ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 05
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
पाँचवाँ अध्याय
श्रीराधा के विशाल भवन एवं अन्तःपुर की शोभा का वर्णन, ब्रह्मा आदि को दिव्य तेजःपुञ्ज के दर्शन तथा उनके द्वारा उन तेजोमय परमेश्वर की स्तुति

भगवान् नारायण कहते हैं — सम्पूर्ण गोलोक का दर्शन करके उन तीनों देवताओं के मन में बड़ा हर्ष हुआ। वे फिर श्रीराधा के प्रधान द्वार पर आये । उस द्वार का निर्माण उत्तम रत्नों और मणियों से हुआ था । वहाँ दो वेदिकाएँ थीं । हल्दी के रंग की उत्तम मणि से, जिसमें हीरे का भी सम्मिश्रण था, बनाये गये श्रेष्ठ रत्न-मणि-निर्मित किवाड़ उस द्वार की शोभा बढ़ाते थे। देवताओं ने देखा, उस द्वार पर रक्षा के लिये परम उत्तम वीरभानु की नियुक्ति हुई है। वे रत्नों के बने हुए सिंहासन पर बैठे हैं, पीताम्बर पहने हैं तथा रत्नमय आभूषणों से विभूषित हैं । उनके मस्तक पर रत्नमय मुकुट उद्भासित हो रहा है ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

विचित्र चित्रों से अलंकृत उस अद्भुत एवं विचित्र द्वार की रक्षा करते हुए द्वारपाल वीरभानु के पास जा देवताओं ने प्रसन्नतापूर्वक अपना सारा अभिप्राय निवेदन किया ।

तब द्वारपाल ने निःशंक होकर उन देवेश्वरों से कहा — ‘देवगण! मैं इस समय आज्ञा लिये बिना आप लोगों को भीतर नहीं जाने दूँगा’ ।

मुने! यह कहकर द्वारपाल ने श्रीकृष्ण के स्थान पर सेवकों को भेजा और उनकी आज्ञा पाकर देवताओं को अंदर जाने की अनुमति दी । उससे पूछकर वे तीनों देवता दूसरे उत्तम द्वार पर गये, जो पहले से अधिक विचित्र, सुन्दर और मनोहर था । नारद! उस द्वार पर नियुक्त हुए चन्द्रभानु नामक द्वारपाल दिखायी दिये, जिनकी अवस्था किशोर थी । शरीर की कान्ति सुन्दर एवं श्याम थी। वे सोने का बेंत हाथ में लिये रत्नमय आभूषणों से विभूषित हो रत्नमय सिंहासन पर विराजमान थे। पाँच लाख गोपों का समूह उनकी शोभा बढ़ा रहा था। उनसे पूछकर देवता लोग तीसरे उत्तम द्वार पर गये, जो दूसरे से भी अधिक सुन्दर, विचित्र तथा मणियों के तेज से प्रकाशित था।

नारद! वहाँ द्वार की रक्षा में नियुक्त सूर्यभानु नामक द्वारपाल दिखायी दिये, जो दो भुजाओं से युक्त, मुरलीधारी, किशोर, श्याम एवं सुन्दर थे । उनके दोनों गालों पर दो मणिमय कुण्डल झलमला रहे थे। रत्नकुण्डलधारी सूर्यभानु श्रीराधा और श्रीकृष्ण के परम प्रिय एवं श्रेष्ठ सेवक थे। वे सम्राट् की भाँति नौ लाख गोपों से घिरे रहते थे। उनसे पूछकर देवता लोग चौथे द्वार पर गये, जो उन सभी द्वारों से विलक्षण, रमणीय तथा मणियों की दिव्य दीप्ति से उद्दीप्त दिखायी देता था । अद्भुत एवं विचित्र रत्नसमूह से जटित होने के कारण उस द्वार की मनोहरता और बढ़ गयी थी । उसकी रक्षा के लिये व्रजराज वसुभानु नियुक्त थे । देवता लोग उनसे मिले। वे किशोर अवस्था के सुन्दर एवं श्रेष्ठ पुरुष थे। हाथ में मणिमय दण्ड लिये हुए थे । रमणीय आभूषणों से विभूषित हो रत्नसिंहासन पर बैठे थे । पके बिम्बफल के समान लाल ओष्ठ और मन्द मन्द मुस्कान से वे अत्यन्त मनोहर दिखायी देते थे ।

