मुनीन्द्र अष्टावक्र के गोलोकधाम को चले जाने पर वृन्दावनविनोदिनी साध्वी राधा ने चकित हो जगदीश्वर श्रीकृष्ण से पूछा ।

श्रीराधिका बोलीं — नाथ ! ये मुनिश्रेष्ठ कौन थे, जिनके समस्त अङ्ग ही टेढ़े-मेढ़े थे? ये बहुत ही नाटे थे। इनके शरीर का रंग काला था और ये देखने में अत्यन्त कुत्सित होने पर भी बड़े तेजस्वी जान पड़ते थे। उनका जो प्रज्वलित अग्रि के समान तेज था, वह साक्षात् आपके चरणारविन्द में विलीन हो गया। वे कितने पुण्यात्मा थे कि तत्काल विमान में बैठकर गोलोकधाम को चले गये और उन स्वात्माराम मुनि के लिये आपको भी रोना आ गया। प्रभो! आपने अश्रुपूर्ण नेत्रों से इनका सत्कार किया है; अतः मैंने जो कुछ पूछा है, वह सारा विवरण शीघ्र ही विस्तारपूर्वक बताइये |

राधिका का यह वचन सुन भगवान् मधुसूदनने हँसकर युगान्तर की कथा को कहना आरम्भ किया ।

श्रीकृष्ण बोले — प्रिये ! सुनो। मैं इस विषय में एक प्राचीन इतिहास बता रहा हूँ, जिसके सुनने और कहने से समस्त पापों का नाश हो जाता है । प्रलयकाल में जब तीनों लोक एकार्णव के जल में मग्न थे, तब मेरे ही अंशभूत महाविष्णु के नाभिकमल से मेरी ही कला द्वारा जगत्-विधाता ब्रह्मा का प्रादुर्भाव हुआ । ब्रह्माजी के हृदय से पहले चार पुत्र उत्पन्न हुए, जो सब-के-सब नारायण-परायण तथा ब्रह्मतेज से प्रकाशमान थे । वे ज्ञानहीन बालकों की भाँति सदा नग्न रहते हैं और पाँच वर्ष की ही अवस्था से युक्त दिखायी देते हैं। उन्हें बाह्यज्ञान नहीं होता; परंतु ब्रह्मतत्त्व की व्याख्या में वे बड़े निपुण हैं । सनक, सनन्दन, सनातन और भगवान् सनत्कुमार- ये ही क्रमशः उन चारों के नाम हैं।

एक दिन ब्रह्माजी ने उनसे कहा — ‘पुत्रो ! तुम जगत् की सृष्टि करो।’ परंतु उन्होंने पिता की बात नहीं मानी और मेरी प्रसन्नता के लिये वे तपस्या करने को वन में चले गये। उन पुत्रों के चले जाने पर विधाता का मन उदास हो गया। यदि पुत्र आज्ञा का पालन न करे तो पिता को बड़ा दुःख होता है। उन्होंने ज्ञान द्वारा अपने विभिन्न अङ्गों से कई पुत्र उत्पन्न किये, जो तपस्या के धनी, वेद- वेदाङ्गों के विद्वान् तथा ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान थे । उनके नाम इस प्रकार हैं — अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, मरीचि, भृगु, अङ्गिरा, क्रतु, वसिष्ठ, वोढु, कपिल, आसुरि, कविअन्य पुराणों के अनुसार कपिलजी कर्दम के तथा कवि भृगु के पुत्र थे । सम्भव है ये दूसरे कपिल हों ।, शंकु, शङ्ख, पञ्चशिख और प्रचेता । उन तपोधनों ने ब्रह्माजी की आज्ञा से दीर्घकाल तक तप करके सृष्टि का कार्य सम्पन्न किया। वे सभी सपत्नीक थे और संसार की सृष्टि करने के लिये उन्मुख रहते थे। उन सभी तपोधनों के बहुत-से पुत्र और पौत्र हुए। मुनिवंश की परम्परा का कीर्तन करने वाली वह मनोहर एवं पुण्यस्वरूपा कथा बहुत बड़ी है; अतः उसे यहीं समाप्त किया जाता है ।

