ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 67
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
सड़सठवाँ अध्याय
श्रीकृष्ण के बिना अपनी दयनीय स्थिति का चित्रण करना, श्रीकृष्ण का उन्हें सान्त्वना देना और आध्यात्मिक योग का श्रवण कराना

तब राधा बोलीं — श्यामसुन्दर! जब मैं आपके साथ रहती हूँ, तब हर्ष से खिल उठती हूँ और आपके बिना मलिन हो मृतक-तुल्य हो जाती हूँ । आपके साथ रहनेपर मैं उसी प्रकार चमक उठती हूँ, जैसे प्रातःकाल सूर्योदय होने पर विशिष्ट ओषधियाँ तथा रजनी में दीपशिखा । आपके बिना मैं दिन-दिन उसी तरह क्षीण होने लगती हूँ, जैसे कृष्णपक्ष में चन्द्रमा की कला। आपके वक्ष में विराजमान होने पर मेरी दीप्ति पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान प्रकाशित होती है और जब आप मुझे त्यागकर अन्यत्र चले जाते हैं, तब मैं तत्काल ऐसी हो जाती हूँ, मानो मर गयी। मैं अमावास्या के चन्द्रमा की कला के समान विलीन-सी हो जाती हूँ। घी की आहुति पाकर जैसे अग्निशिखा प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार आपका साथ पाकर मैं दीप्ति से दमक उठती हूँ और आपके बिना शिशिर ऋतु में कमलिनी की भाँति बुझ-सी जाती हूँ। जब मेरे पास से तुम चले जाते हो, तब मैं चिन्तारूपी ज्वर या जरा से ग्रस्त हो जाती हूँ। जैसे सूर्य और चन्द्रमा के अस्त होने पर सारी भूमि अन्धकार से आच्छन्न हो जाती है, उसी तरह जब तुम दृष्टि से ओझल होते हो, तब मैं शोक और दुःख में डूब जाती हूँ। तुम्हीं सबके आत्मा हो; विशेषतः मेरे प्राणनाथ हो । जैसे जीवात्मा के त्याग देने पर शरीर मुर्दा हो जाता है, उसी प्रकार मैं तुम्हारे बिना मरी-सी हो जाती हूँ ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

तुम मेरे पाँचों प्राण हो । तुम्हारे बिना मैं मृतक हूँ, ठीक उसी तरह जैसे नेत्रगोलक आँख की पुतली के बिना अंधे होते हैं । जैसे चित्रों से युक्त स्थान की शोभा बढ़ जाती है, उसी तरह तुम्हारे साथ मेरी शोभा अधिक हो जाती है और जब तुम मेरे साथ नहीं रहते हो तब मैं तिनकों से आच्छादित और झाड़-बुहार या सजावट से रहित भूमि की भाँति शोभाहीन हो जाती हूँ। श्रीकृष्ण ! तुम्हारे साथ मैं चित्रयुक्त मिट्टी की प्रतिमा की भाँति सुशोभित होती हूँ और तुम्हारे बिना जल से धोयी हुई मिट्टी की मूर्ति की तरह कुरूप दिखायी देती हूँ । तुम रासेश्वर हो । तुमसे ही गोपाङ्गनाओं की शोभा होती है, जैसे सोने की माला श्वेत मणि का संयोग पाकर अधिक सुशोभित होने लगती है । व्रजराज ! तुम्हारे साथ राजाओं की श्रेणियाँ उसी तरह शोभा पाती हैं, जैसे आकाश में चन्द्रमा के साथ तारावलियाँ । नन्दनन्दन ! जैसे शाखा, फल और तनों से वृक्षावलियाँ सुशोभित होती हैं, उसी प्रकार तुमसे नन्द और यशोदा की शोभा है । गोकुलेश्वर ! जैसे समस्त लोकों की श्रेणियाँ राजेन्द्र से सुशोभित होती हैं, उसी प्रकार समस्त गोकुलवासियों की शोभा तुम्हारे साथ रहने से ही है ।

