ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 75
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
पचहत्तरवाँ अध्याय
लोकनीति, लोकमर्यादा तथा लौकिक सदाचार से सम्बन्ध रखने वाले विविध विधि-निषेधों का वर्णन, कुसङ्ग और कुलटा की निन्दा, सती और भक्त की प्रशंसा, शिवलिङ्ग-पूजन एवं शिव की महत्ता

नन्दजी की यह बात सुनकर सर्वज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें श्रुति-दुर्लभ आह्निक-कृत्य-सम्बन्धी ज्ञान प्रदान किया ।

श्रीभगवान् बोले — तात ! मैं तुम्हें वह परम अद्भुत ज्ञान प्रदान करता हूँ, जो वेदों में अत्यन्त गोपनीय और पुराणों में अत्यन्त दुर्लभ है, कुलटा स्त्रियाँ मोक्ष-मार्ग के द्वार को ढकने के लिये अर्गलाएँ हैं, भ्रम और माया की सुन्दर भूमियाँ हैं; उन पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये । व्रजराज ! असाध्वी स्त्रियाँ हरि-भक्ति के विरुद्ध होती हैं। वे नाश की बीजरूपा हैं। उन पर विश्वास करना कदापि उचित नहीं है।

प्रतिदिन प्रातःकाल उठ कर रात में पहने हुए कपड़ों को त्याग दे और हृदय-कमल में इष्टदेव का तथा ब्रह्मरन्ध्र में परम गुरु का चिन्तन करे । मन-ही-मन उनका चिन्तन करके प्रातः कालिक कृत्य पूर्ण करने के पश्चात् बुद्धिमान् पुरुष निश्चय ही निर्मल जल में स्नान करे । कर्म का उच्छेद करने वाला भक्त कोई कामना या संकल्प नहीं करता । वह स्नान करके भगवान् का स्मरण करता और संध्या करके घर को लौट जाता है। दरवाजे पर दोनों पैर धोकर वह घर में प्रवेश करे और धुले हुए दो वस्त्र ( धोती-चादर ) धारण करके मोक्ष के कारण-भूत मुझ परमात्मा का ही पूजन करे ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

शालग्राम, मणि, यन्त्र, प्रतिमा, जल, ब्राह्मण, गौ तथा गुरु में सामान्य रूप से मेरी स्थिति मानकर इनमें कहीं भी मेरी पूजा करनी चाहिये । कलश में, अष्टदल कमल में तथा चन्दन-निर्मित पात्र में भी मेरी पूजा की जा सकती है। सर्वत्र पूजन के समय आवाहन करे; परंतु शालग्राम शिला में और जल में पूजा करनी हो तो आवाहन न करे । मन्त्र के अनुरूप ध्यान का श्लोक पढ़कर मेरा ध्यान करने के पश्चात् व्रती पुरुष षोडशोपचार की सामग्री क्रमशः अर्पित करे और भक्ति-भाव से मूलमन्त्र द्वारा पूजा करे। मेरे साथ ही प्रथम आवरण में श्रीदामा, सुदामा, वसुदामा, वीरभानु और शूरभानु इन पाँच गोपों का पूजन करे । तत्पश्चात् सुनन्द, नन्द, कुमुद और सुदर्शन इन पार्षदों का; लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, राधा, गङ्गा और पृथ्वी इन देवियों का; गुरु, तुलसी, शिव, कार्तिकेय और विनायक का तथा नवग्रहों और दस दिक्पालों का सब दिशाओं में विद्वान् पुरुष पूजन करे।