सुन्दरि राधिके ! अब तुम वह कथा सुनो, जो प्रकृत प्रसङ्ग के अनुकूल है। प्रचेतामुनि के पुत्र श्रीमान् मुनिवर असित हुए। असित ने पुत्र की कामना से पत्नी सहित दीर्घकाल तक तप किया; परंतु तब भी जब पुत्र नहीं हुआ तो वे अत्यन्त विषादग्रस्त हो गये । उस समय आकाशवाणी हुई- ‘मुने! तुम भगवान् शंकर के पास जाओ और उनके मुख से मन्त्र का उपदेश ग्रहण करके उसे सिद्ध करो। उस मन्त्र की जो अधिष्ठात्री देवी हैं वे शीघ्र ही तुम्हें साक्षात् दर्शन देंगी। उन अभीष्ट देवी के वर से निश्चय ही तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी ।’ यह बात सुनकर वे ब्राह्मणदेवता शंकरजी के समीप गये। जो योगियों के लिये भी अगम्य है, उस निरामय शिवलोक में पहुँचकर पत्नीसहित असित दोनों हाथ जोड़ भक्तिभाव से मस्तक झुकाकर एक योगी की भाँति योगियों के गुरु महादेवजी की स्तुति करने लगे ।

॥ असितकृतं शिवस्तोत्रम् ॥

॥ असित उवाच ॥
जगद्गुरो नमस्तुभ्यं शिवाय शिवदाय च ।
योगीन्द्राणां च योगीन्द्र गुरूणां गुरवे नमः ॥ ४३ ॥
मृत्योमृर्त्युस्वरूपेण मृत्युसंसारखण्डन ।
मृत्योरीश मृत्युबीज मृत्युञ्जय नमोऽस्तु ते ॥ ४४ ॥
कालरूपं कलयतां कालकालेश कारण ।
कालादतीत कालस्य कालकाल नमोऽस्तु ते ॥ ४५ ॥
गुणातीत गुणाधार गुणबीज गुणात्मक ।
गुणीश गुणिनां बीज गुणिनां गुरवे नमः ॥ ४६ ॥
ब्रह्मस्वरूप ब्रह्मज्ञ ब्रह्मभावे च तत्पर ।
ब्रह्मबीजस्वरूपेण ब्रह्मबीज नमोस्तु ते ॥ ४७ ॥
इति स्तुत्वा शिवं नत्वा पुरस्तस्थौ मुनीश्वरः ।
दीनवत्साश्रुनेत्रश्च पुलकां चितविग्रहः ॥ ४८ ॥
असितेन कृतं स्तोत्रं भक्तियुक्तश्च यः पठेत् ।
वर्षमेकं हविष्याशी शङ्करस्य महात्मनः ॥ ४९ ॥
स लभेद्वै ष्णवं पुत्रं ज्ञानिनं चिरजीविनम् ।
भवेदनाढ्यो दुःखी च मूको भवति पण्डितः ॥ ५० ॥
अभार्यो लभते भार्यां सुशीलां च पतिव्र ताम् ।
इह लोके सुखं भुक्त्वा यात्यन्ते शिवसन्निधिम् ॥ ५१ ॥
इदं स्तोत्रं पुरा दत्तं ब्रह्मणा च प्रचेतसे ।
प्रचेतसा स्वपुत्रायासिताय दत्तमुत्तमम् ॥ ५२ ॥

असित बोले — जगदुरो ! आपको नमस्कार है। आप शिव हैं और शिव (कल्याण) – के दाता हैं। योगीन्द्रों के भी योगीन्द्र तथा गुरुओं के भी गुरु हैं; आपको प्रणाम है । मृत्यु के लिये भी मृत्युरूप होकर जन्म – मृत्युमय संसार का खण्डन करने वाले देवता! आपको नमस्कार है । मृत्यु के ईश्वर ! मृत्यु के बीज ! मृत्युञ्जय ! आपको मेरा प्रणाम है। कालगणना करने वालों के लक्ष्यभूत कालरूप परमेश्वर ! आप काल के भी काल, ईश्वर और कारण हैं तथा काल के लिये भी कालातीत हैं। कालकाल ! आपको नमस्कार है। गुणातीत ! गुणाधार ! गुणबीज ! गुणात्मक ! गुणीश ! और गुणियों के आदिकारण ! आप समस्त गुणवानों के गुरु हैं; आपको नमस्कार है । ब्रह्मस्वरूप ! ब्रह्मज्ञ ! ब्रह्मचिन्तनपरायण ! आपको नमस्कार है । आप वेदों के बीजरूप हैं । इसलिये ब्रह्मबीज कहलाते हैं; आपको मेरा प्रणाम है ।