रासेश्वर ! जैसे स्वर्ग में देवराज इन्द्र से ही अमरावतीपुरी शोभित होती है, उसी प्रकार रासमण्डल को भी तुमसे ही मनोहर शोभा प्राप्त होती है। जैसे बलवान् सिंह अन्यान्य वनों की शोभा, स्वामी और सहारा है, उसी प्रकार तुम्हीं वृन्दावन के वृक्षों की शोभा, संरक्षक और आश्रयदाता हो। जैसे गाय अपने बछड़े को न पाकर व्याकुल हो डकराने लगती है, उसी प्रकार माता यशोदा तुम्हारे बिना शोकसागर में निमग्न हो जाती हैं। जैसे तपे हुए पात्र में धान्यराशि जल जाती है, उसी प्रकार तुम्हारे बिना नन्दजी का हृदय दग्ध होने लगता है और प्राण आन्दोलित हो उठते हैं ।

यों कहकर अत्यन्त प्रेम के कारण राधा श्रीहरि के चरणों में गिर पड़ीं। श्रीहरि ने पुनः अध्यात्म-ज्ञान की बातें कहकर उन्हें समझाया- बुझाया। नारद ! आध्यात्मिक महायोग उसी तरह मोह के उच्छेद का कारण कहा गया है, जैसे तीखी धार वाला कुठार वृक्षों के काटने में हेतु होता है ।

नारद ने कहा — वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवन् ! लोकों के शोक का उच्छेद करने वाले आध्यात्मिक महायोग का वर्णन कीजिये । मेरे मन में उसे सुनने के लिये उत्कण्ठा है।

श्रीनारायण ने कहा — आध्यात्मिक महायोग योगियों की भी समझ में नहीं आता। उसके अनेक प्रकार हैं। उन सबको सम्यक् रूप से स्वयं श्रीहरि ही जानते हैं । रमणीय क्रीडा सरोवर के तट पर कृपानिधान श्रीकृष्ण ने शोकाकुल राधिका को जो आध्यात्मिक योग सुनाया था, उसी का वर्णन करता हूँ, सुनो।

श्रीकृष्ण बोले — प्रिये ! तुम्हें तो पूर्वजन्म की बातों का स्मरण है । अपने-आपको याद करो। क्यों भूली जा रही हो ? गोलोक का सारा वृत्तान्त और सुदामा का शाप क्या तुम्हें याद नहीं है ? महाभागे ! उस शाप के कारण कुछ दिनों तक मुझसे तुम्हारा वियोग रहेगा। शाप की अवधि समाप्त होने पर फिर हम दोनों का मिलन होगा। फिर मैं गोलोकवासी गोपों और गोपाङ्गनाओं के साथ अपने परमधाम गोलोक को चलूँगा। इस समय मैं तुमसे कुछ आध्यात्मिक ज्ञान की बातें कहता हूँ, सुनो। यह सारभूत ज्ञान शोक का नाशक, आनन्दवर्धक तथा मन को सुख देनेवाला है । मैं सबका अन्तरात्मा और समस्त कर्मों से निर्लिप्त हूँ। सब में सर्वत्र विद्यमान रहकर भी कभी किसी के दृष्टिपथ में नहीं आता हूँ। जैसे वायु सर्वत्र सभी वस्तुओं में विचरती है, किंतु किसी से लिप्त नहीं होती; उसी प्रकार मैं समस्त कर्मों का साक्षी हूँ । उन कर्मों से लिप्त नहीं होता हूँ । सर्वत्र समस्त जीवधारियों में जो जीवात्मा हैं, वे सब मेरे ही प्रतिबिम्ब हैं ।

