ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 37
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
सैंतीसवाँ अध्याय
शंकर के निर्माल्य को शाप

राधिका बोलीं — हे सन्देह निवारक ! ऐसे महात्मा विभु एवं सर्वेश्वर शिव का उच्छिष्ट क्यों नहीं प्रशस्त माना जाता ।

श्रीकृष्ण बोले — देवि !  इस विषय  में एक प्राचीन इतिहास बताऊंगा, जो पापरूपी ईंधनों के जलाने में प्रज्वलित अग्निशिखा के समान है । एक बार सनत्कुमार वैकुण्ठ में पहुँचे, वहाँ भोजन कर चुके स्वामी नारायण को देखा । उन्हें हर्ष से भक्तिपूर्वक प्रणाम करके गूढ़ स्तोत्रों द्वारा स्तुति की । भक्तवत्सल भगवान् ने सन्तुष्ट होकर उन्हें अपना उच्छिष्ट प्रदान किया । ब्राह्मण ने दुर्लभ अवशेष पाते ही कुछ तो खा लिया और कुछ बन्धुओं के खाने के लिए रख लिया ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

सिद्धाश्रम में पहुँचने पर उन्होंने वह अवशेष अपने गुरु शिव को दे दिया । उसे पाते ही वे भक्ति के उद्वेक से सम्पूर्ण अवशेष को खा गये । उस अति दुर्लभ वस्तु का भक्षण करके वे प्रेम-विह्वल होकर नाचने लगे । उनके सर्वांग में रोमाञ्च हो आया, नेत्र सजल हो गये और वे हर्ष से विभोर हो उठे । वे अपने पांचों मुखों द्वारा विविध राग, ताल के अनुसार तान और मधुर स्वर से मेरे गुणों का बड़ा सुन्दर गायन करने लगे । (तन्मय) होने के कारण उनके हाथ से डमरू, शंख और बाघम्बर भी गिर पड़ा। पश्चात् वे स्वयं गिरकर रोदन करते हुए मूर्च्छित हो गये । वे अपने हृदय कमल में सहस्र दल के मध्य मेरे अति कमनीय रूप का अति स्थिर चित्त से ध्यान कर रहे थे ।

इसी बीच प्रसन्न मुख और नेत्रवाली दुर्गतिनाशिनी दुर्गा देवी वहाँ हर्ष से शीघ्र पहुँच गयीं । भक्ति से उन्हें रोदन करते,  मूर्च्छित होते और गिरते-पड़ते देखकर दुर्गा ने सनत्कुमार से शंकर का समाचार पूछा । सनत्कुमार ने हाथ जोड़कर उनसे समस्त वृत्तान्त कह दिया, सुनकर देवी कुपित हो गयीं, उनका अधरोष्ठ फड़कने लगा । फिर शाप देने के लिए उद्यत देवी को देखकर त्रिनेत्र शिव ने उठकर उन्हें विविध भांति से समझाया और हाथ जोड़कर स्तुति की । मनोहर स्तोत्र सुनकर पार्वती ने शिव को शाप नहीं दिया, किन्तु उनके उच्छिष्ट को दूषित कर दिया, जो विद्वानों के लिए भी अभक्ष्य हो गया । ब्रह्माण्ड में सबका संहार करनेवाले शिव भी पार्वती के भय से काँप उठे । तब गणों की जननी जगन्माता पार्वती, जिनके नेत्र लाल कमल के समान हो गये थे, कुपित होकर नीति के सार रूप उत्तम वचन कहने लगीं ।

पार्वती बोलीं — तुम समस्त जगत् के पोषक एवं रक्षक हो, विशेषतया मेरे ही हो । फिर चारों वेदों के वक्ता, जनक और स्वयं विभु ( व्यापक ) हो । तुम भक्तों के लिए मुक्तिदाता एवं समस्त सम्पदाओं के प्रदाता भी हो । यदि तुम्हीं अनीति करते हो, तो धर्म की रक्षा कौन करेगा ? मैं तुम्हारी सदैव की परिपालनीय, पोषणीय और भक्ति से दासी भी हूँ। अपने ही कर्मदोष से मैं शिव-निर्माल्य भक्षण से वंचित हो गयी हूँ । कोई वस्तु सुवर्ण द्वारा शुद्ध होती है, कुछ वायु के द्वारा, कुछ प्रक्षालन करने से और विष्णु को निवेदित कर देने से सब कुछ शुद्ध हो जाती है । विष्णु को निवेदित किये अन्न से समस्त देवों का यजन करना चाहिए, और पितरों एवं अतिथियों को तृप्त करना चाहिए, ऐसा वेदों में निश्चित किया गया है । न निवेदन करने योग्य अभक्ष्य वस्तु को त्यागकर जो भक्ति से विष्णु के नैवेद्य को उदर में डालता है, वह श्रेष्ठ पार्षद होता है ।