देवता लोग उनसे पूछकर पाँचवें द्वार पर गये । वह हीरे की दीवारों पर अङ्कित विचित्र चित्रों से अत्यन्त प्रकाशमान दिखायी देता था । वहाँ देवभानु नामक द्वारपाल मिले, जो रत्नमय आभूषण धारण करके मनोहर सिंहासन पर आसीन थे। उनके मस्तक पर मोरपंख का मुकुट शोभा दे रहा था और वे रत्नों के हार से अलंकृत थे। कदम्बों के पुष्प से सुशोभित, उत्तम रत्नमय कुण्डलों से प्रकाशित तथा चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम के द्रव से चर्चित थे। सम्राटों के समान दस लाख प्रजा उनके साथ थी। हाथ में बेंत धारण करने वाले द्वारपाल देवभानु से पूछकर देवता लोग प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़े। सामने छठा द्वार था। उसकी विलक्षण शोभा थी । चित्रों की श्रेणियों से वह द्वार उद्भासित हो रहा था। उसकी दोनों दीवारें वज्रमणि ( हीरे ) – की बनी थीं और फूलों की मालाओं से सजायी गयी थीं । उस द्वार पर व्रजराज शक्रभानु नियुक्त थे । देवता लोग उनसे मिले। वे नाना प्रकार के अलंकारों की शोभा से सम्पन्न थे। उनके साथ दस लाख प्रजाएँ थीं। चन्दन-पल्लव से युक्त उनके कपोल कुण्डलों की प्रभा से उद्भासित थे ।

उनसे आज्ञा लेकर देवता लोग तुरंत ही सातवें द्वार पर जा पहुँचे। उसमें नाना प्रकार के चित्र अङ्कित थे । वह पिछले छहों द्वारों से अत्यन्त विलक्षण था। वहाँ द्वारपाल के पद पर श्रीहरि के परम प्रिय रत्नभानु नियुक्त थे, जिनका सारा अङ्ग चन्दन से अभिषिक्त था । वे पुष्पों की माला से विभूषित थे । मणि-रत्ननिर्मित मनोहर एवं रमणीय भूषण उनकी शोभा बढ़ाते थे। बारह लाख गोप आज्ञा के अधीन रहकर राजाधिराज की भाँति उनकी शोभा बढ़ाते थे। उनका मुखारविन्द प्रसन्नता से खिला था। वे रत्नमय सिंहासन पर विराजमान थे। उनके हाथ में बेंत की छड़ी शोभा पाती थी । वे तीनों देवेश्वर उनसे बातचीत करके प्रसन्नतापूर्वक आठवें द्वार पर गये । वह पूर्वोक्त सातों द्वारों से विलक्षण एवं विचित्र शोभाशाली था। वहाँ उन्होंने सुपार्श्व नामक मनोहर द्वारपाल को देखा, जो मन्द मुस्कराहट के साथ बड़े सुन्दर दिखायी देते थे । वे भालदेश में धारित चन्दन के तिलक से अत्यन्त उद्भासित दिखायी देते थे। उनके ओंठ बन्धुजीवपुष्प (दुपहरिया ) – के समान लाल थे। रत्नों के कुण्डल उनके गण्डस्थल को अलंकृत किये हुए थे। वे समस्त अलंकारों की शोभा से सम्पन्न थे । रत्नमय दण्ड धारण करते थे और उनके साथ बारह लाख गोप थे ।

वहाँ से अनुमति मिलने पर वे देवता शीघ्र ही नवें अभीष्ट द्वार पर गये। वहाँ हीरे आदि उत्तम रत्नों की चार वेदियाँ बनी थीं। वह द्वार अपूर्व चित्रों से सज्जित तथा मालाओं की जाली से विभूषित था । वहाँ सुन्दर आकार वाले सुबल नामक द्वारपाल दृष्टिगोचर हुए, जो भाँति-भाँति के आभूषणों से भूषित, भूषण के योग्य तथा मनोहर थे । उनके साथ बारह लाख व्रजवासी थे। दण्डधारी सुबल से पूछकर देवताओं ने तत्काल दूसरे द्वार को प्रस्थान किया। उस विलक्षण दसवें द्वार को देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय  हुआ। मुने! वहाँ का सब कुछ अनिर्वचनीय, अदृष्ट और अश्रुत था – – वैसा दृश्य कभी देखने और सुनने में भी नहीं आया था । वहाँ सुन्दर सुदामा नामक गोप द्वारपाल के पद पर प्रतिष्ठित थे। सुदामा का रूप श्रीकृष्ण के समान ही मनोहर तथा अवर्णनीय था । उनके साथ बीस लाख गोपों का समूह रहता था । दण्डधारी सुदामा का दर्शनमात्र करके देवता लोग दूसरे द्वार पर चले गये ।