जीवात्मा सदा समस्त कर्मों का कर्ता और उनके शुभाशुभ फलों का भोक्ता है । जैसे जल के घड़ों में चन्द्रमा और सूर्य के मण्डल का पृथक्-पृथक् प्रतिबिम्ब दिखायी देता है, किंतु उन घड़ों के फूट जाने पर वे सारे प्रतिबिम्ब चन्द्रमा और सूर्य में ही विलीन हो जाते हैं; उसी प्रकार अन्तःकरणरूपी उपाधि के मिट जाने पर समस्त चित् प्रतिबिम्ब-जीव मुझमें ही अन्तर्हित हो जाते हैं । प्रिये ! समयानुसार समस्त जीवधारियों की मृत्यु हो जाने पर जीव मुझसे ही संयुक्त होता है । हम दोनों सदा समस्त जन्तुओं में विद्यमान हैं। सम्पूर्ण जगत् आधेय है और मैं इसका आधार हूँ। आधार के बिना आधेय उसी तरह नहीं रह सकता, जैसे कारण के बिना कार्य । सुन्दरि ! संसार के समस्त द्रव्य नश्वर हैं । कहीं किन्हीं पदार्थों का आविर्भाव अधिक होता है और कहीं कम | कुछ देवता मेरे अंश हैं, कुछ कला हैं, कुछ कला की कला के भी अंश हैं और कुछ उस अंश के भी अंशांश हैं। मेरी अंश-स्वरूपा प्रकृति सूक्ष्मरूपिणी है । उसकी पाँच मूर्तियाँ हैं — सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा, तुम (राधा) और वेदजननी सावित्री । जितने भी मूर्तिधारी देवता हैं, वे सब प्राकृतिक हैं। मैं सबका आत्मा हूँ और भक्तों के ध्यान के लिये नित्य देह धारण करके स्थित हूँ । राधे! जो-जो प्राकृतिक देहधारी हैं, वे प्राकृत प्रलय में नष्ट हो जाते हैं। सबसे पहले मैं ही था और सबके अन्त में भी मैं ही रहूँगा । जैसा मैं हूँ, वैसी ही तुम भी हो। जैसे दूध और उसकी धवलता में कभी भेद नहीं होता, उसी प्रकार निश्चय ही हम दोनों में भेद नहीं है।

प्रारम्भिक सृष्टि में मैं ही वह महान् विराट् हूँ, जिसकी रोमावलियों में असंख्य ब्रह्माण्ड विद्यमान हैं। वह महाविराट् मेरा अंश है और तुम अपने अंश से उसकी पत्नी ‘महती’ हो । बाद की सृष्टि में मैं ही वह क्षुद्र विराट् हूँ, जिसके नाभिकमल से इस विश्व-ब्रह्माण्ड का प्राकट्य हुआ है। विष्णु के रोमकूप में मेरा आंशिक निवास है । तुम्हीं अपने अंश से उस विष्णु की सुन्दरी स्त्री हो । उसके प्रत्येक विश्व में ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवता विद्यमान हैं । वे ब्रह्मा, विष्णु और शिव तथा अन्य ब्रह्माण्डों के ब्रह्मा आदि देवता भी मेरी ही कलाएँ हैं। देवि ! समस्त चराचर प्राणी मेरी कला की अंशांश-कला से प्रकट हुए हैं। तुम वैकुण्ठ में महालक्ष्मी हो और मैं वहाँ चतुर्भुज नारायण हूँ। वैकुण्ठ भी उसी तरह विश्व-ब्रह्माण्ड से बाहर है, जैसे गोलोक । सत्यलोक में तुम्हीं सरस्वती तथा ब्रह्मप्रिया सावित्री हो । शिवलोक में जो मूलप्रकृति ईश्वरी शिवा हैं, वे भी तुमसे भिन्न नहीं हैं, वे दुर्गम संकट का नाश करने के कारण सर्व-दुर्गति-नाशिनी ‘दुर्गा’ कहलाती हैं। वे ही दक्षकन्या सती हैं और वे ही हैं गिरिराज-कुमारी पार्वती । कैलास में सौभाग्यशालिनी पार्वती शिव के वक्षःस्थल पर विराजमान होती हैं । तुम्हीं अपने अंश से सिन्धुकन्या होकर क्षीरसागर में श्रीविष्णु के वक्षःस्थल पर विराजमान होती हो । सृष्टिकाल में मैं ही अपने अंश से ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप धारण करता हूँ तथा तुम लक्ष्मी, शिवा, धात्री एवं सावित्री आदि पृथक्-पृथक् रूप धारण करती हो । गोलोक के रासमण्डल में तुम स्वयं ही सदा रासेश्वरी के पद पर प्रतिष्ठित हो । रमणीय वृन्दावन में वृन्दा तथा विरजा-तट पर विरजा के रूप में तुम्हीं शोभा पाती हो। वही तुम इस समय सुदामा के शाप से पुण्यभूमि भारतवर्ष में आयी हो।