भगवान् विष्णु को निवेदित किये हुए अन्न की सोलहवीं कला के समान भी अमृत नहीं है, जो समस्त वस्तुओं का इष्ट एवं अत्यन्त दुर्लभ सारभाग है । वह अमृत अकाल-मृत्यु का विनाशक, किन्तु विष्णु का नैवेद्य तो उनके समान ही बना देता है । साधुओं की संगति में जो स्वेच्छा से विष्णु का नैवेद्य भक्षण करता है वह साठ सहस्र वर्षों की तपस्या के फल प्राप्त करता है । जो भक्त नित्य भक्तिपूर्वक भगवान् को निवेदन करके नैवेद्य भक्षण करता है, वह तपस्याओं का कर्ता होते हुए तेज में भगवान् के समान हो जाता है । पूर्वकाल में पुष्कर क्षेत्र में मुनियों की सभा के मध्य तुम्हारे ही मुख से मैंने यह सब सुना था। प्रभो ! मैंने अति चिरकाल तक तप करके तुम ईश्वर को पतिरूप में प्राप्त किया है। तब विष्णु के प्रसाद भक्षण से मैं क्यों वञ्चित की गयी ? महेश्वर ! इस समय तुमने जो मुझे विष्णु का नैवेद्य नहीं दिया है, इसलिए आज से जो लोग तुम्हारा नैवेद्य भक्षण करेंगे, वे भारत में एक जन्म कुत्ते भी होंगे ।

यह कहकर माता पार्वती प्रभु (शिव) के सामने रोदन करने लगीं। उस समय उनकी दृष्टि उनके कण्ठ पर पड़ गयी, जिससे वे नीलकण्ठ हो गये । तब शिव पार्वती को आदरपूर्वक छाती से लगाकर विनय और स्तोत्र से उनका मान दूर कर दिया । हाथ से उनके दोनों नेत्रों के आंसुओं को बार-बार पोंछकर अनेक मनोहर नीति वाक्यों से उन्हें समझाया ।

सन्तुष्ट होकर देवी ने स्वामी से कहा — मैं विष्णु के नैवेद्य के बिना देह को छोड़ दूंगी । तुम्हारे सौभाग्य को बढ़ाने वाली देह को मैं धारण करती हूँ, अब सौभाग्यरहित शरीर को मैं कैसे धारण करूं ? जन्म, मृत्यु एवं बुढ़ापे का अपहरण करने वाला तुम्हारा नैवेद्य अपूर्व था, किन्तु तुमने जो उसे दूषित कर दिया, अत: तुम्हारे देखते ही मैं देह त्याग रही हूँ । हे ईश्वर ! केवल शिवलिंग के ऊपर जो नैवेद्य अर्पित किया जायगा वही आग्राह्य होगा और भगवान् विष्णु के नैवेद्य से मिश्रित तुम्हारा नैवेद्य अतिपवित्र होगा ।

इस प्रकार कहकर वह देवी देह त्यागने के लिए उद्यत हो गयीं । तब भयभीत शंकर ने उनके आगे स्तुति करके स्वीकार कर लिया ।