इस प्रकार स्तुति करके शिवको प्रणाम करने के पश्चात् मुनीश्वर असित उनके सामने खड़े हो गये और दीन की भाँति नेत्रों से आँसू बहाने लगे। उनके सम्पूर्ण शरीर में रोमाञ्च हो आया। जो असित द्वारा किये गये महात्मा शंकर के इस स्तोत्र का प्रतिदिन भक्तिभाव से पाठ करता और एक वर्ष तक नित्य हविष्य खाकर रहता है- उसे ज्ञानी, चिरञ्जीवी एवं वैष्णव पुत्र की प्राप्ति होती है । जो धनाभाव से दुःखी हो, वह धनाढ्य और जो मूर्ख हो, वह पण्डित हो जाता है । पत्नीहीन पुरुष को सुशीला एवं पतिव्रता पत्नी प्राप्त होती है तथा वह इस लोक में सुख भोगकर अन्त में भगवान् शिव के समीप जाता है । पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने यह उत्तम स्तोत्र प्रचेता को दिया था और प्रचेता ने अपने पुत्र असित को ।

श्रीकृष्ण कहते हैं मुनि का यह स्तोत्र सुनकर भक्तवत्सल भगवान् शंकर स्वयं ही अपने भक्त ब्राह्मण से बोले ।

शंकरजी ने कहा — मुनिश्रेष्ठ ! धैर्य धारण करो। मैं तुम्हारी इच्छा को जानता हूँ; अतः सत्य कहता हूँ । तुम्हें मेरे अंश से मेरे ही समान पुत्र प्राप्त होगा। इसके लिये मैं तुम्हें एक ऐसा मन्त्र दूँगा, जिसकी कहीं तुलना नहीं है तथा जो सबके लिये परम दुर्लभ है।

यों कहकर भगवान् शिव ने असितमुनि को वहीं षोडशाक्षर मन्त्र, स्तोत्र, पूजाविधि, परम अद्भुत ‘संसार- विजय’ नामक कवच तथा पुरश्चरण का उपदेश दिया। साथ ही यह भी कहा कि ‘इस मन्त्र की इष्टदेवी तुम्हें वर देने के लिये प्रत्यक्ष दर्शन देंगी ।’ यों कहकर रुद्रदेव चुप हो गये और असित मुनि उन्हें नमस्कार करके चले गये ।

उन्होंने सौ वर्षों तक उस उत्कृष्ट मन्त्र का जप किया। सती राधिके ! तदनन्तर तुमने ही मुनि को प्रत्यक्ष दर्शन देकर उन्हें वर दिया – ‘वत्स ! तुम्हें निश्चय ही महाज्ञानी पुत्र की प्राप्ति होगी ।’ यह वर देकर तुम पुनः गोलोक में मेरे पास चली आयीं । तदनन्तर यथासमय भगवान् शिव के अंश से असित के एक पुत्र हुआ, जो कामदेव के समान सुन्दर था । उसका नाम हुआ देवल

देवल ब्रह्मनिष्ठ महात्मा हुए। उन्होंने राजा सुयज्ञ की सुन्दरी कन्या रत्नमालावती को, जो सबका मन मोह लेने वाली थी, विवाह की विधि से सानन्द ग्रहण किया। दीर्घकाल तक पत्नी के साथ रहकर कालान्तर में मुनिवर देवल संसार से विरक्त हो गये और सारा सुख छोड़कर धर्म में तत्पर हो श्रीहरि के चिन्तन में लग गये। एक समय रात्रि में वे विरक्त तपोधन शय्या से उठे और कमनीय गन्धमादन पर्वत पर तपस्या के लिये चले गये । उनकी पत्नी की जब निद्रा टूटी, तब वह सती अपने स्वामी को वहाँ न देख विरहाग्नि से दग्ध हो शोकवश अत्यन्त विलाप करने लगी। वह उठकर कभी खड़ी होती और कभी पछाड़ खाकर गिरती थी । रत्नमालावती बारंबार उच्चस्वर से रोदन करने लगी। तपे हुए पात्र में पड़े हुए धान्य की जो दशा होती है, वही दशा उस समय उसके मन की थी। उस सुन्दरी ने खाना-पीना छोड़कर प्राणों का परित्याग कर दिया। उसके पुत्र ने उसका दाह संस्कार आदि पारलौकिक कृत्य किया।

मुनिवर देवल मेरे भक्त एवं जितेन्द्रिय थे । उन्होंने एक सहस्र दिव्य वर्षों तक गन्धमादन की गुफा में तप किया। एक दिन रम्भा ने उन परम सुन्दर, शान्तस्वभाव एवं कन्दर्पसदृश रूपवान् मुनि को देख उनसे मिलन की प्रार्थना की। मुनि ने उसकी याचना स्वीकार नहीं की ।