सबसे पहले विघ्न निवारण के लिये गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और पार्वती इन छः देवताओं का पूजन करना चाहिये। ये वेदोक्त देवता कर्म-बन्धन को काटने वाले और मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। विघ्नों के नाश के लिये गणेश का, रोग-निवारण के लिये सूर्य का, अभीष्ट की प्राप्ति तथा अन्तःकरण की शुद्धि के लिये अग्नि का, मोक्ष के निमित्त विष्णु का, ज्ञान-दान के लिये शिव का तथा बुद्धि और मुक्ति के लिये विद्वान् पुरुष पार्वती का पूजन करे। तीन बार पुष्पाञ्जलि देकर उन-उन देवताओं के स्तोत्र और कवच का पाठ करे । गुरु का वन्दन और पूजन करने के पश्चात् देवता को प्रणाम करे । नित्यकर्म करके देव-पूजन के पश्चात् सुखपूर्वक यथा प्राप्त कार्य करने का विधान है । यह नित्यकर्म वेदवर्णित है। इसका अनुष्ठान करने वाले पुरुष की आत्मशुद्धि होती है ।

बुद्धिमान् पुरुष मल-मूत्र, गुप्ताङ्ग, स्त्रियों के अङ्ग, कटाक्ष और हास्य आदि न देखे; क्योंकि ये सब विनाश के बीज हैं। उनका रूप सदा ही विपत्ति का कारण है । दिन में अपनी स्त्री के साथ भी समागम न करे; क्योंकि दिन में स्त्री-सहवास करने से रोगों की उत्पत्ति होती है; नेत्रों और कानों में पीड़ा होती है। जब आकाश में एक ही तारा उगा हो, उस समय उधर नहीं देखना चाहिये; अन्यथा रोगों का भय प्राप्त होता है । यदि उस एक तारे को देख ले तो देवताओं का दर्शन और भगवान्‌ का स्मरण करके सात बार नारदजी का नाम जपे । अस्त के समय सूर्य और चन्द्रमा को न देखे; क्योंकि उस समय उन्हें देखने से रोगों की उत्पत्ति होती है । कृष्णपक्ष में खण्डित चन्द्रमा के उदयकाल में उसे न देखे; अन्यथा रोग होता है । जल में सूर्य और चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब देखने से मनुष्य को शोक की प्राप्ति होती है । पराया मैथुन देखने से भाई का वियोग होता है; इसलिये उसे न देखे। पापी के साथ एक जगह सोना, बैठना, भोजन करना और घूमना-फिरना निषिद्ध है; क्योंकि वह सब नाश का लक्षण है। किसी के साथ बात करने, शरीर को छूने, सोने, बैठने और भोजन करने से उन दोनों के पाप एक-दूसरे में अवश्य संचरित होते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे तेल का बिन्दु पानी में पड़ने से फैल जाता है।

हिंसक जन्तु के समीप न जाय; क्योंकि उसके पास जाना दुःख का कारण होता है। दुष्ट के साथ मेल-जोल न बढ़ावे; क्योंकि वह शोकप्रद होता है । ब्राह्मणों, गौओं तथा विशेषतः वैष्णवों की हिंसा न करे; उनकी हिंसा सर्वनाश का कारण बन जाती है। देवता, देव-पूजक, ब्राह्मण और वैष्णवों के धन का अपहरण न करे; क्योंकि वह धन सर्वनाश का कारण होता है। जो अपने या दूसरे के द्वारा दी हुई ब्राह्मण-वृत्ति का अपहरण करता है; वह साठ हजार वर्षों तक विष्ठा का कीड़ा होता है । ब्राह्मण को देने के लिये जो दक्षिणा संकल्प की जाती है, वह यदि तत्काल न दे दी जाय तो एक रात बीतने पर दूनी, एक मास बीतने पर सौगुनी और दो मास बीतने पर वह सहस्र गुनी हो जाती है। एक वर्ष बीत जाय तो दाता नरक में पड़ता है। यदि दाता न दे और मूर्ख गृहीता न माँगे तो दोनों नरक पड़ते हैं । दाता रोगी होता है । ब्राह्मणों की हिंसा करने से अवश्य ही वंश की हानि होती है। हिंसक मनुष्य धन और लक्ष्मी को खोकर भिखमंगा हो जाता है। देवता और ब्राह्मण को देखकर जो मस्तक नहीं झुकाता, वह शोक का भागी होता है । जो गुरु प्रति भक्तिभाव नहीं रखता, उसे रौरव नरक का कष्ट भोगना पड़ता है।

