ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 60
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
साठवाँ अध्याय
बृहस्पति का शची को आश्वासन एवं आशीर्वाद देना, नहुष का सप्तर्षियों को वाहन बनाना और दुर्वासा के शाप से अजगर होना, बृहस्पति का इन्द्र को बुलाकर पुनः सिंहासन पर बिठाना

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! शची द्वारा किये गये स्तोत्र को सुनकर बृहस्पति बहुत संतुष्ट हुए और शान्तभाव से इन्द्रपत्नी शची के प्रति मधुर वाणी में बोले ।

बृहस्पति ने कहा — बेटी! सारा भय छोड़ दो । मेरे रहते तुम्हें भय किस बात का है? शोभने ! मेरे लिये जैसे कच की पत्नी (पुत्रवधू) रक्षणीय है, उसी प्रकार तुम भी हो। जो स्थान पुत्र का है, वही शिष्य का भी है। तर्पण, पिण्डदान, पालन और परितोषण – इन सभी कर्मों के लिये पुत्र और शिष्य में कोई भेद नहीं है। जैसे पुत्र पिता के मरने पर उसके लिये अग्निदाता होता है, अवश्य उसी तरह शिष्य गुरु के लिये अग्निप्रदाता कहा गया है। यह बात कण्वशाखा में ब्रह्माजी ने कही है । पिता, माता, गुरु, पत्नी, छोटा बालक, अनाथ एवं कुटुम्बीजन – ये पुरुषमात्र से नित्य पोषण पाने के योग्य हैं, ऐसा ब्रह्माजी का कथन है । जो इनका पोषण नहीं करता उसके शरीर के भस्म होने तक उसे सूतक ( अशौच ) – का भागी होना पड़ता है। वह जीते-जी देवयज्ञ तथा पितृयज्ञ में कर्म करने का अधिकारी नहीं रहता है – ऐसा महेश्वर का कथन है। जो माता, पिता और गुरु के प्रति मानव – बुद्धि रखता है, उसको सर्वत्र अयश प्राप्त होता है और उसे पग-पग पर विघ्न का ही सामना करना पड़ता है।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

जो सम्पत्ति से मतवाला होकर अपने गुरु का अपमान करता है, शीघ्र ही उसका सर्वनाश हो जाता है; यह सुनिश्चित बात है। अपनी सभा में मुझे देखकर इन्द्र  आसन से नहीं उठे थे, उसी का फल इस समय भोग रहे हैं । गुरु के अपमान का शीघ्र ही जो कटु फल प्राप्त हुआ, उसे तुम अपनी आँखों देख लो । अब मैं इन्द्र को शाप से छुड़ाऊँगा और निश्चय ही तुम्हारी रक्षा करूँगा। जो शासन और संरक्षण दोनों ही कर सकता हो, वही गुरु कहलाता है । जो हृदय से शुद्ध है अर्थात् जिसके हृदय में कलुषित भाव नहीं पैदा हुआ है, उस नारी का सतीत्व नष्ट नहीं होता । परंतु जिसके मन में विकल्प है, उसका धर्म नष्ट हो जाता है । पतिव्रते! तुम्हारा दुर्गाजी के समान प्रभाव बढ़ेगा । तुम्हारी प्रतिष्ठा और यश लक्ष्मीजी के समान होंगे। सौभाग्य और पतिविषयक प्रेम श्रीराधिका के समान होगा। स्वामी के प्रति गौरव, मान, प्रीति तथा प्रधानता का भाव भी तुम में श्रीराधा के ही सदृश होगा। रोहिणी के समान तुम में पति की अपेक्षा-बुद्धि होगी। तुम भारती के समान पूजनीया तथा सावित्री के तुल्य सदा शुद्धा एवं उपमारहित होओगी ।

बृहस्पतिजी ऐसा कह ही रहे थे कि नहुष के दूत ने वहाँ आकर शची से नन्दनवन में चलने के लिये कहा। यह सुनते ही बृहस्पतिजी का सारा शरीर क्रोध से काँपने लगा और उनकी आँखें लाल हो गयीं। वे उस दूत से बोले ।

गुरू ने कहा- दूत ! तू जाकर नहुष से कह दे कि ‘महाराज ! यदि तुम शची का उपभोग करना चाहते हो तो एक ऐसी सवारी पर चढ़कर रात में आना, जिसका आज से पहले किसी ने उपयोग न किया हो । सप्तर्षियों के कंधों पर अपनी सुन्दर शिविका (पालकी) रख उत्तम वेश-भूषा से सज-धजकर उसी पर आरूढ़ हो तुम्हें यहाँ तक यात्रा करनी चाहिये ।’

बृहस्पतिजी की बात सुनकर दूत ने नहुष के पास जा उनका संदेश कह सुनाया।

सुनकर नहुष हँस पड़ा और अपने सेवक से बोला — ‘जाओ, जाओ, जल्दी जाओ और सप्तर्षियों को यहाँ बुला लाओ । उन सबके साथ मिलकर कोई उपाय करूँगा। तुम अभी जाओ।’