वह ग्यारहवाँ द्वार अत्यन्त विचित्र और अद्भुत था। वहाँ सुन्दर चित्र अङ्कित थे । वहाँके द्वारपाल व्रजराज श्रीदामा थे, जिन्हें राधिकाजी अपने पुत्र के समान मानती थीं। वे पीताम्बर से विभूषित थे, बहुमूल्य रत्नों द्वारा रचित रम्य सिंहासन पर आसीन थे और अमूल्य रत्नाभरण उनकी शोभा बढ़ाते थे। उनका रूप बड़ा ही मनोहर था । चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम से उनका शृङ्गार हुआ था। वे अपने कपोलों के योग्य कानों में उत्तम रत्नमय कुण्डल धारण करके प्रकाशित हो रहे थे । श्रेष्ठ रत्नों द्वारा रचित विचित्र मुकुट उनके मस्तक की शोभा बढ़ा रहा था । प्रफुल्ल मालती-पुष्प की मालाओं से उनके सारे अङ्ग विभूषित थे। करोड़ों गोपों से घिरे होने के कारण राजाधिराज से भी अधिक उनकी शोभा होती थी। उनकी अनुमति ले देवता लोग प्रसन्नतापूर्वक बारहवें द्वार पर गये, जहाँ बहुमूल्य रत्नों की बनी हुई बहुत-सी वेदिकाएँ प्रकाशित हो रही थीं। वह विचित्र द्वार सबके लिये दुर्लभ, अदृश्य और अश्रुत था । वज्रमयी भीतों पर अङ्कित चित्रों के कारण उस द्वार की सुन्दरता और मनोहरता बहुत बढ़ गयी थी। देवताओं ने देखा बारहवें द्वार की रक्षा में सुन्दरी गोपाङ्गनाएँ नियुक्त हुई हैं । वे सब-की-सब रूप-यौवन से सम्पन्न, रत्नाभरणों से विभूषित, पीताम्बरधारिणी तथा बँधे हुए केश-कलाप के भार से सुशोभित थीं । उनके सारे अङ्ग सुस्निग्ध मालती की मालाओं से अलंकृत थे। रत्नों के बने हुए कंगन, बाजूबंद तथा नूपुर उन-उन अङ्गों की शोभा बढ़ाते थे। उनके दोनों कपोल दिव्य रत्नमय कुण्डलों से उद्भासित हो रहे थे । वे चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम के द्रव से अपना शृङ्गार किये हुए थीं।

वहाँ सौ कोटि गोपियों में एक श्रेष्ठ गोपी थी, जो श्रीहरि को भी परम प्रिय थी । उन करोड़ों गोपिकाओं को देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ। मुने! उन सब गोपियों से अनुमति ले वे प्रसन्नता-पूर्वक दूसरे द्वार पर गये। इस तरह देवता क्रमशः तीन द्वारों पर उन्होंने देखा – श्रेष्ठ और अत्यन्त मनोहर गोपाङ्गनाएँ उनकी रक्षा कर रही हैं। वे सुन्दरियों में भी सुन्दरी, रमणीया, धन्या, मान्या और शोभाशालिनी हैं। सब-की-सब सौभाग्य में बढ़ी चढ़ी तथा श्रीराधिका की प्रिया हैं। सुरम्य भूषणों से भूषित हुई उन गोप-सुन्दरियों के अङ्गों में नूतन यौवन का अंकुर प्रकट हुआ है ।इस प्रकार वे तीनों द्वार स्वप्नकालिक अनुभव के समान अद्भुत, अश्रुत, अदृष्टपूर्व, अतिरमणीय और विद्वानों के द्वारा भी अवर्णनीय थे। उन सबको देखकर और उन-उन गोपाङ्गनाओं से बातचीत करके आश्चर्यचकित हुए वे तीनों देवेश्वर सोलहवें मनोहर द्वार पर गये, जो श्रीराधिका के अन्तःपुर का द्वार था ।

