ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 81
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
इक्यासीवाँ अध्याय
ब्रह्मा व शिव द्वारा शुक्र को समझाना, तारा द्वारा पुत्र जन्म तथा गुरु के साथ जाना

श्रीकृष्ण बोले — इसी बीच शुक्र ने आकाशमार्ग से आती हुई देव-सेना को देखा, जो युद्ध के शस्त्रास्त्र धारण किये थी । उस सेना में तीन करोड़ पताकाएँ, सौ करोड़ महारथ, सौ करोड़ गजेन्द्र, उसके चौगुने रथ, उसके सौगुने अति भीषण घोड़ों के समूह और घोड़ों के छहगुने अधिक पैदल चलने वालों का समूह था । पाँच लाख दुन्दुभी आदि वाद्य भाण्ड, तीन लाख ढोल और दो लाख डिंडिम वाद्य थे । ऐरावत पर महेन्द्र, श्वेत घोड़े पर धर्म तथा कुबेर, वरुण, अग्नि और पवन रथ पर बैठे थे । भैंसे पर यमराज, रथ पर सूर्य वृषेन्द्र पर महादेव और नाग पर अनन्त स्थित थे । आदित्यगण, वसुगण, रुद्रगण, सिद्ध, गन्धर्व, किन्नर एवं सूर्य के समान तेजस्वी और जीवन्मुक्त मुनियों के वृन्द थे ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

हे व्रजेश्वर ! उन देव सेनाओं को देखकर शुक्र निर्भय रहे और चन्द्रमा को आश्वासन (धेर्य ) देकर देवों की सेना से दुगुनी सेना बुलायी । दैत्यों की सेना पुण्य क्षीरसागर के तट के समीप रत्नमाला नदी के किनारे अग्निप्रिया के आश्रम में आकर ठहर गयी ।

इसी समय शुक्र ने समीपवाले सरोवर के तट पर स्थित पुण्याश्रम वाले अक्षयवटों के नीचे ठहरी हुई देव सेना में से आये हुए शिव जी को देखा, जो वृष (बैल) पर स्थित समस्तकल्याणकारी, त्रिशूल और पट्टिश अस्त्र लिये, बाघम्बर पहने, परम तेजः स्वरूप, भक्तों के अनुग्रहार्थ देह धारण करने वाले, सम्पूर्ण सम्पत्ति के प्रदाता, सर्वज्ञ, सबके कारण, सबके ईश्वर, सर्वपूज्य, सर्वरूप, सनातन, शरण में आये दीन दुःखियों की रक्षा करने में तत्पर रहने वाले, मन्दहासयुक्त, परमात्मा एवं ब्रह्मतेज से प्रज्वलित थे ।

शुक्र घबड़ाकर सहसा उठे और उनके चरण कमल में सादर प्रणाम किया । अत्यन्त प्रसन्न होकर परात्पर भगवान् शिव ने उन्हें शुभाशिष प्रदान किया । पुनः शुक्र ने उन्हें सादर रत्न-सिहासन पर सुखासीन कराया । हे विप्र ! उसी बीच शुक्र ने सामने ब्रह्मा को देखा, जो शान्त स्वयं विधाता, रत्न के सुन्दर रथ पर स्थित, अग्नि विशुद्ध वस्त्र पहने, रत्नमाला से भूषित, प्रसन्न, मन्दहास-युक्त, शुद्ध जगत् के परम ईश्वर, कर्मों के फलदाता, तपस्विजनों के तपः स्वरूप, वेदों के जनक, वेदों के उत्पत्ति-स्थान, कान्त और मनोहर थे । त्रस्त शुक्र ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और भक्तिपूर्वक रमणीक रत्न-सिहासन पर सुरेश्वर को बैठाया । शुक्र ने बड़ी भक्ति से उन दोनों देवों के चरण-कमल की पूजा की और कल्याणस्वरूप होने के कारण उन दोनों से कुशल प्रश्न करना उचित नहीं समझा । अनन्तर जगद्विधाता ब्रह्मा ने शिव की सम्मति से सामने स्थित शुक्राचार्य से यत्नपूर्वक सुनीति कहना आरम्भ किया ।

ब्रह्मा बोले — हे सुत शुक्र ! सुनो, चन्द्रमा की दुर्नीति बताता हूँ, जो तीनों लोक में लज्जा-कारक और वेद-विरुद्ध कर्म है । स्नान करके गृहगमन के लिए तैयार गुरु-पत्नी पतिव्रता तारा को बलात् अपनाकर यह पापी तुम्हारी शरण में रह रहा है । हे वत्स ! देखो, देवों की सेनाएँ इसीलिए युद्ध करने के लिए तैयार हैं । उसी निमित्त हम और शिव जी तुम्हारे यहाँ आये हैं ।