राजा का आदेश पाकर दूत सप्तर्षियों के समीप गया और नहुष ने जो कुछ कहा था, वह सब उसने उन सबसे कह सुनाया। दूत की बात सुनकर सप्तर्षि प्रसन्नतापूर्वक नहुष के पास गये। उन  सबको आया देख राजा ने प्रणाम किया और आदरपूर्वक कहा ।

नहुष बोला — आप लोग ब्रह्माजी के पुत्र हैं, ब्रह्मतेज से प्रकाशित होते हैं और सदा ब्रह्माजी के समान ही भक्तवत्सल हैं। निरन्तर भगवान् नारायण की उपासना में लगे रहते हैं । शुद्ध सत्त्व ही आपका स्वरूप है । आप मोह और मात्सर्य से रहित हैं । दर्प और अहंकार आपको छू नहीं सके हैं। आप सब लोग सदा भगवान् नारायण के समान तेजस्वी और यशस्वी हैं। गुण, कृपा, प्रेम और वरदान सभी दृष्टियों से निश्चय ही आप श्रीहरि के तुल्य हैं।

ऐसा कहकर राजा उनके चरणों में प्रणाम और स्तुति करने लगा । राजा को कातर हुआ देख वे परम हितैषी ऋषि उससे बोले ।

ऋषियों ने कहा — बेटा! तुम्हारे मन में जो इच्छा हो, उसके अनुसार वर माँगो; हम सब कुछ देने में समर्थ हैं। हमारे लिये कुछ भी असाध्य नहीं है । इन्द्रपद, मनु का पद, दीर्घायु, सातों द्वीपों का प्रभुत्व, चिरकाल तक बना रहने वाला अतिशय सुख, सम्पूर्ण सिद्धियाँ, परम दुर्लभ समस्त ऐश्वर्य तथा जो तपस्या से भी नहीं मिल सकती, वह हरिभक्ति अथवा मुक्ति भी हम तुम्हें दे सकते हैं । वत्स ! बोलो, इस समय तुम्हें किस वस्तु की इच्छा है ? वह सब तुम्हें देकर ही हम तपस्या के लिये जायँगे। जो क्षण श्रीकृष्ण की आराधना बिना व्यतीत होता है, वह लाख युगों के समान है अर्थात् श्रीकृष्ण भजन के बिना यदि एक क्षण भी व्यर्थ बीता तो समझना चाहिये कि हमारे एक लाख युग व्यर्थ बीत गये। जो दिन श्रीहरि के ध्यान और सेवन से शून्य रह गया, वही सबसे बड़ा दुर्दिन है । जो मनुष्य श्रीहरि की सेवा छोड़कर किसी दूसरे विषय को पाने की इच्छा रखता है, वह मनोवाञ्छित अमृत को त्यागकर अपने ही विनाश के लिये मानो विष खाता है । ब्रह्मा, शिव, धर्म, विष्णु, महाविष्णु (महानारायण), गणेश, सूर्य, शेष और सनकादि मुनि-ये दिन-रात प्रसन्नतापूर्वक जिनके चरणकमलों का चिन्तन करते रहते हैं, उन जन्म, मृत्यु और जरारूप व्याधि को हर लेनेवाले श्रीकृष्ण में हम लोग सदा अनुरक्त रहते हैं ।

सप्तर्षियों की यह बात सुनकर राजेश्वर नहुष लज्जित हो गया । उसका सिर झुक गया, तथापि माया से मोहित चित्त होने के कारण वह बोला ।

नहुष ने कहा — महर्षियो ! आपलोग भक्तवत्सल हैं और सब कुछ देने की शक्ति रखते हैं। इस समय मैं शची को पाना चाहता हूँ; अतः शीघ्र ही मुझे शची का दान दीजिये । महासती शची ऐसे पति को पाना चाहती है, जिसके वाहन सप्तर्षि हों । यही मेरा वर है । आप लोग शीघ्र ही मेरे अभीष्ट कार्य को सम्पन्न करें।

नारद ! नहुष की बात सुनकर सब मुनि कौतूहलवश एक-दूसरे को देखते हुए जोर-जोर से हँसने लगे । राजा को भगवान् विष्णु की माया से वेष्टित एवं मोहित मानकर उन दीनवत्सल सप्तर्षियों ने कृपापूर्वक राजा का वाहन बनने की प्रतिज्ञा कर ली । उसकी शिविका मुक्ता और माणिक्य से सुशोभित थी। ऋषियों ने उसे कंधे पर उठा लिया और राजा नहुष सुन्दर वेष एवं रत्नमय आभूषणों से विभूषित हो उस शिविका से चला । उस वाहन द्वारा अभीष्ट स्थान पर पहुँचने में अधिक विलम्ब होता देख राजा सप्तर्षियों को डाँटने-फटकारने लगा। शिविका के उस मार्ग पर सबसे आगे चलते थे दुर्वासा ।