वह सब द्वारों में प्रधान तथा केवल गोपाङ्गना-गणों द्वारा ही रक्षणीय था । श्रीराधा की जो तैंतीस सम-वयस्का सखियाँ थीं, वे ही इस द्वार का संरक्षण करती थीं। उन सबकी वेश-भूषा अवर्णनीय थी । वे नाना प्रका रके सद्गुणों से युक्त, रूप-यौवन से सम्पन्न तथा रत्नमय अलंकारों से विभूषित थीं । रत्ननिर्मित कङ्कण, केयूर तथा नूपुर धारण किये हुए थीं। उनके कटिप्रदेश श्रेष्ठ रत्नों की बनी हुई क्षुद्र घण्टिकाओं से अलंकृत थे । रत्ननिर्मित युगल कुण्डलों से उनके गण्डस्थलों की बड़ी शोभा हो रही थी । प्रफुल्ल मालती की मालाओं से उनके वक्षःस्थल का मध्यभाग उद्भासित हो रहा था । उनके मुख-चन्द्र शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमाओं की प्रभा को छीने लेते थे। पारिजात के पुष्पों की मालाओं से उनके सुरम्य केशपाश आवेष्टित थे । वे भाँति-भाँति के सुन्दर आभूषणों से विभूषित थीं। पके बिम्बफल के समान उनके लाल-लाल ओठ थे। मुखारविन्दों पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी । पके अनार के दानों की भाँति दन्तपंक्तियाँ उनकी शोभा बढ़ा रही थीं । मनोहर चम्पा के समान गौरवर्णवाली उन गोपकिशोरियों के कटिभाग अत्यन्त कृश थे। उनकी नासिकाओं में गजमुक्ता की बुलाकें शोभा दे रही थीं। वे नासिकाएँ पक्षिराज गरुड़ की सुन्दर चोंच की शोभा धारण करती थीं । उनका चित्त नित्य मुकुन्द के चरणारविन्दों में लगा था ।

द्वार पर खड़े हुए निमेष-रहित देवताओं ने उन सबको देखा। वह द्वार श्रेष्ठ मणिरत्नों की वेदिकाओं से सुशोभित था । इन्द्रनीलमणि के बहुत-से खम्भे उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उनके बीच-बीच में सिन्दूरी रंग की लाल मणियाँ जड़ी थीं। उस द्वार को पारिजात-पुष्पों की मालाओं से सजाया गया था। उन्हें छूकर बहने वाली वायु वहाँ सर्वत्र सुगन्ध फैला रही थी। राधिका के उस परम आश्चर्यमय अन्तःपुर के द्वार का अवलोकन करके देवताओं के मन में श्रीकृष्ण-चरणारविन्दों के दर्शन की उत्कण्ठा जाग उठी। उन्होंने उन सखियों से पूछकर शीघ्र ही द्वार के भीतर प्रवेश किया। उनके शरीर में रोमाञ्च हो आया था । भक्ति उद्रेक से उनकी आँखें भर आयी थीं। उनके मुख और कंधे कुछ-कुछ झुक गये थे। अब देवताओं ने श्रीराधिका के उस श्रेष्ठ अन्तःपुर को अत्यन्त निकट से देखा ।

समस्त मन्दिरों के मध्यभाग में एक मनोहर चतुःशाला थी, जिसकी रचना बहुमूल्य रत्नों के सारभाग से की गयी थी। भाँति-भाँति के हीरक जटित मणिमय स्तम्भ उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । पारिजात-पुष्पों की मालाओं की झालरों से उसे सजाया गया था। मोती, माणिक्य, श्वेत चँवर, दर्पण तथा बहुमूल्य रत्नों के सारतत्त्व से बने हुए कलश उस चतुःशाला को विभूषित कर रहे थे। रेशमी सूत गुंथे हुए चन्दन-पल्लवों की बन्दनवार से विभूषित मणिमय स्तम्भ-समूह उसके प्राङ्गण को रमणीय बना रहे थे। चन्दन, अगुरु, कस्तूरी तथा कुंकुम के द्रव का वहाँ छिड़काव हुआ था । श्वेत धान्य, श्वेत पुष्प, मूँगा, फल, अक्षत, दूर्वादल और लाजा आदि के निर्मञ्छन (निछावर) – से उसकी अपूर्व शोभा हो रही थी । फल, रत्न, रत्नकलश, सिन्दूर, कुंकुम और पारिजात की मालाओं से उसको सजाया गया था। फूलों की सुगन्ध से सुवासित वायु उस स्थान को सब ओर से सौरभयुक्त बना रही थी । जो सर्वथा अनिर्वचनीय, अनिरूपित और ब्रह्माण्डमात्र में दुर्लभ द्रव्य एवं वस्तुएँ थीं, उन्हीं से उस भव्य भवन को विभूषित किया गया था। वहाँ अत्यन्त सुन्दर रत्नमयी शय्या बिछी थी, जिस पर महीन एवं कोमल वस्त्रों का बिछावन था ।