शम्भु बोले — हे विप्र ! यदि अपना कल्याण चाहते हो, तो चन्द्रमा को शीघ्र यहाँ उपस्थित करो । मैं इस त्रिशूल द्वारा उस पापी का सिर अलग करूंगा अन्यथा क्षणमात्र में सम्पूर्ण दैत्यों का संहार कर दूंगा, क्योंकि हे द्विज ! मेरे रुष्ट हो जाने पर दैत्यों की रक्षा कौन कर सकता है ? मैं अभी पाशुपत् और वायु अस्त्र द्वारा देवों के शत्रुओं का लीलापूर्वक संहार कर दूंगा ।

अङ्गिरा मुनि मेरे अंश से उत्पन्न होने वाले दुर्वासा के गुरु हैं । परस्पर के सम्बन्ध से बृहस्पति मेरे गुरुपुत्र हैं । तेजस्वी गुरु ही चन्द्रमा को भस्म कर सकते हैं, किन्तु प्रिय शिष्य होने के कारण कृपालुतावश उन्होंने वैसा नहीं किया । पूर्वकाल में बृहस्पति ने ( अपने ज्येष्ठ भ्राता) उतथ्य की पत्नी को देखते ही कामातुर होकर उसके साथ रमण किया था । इसीलिए उसके पति उतथ्य के शापवश इनकी प्रिय पत्नी दूसरे से ग्रस्त हो गयी । मेरे गुरुपुत्र की मनोहर भार्या तारा तथा भ्राता की पत्नी का अपहरण करने वाले मेरे वैरी चन्द्रमा को भी सौंप दो । समर्थ पुरुष यदि शरण में प्राप्त दीन-दुःखी की रक्षा नहीं करता है, तो चौदह इन्द्रों के समय तक उसे नरक में पचना पड़ता है। यहाँ अत्यन्त पापी के शरणागत होने पर मुझे उसका कुछ भी विचार नहीं करना है, क्योंकि पापी जिसकी शरण में जाता है वह भी पापी है, इसमें संशय नहीं । विप्रवर ! पतिव्रता तारा समेत उस मातृगामी पापी को अपने आश्रम से बाहर करके सौंप दो ।

शुक्र बोले — देवों, असुरों एवं समस्त जगत् के तुम्हीं शासन करनेवाले भगवान् हो । देवों और असुरों पर अन्य और कौन शासन कर सकता है ? इसलिए देवों की सहायता करते हुए आप दैत्यों का संहार क्यों करेंगे ? आप समस्त जगत् के संहार करनेवाले हैं तो केवल दैत्य-समूहों पर क्या पौरुष दिखायेंगे । तुम ज्योतिःस्वरूप एवं स्वयं सगुण, निर्गुण, परब्रह्म हो । ( सत्त्वादि ) गुण-भेद के कारण ब्रह्मा, विष्णु और शिव रूप में प्रकट होकर तुम मूर्ति-भेद बनाये हुए हो । हे प्रभो ! बलि के दरवाजे पर गदा हाथ में लिये आप ही खड़े रहते हैं, तथा इन्द्र को और बलि को भी स्वयं आपने ही लीलापूर्वक राज्यलक्ष्मी प्रदान की है । हे भगवन् ! हे शम्भो ! हे हर ! आप क्रोध त्याग दें । ब्राह्मण की हिंसा करके आप कौन-सा पौरुष दिखलायेंगे ? मैं इस शरीर से जीवित रहते हुए उस चन्द्रमा को नहीं दे सकूंगा, जो मेरी शरण में प्राप्त, दीन, दु.खी, लज्जित और पापी हो गया है । इसलिए हे शङ्कर ! मैं तुम्हारे चरण कमल की शरण में हूँ । हे विभो ! आपको जैसा उचित समझ पड़े, करें आपके अधीन में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जगत् है ।

शुक्र की बात सुनकर भगवान् शिव ने कहा — ( शुक्र ! ) निशानाथ चन्द्रमा को यहां लाओ। आने पर उसका कल्याण ही होगा ।

हे व्रज ! इस बीच अधीश्वर ब्रह्मा ने कवि शुक्र को समझा-बुझाकर तारा समेत चन्द्रमा को लाकर शिव के चरण कमल में समर्पित कर दिया। शिव ने बड़े प्रेम से चन्द्रमा को अपने हृदय से लगा लिया । फिर उन्होंने अपना चरण रज देकर चन्द्रमा को निष्पाप कर दिया । कृपालु शिव ने उसके मस्तक पर हाथ फेरकर अभय प्रदान किया। पश्चात् शिव और ब्रह्मा ने प्रायश्चित्त के निमित्त चन्द्रमा को क्षीरसागर में स्नान कराकर एकदम उन्हें पापरहित एवं पवित्र कर दिया । अनन्तर योगीन्द्र शिव ने योग द्वारा चन्द्रमा को दो खण्डों में विभक्त करके एक खण्ड को ब्रह्मा के सामने ही अपने ललाट पर रख लिया । अतएव महादेव तभी से चन्द्रशेखर कहे जाने लगे । और दूसरा खण्ड, जिसमें मृग का चिह्न अङ्कित है, कलङ्की होने के नाते वहाँ देवों के बीच लज्जित होने लगा ।