मुनिवर देवल ने उससे कहा — ‘रम्भे ! सुनो। मैं वेदों का सारभूत वचन सुना रहा हूँ, जो तपस्वी ब्राह्मणों के कुलधर्म के अनुकूल और सत्य है । जो मनुष्य अपनी पत्नी को त्यागकर परायी स्त्री के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है, वह जीते-जी मरा हुआ है। उसके यश, धन और आयु की हानि होती है । भूतल पर जिसके यश का विस्तार नहीं हुआ, उसका जीवन निष्फल है। एक तपस्वी को उत्तम सम्पत्ति, राज्य और सुख से क्या लेना है ? मैं निष्काम और वृद्ध हूँ । मुझसे तुम्हारा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? माँ ! तुम सुन्दरी हो; अतः किसी उत्तम वेश-भूषावाले सुन्दर तरुण पुरुष की खोज करो।’

देवलजी की यह बात सुनते ही रम्भाको क्रोध आ गया। उसने पुनः अपनी वही बात दोहरायी । तब मुनि उसे कुछ भी उत्तर न देकर पूर्ववत् ध्यानस्थ हो गये। यह देख रम्भा ने रोषपूर्वक शाप दिया ।

रम्भा ने कहा — ‘कुटिल-हृदय ब्राह्मण! तेरे सारे शरीर अवयव टेढ़े-मेढ़े हो जायँ । तेरा काजल के समान काला तथा रूप-यौवन से शून्य हो जाय । आकार अत्यन्त विकृत तथा तीनों लोकों में निन्दित हो और तेरा पुरातन तप अवश्य ही शीघ्र नष्ट हो जाय ।’

यह शाप प्राप्त होने पर जब मुनिवर देवल ने आँख खोलकर देखा तो सारा अङ्ग विकृत तथा पूर्वपुण्य से वर्जित दिखायी दिया। तब वे अग्निकुण्ड तैयार करके शोकवश अपने प्राण त्याग देने को उद्यत हुए। उस समय मैंने उन्हें दर्शन एवं वर दिया तथा दिव्य ज्ञान देकर उन्हें समझाया। प्रेमपूर्वक मेरे आश्वासन देने पर वे शान्त हुए । उन महामुनि के आठों अङ्गों को वक्र देख मैंने तत्काल ही कौतूहलवश उनका नाम अष्टावक्र 1  रख दिया। मेरे कहने से उन्होंने मलयाचल की कन्दरा में आकर साठ हजार वर्षों तक बड़ी भारी तपस्या की। प्रिये ! उस तप की समाप्ति होने पर मेरा वह भक्त मुझसे आ मिला है। मैंने स्वयं उसे अपने में मिला लिया है। प्रलयकाल में सबके नष्ट हो जाने पर भी मेरे भक्त का नाश नहीं होता। इस मुनि ने आहार बिलकुल छोड़ दिया था । अतः दीर्घकाल की तपस्या एवं जठराग्नि की ज्वाला से इनके शरीर का भीतरी भाग जलकर भस्मरूप हो गया था। प्रिये ! ये मुनि मेरे ही लिये मलयाचल की कन्दरा छोड़कर यहाँ आये थे । इन अष्टावक्र (देवल) – से बढ़कर दूसरा कोई मेरा भक्त न तो हुआ है और न होगा । ब्रह्माजी के प्रपौत्र मुनिवर देवल ऐसे उत्तम तपस्वी थे; परंतु उस पुंश्चली के शाप से उसी तरह हीन अवस्था को पहुँच गये, जैसे पूर्वकाल में ब्रह्माजी अपूजनीय हो गये थे । महात्मा देवल का यह सारा गूढ़ रहस्य मैंने कह सुनाया, जो सुखद और पुण्यप्रद है । अब तुम और क्या सुनना चाहती हो ? ( अध्याय ३०)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे राधाप्रश्ने त्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३० ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

1. इस प्रसङ्ग से यह सूचित होता है कि असितपुत्र देवल ( भी ) कुछ काल तक ‘अष्टावक्र’ कहलाये । महाभारत के अनुसार ‘अष्टावक्र’ नाम से प्रसिद्ध एक दूसरे मुनि भी थे, जो जन्म से ही वक्राङ्ग थे । उद्दालक- कन्या सुजाता उनकी माता थीं और महर्षि कहोड पिता । उन्होंने राजा जनक के दरबार में शास्त्रार्थी पण्डित बन्दी को पराजित किया था । श्वेतकेतु उनके मामा थे। महर्षि वदान्य की पुत्री सुप्रभा के साथ उनका विवाह हुआ था । समङ्गा नदी में स्नान करने से इनके सब अङ्ग सीधे हो गये थे। महाभारत वनपर्व के अध्याय १३२ से लेकर १३४ तक उनका प्रसङ्ग है। अनुशासनपर्व के उन्नीसवें और इक्कीसवें अध्यायों में भी उनकी कथा आयी है।

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