ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 45
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
पैंतालीसवाँ अध्याय
शिव-पार्वती के विवाह का होम, स्त्रियों का नव-दम्पति को कौतुकागार में ले जाना, देवाङ्गनाओं का उनके साथ हास – विनोद, शिव के द्वारा कामदेव को जीवन- दान, वर-वधू और बारात की बिदाई, शिवधाम में पति-पत्नी की एकान्त वार्ता, कैलास में अतिथियों का सत्कार और बिदाई, सास-ससुर के बुलाने पर शिव-पार्वती का वहाँ जाना तथा पार्षदोंसहित शिव का श्वशुर-गृह में निवास

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — प्रिये ! तदनन्तर महादेवजी ने वैदिक विधि से अग्नि की स्थापना करके पार्वती को अपने वामभाग में बिठाकर वहीं यज्ञ (वैवाहिक होम) किया । वृन्दावन – विनोदिनि ! उस यज्ञ के विधिपूर्वक सम्पन्न हो जाने पर भगवान् शिव ने ब्राह्मण को दक्षिणा के रूप में सौ सुवर्ण दिये । तत्पश्चात् गिरिराज के नगर की स्त्रियों ने प्रदीप लाकर माङ्गलिक कृत्य का सम्पादन किया। फिर वे नव-दम्पति को घर में ले गयीं । उन सबने प्रेमपूर्वक जयध्वनि तथा शुभ निर्मञ्छन आदि करके मन्द मुस्कराहट के साथ कटाक्ष-पूर्वक शिव की ओर देखा।

उस समय उनके अङ्गों में रोमाञ्च हो आया था। वास-भवन में प्रवेश करके कामिनियों ने देखा – शंकर अत्यन्त सुन्दर रूप और वेश-भूषासे सुशोभित हैं। उनका प्रत्येक अङ्ग रत्ननिर्मित आभूषणों से विभूषित है । चन्दन, अगुरु, कस्तूरी तथा कुंकुम से अलंकृत है। उनके प्रसन्नमुख पर मन्द मुस्कान की प्रभा फैल रही है । वे कटाक्षपूर्वक देखते और मन को हर लेते हैं। उनकी वेश-भूषा अपूर्व एवं सूक्ष्म है। वे सिन्दूर – विन्दुओं से विभूषित हैं। उनकी गौर – कान्ति मनोहर चम्पा की आभा को तिरस्कृत कर रही है। वे सर्वाङ्गसुन्दर, नूतन यौवन से सम्पन्न तथा मुनीन्द्रों के भी चित्त को मोह लेने वाले हैं। वहाँ सरस्वती, लक्ष्मी, सावित्री, गङ्गा, रति, अदिति, शची, लोपामुद्रा, अरुन्धती, अहल्या, तुलसी, स्वाहा, रोहिणी, वसुन्धरादेवी, शतरूपा तथा संज्ञा – ये सोलह देवाङ्गनाएँ भी उपस्थित थीं। इनके सिवा और भी बहुत-सी मनोहर रूपवाली देवकन्याएँ, नागकन्याएँ तथा मुनिकन्याएँ वहाँ आयी थीं। उस समय जो देवाङ्गनाएँ गिरिराज के भवन में विराजमान थीं, उन सबकी संख्या बताने में कौन समर्थ है ?

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

उनके दिये हुए रत्नमय सिंहासन पर दूलह शिव प्रसन्नतापूर्वक बैठे। उस समय उन सोलह दिव्य देवियों ने सुधा के समान मधुर वाणी में भगवान् शंकर को बधाई दी। उनके साथ विनोदभरी बातें कीं और पार्वती को सुख पहुँचाने के लिये विनम्र अनुरोध किया। इसी समय भगवान् शंकर ने रति पर कृपा की। रति ने गाँठ में बँधी हुई कामदेव के शरीर की भस्मराशि उनके सामने रख दी और शिव ने अपनी अमृतमयी दृष्टि से देखकर भस्म के उस ढेर से पुनः कामदेव को प्रकट कर दिया। तत्पश्चात् योगियों के परम गुरु निर्विकार भगवान् शंक रने उन परिहासपरायणा देवियों से कहा—— आप सब-की-सब साध्वी तथा जगन्माताएँ हैं, फिर मुझ पुत्र के प्रति यह चपलता क्यों ?’ शिव की यह बात सुनकर वे देवियाँ सम्भ्रमपूर्वक चित्रलिखी-सी खड़ी रह गयीं। इसके बाद शंकरजी ने भोजन किया।