जो दुराचारिणी मूढा स्त्री साक्षात् श्रीहरिस्वरूप अपने पति की ओर नहीं देखती, उलटे उसे डाँट बताती है; वह निश्चय ही कुम्भीपाक में जाती है। वाणी द्वारा डाँट बताने के कारण वह कौए की योनि में जन्म लेती है। हिंसा करने से सूकरी होती है । क्रोध करने से सर्पिणी और दर्प दिखाने से गर्दभी होती है। कुवाक्य बोलने से कुक्कुरी और विष देने से अन्धी होती है । पतिव्रता स्त्री निश्चय ही पति के साथ वैकुण्ठ-धाम में जाती है। जो मूढ़ शिव, पार्वती, गणेश, सूर्य, ब्राह्मण, वैष्णव तथा विष्णु की निन्दा करता है; वह महारौरव नामक नरक में गिरता है । पिता, माता, पुत्र, सती पत्नी, गुरु, अनाथा स्त्री, बहिन और पुत्री की निन्दा करके मनुष्य नरकगामी होता है। जो क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ब्राह्मणों के प्रति भक्ति-भाव से रहित हैं और भगवद्भक्ति से भी दूर हैं; वे निश्चय ही नरक में पकाये जाते हैं । यही दशा पतिभक्ति से शून्य नराधमा स्त्रियों की होती है ।

ब्राह्मण शालग्राम का चरणामृत पीते और भगवान् विष्णु का प्रसाद खाते हैं वे तीर्थों को भी पवित्र कर देते हैं। अपनी सौ पीढ़ियों को तारते और पृथ्वी को भी उबारते हैं। जो भगवान् विष्णु का प्रसाद ग्रहण करता और मछली-मांस नहीं खाता है; वह निश्चय ही पग-पगपर अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। जो एकादशी और कृष्ण-जन्माष्टमी का व्रत करते हैं, वे सौ जन्मों के किये हुए पाप से मुक्त हो जाते हैं; इसमें संशय नहीं है । बाल्यावस्था, कुमारावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था में भी जो-जो पाप बन गये हैं, वे सब भस्म हो जाते हैं। रोगी, अत्यन्त वृद्ध और बालक के लिये उपवास का नियम नहीं है । भक्त ब्राह्मण को द्विगुण भोजन का दान करके दाता शुद्ध हो जाता है। जो उपवास में समर्थ होकर भी शिवरात्रि तथा श्रीरामनवमी के दिन भोजन करता है; वह महारौरव नरक में पड़ता है। अमावास्या, पूर्णिमा, चतुर्दशी और अष्टमी को स्त्री, तैल तथा मांस का सेवन करने से मनुष्य चाण्डाल-योनि में जन्म लेता है। रविवार को काँस्य-पात्र में भोजन न करे । उस दिन मसूर की दाल, अदरख और लाल रंग का शाक भी न खाय ।

व्रजेश्वर ! जो ब्राह्मण रजस्वला और वेश्या के हाथ का तथा मदिरा-मिश्रित अन्न खा लेता है; वह निश्चय ही मलभोजी जन्तु होता है। वह उस दिन जो सत्कर्म करता है, उसका फल उसे नहीं मिलता। वह सदा अपवित्र रहता है। उसका अशौच उसके मरने के बाद ही समाप्त होता है । जिस स्त्री ने अपने जीवन में चार पुरुषों के साथ समागम कर लिया; उसे वेश्या समझना चाहिये । वह देवताओं और पितरों के लिये भोजन बनाने की अधिकारिणी नहीं है।