॥ शंकर कृत पार्वती स्तोत्र ॥

॥ शंकर उवाच ॥
स्थिरा भव महादेवि चण्डिके जगदंबिके ।
ममापराधमखिलं क्षन्तुमर्हसि सुन्दरि ॥ ४१ ॥
मां भृत्यं तपसा क्रीतं कृपां कुरु ममोपरि ।
ब्रह्मविष्णुमहेशानां बीजभूते सनातनि ॥ ४२ ॥
अहो गोलोकनाथस्थ गुणातीतस्य निर्गुणे ।
सर्वशक्तिस्वरूपे च सदैव सहचारिणि ॥ ४३ ॥
साकारे च निराकारे नित्ये स्वेच्छामये प्रिये ।
कृपया तद्विभोरेव मम वक्षसि सांप्रतम् ॥ ४४ ॥
सर्वबीजस्वरूपे च महामाये मनोहरे ।
सर्वसिद्धिप्रदे देवि मुक्तिदे कृष्णभक्तिदे ॥ ४५ ॥
इच्छैव श्रीहरेः साक्षान्नाहं दातुमपि क्षमः ।
तदा देहं परित्यज्य निर्गुणं व्रज निर्गुणे ॥ ४६ ॥
इत्येवमुक्त्वा पुरतस्तस्थौ च चन्द्रशेखरः ।
बभूव सुप्रसन्ना सा प्रणनाम हरं परम् ॥ ४७ ॥
इत्येवं पार्वतीस्तोत्रं शङ्करेण कृतं पुरा ।
यः पठेद्विपदा ग्रस्तः स भयादेव मुच्यते ॥ ४८ ॥
मित्रभेदो भवेद् दूरं तत्संम्प्रीतिर्भवेत्पुरा ।

शंकर बोले — हे महादेवि ! हे चण्डिके ! हे जगन्माता ! स्थिर हो जाओ । हे सुन्दरि ! तुम मेरे सम्पूर्ण अपराध को क्षमा करो । तुमने अपनी तपस्या द्वारा मुझ भृत्य को खरीदा है, अतः मेरे ऊपर कृपा करो। तुम ब्रह्मा, विष्णु और महेश की बीजभूत एवं सनातनी हो । अहो ! तुम गुणातीत गोलोकनाथ की निर्गुश शक्ति हो, सभी शक्तियों के स्वरूप हो, सदैव (मेरी) सहचरी हो । प्रिये ! तुम साकार, निराकार, नित्य एवं स्वेच्छामय हो । उन्हीं विभु (श्रीकृष्ण) की कृपा से इस समय मेरे वक्षःस्थल पर विराज रही हो । तुम समस्त बीजस्वरूप, महामाया, मनोहर, समस्त सिद्धियों को देनेवाली और मुक्ति एवं कृष्ण की भक्ति प्रदान करनेवाली हो । भगवान् श्रीहरि की साक्षात् इच्छा ही ऐसी थी, जिससे मैं तुम्हें देने में असमर्थ रहा । हे निर्गुणे ! इस कारण को भली-भाँति जान लो और तभी देह त्यागकर इस निर्गुण में लीन हो जाओ ।

इतना कहकर भगवान् चन्द्रशेखर उनके सामने स्थित रहे । अनन्तर देवी ने अति प्रसन्न होकर परमेश्वर शिव को प्रणाम किया । इस प्रकार पूर्वकाल में शंकर ने इस पार्वती स्तोत्र की रचना की थी। जो विपद्ग्रस्त प्राणी इसका पाठ करेगा वह भय से मुक्त हो जायेगा । उसका मित्र से मनमुटाव दूर होकर पूर्व की भांति परस्पर सम्प्रीति हो जायगी और पार्वती प्रसन्न होकर उसके गृह का त्याग कभी नहीं करेंगी ।

श्रीकृष्ण बोले — स्वामी की ऐसी प्रतिज्ञा सुनकर पार्वती सन्तुष्ट हो गयीं। फिर शिव की आज्ञा से गङ्गा में स्नान करने के लिए चली गयी । स्नान करके भक्तिपूर्वक निर्गुण इष्टदेव की अर्चना करने के उपरान्त शीघ्र ही मिष्टान्न तथा व्यञ्जन तैयार किये । उधर शिव भी स्नान करके सनातन ब्रह्मज्योति की पूजा करने के उपरान्त पराभक्ति से हृदयस्थित मेरी ही स्तुति करने लगे । तब मैंने वहाँ जाकर सब खाकर उन्हें अभीष्ट फल दिया, फिर तुम्हारे चरण-शरण में आकर पार्वती ने नैवेद्य प्राप्त किया । पश्चात् पति के साथ अवशेष भोजन करके पार्वती हर्षित हुईं और शंकर की भक्तिपूर्वक स्तुति करके बार-बार प्रणाम करने लगीं । हे सुरेश्वरि ! इस प्रकार तुम्हारा पूछा हुआ सब मैंने बता दिया, जिस कारण शंकर का निर्माल्य अभिशप्त हुआ । (अध्याय ३७)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे हरनिर्माल्यशापप्रसङ्गो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३७ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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