फिर उन्होंने मनोहर राजसिंहासन पर विराजमान हो उस दिव्य निवासगृह की अनुपम शोभा एवं चित्रकारी देखी। यह सब देखकर उन्हें आश्चर्य और परम संतोष हुआ। रात को उन्होंने उसी दिव्य भवन में विश्राम किया। प्राणवल्लभे! जब प्रातःकाल हुआ, तब नाना प्रकार वाद्यों की मधुर ध्वनि होने लगी । फिर तो सब देवता वेगपूर्वक उठे और वेश-भूषा से सज्जित हो अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर कैलास की यात्रा के लिये उद्यत हो गये । उस समय नारायण की आज्ञा से धर्म उस वासभवन में गये और योगीश्वर शंकरसे समयोचित वचन बोले ।

धर्म ने कहा प्रमथेश्वर! आपका कल्याण हो । उठिये, उठिये और श्रीहरि का स्मरण करते हुए माहेन्द्र – योग में पार्वती के साथ यात्रा कीजिये ।

वृन्दावनविनोदिनि ! धर्म की बात सुनकर शंकर ने पार्वती के साथ माहेन्द्र – योग में यात्रा आरम्भ की। पार्वती के साथ देवेश्वर शंकर के यात्रा करते समय मेना उच्चस्वर से रो पड़ीं और उन कृपानिधान से बोलीं ।

मेना ने कहा कृपानिधे ! कृपा करके मेरी बच्ची का पालन कीजियेगा । आप आशुतोष हैं । इसके सहस्रों दोषों को क्षमा कीजियेगा । मेरी बेटी जन्म-जन्म में आपके चरणकमलों में अनन्यभक्ति रखती आयी है । सोते जागते हर समय इसे अपने स्वामी महादेव के सिवा दूसरे किसी की याद नहीं आती है । आपके प्रति भक्ति की बातें सुनते ही इसका अङ्ग अङ्ग पुलकित हो उठता है और नेत्रों से आनन्द के आँसू बहने लगते हैं । मृत्युञ्जय ! आपकी निन्दा कान में पड़ने पर यह ऐसी मौन हो जाती है, मानो मर गयी हो ।

मेना यह कह ही रही थीं कि हिमवान् तत्काल वहाँ आ पहुँचे और अपनी बच्ची को छाती से लगा फूट-फूटकर रोने लगे – ‘वत्से ! हिमालय को – मेरे इस घर को सूना करके तू कहाँ चली जा रही है ? तेरे गुणों को याद करके मेरा हृदय अवश्य ही विदीर्ण हो जायगा ।’ यों कहकर शैलराज ने अपनी शिवा शिव को सौंप दी और पुत्र तथा बन्धु-बान्धवों सहित वे बारंबार उच्चस्वर से रोदन करने लगे। उस समय कृपानिधान साक्षात् भगवान् नारायण ने उन सबको कृपापूर्वक अध्यात्मज्ञान देकर धीरज बँधाया । पार्वती ने भक्तिभाव से माता- पिता और गुरु को प्रणाम किया। वे महामायारूपिणी हैं; अतः माया का आश्रय ले बारंबार जोर-जोर से रोने लगीं। पार्वती के रोने से ही वहाँ सब स्त्रियाँ रोने लगीं। पत्नियों तथा सेवकगणों सहित सम्पूर्ण देवता और मुनि भी रो पड़े। फिर वे मानसशायी देवता शीघ्र ही कैलासपर्वत को चल दिये तथा दो ही घड़ी में शिव के निवासस्थान पर सानन्द जा पहुँचे। यह देखकर वहाँ के मङ्गल – कृत्य का सम्पादन करने के लिये देवताओं और मुनियों की पत्त्रियाँ भी दीप लिये शीघ्रतापूर्वक सहर्ष वहाँ आ गयीं।