नारद! करोड़ों रत्नमय कलश तथा रत्ननिर्मित पात्र वहाँ सजाकर रखे गये थे, जो बहुमूल्य होने के साथ ही बहुत सुन्दर थे । उनसे उस चतुःशाला की बड़ी शोभा हो रही थी । नाना प्रकार वाद्यों की मधुर ध्वनि वहाँ गूँज रही थी । वीणा आदि स्वर-यन्त्रों के साथ गोपियों का सुमधुर गीत सुनायी पड़ता था । मृदंग तथा अन्यान्य वाद्यों की ध्वनि से वह स्थान बड़ा मोहक जान पड़ता था । श्रीकृष्ण-तुल्य रूप, रंग और वेश-भूषावाले गोपसमूहों से घिरे हुए उस अन्तः- पुर को झुंड -की- झुंड गोपाङ्गनाएँ, जो श्रीराधा की सखियाँ थीं, सुशोभित कर रही थीं। श्रीराधा और श्रीकृष्ण के गुणगान सम्बन्धी पदों का संगीत वहाँ सब ओर सुनायी पड़ता था । ऐसे अन्तःपुर को देखकर वे देवता विस्मय से विमुग्ध हो उठे । उन्होंने वहाँ मधुर गीत सुना और उत्तम नृत्य देखा । वे सब देवता वहाँ स्थिरभाव से खड़े हो गये। उन सबका चित्त ध्यान में एकतान हो रहा था ।

उन देवेश्वरों को वहाँ रमणीय रत्नसिंहासन दिखायी दिया, जो सौ धनुष के बराबर विस्तृत था । वह सब ओर से मण्डलाकार दिखायी देता था । श्रेष्ठ रत्नों के बने हुए छोटे-छोटे कलश-समूह उसमें जुड़े हुए थे । विचित्र पुतलियों, फूलों तथा चित्रमय काननों से उसकी बड़ी शोभा हो रही थी । ब्रह्मन् ! वहाँ उनको एक अत्यन्त अद्भुत और आश्चर्यमय तेजःपुञ्ज दिखायी दिया, जो करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान था । वह दिव्य ज्योति से जाज्वल्यमान हो रहा था । ऊपर चारों ओर सात ताड़ की दूरी में उसका प्रकाश फैला हुआ था। सबके तेज को छीन लेने वाला वह प्रकाशपुञ्ज सम्पूर्ण आश्रम को व्याप्त करके देदीप्यमान था । वह सर्वत्र व्यापक, सबका बीज तथा सबके नेत्रों को अवरुद्ध कर देने वाला था। उस तेजः स्वरूप को देखकर वे देवता ध्यानमग्न हो गये तथा भक्तिभाव से मस्तक एवं कंधे झुकाकर बड़ी श्रद्धा के साथ उसको प्रणाम करने लगे। उस समय परमानन्द की प्राप्ति से उनके नेत्रों में आँसू भर आये थे और सारे अङ्ग पुलकित हो गये थे। वे ऐसे जान पड़ते थे मानो उनके अभीष्ट मनोरथ पूर्ण हो गये हों। उन तेजः स्वरूप परमेश्वर को नमस्कार करके वे तीनों देवेश्वर उठकर खड़े हो गये और उन्हीं का ध्यान करते हुए उस तेज के सामने गये। ध्यान करते-करते जगत्स्रष्टा ब्रह्मा के दोनों हाथ जुड़ गये । नारद! उन्होंने शिव को दाहिने और धर्म को बायें कर लिया तथा वे भक्ति के उद्रेक से चित्त को ध्यानमग्न करके उन परात्पर, गुणातीत, परमात्मा जगदीश्वर श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे ।