जो प्रातःकाल और सायंकाल की संध्योपासना नहीं करता, उसका समस्त द्विजोचित कर्मों से शूद्र की भाँति बहिष्कार कर देना चाहिये । संध्याहीन द्विज नित्य अपवित्र तथा समस्त कर्मों के लिये अयोग्य होता है । वह दिन में जो सत्कर्म करता है; उसका फल उसे नहीं मिलता। राममन्त्र से हीन ब्राह्मण नरक में पड़ता है। नदी के बीच में, गड्ढे, वृक्ष की जड़ में, पानी के निकट, देवता के समीप और खेती से भरी हुई भूमि पर समझदार मनुष्य मल-त्याग न करे। बाँबी से निकली हुई, चूहे की खोदी हुई, पानी के भीतर से निकाली हुई, शौच से बची हुई और घर के लीपने से प्राप्त हुई मिट्टी को शौच के काम में न ले । जिस मिट्टी में चींटी आदि प्राणी हों, उसे भी शौच के काम में न ले । व्रजेश्वर ! हल चलाने से उखड़ी हुई, पौधों के थाले से निकाली हुई, जिस खेत में खेती लहलहा रही हो उसकी मिट्टी, वृक्ष की जड़ से खोदकर ली हुई मिट्टी तथा नदी के पेटे से निकाली हुई मृत्तिका — इन सबको शौच के काम में त्याग देना चाहिये ।

कुम्हड़ा काटने या फोड़ने वाली स्त्री और दीपक बुझाने वाले पुरुष कई जन्मों तक रोगी होते हैं और जन्म-जन्म में दरिद्र रहते हैं । दीपक, शिवलिङ्ग, शालग्राम, मणि, देवप्रतिमा, यज्ञोपवीत, सोना और शङ्ख — इन सबको भूमि पर न रखे। दिन में और दोनों संध्याओं के समय जो नींद लेता या स्त्री-सहवास करता है, वह कई जन्मों तक रोगी और दरिद्र होता है। मिट्टी, राख, गोबर — इसके पिण्ड से या बालू से भी शिवलिङ्ग का निर्माण करके एक बार उसकी पूजा कर लेने वाला पुरुष सौ कल्पों तक स्वर्ग में निवास करता है । सहस्र शिवलिङ्गों के पूजन से मनुष्य को मनो-वाञ्छित फल की प्राप्ति होती है और जिसने एक लाख शिवलिङ्गों की पूजा कर ली है, वह निश्चय ही शिवत्व को प्राप्त होता है। जो ब्राह्मण शिवलिङ्ग की पूजा करता है, वह जीवन्मुक्त होता है और जो शिवपूजा से रहित है, वह ब्राह्मण नरकगामी होता है। जो मनुष्य मेरे द्वारा पूजित प्रियतम शिव की निन्दा करते हैं, वे सौ ब्रह्माओं की आयुपर्यन्त नरक की यातना भोगते हैं । समस्त प्रियजनों में ब्राह्मण मुझे अधिक प्रिय हैं । ब्राह्मण से अधिक शंकर प्रिय हैं। मेरे लिये शंकर से बढ़कर दूसरा कोई प्रिय नहीं है । ‘महादेव, महादेव, महादेव’ – इस प्रकार बोलने वाले पुरुष के पीछे-पीछे मैं नाम श्रवण के लोभ से फिरता रहता हूँ। शिव नाम सुनकर मुझे बड़ी तृप्ति होती है । मेरा मन भक्त के पास रहता है । प्राण राधामय हैं, आत्मा शंकर हैं । शंकर मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं, जो सृष्टि, पालन और संहार करने वाली आद्या नारायणी शक्ति है, जिसके द्वारा मैं सृष्टि करता हूँ, जिससे ब्रह्मा आदि देवता उत्पन्न होते हैं, जिसका आश्रय लेने से जगत् विजयी होता है, जिससे सृष्टि चलती है और जिसके बिना संसार का अस्तित्व ही नहीं रह सकता; वह शक्ति मैंने शिव को अर्पित की है। ( अध्याय ७५ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद भसवन्नन्दसंवाद पञ्चसप्ततितमोध्यायः ॥ ७५ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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