वायु कुबेर और शुक्रकी स्त्रियाँ, बृहस्पति की पत्नी तारा, दुर्वासाकी स्त्री, अत्रि- भार्या अनसूया, चन्द्रमा की पत्नियाँ, देवकन्या, नागकन्या तथा सहस्रों मुनिकन्याएँ वहाँ उपस्थित हुईं। वहाँ जिन असंख्य कामिनियों का समूह आया था, उन सबकी गणना करने में कौन समर्थ है ? उन सबने मिलकर नवदम्पति का उनके निवास- मन्दिर में प्रवेश कराया तथा उन महेश्वर को रमणीय रत्नमय सिंहासन पर बिठाया ।

वहाँ भगवान् शिव ने सती को उनका पहले वाला घर दिखाया और प्रसन्नतापूर्वक पूछा — ‘प्रिये ! क्या तुम्हें अपने इस घर की याद आती है ? यहीं से तुम अपने पिता निवास – स्थान को गयी थीं । अन्तर इतना ही है कि इस समय तुम गिरिराजकुमारी हो और उस समय यहाँ दक्षकन्या के रू पमें निवास करती थीं। तुम्हें पूर्वजन्म की बातों का सदा स्मरण रहता है; इसीलिये पिछली बातों की याद दिला रहा हूँ । यदि तुम्हें उन बातों का स्मरण है तो कहो ।’

भगवान् शंकर की बात सुनकर पार्वती मुस्करायीं और बोलीं — ‘प्राणनाथ ! मुझे सब बातों का स्मरण है; किंतु इस समय आप चुप रहें (उन बीती बातों की चर्चा न करें ) ।’

तत्पश्चात् शिव ने सामग्री एकत्र करके नारायण आदि देवताओं को नाना प्रकार के मनोहर पदार्थ भोजन कराये। भोजन के पश्चात् भाँति-भाँति के रत्नों से अलंकृत हो अपनी स्त्रियों और सेवकगणों सहित सब देवता भगवान् चन्द्रशेखर को प्रणाम करके बिदा हुए। भगवान् नारायण और ब्रह्मा को शंकरजी ने स्वयं ही प्रणाम किया। वे दोनों उन्हें हृदय से लगाकर आशीर्वाद दे अपने-अपने स्थान को चले गये ।

इसके बाद हिमवान् और मेना ने मैनाक को बुलाया और कहा — ‘बेटा! तुम्हारा कल्याण हो । तुम शिव और पार्वती को शीघ्र यहाँ बुला लाओ ।’ उनकी बात सुनकर मैनाक शीघ्र ही शिवधाम में गया और पार्वती एवं परमेश्वर को लिवाकर आ गया। पार्वती का आगमन सुनकर बालक-बालिका, वृद्धा तथा युवती स्त्रियाँ भी उन्हें देखने के लिये दौड़ी आयीं । पर्वतगण भी सानन्द भागे आये। मेना अपने पुत्रों और बहू के साथ मुस्कराती हुई दौड़ीं। हिमालय भी प्रसन्नतापूर्वक पुत्री की अगवानी के लिये दौड़े आये । देवी पार्वती ने रथ से उतरकर बड़े हर्ष के साथ माता-पिता तथा गुरुजनों को प्रणाम किया। उस समय वे आनन्द के समुद्र में गोते लगा रही थीं। हर्ष विह्वल मेना और मोदमग्न हिमालय ने पार्वती को हृदय से लगा लिया। उन्हें ऐसा लगा, मानो गये हुए प्राण वापस आ गये हों । पुत्री को घर में रखकर गिरिराज ने उसके लिये रत्नसिंहासन दिया और शूलपाणि शिव तथा उनके पार्षदगणों को मधुपर्क आदि दे सहर्ष उनका सत्कार किया। पार्षदों सहित भगवान् चन्द्रशेखर अपने ससुर के घर में रहने लगे। वहाँ प्रतिदिन पत्नी सहित उनकी सोलह उपचारों से पूजा होने लगी। राधे ! इस प्रकार मैंने तुमसे भगवान् शंकर के मङ्गल – परिणय की कथा कह सुनायी, जो हर्ष बढ़ाने वाली तथा शोक का नाश करने वाली है। अब और क्या सुनना चाहती हो ?        ( अध्याय ४५)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे शंकरविवाहो नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४५ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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