February 27, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 42 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ बयालीसवाँ अध्याय अनरण्य की पुत्री पद्मा की धर्म द्वारा परीक्षा, सती पद्मा का उनको शाप देना तथा उस शाप से उनकी रक्षा की भी व्यवस्था करना, वसिष्ठजी का हिमवान् को संक्षेप से सती के देह त्याग का प्रसङ्ग सुनाना वसिष्ठजी कहते हैं — गिरिराज ! जैसे लक्ष्मी नारायण की सेवा करती हैं, उसी प्रकार अनरण्य की कन्या पद्मा मन, वाणी और क्रिया द्वारा भक्तिभाव से पिप्पलादमुनि की सेवा करने लगी। एक दिन वह सती राजकुमारी स्नान करने के लिये गङ्गाजी के तट पर गयी। मार्ग में राजा का वेष धारण किये हुए साक्षात् धर्म ने उसके मन के भावों को जानने के लिये पवित्र भावना से ही कामी पुरुष की भाँति कुछ बातें कहीं। उन्हें सुनकर पद्मा बोली — ‘ओ पापिष्ठ नृपाधम ! दूर चला जा, दूर चला जा । यदि तू मेरी ओर कामदृष्टि से देखेगा तो तत्काल भस्म हो जायगा । जिनका शरीर तपस्या से परम पवित्र हो गया है; उन मुनिश्रेष्ठ पिप्पलाद को छोड़कर क्या मैं तेरे जैसे स्त्री के गुलाम तथा रति-लम्पट की सेवा स्वीकार करूँगी ? मैं तेरे लिये माता के समान हूँ तो भी तू भोग्या स्त्री का भाव लेकर मुझसे बात कर रहा है। इसलिये मैं शाप देती हूँ कि कालक्रम से तेरा क्षय हो जायगा ।’ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सती का शाप सुनकर देवेश्वर धर्म काँपने लगे और राजा का रूप छोड़ अपनी मूर्ति धारण करके उससे बोले । ॥ धर्म उवाच ॥ मातर्जानीहि मां धर्मं धर्मज्ञानां गुरोर्गुरुम् । परस्त्रीमातृबुद्धिं च कुर्वन्तं संततं सति ॥ १९ ॥ अहं तवांतर्विज्ञातुमागतस्तव सन्निधिम् । युष्माकं च मनो जाने तथापि दैवबोधितः ॥ २० ॥ कृतं मे दमनं साध्वि न विरुद्धं यथोचितम् । शास्तिः समुत्पथस्थानामीश्वरेण विनिर्मिता ॥ २१ ॥ धर्मं स्वधर्मं विज्ञातुं कालं कलयितुं क्षमः । विधातारं संविधातुं तस्मै कृष्णाय ते नमः ॥ २२ ॥ संहर्तुं यः क्षमः काले संहर्तारं भवं विभुः । स्रष्टारं लीलया स्रष्टुं तस्मै कृष्णाय ते नमः ॥ २३ ॥ शत्रुं विधातुं मित्रं च सुप्रीतिं कलहं क्षमः । स्रष्टुं नष्टम् तदेवं च तस्मै कृष्णाय ते नमः ॥ २४ ॥ शापं प्रदातुं सर्वाश्च सुखदुःखवरान्क्षमः । संपदं विपदं यो हि तस्मै कृष्णाय ते नमः ॥ २५ ॥ प्रकृतिर्निर्मिता येन महाविष्णुश्च निर्मितः । ब्रह्मविष्णुमहेशाद्यास्तस्मै कृष्णाय ते नमः ॥ २६ ॥ येन शुक्लीकृतं क्षीरं जलं शीतं कृतं पुरा । दाहीकृतो हुताशश्च तस्मै कृष्णाय ते नमः ॥ २७ ॥ अतितेजः समुत्थाय तेजोरूपाय मूर्त्तये । गुणश्रेष्ठनिर्गुणाय तस्मै कृष्णाय ते नमः ॥ २८ ॥ सर्वस्मै सर्वबीजाय सर्वेषामन्तरात्मने । सर्वबंधुस्वरूपाय तस्मै कृष्णाय ते नमः ॥ २९ ॥ धर्म ने कहा — मातः ! आप मुझे धर्मज्ञों के गुरु का भी गुरु धर्म समझिये । पतिव्रते ! मैं सदा परायी स्त्री के प्रति माता का ही भाव रखता हूँ । मैं आपके आन्तरिक भाव को समझने के लिये ही आया था । यद्यपि आप जैसी सतियों का मन कैसा होता है, यह मैं जानता था; तथापि दैव से प्रेरित होकर परीक्षा करने के लिये चला आया । साध्वि! आपने जो मेरा दमन किया है, वह नीति के विरुद्ध नहीं है; सर्वथा उचित ही है; क्योंकि कुमार्ग पर चलने वालों के लिये दण्ड का विधान साक्षात् परमेश्वर श्रीकृष्ण ने ही किया है। जो धर्म को भी स्वधर्म का ज्ञान कराने और काल की भी कलना (गणना) तथा स्रष्टा की भी सृष्टि करने में समर्थ हैं, उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार है । जो समय पर संहर्ता का भी संहार करने की शक्ति रखते हैं और अनायास ही स्रष्टा की भी सृष्टि कर सकते हैं, उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार है । जो शत्रु को भी मित्र बना सकते हैं, कलह को भी उत्तम प्रेम में परिणत कर सकते हैं तथा सृष्टि और विनाश की भी क्षमता रखते हैं; उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार है । जो सबको शाप, सुख, दुःख, वर, सम्पत्ति और विपत्ति भी देने में समर्थ हैं; उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार है । जिन्होंने प्रकृति को प्रकट किया है, महाविष्णु तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर आदि को उत्पन्न किया है; उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार है। जिन्होंने दूध को श्वेत, जल को शीतल और अग्नि को दाहिका शक्ति से सम्पन्न बनाया है; उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार है । जो अत्यन्त तेजःपुञ्ज से प्रकट होते हैं, जिनकी मूर्ति तेजोमयी है तथा जो गुणों से श्रेष्ठ एवं निर्गुण हैं; उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार है और जो सर्वरूप, सर्वबीजस्वरूप, सबके अन्तरात्मा तथा समस्त जीवों के लिये बन्धुस्वरूप हैं; उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार है। यों कहकर जगदुरु धर्म पद्मा के सामने खड़े हो गये । शैलराज ! धर्म का परिचय पाकर वह साध्वी सहसा बोल उठी । पद्मा ने कहा — भगवन्! क्या आप ही सबके समस्त कर्मों के साक्षी, सबके भीतर रहने वाले, सर्वात्मा, सर्वज्ञ तथा सर्वतत्त्ववेत्ता धर्म हैं ? फिर मेरे मन को जानने के लिये मुझ दासी की विडम्बना क्यों करते हैं ? धर्मदेव ! आपके प्रति मैंने जो कुछ किया है, वह मेरा अपराध है । प्रभो ! मैंने स्त्री-स्वभाववश आपको न जानने के कारण क्रोधपूर्वक शाप दे दिया है। उस शाप की क्या व्यवस्था होगी; यही इस समय मेरा चिन्ता का विषय है। आकाश, सम्पूर्ण दिशाएँ और वायु भी यदि नष्ट हो जायँ तो भी पतिव्रता का शाप कभी नष्ट नहीं हो सकता 1 । मेरे शाप से यदि आप नष्ट हो जाते हैं तो सम्पूर्ण सृष्टि का ही नाश हो जायगा। यह सोचकर मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो रही हूँ; तथापि आपसे कहती हूँ । देवेश्वर ! जैसे पूर्णिमा को चन्द्रमा पूर्ण होते हैं, उसी प्रकार सत्ययुग में आप चारों चरणों से परिपूर्ण रहेंगे । उस युग में सर्वत्र और सर्वदा दिन-रात आप विराजमान होंगे। किंतु भगवन् ! त्रेतायुग आने पर आपके एक चरण का नाश हो जायगा । प्रभो ! द्वापर में दो पैर क्षीण होंगे और कलियुग में आपका तीसरा पैर भी नष्ट हो जायगा । कलि के अन्त में आपका चौथा चरण भी छिप जायगा । फिर सत्ययुग आने पर आप चारों चरणों से परिपूर्ण हो जायँगे । सत्ययुग में आप सर्वव्यापी होंगे और उससे भिन्न युगों में भी कहीं-कहीं पूर्णरूप में विद्यमान रहेंगे। प्रभो ! जहाँ आपका स्थान या आधार होगा, उसे बताती हूँ, सुनिये । सम्पूर्ण वैष्णव, यति, ब्रह्मचारी, पतिव्रता स्त्री, ज्ञानी पुरुष, वानप्रस्थ, भिक्षु (संन्यासी), धर्मशील राजा, साधु-संत, श्रेष्ठ वैश्यजाति तथा सत्पुरुषों के संसर्ग में रहने वाले द्विज, सेवक, शूद्र-इन सबमें आप सदा पूर्णरूप से विराजमान रहेंगे । युग-युग में जहाँ भी पुण्यात्मा पुरुष होंगे, वे आपके आधार रहेंगे । पीपल, वट, बिल्व, तुलसी, चन्दन – इन वृक्षों पर; दीक्षा, परीक्षा, शपथ, गोशाला और गोपद भूमियों में; विवाह में, फूलों में, देववृक्षों में, देवालयों में, तीर्थों में तथा साधु पुरुषों के गृहों में आपका सदा निवास होगा । वेद-वेदाङ्गों के श्रवणकाल में, जल में, सभाओं में, श्रीकृष्ण के नाम और गुणों के कीर्तन, श्रवण तथा गान के स्थानों में; व्रत, पूजा, तप, न्याय, यज्ञ एवं साक्षी के स्थानों में; गोशालाओं में तथा गौओं में विद्यमान रहकर आप अपने को पूर्णरूप से प्रतिष्ठित देखेंगे। धर्म! उन स्थानों में आप क्षीण नहीं होंगे। इनसे भिन्न स्थानों में आपकी कृशता देखी जायगी। जो स्थान आपके लिये अगम्य हैं; उनका वर्णन सुनिये। सम्पूर्ण व्यभिचारिणियों में, नरघाती मनुष्यों के घरों में, नरहत्या करने वाले नीच पुरुषों में, मूर्ख और दुष्टों में, देवता, गुरु, ब्राह्मण, इष्टदेव तथा पालनीय मनुष्यों के धन का अपहरण करने वालों में; दुष्टों, धूर्तों और चोरों में, रति-स्थानों में; जूआ, मदिरापान और कलह के स्थानों में; शालग्राम, साधु, तीर्थ और पुराणों से रहित स्थलों में; डाकुओं के स्नेह में, वाद-विवाद में, ताड़ की छाया में, गर्वीले मनुष्यों में, तलवार से जीविका चलाने वाले तथा स्याही से जीवन-निर्वाह करने वाले, देवालयों में पूजा की वृत्ति से जीने वाले तथा ग्राम-पुरोहितों में; बैल जोतने वालों, सुनारों और जीव-हिंसा से जीविका चलाने वालों में; भर्तृनिन्दित नारियों तथा नारी के वश में रहने वाले पुरुषों में; दीक्षा, संध्या तथा विष्णुभक्ति से हीन द्विजों में; अपनी पुत्री तथा पत्नी बेचनेवालों में; शालग्राम और देवमूर्तियों का विक्रय करने वालों में; मित्रद्रोही, कृतघ्न, सत्यनाशक तथा