उपरान्त उसने योग द्वारा अपनी देह का त्याग कर दिया और ब्रह्मा ने इस शरीर को क्षीरसागर में डाल दिया । यह देखकर वहाँ क्षीरसागर के तट पर स्थित अत्रिमुनि करुणावश रोदन करने लगे । हे व्रज ! अत्रिमुनि के नेत्रों का जल क्षीरसागर के जल में ज्यों पड़ा, उसी क्षण चन्द्रमा पापरहित हो गये । अनन्तर भगवान् शिव और ब्रह्मा ने चन्द्रमा का अभिषेक किया तथा महादेव जी ने देवों की सभा में उस निर्भय चन्द्रमा से कहा ।

महादेव बोले — हे पुत्र ! अब तुम अपने घर जाओ और सहर्ष विषय का उपभोग करो । पश्चात् तुम्हें तारा के शापवश यक्ष्मा से पीड़ित होना पड़ेगा । भूतल में पतिव्रता का शाप व्यर्थ करने में कौन समर्थ हो सकता है ? किन्तु मेरे आशीर्वाद से तुम्हारे यक्ष्मा (रोग) का भी प्रतीकार हो जायगा । हे वत्स ! भादों चतुर्थी में तुमने गुरुपत्नी (तारा) को क्षति पहुंचायी है, इसलिए प्रत्येक युग में उस दिन तुम पापदृश्य (देखने से पापप्रद) रहोगे । क्योंकि सैकड़ों करोड़ कल्पों के बीत जाने पर भी बिना भोग किये कर्म नष्ट नहीं होता है । इसलिए अपना किया हुआ शुभ (पुण्य) – अशुभ (पाप) कर्म भोगना पड़ता है । हे वत्स ! देह त्याग करने से भी कर्म-भोग नष्ट नहीं होता है, किन्तु प्रायश्चित्त करने से वह निःसन्देह नष्ट हो जाता है । हे वत्स ! तारा का अपहरण करने के फलस्वरूप चन्द्रमा में मृग के आकार का कलङ्क प्रत्येक युग में लगा रहेगा ।

फिर तारा से कहा — पतिव्रते, यहाँ आओ, बात सुनो। सच बोलो, यह गर्भ किसका है । इसे त्यागकर शुद्ध हो जाओ । न चाहती हुई पतिव्रता स्त्री जार पुरुष द्वारा बलपूर्वक भोगी जाने पर दूषित नहीं होती है और चाह के साथ उपभोग कराने पर उसे चन्द्र-सूर्य के समय तक नरक में निवास करना पड़ता है ।

तारा ने ब्रह्मा से कहा — यह गर्म चन्द्रमा का है । इसे सुनकर सभी देवगण, शिव और मुनि वृन्द हँसने लगे । हे व्रजेश्वर ! लज्जित बृहस्पति को ब्रह्मा ने तारा सौंप दी । गुरु इस पतिव्रता को साथ लिये अपने घर चले गये । तारा ने उसी स्थान पर पुत्र प्रसव भी किया था, जो सुन्दर एवं सुवर्ण के समान कान्तिमान् था । उसे चन्द्रमा ने अपना लिया और शिव तथा ब्रह्मा को नमस्कार करके बालक को लेकर अपने घर चले गये । अनन्तर देवलोग, मुनि-समूह, शिव और ब्रह्मा भी अपने-अपने घर चले गये तथा शुक्र भी दैत्यों समेत प्रसन्न चित्त से अपने घर गये ।

हे नन्द ! इस प्रकार पुण्यप्रद और शुभ यह आख्यान तुम्हें सुना दिया, जिसे सुनकर मनुष्य निष्पाप और निष्कलङ्क होता है । यह ( आख्यान ) धन्य, यशस्वी, आयुवर्धक, समस्त सम्पत्तिदायक, शोकनाशक, हर्षकारक और सर्वत्र मङ्गलमय है ।

अतः हे व्रजेश्वर नन्द ! शोक त्याग दो, घर जाओ और मेरी जननी यशोदा समेत समस्त गोपियों से यह सब कहो । फिर सभी शोकाकुल स्त्रियों को समझाना और स्वयं मेरे दिये हुए ज्ञान द्वारा सदा प्रसन्न रहना ।  (अध्याय ८१ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद भगवन्नन्दसंवाद ताराहरणं नामैकाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८१ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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