॥ ब्रह्म कृत श्रीकृष्ण स्तोत्र ॥

॥ ब्रह्मोवाच ॥ ॥
वरं वरेण्यं वरदं वरदानां च कारणम् ।
कारणं सर्वभूतानां तेजोरूपं नमाम्यहम् ॥ ९४ ॥
मंगलं मंगलानां च मंगलं मंगलप्रदम् ।
समस्तमंगलाधारं तेजोरूपं नमाम्यहम् ॥ ९५ ॥
स्थितं सर्वत्र निर्लिप्तमात्मरूपं परात्परम् ।
निरीहमवितर्क्यं च तेजोरूपं नमाम्यहम् ॥ ९६ ॥
सगुणं निर्गुणं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम् ।
साकारं च निराकारं तेजोरूपं नमाम्यहम् ॥ ९७ ॥
तमनिर्वचनीयं च व्यक्तमव्यक्तमेककम् ।
स्वेच्छामयं सर्वरूपं तेजोरूपं नमाम्यहम् ॥ ९८ ॥
गुणत्रयविभागाय रूपत्रयधरं परम् ।
कलया ते कृताः सर्वे किं जानन्ति श्रुतेः परम् ॥ ९९ ॥
सर्वाधारं सर्वरूपं सर्वबीजमबीजकम् ।
सर्वांतकमनन्तं च तेजोरूपं नमाम्यहम् ॥ १०० ॥
लक्ष्यं षङ्गुणरूपं च वर्णनीयं विचक्षणैः ।
किं वर्णयामि लक्ष्यं च तेजोरूपं नमाम्यहम् ॥ १०१ ॥
अशरीरं विग्रहवदिंद्रियं यदतींद्रियम् ।
यदसाक्षि सर्वसाक्षि तेजोरूपं नमाम्यहम् ॥ १०२ ॥
गमनार्हमपादं यदचक्षुः सर्वदर्शनम् ।
हस्तास्यहीनं यद्भोक्तृ तेजोरूपं नमाम्यहम् ॥ १०३ ॥
वेदे निरूपितं वस्तु सन्तः शक्ताश्च वर्णितुम् ।
वेदेऽनिरूपितं यत्तत्तेजोरूपं नमाम्यहम् ॥ १०४ ॥
सर्वेशं यदनीशं यत्सर्वादि यदनादि यत् ।
सर्वात्मकमनात्मं यत्तेजोरूपं नमाम्यहम् ॥ १०५ ॥
अहं विधाता जगतो वेदानां जनकः स्वयम् ।
पाता धर्मो हरो हर्ता स्तोतुं शक्ता न केऽपि यत् ॥ १०६ ॥
सेवया तव धर्मोऽयं पालने च निरूपितः ।
तवाज्ञया च संहर्ता त्वया काले निरूपिते ॥ १०७ ॥
निःशेषोत्पत्तिकर्त्ताऽहं त्वत्पादांभोजसेवया ।
कर्मिणां फलदाता च त्वं भक्तानां च नः प्रभुः ॥ १०८ ॥
ब्रह्मांडे बिंबसदृशे भूत्वा विषयिणो वयम् ।
एवं कतिविधाः संति तेष्वनन्तेषु सेवकाः ॥ १०९ ॥
यथा न संख्या रेणूनां तथा तेषामणीयसाम् ।
सर्वेषां जनकश्चेशो यस्तं स्तोतुं च के क्षमाः ॥ ११० ॥
एकैकलोमविवरे ब्रह्मांडमेकमेककम् ।
यस्यैव महतो विष्णोः षोडशांशस्तवैव सः ॥ १११ ॥
ध्यायंते योगिनः सर्वे तवैतद्रूपमीप्सितम् ।
त्वद्भक्तदास्यनिरताः सेवंते चरणांबुजम् ॥ ११२ ॥
किशोरं सुंदरतरं यक्षं कमनीयकम् ।
मंत्रध्यानानुरूपं च दर्शयास्माकमीश्वर ॥ ११३ ॥
नवीनजलदश्यामपीतांबरधरं वरम् ।
द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं सुमनोहरम् ॥ ११४ ॥
मयूरपिच्छचूडं च मालतीजालमंडितम् ।
चंदनागुरुकस्तूरीकुङ्कुमद्रवचर्चितम् ॥ ११५ ॥
अमूल्यरत्नसाराणां सारभूषणभूषितम् ।
अमूल्यरत्नरचितकिरीटमुकुटोज्ज्वलम् ॥ ११६ ॥
शरत्प्रफुल्लपद्मानां प्रभामोष्यास्यचंद्रकम् ।
पक्वबिंबसमानेन ह्यधरोष्ठेन राजितम् ॥ ११७ ॥
पक्वदाडिमबीजाभदंतपंक्तिमनोहरम् ।
केलीकदंबमूले च स्थितं रासरसोन्मुखम् ॥ ११८ ॥
गोपीवक्त्रस्मिततनुं राधावक्षःस्थलस्थितम् ।
एवं वांछितरूपं ते दृष्टुं को वा न चोत्सुकः ॥ ११९ ॥
इत्येवमुक्त्वा विश्वसृट् प्रणनाम पुनः पुनः ।
एवं स्तोत्रेण तुष्टाव धर्मोऽपि शंकरः स्वयम् ॥ १२० ॥