सुन्दरि ! भारतवर्ष और वृन्दावन को पवित्र करना ही तुम्हारे शुभागमन का उद्देश्य है । समस्त लोकों में जो सम्पूर्ण स्त्रियाँ हैं, वे तुम्हारी ही कलांश- कला से प्रकट हुई हैं। जो स्त्री है, वह तुम हो; जो पुरुष है, वह मैं हूँ। मैं ही अपनी कला से अग्निरूप में प्रकट हुआ हूँ और तुम अग्नि की दाहिका शक्ति एवं प्रियपत्नी स्वाहा हो । तुम्हारे साथ रहने पर ही मैं जलाने में समर्थ हूँ, तुम्हारे बिना नहीं । मैं दीप्तिमानों में सूर्य हूँ और तुम्हीं अपनी कला से संज्ञा होकर प्रभा का विस्तार करती हो। तुम्हारे सहयोग से ही मैं प्रकाशित होता हूँ । तुम्हारे बिना मैं दीप्तिमान् नहीं हो सकता। मैं कला से चन्द्रमा हूँ और तुम शोभा तथा रोहिणी हो। तुम्हारे साथ रहकर ही मैं मनोहर बना हूँ; तुम्हारे न होने पर तो मुझमें कोई सौन्दर्य नहीं है । मैं ही अपनी कला से इन्द्र हुआ हूँ और तुम्हीं स्वर्ग की मूर्तिमती लक्ष्मी शची हो। तुम्हारे साथ होने से ही मैं देवताओं का राजा इन्द्र हूँ; तुम्हारे बिना तो मैं श्रीहीन हो जाऊँगा। मैं ही अपनी कला से धर्म हूँ और तुम धर्म की पत्नी मूर्ति हो । यदि धर्म- क्रियारूपिणी तुम साथ न दो तो मैं धर्म-कृत्य के सम्पादन में असमर्थ हो जाऊँ। मैं ही कला से यज्ञरूप हूँ और तुम अपने अंश से दक्षिणा हो। तुम्हारे साथ ही मैं यज्ञफल का दाता हूँ; तुम न हो तो मैं फल देने में कदापि समर्थ न होऊँ । मैं ही अपनी कला से पितृलोक हूँ और तुम अपने अंश से सती स्वधा हो। तुम्हारे सहयोग से ही मैं कव्य (श्राद्ध)-दान में समर्थ होता हूँ; तुम न हो तो मैं उसमें कदापि समर्थ न हो सकूँगा । मैं पुरुष हूँ और तुम प्रकृति हो; तुम्हारे बिना मैं सृष्टि नहीं कर सकता। ठीक वैसे ही, जैसे कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा नहीं बना सकता । तुम सम्पत्तिरूपिणी हो और मैं तुम्हारे साथ उस सम्पत्ति का ईश्वर हूँ । लक्ष्मीस्वरूपा तुमसे संयुक्त होकर ही मैं लक्ष्मीवान् बना हूँ; तुम्हारे न होने से तो मैं सर्वथा लक्ष्मीहीन ही हूँ। मैं कला से शेषनाग हुआ हूँ और तुम अपने अंश से वसुधा हो ।

सुन्दरि ! शस्य तथा रत्नों की आधारभूता तुमको मैं अपने मस्तक पर धारण करता हूँ। तुम कान्ति, शान्ति, मूर्तिमती, सद्विभूति, तुष्टि, पुष्टि, क्षमा, लज्जा, क्षुधा, तृष्णा, परा, दया, निद्रा, शुद्धा, तन्द्रा, मूर्च्छा, संनति और क्रिया हो । मूर्ति और भक्ति तुम्हारी ही स्वरूपभूता हैं । तुम्हीं देहधारियों की देह हो; सदा मेरी आधारभूता हो और मैं तुम्हारा आत्मा हूँ । इस प्रकार हम दोनों एक-दूसरे के शरीर और आत्मा हैं । जैसी तुम, वैसा मैं; दोनों सम — प्रकृति – पुरुषरूप हैं । देवि ! हम में से एक के बिना भी सृष्टि नहीं हो सकती ।

नारद! इस प्रकार परमप्रसन्न परमात्मा श्रीकृष्ण ने प्राणाधिका प्रिया श्रीराधा को हृदय से लगाकर बहुत समझाया बुझाया। फिर वे पुष्प-शय्या पर सो गये ।    ( अध्याय ६७)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद आध्यत्मिक-योगकथनं नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६७ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.