उन्हें राजा की फटकार पर क्रोध आ गया और वे शाप देते हुए बोले — ‘मूढचित्त महाराज ! तुम महान् अजगर होकर नीचे गिर पड़ो । धर्मपुत्र युधिष्ठिर के दर्शन होने से तुम अजगर की योनि से छूट जाओगे। तत्पश्चात् रत्नमय विमान से वैकुण्ठ में जाकर भगवान् विष्णु का सेवन करोगे । किया हुआ कर्म कभी निष्फल नहीं होता । तुमने श्रीहरि की आराधना की है; अतः शाप से छूटने पर तुम्हें उसका फल अवश्य मिलेगा ।’

महामुने! यों कहकर वे सब श्रेष्ठ मुनि हँसते हुए चले गये और राजा उनके शाप से सर्प होकर गिर पड़ा। वह समाचार सुनकर शची गुरुदेव को नमस्कार करके अमरावती में चली गयी और बृहस्पतिजी शीघ्र उस स्थान पर गये, जहाँ इन्द्र कमल-नाल में निवास करते थे । सरोवर के निकट जाकर कृपानिधान गुरु ने अत्यन्त प्रसन्नवदन हो कृपापूर्वक देवराज को पुकारा ।

बृहस्पति बोले — वत्स ! आओ। मेरे रहते तुम्हें क्या भय हो सकता है ? भय छोड़ो और यहाँ आओ। मैं तुम्हारा गुरु बृहस्पति हूँ ।

अपने गुरु का स्वर सुनकर महेन्द्र का मन प्रसन्नता से खिल उठा। वे सूक्ष्मरूप को छोड़कर अपने ही रूप से उनके निकट आये। उन्होंने भक्तिभाव से गुरु के चरणों में दण्ड की भाँति पड़कर सिर से उन्हें प्रणाम किया और रोने लगे। उस समय महाभयभीत एवं रोते हुए इन्द्र को गुरु ने सानन्द हृदय से लगा लिया। फिर उनसे प्रायश्चित्त के लिये सोमयाग1  करवाकर उन्हें रमणीय रत्नमय सिंहासन पर बिठाया और पहले से चौगुना उत्तम ऐश्वर्य प्रदान किया । तदनन्तर सब देवता आकर उनकी सेवा करने लगे । शची ने पुनः अपने पति देवराज इन्द्र को प्राप्त कर लिया और निवासमन्दिर में फूलों की सेज पर वह उनके साथ आनन्दपूर्वक सुख का अनुभव करने लगी । वत्स ! इस प्रकार मैंने इन्द्र के दर्प के भञ्जन तथा शची के सतीत्व की रक्षा का प्रसङ्ग कह सुनाया। अब और क्या सुनना चाहते हो ?

नारद बोले — हे मुनिश्रेष्ठ ! सोमयाग का विधान मुझे बताने की कृपा करें। गुरु ने किस प्रकार यह याग सुसम्पन्न कराया और उसका महान् फल क्या है ?

नारायण बोले – हे मुने ! ब्रह्महत्या का शमन करना सोमयाग का विशिष्ट फल है।  उसके विधान के अनुसार यजमान एक वर्ष तक सोमलता का पान करता है । एक वर्ष फल भोजन करता है और एक वर्ष प्रसन्नता से जल पीकर रहता है । समस्त पापों का विनाशक यह व्रत तीन वर्षों में सम्पन्न किया जाता है। जो प्राणियों की सुखसमृद्धि के निमित्त तीन वर्ष या उससे भी अधिक समय के लिए अन्न का संग्रह करके रखता है, वही सोमपान करने का अधिकारी है । हे मुने! महाराज या देवता इस यज्ञ को करने में समर्थ हो सकते हैं, अन्य नहीं; क्योंकि बहुत अन्न और बहुत दक्षिणा वाला यह यज्ञ सबके करने योग्य नहीं है । ( अध्याय ६० )

1. सोमयज्ञ एक है, जिसमें देवताओं को सोम रस की आहुति दी जाती है । यह यज्ञ वेदों में वर्णित विधियों पर आधारित है । सोमयज्ञ में सोम को मुख्य आहुति के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। सोमयज्ञ में 17 ऋत्विज ब्राह्मण पंडित होते हैं। सोमयज्ञ में 17 आरा का चक्र, 17 ध्वजा, और 17 की संख्या में समस्त यज्ञीय सामग्री और दक्षिणा होती है। सोमयज्ञ में सोम लता के सोमरस की आहुति की प्रधानता होती है। सोमयज्ञ से समस्त दोष दूर होते हैं। सोमयज्ञ के बारे में जानकारी यजुर्वेद के चौथे अध्याय से दसवें अध्याय तक के अध्यायों में मिलती है। सोमयज्ञ के बारे में विस्तृत जानकारी शतपथ ब्राह्मण में मिलती है।

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद शक्रदर्पभङ्गप्रकरणे शक्रमोक्षकथनं नाम षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६० ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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