ब्रह्माजी बोले — जो वर, वरेण्य, वरद, वरदायकों के कारण तथा सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति के हेतु हैं; उन तेजः स्वरूप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। जो मङ्गलकारी, मङ्गल के योग्य, मङ्गलरूप, मङ्गलदायक तथा समस्त मङ्गलों के आधार हैं; उन तेजोमय परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूँ। जो सर्वत्र विद्यमान, निर्लिप्त, आत्मस्वरूप, परात्पर, निरीह और अवित हैं; उन तेजः स्वरूप परमेश्वर को नमस्कार है। जो सगुण, निर्गुण, सनातन, ब्रह्म, ज्योतिः स्वरूप, साकार एवं निराकार हैं; उन तेजोरूप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। प्रभो! आप अनिर्वचनीय, व्यक्त, अव्यक्त, अद्वितीय, स्वेच्छामय तथा सर्वरूप हैं। आप तेजः स्वरूप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। तीनों गुणों का विभाग करने के लिये आप तीन रूप धारण करते हैं; परंतु हैं तीनों गुणों से अतीत। समस्त देवता आपकी कला से प्रकट हुए हैं। आप श्रुतियों की पहुँच से भी परे हैं; फिर आपको देवता कैसे जान सकते हैं ? आप सबके आधार, सर्वस्वरूप, सबके आदिकारण, स्वयं कारणरहित, सबका संहार करने वाले तथा अन्तरहित हैं। आप तेजः स्वरूप परमात्मा को नमस्कार है । जो सगुण रूप है, वही लक्ष्य होता है और विद्वान् पुरुष उसी का वर्णन कर सकते हैं । परंतु आपका रूप अलक्ष्य है; अतः मैं उसका वर्णन कैसे कर सकता हूँ? आप तेजोरूप परमात्मा को मेरा प्रणाम है। आप निराकार होकर भी दिव्य आकार धारण करते हैं । इन्द्रियातीत होकर भी इन्द्रिययुक्त होते हैं। आप सबके साक्षी हैं; परंतु आपका साक्षी कोई नहीं है। आप तेजोमय परमेश्वर को मेरा नमस्कार है । आपके पैर नहीं हैं तो भी आप चलने की योग्यता रखते हैं। नेत्रहीन होकर भी सबको देखते हैं। हाथ और मुख से रहित होकर भी भोजन करते हैं। आप तेजोमय परमात्मा को मेरा नमस्कार है । वेद में जिस वस्तु का निरूपण है, विद्वान् पुरुष उसी का वर्णन कर सकते हैं । जिसका वेद में भी निरूपण नहीं हो सका है, आपके उस तेजोमय स्वरूप को मैं नमस्कार करता हूँ ।

जो सर्वेश्वर है, किंतु जिसका ईश्वर कोई नहीं है; जो सबका आदि है, परंतु स्वयं आदि से रहित है तथा जो सबका आत्मा है, किंतु जिसका आत्मा दूसरा कोई नहीं है; आपके उस तेजोमय स्वरूप को मैं नमस्कार करता हूँ। मैं स्वयं जगत् का स्रष्टा और वेदों को प्रकट करने वाला हूँ । धर्मदेव जगत् के पालक हैं तथा महादेवजी संहारकारी हैं; तथापि हममें से कोई भी आपके उस तेजोमय स्वरूप का स्तवन करने में समर्थ नहीं है। आपकी सेवा के प्रभाव से वे धर्मदेव अपने रक्षक की रक्षा करते हैं। आपकी ही आज्ञा से आपके द्वारा निश्चित किये हुए समय पर महादेवजी जगत् का संहार करते हैं। आपके चरणारविन्दों की सेवासे ही सामर्थ्य पाकर मैं प्राणियों के प्रारब्ध या भाग्य की लिपि का लेखक तथा कर्म करने वालों के फल का दाता बना हुआ हूँ । प्रभो ! हम तीनों आपके भक्त हैं और आप हमारे स्वामी हैं । ब्रह्माण्ड में बिम्बसदृश होकर हम विषयी हो रहे हैं । ब्रह्माण्ड अनन्त हैं और उनमें हम-जैसे सेवक कितने ही हैं। जैसे रेणु तथा उनके परमाणुओं की गणना नहीं हो सकती, उसी प्रकार ब्रह्माण्डों और उनमें रहने वाले ब्रह्मा आदि की गणना असम्भव है। आप सबके उत्पादक परमेश्वर हैं। आपकी स्तुति करने में कौन समर्थ है ? जिन महाविष्णु के एक-एक रोम कूप में एक-एक ब्रह्माण्ड है, वे भी आपके ही सोलहवें अंश हैं ।