विश्वासघातियों में; शरणागत की रक्षा से दूर रहने वालों तथा शरण में आये हुए लोगों का नाश करने वालों में; सदा झूठ बोलने वाले, सीमा का अपहरण करने वाले, काम, क्रोध और लोभवश झूठी गवाही देने वाले, पुण्यकर्महीन तथा पुण्यकर्म के विरोधी मनुष्यों में आप नहीं रहेंगे। प्रभो ! इन निन्दनीय स्थानों में रहने का आपको अधिकार नहीं होगा । ऐसी व्यवस्था होने से मेरी बात भी सच्ची हो जायगी । तात ! अब मैं पतिसेवा के लिये जाऊँगी। आप भी अपने घर को पधारिये । ऐसी बातें कहने वाली पद्मा के वचन सुनकर ब्रह्मपुत्र श्रीमान् धर्म का मुखारविन्द प्रसन्नता से खिल उठा। वे उस पतिव्रता से अत्यन्त विनयपूर्वक बोले । धर्म ने कहा — मेरी रक्षा करने वाली देवि ! तुम धन्य हो । पतिपरायणा हो । तुम्हारा सदा ही कल्याण हो । मैं तुम्हें वर देता हूँ; ग्रहण करो । बेटी ! तुम्हारे पति युवावस्था से सम्पन्न तथा रतिकर्म में समर्थ हों । साध्वि ! वे रूपवान् और गुणवान् हों। उनका यौवन सदा ही स्थिर रहे । वत्से ! तुम भी उत्तम ऐश्वर्य से युक्त एवं स्थिरयौवना हो जाओ। तुम्हारे पति मार्कण्डेय के बाद दूसरे चिरंजीवी पुरुष हों। वे कुबेर से भी धनी और इन्द्र से भी बढ़कर ऐश्वर्यवान् हों। शिव के समान विष्णुभक्त तथा कपिल के बाद उन्हीं की श्रेणी के सिद्ध हों। तुम जीवनभर पति के सौभाग्य से सम्पन्न बनी रहो । साध्वि ! तुम्हारे घर कुबेर के भवन से भी अधिक सुन्दर हों । तुम अपने पति से भी अधिक गुणवान् और चिरंजीवी दस पुत्रों की माता बनोगी; इसमें संशय नहीं है । शैलराज! यों कहकर धर्मराज चुपचाप खड़े हो गये । पद्मा उनकी परिक्रमा और प्रणाम करके अपने घर को चली गयी। धर्म भी उसे आशीर्वाद दे अपने धाम को गये और प्रत्येक सभा में पतिव्रता की प्रशंसा करने लगे। पद्मा अपने तरुण पति के साथ सदा एकान्त में मिलन-सुख का अनुभव करने लगी। पीछे उसके दस श्रेष्ठ पुत्र हुए जो उसके पति से भी अधिक गुणवान् थे । गिरिराज ! इस प्रकार मैंने सारा पुरातन इतिहास कह सुनाया । अनरण्य ने अपनी पुत्री देकर समस्त सम्पत्ति की रक्षा कर ली। तुम भी सबके ईश्वर भगवान् शिव को अपनी कन्या देकर अपने समस्त बन्धुओं तथा सम्पूर्ण सम्पत्ति की रक्षा करो। शैलराज ! एक सप्ताह बीतने पर अत्यन्त दुर्लभ शुभ क्षण में, जब चन्द्रमा लग्नेश होकर लग्न में अपने पुत्र बुध के साथ विराजमान होंगे; रोहिणी का संयोग पाकर प्रसन्नता का अनुभव करते होंगे; चन्द्र और तारा सर्वथा शुद्ध होंगे; मार्गशीर्ष मास का सोमवार होगा; लग्न सब प्रकार के दोषों से रहित, समस्त शुभग्रहों की दृष्टि से लक्षित और असत् ग्रहों से शून्य होगा; उत्तम संतानप्रद, पतिसौभाग्यदायक, वैधव्यनिवारक, जन्म- जन्म में सुख प्रदान करनेवाला तथा प्रेमका कभी विच्छेद न होने देनेवाला अत्यन्त श्रेष्ठतम योग उपस्थित होगा; उस समय तुम अपनी पुत्री मूलप्रकृति ईश्वरी जगदम्बाको जगत्पिता