March 1, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 52 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ बावनवाँ अध्याय श्रीकृष्ण के अन्तर्धान होने से श्रीराधा और गोपियों का दुःख से रोदन, चन्दनवन में श्रीकृष्ण का उन्हें दर्शन देना, गोपियों के प्रणय- कोपजनित उद्गार, श्रीकृष्ण का उनके साथ विहार, श्रीराधा नाम के प्रथम उच्चारण का कारण श्रीकृष्ण ने कहा — प्रिये ! मैंने छोटे-बड़े सभी लोगों के दर्प-भङ्ग की कहानी कही और तुमने सुनी । इसमें संदेह नहीं कि उन सबका अभिमान भङ्ग किया ही गया था। अब उठो और वृन्दावन में चलो। सुन्दरि ! अब मैं विरह से पीड़ित हुई गोपिकाओं को शीघ्र देखना चाहता हूँ । श्रीनारायण कहते हैं — नारद! श्यामसुन्दर की यह बात सुनकर मानिनी रसिकेश्वरी राधा ने उनसे कहा — ‘प्राणेश्वर! मैं चलने में असमर्थ हो गयी हूँ; अतः तुम्हीं मुझे ले चलो।’ राधा की यह बात सुन मधुसूदन हँसकर बोले- ‘ तब मुझ पर ही सवार हो जाओ।’ ऐसा कह वे तत्काल अदृश्य हो गये । राधा मन की गति से चलने वाली थीं। वे क्षण भर वहाँ रोती रहीं; फिर इधर-उधर श्यामसुन्दर को ढूँढ़ती हुई वृन्दावन में जा पहुँचीं। शोक से कातर हुई राधा ने रोते-रोते चन्दनवन में प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने शोकाकुल गोपियों को देखा, जो भय से विह्वल थीं। उनके मुँह लाल हो गये थे । आँखें इधर-उधर घूरती थीं। वे सम्पूर्ण वन में भ्रमण करतीं और ‘हा नाथ ! हा नाथ !’ पुकारती हुई बिना खाये – पीये रह रही थीं । उनके मन में। बड़ा रोष था । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय प्रेम-विच्छेद से कातर राधिका ने उन सबको देखकर उनसे मलयवन में भ्रमण आदि का अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाया । फिर वे उन सबके साथ रोदन करने लगीं। विरह से आतुर हो ‘ हा नाथ ! हा नाथ!’ का उच्चारण करके बारंबार विलाप करती हुई सब गोपियाँ कुपित हो अपने शरीर का त्याग कर देने को उद्यत हो गयीं। इसी समय वहाँ चन्दनवन में पधारकर श्रीकृष्ण ने राधा तथा गोपियों को दर्शन दिये । प्राणेश्वर को आया देख गोपाङ्गनाओं सहित राधा आनन्द से मुस्करायीं और पुलकित-शरीर हो उनकी ओर दौड़ीं। पास जाकर वे सब गोपाङ्गनाएँ प्रेम से विह्वल हो रोने लगीं। फिर उन सबने श्रीकृष्ण से विरहजनित अपने सारे दुःख को निवेदन किया। दिन-रात स्नान और खाना-पीना छोड़कर वन-वन में निरन्तर भटकते रहना तथा अन्त में शरीर को त्याग देने का विचार करना आदि सब बातें बताकर उन सबने क्षणभर उन्हें बहुत फटकारा। फिर वे एक क्षण तक प्रसन्नता से उनके गुण गाती रहीं। इसके बाद कुछ देर उन्हें आभूषण पहनाती तथा चन्दन लगाती रहीं । कोई-कोई गोपियाँ बोलीं- ‘अरी सखि ! देखो, श्यामसुन्दर हमारे प्राणों के चोर हैं । इनकी निरन्तर रखवाली करो। ये कहीं जाने न पावें ।’ यह सुनकर दूसरी बोल उठी- ‘नहीं सखी! अब ये फिर ऐसा अपराध कभी नहीं करेंगे।’ कोई कहने लगी- ‘अरी सखियो ! इन्हें शीघ्र ही चारों ओर से घेरकर बीच में कर लो । ‘ दूसरी बोली- ‘नहीं, नहीं सखी! इन्हें प्रेमपाश से बाँधकर हृदय – मन्दि रमें कैद कर लो।’ कोई बोली- ‘ये पुरुष हैं; इन पर कभी विश्वास नहीं किया जा सकता।’ अन्य बोल उठी- ‘इन चित्तचोर की यत्नपूर्वक देखभाल करो।’ कोई-कोई कुपित होकर कहने लगीं- ‘ये निष्ठुर हैं, नरघाती हैं।’ कोई बोली- ‘अब फिर इनसे बात न करो । ‘ तदनन्तर जो-जो रमणीय और निर्जन वन थे, उन सबमें गोपियाँ श्रीकृष्ण के साथ कौतूहलपूर्वक घूमती रहीं । इस तरह उन परमेश्वर को बीच में करके वे सब गोपियाँ दूसरे वन में गयीं, जहाँ सुरम्य रासमण्डल विद्यमान था। रासमण्डल में जाकर रसिक-शेखर श्रीकृष्ण स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान हुए। जैसे रात के समय आकाश में तारागणों के साथ चन्द्रमा शोभा पाते हैं; उसी प्रकार वे गोपियों के साथ सुशोभित हो रहे थे। जनार्दन ने अपनी अनेक मूर्तियाँ प्रकट करके गोपियों के साथ पुनः रासक्रीड़ा की । नारदजी ने पूछा — भक्तजनों के प्रियतम नारायण! विद्वान् पुरुष पहले ‘राधा’ शब्द का उच्चारण करके पीछे ‘कृष्ण’ का नाम लेते हैं, इसका क्या कारण है ? यह मुझ भक्त को बताइये । श्रीनारायण बोले — नारद! इसके तीन कारण हैं; बताता हूँ, सुनो ! प्रकृति जगत् की माता हैं और पुरुष जगत् के पिता । त्रिभुवन-जननी प्रकृति का गौरव पितृ-स्वरूप पुरुष की अपेक्षा सौ गुना अधिक है। श्रुति में ‘राधाकृष्ण’, ‘गौरीशंकर’ इत्यादि शब्द ही सुना गया है । ‘कृष्ण – राधा’ ‘शंकर – गौरी’ इत्यादि का प्रयोग कभी लोक में भी नहीं सुना गया है । ‘हे रोहिणीचन्द्र ! प्रसन्न होइये और इस अर्घ्य को ग्रहण कीजिये । संज्ञा सहित सूर्यदेव ! मेरे दिये हुए इस अर्घ्य को स्वीकार कीजिये । कमलाकान्त ! प्रसन्न होइये और मेरी पूजा ग्रहण कीजिये ।’ इत्यादि मन्त्र सामवेद की कौथुमी शाखा में देखे गये हैं । मुनिश्रेष्ठ नारद! ‘रा’ शब्द के उच्चारण मात्र से ही माधव हृष्ट-पुष्ट हो जाते हैं और ‘धा’ शब्द का उच्चारण होने पर तो अवश्य ही भक्त के पीछे वेगपूर्वक दौड़ पड़ते हैं । जो पहले पुरुषवाची शब्द का उच्चारण करके पीछे प्रकृति का उच्चारण करता है, वह वेद की मर्यादा का उल्लङ्घन करने के कारण मातृहत्या के पाप का भागी होता है। तीनों लोकों में पुण्यदायक कर्मक्षेत्र होने के कारण भारतवर्ष धन्य है । उसमें भी श्रीराधाचरणारविन्दों की रेणु से पवित्र हुआ वृन्दावन अतिशय धन्य है । राधा के चरणकमलों की पवित्र धूल प्राप्त करने के लिये ब्रह्माजी ने साठ हजार वर्षों तक तपस्या की थी । (अध्याय ५२) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे राधामाधवयो रासवर्णनं नाम द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related