समस्त योगीजन आपके इस मनोवाञ्छित ज्योतिर्मय स्वरूप का ध्यान करते हैं । परंतु जो आपके भक्त हैं, वे आपकी दासता में अनुरक्त रहकर सदा आपके चरणकमलों की सेवा करते हैं। परमेश्वर ! आपका जो परम सुन्दर और कमनीय किशोर-रूप है, जो मन्त्रोक्त ध्यान के अनुरूप है, आप उसी का हमें दर्शन कराइये । जिसकी अङ्गकान्ति नूतन जलधर के समान श्याम है, जो पीताम्बरधारी तथा परम सुन्दर है, जिसके दो भुजाएँ, हाथ में मुरली और मुखपर मन्द मन्द मुसकान है, जो अत्यन्त मनोहर है, माथे पर मोरपंख का मुकुट धारण करता है, मालती के पुष्पसमूहों से जिसका शृङ्गार किया गया है, जो चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और केसर के अङ्गराग से चर्चित है, अमूल्य रत्नों के सारतत्त्व से निर्मित आभूषणों से विभूषित है, बहुमूल्य रत्नों के बने हुए किरीट- मुकुट जिसके मस्तक को उद्भासित कर रहे हैं, जिसका मुखचन्द्र शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों की शोभा को चुराये लेता है, जो पके बिम्बफल के समान लाल ओठों से सुशोभित है, परिपक्व अनार के बीज की भाँति चमकीली दन्तपंक्ति जिसके मुख की मनोरमता को बढ़ाती है, जो रास-रस के लिये उत्सुक हो केलि-कदम्ब के नीचे खड़ा है, गोपियों के मुखों की ओर देखता है तथा श्रीराधा के वक्षःस्थल पर विराजित है; आपके उसी केलि-रसोत्सुक रूप को देखने की हम सबकी इच्छा है ।

ऐसा कहकर विश्वविधाता ब्रह्मा उन्हें बारंबार प्रणाम करने लगे । धर्म और शंकर ने भी इसी स्तोत्र से उनका स्तवन किया तथा नेत्रों में आँसू भरकर बारंबार वन्दना की । मुने ! उन त्रिदशेश्वरोंने खड़े-खड़े पुनः स्तवन किया। वे सब-के-सब वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण के तेज से व्याप्त हो रहे थे। धर्म, शिव और ब्रह्माजी के द्वारा किये गये इस स्तवराज को जो प्रतिदिन श्रीहरि के पूजाकाल में भक्तिपूर्वक पढ़ता है, वह उनकी अत्यन्त दुर्लभ और दृढ़ भक्ति प्राप्त कर लेता है । देवता, असुर और मुनीन्द्रों को श्रीहरि का दास्य दुर्लभ है; परंतु इस स्तोत्र का पाठ करने वाला उसे पा लेता है। साथ ही अणिमा आदि सिद्धियों तथा सालोक्य आदि चार प्रकार की मुक्तियों को भी प्राप्त कर लेता है । इस लोक में भी वह भगवान् विष्णु के समान ही और विख्यात एवं पूजित होता है; इसमें संशय नहीं है । निश्चय ही उसे वाक्सिद्धि और मन्त्रसिद्धि भी सुलभ हो जाती है। वह सम्पूर्ण सौभाग्य आरोग्य लाभ करता है। उसके यश से सारा जगत् पूर्ण हो जाता है । वह इस लोक में पुत्र, विद्या, कविता, स्थिर लक्ष्मी, साध्वी सुशीला पतिव्रता पत्नी, सुस्थिर संतान तथा चिरकालस्थायिनी कीर्ति प्राप्त कर लेता है और अन्त में उसे श्रीकृष्ण के निकट स्थान प्राप्त होता है । (अध्याय ५ )

॥ इति श्रीब्रह्म वैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखंडे गोलोकवर्णने श्रीकृष्णस्तोत्रराजपठनं नाम पंचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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