महादेवजीके हाथमें देकर कृतकृत्य हो जाओ । गिरिराज ! कल्पान्तर की बात है; वह मूलप्रकृति ईश्वरी भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा से दक्षकन्या सती के रूप में आविर्भूत हुई । दक्ष ने उस देवी को विधि- विधान के साथ शूलपाणि शिव के हाथ में दे दिया । तदनन्तर मेरे पिता के यज्ञ में, जहाँ समस्त देवताओं की सभा जुड़ी हुई थी, दक्ष का उन शूलपाणि महादेवजी के साथ सहसा महान् कलह हो गया। उस कलह से रुष्ट हो त्रिनेत्रधारी शिव ब्रह्माजी को नमस्कार करके चले गये । दक्ष मन में भी रोष था; अतः वे भी अपने गणों के साथ उसी क्षण अपने घर को चल दिये । घर जाकर दक्ष ने रोषपूर्वक ही यज्ञ की सामग्री एकत्र की और उसके द्वारा महान् यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में उन्होंने द्वेषवश शूलपाणि शंकर को भाग नहीं दिया। यह देख सती के मन में पिता के प्रति बड़ा क्रोध हुआ । उसकी आँखें लाल हो गयीं। उसने व्यथित-हृदय से पिता को बहुत फटकारा और यज्ञस्थान से उठकर वह माता के पास गयी। उस परात्परा देवी को तीनों कालों का ज्ञान था; अतः उसने भविष्य में घटित होने वाली घटना का वहाँ वर्णन किया । यज्ञ का विध्वंस, पिता दक्ष का पराभव, यज्ञस्थान से देवताओं, मुनियों, ऋत्विजों तथा पर्वतों का पलायन, शंकर के सैनिकों की विजय, अपनी मृत्यु, पत्नी के विरह से आतुर – चित्त होकर शोकवश पति का पर्यटन, उनके नेत्रों के जल से सरोवर का निर्माण, भगवान् जनार्द नके समझाने से उनका धैर्य धारण करना, दूसरे शरीर से पुनः शिव की प्राप्ति, उनके साथ विहार तथा अन्य सब भावी वृत्तान्त बताकर सती माता और बहनों के मना करने पर भी दुःखी हो घर से चली गयी। वह सिद्धयोगिनी थी। अतः योगबल से सबकी दृष्टि से ओझल हो गयी। गङ्गाजी के तट पर जाकर शंकर के ध्यान और पूजन के पश्चात् उनके चरणारविन्दों का चिन्तन करती हुई सुन्दरी सती ने शरीर को त्याग दिया और गन्धमादन पर्वत की गुफा में विद्यमान उस दिव्य विग्रह में प्रवेश किया, जिसके द्वारा उसने पूर्वकाल में दैत्यों के समस्त कुल का संहार किया था । वह घटना देख सब देवता अत्यन्त विस्मित हो हाहाकार कर उठे । शंकर के सैनिक दक्ष यज्ञ का विनाश तथा सबका पराभव करके शोक से व्याकुल हो लौट गये और शीघ्र ही सारा वृत्तान्त अपने स्वामी से कह सुनाया । वह समाचार सुनकर समस्त रुद्रगणों से घिरे हुए संहारकारी महेश्वर गङ्गाजी के उस तट पर गये, जहाँ देवी सती का शरीर पड़ा था । (अध्याय ४२ ) 1. आकाशोऽसौ दिशः सर्वा यदि नश्यन्ति वायवः । तथापि साध्वीशापस्तु न नश्यति कदाचन ॥ ३४ ॥ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे सतीदेहत्यागो नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ See Also:- शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 35 Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related