March 8, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 88 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) अट्ठासीवाँ अध्याय श्रीकृष्ण का नन्द को दुर्गा स्तोत्र सुनाना तथा व्रज लौट जाने का आदेश देना, नन्द का श्रीकृष्ण से चारों युगों के धर्म का वर्णन करने के लिये प्रार्थना करना श्रीकृष्ण ने कहा — हे तात! चेत करो । पिताजी! होश में आ जाओ। अरे! चराचर सहित यह सारा संसार जल के बुलबुले की भाँति क्षण-ध्वंसी है; अतः महाभाग ! मोह त्याग दो और उन महाभागा माया की – जो परात्परा, ब्रह्मस्वरूपा, परमोत्कृष्टा, सम्पूर्ण मोह का उच्छेद करने वाली, मुक्ति-प्रदायिनी और सनातनी विष्णुमाया हैं – स्तुति करो। नन्दजी ! त्रिपुर-वध के समय भयंकर महायुद्ध में भयभीत होने पर शम्भु ने जिस स्तोत्र द्वारा स्तवन करके महामाया के प्रभाव से त्रिपुरासुर का वध किया था, वह स्तोत्रराज, जो सारे अज्ञान का उच्छेदक और सम्पूर्ण मनोरथों का पूरक है; मैं आपको इस सभा में प्रदान करूँगा, सुनिये । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय श्रीनन्दजी बोले — जगदीश्वर ! तुम वेदों के उत्पादक, निर्गुण और परात्पर हो; अतः भक्तवत्सल ! मनुष्यों के सम्पूर्ण विघ्नों के विनाश, दुःखों के प्रशमन, विभूति, यश और मनोरथ – सिद्धि के लिये दुर्गति-नाशिनी जगज्जननी महादेवी का वह परम दुर्लभ, गोपनीय, परमोत्तम एकमात्र स्तोत्र मुझ विनीत भक्त को अवश्य प्रदान करो । श्रीभगवान् ने कहा — वैश्येन्द्र ! पूर्वकाल में नारायण के उपदेश तथा ब्रह्मा की प्रेरणा से युद्ध से भयभीत हुए भगवान् शंकर ने जिसके द्वारा स्तवन किया था और जो मोह-पाश को काटने वाला है; उस परम अद्भुत स्तोत्र का वर्णन करता हूँ, सुनो। नारायण ने शिव को शत्रु के चंगुल में फँसा देखकर यह स्तोत्र ब्रह्मा को बतलाया; तब ब्रह्मा ने रणक्षेत्र में रथ पर पड़े हुए शिव को बतलाते हुए कहा — ‘शंकर ! शूरवीरों द्वारा प्राप्त हुए संकट की शान्ति के लिये तुम उन दुर्गतिनाशिनी दुर्गा का — जो आद्या, मूलप्रकृति और ब्रह्मस्वरूपिणी हैं – स्तवन करो। सुरेश्वर ! यह मैं तुमसे श्रीहरि की प्रेरणा से कह रहा हूँ; क्योंकि शक्ति की सहायता के बिना कौन किसको जीत सकता है ?’ ब्रह्मा की बात सुनकर शंकर ने स्नान करके धुले हुए वस्त्र धारण किये, फिर चरणों को धोकर हाथ में कुश ले आचमन किया। इस प्रकार पवित्र हो भक्तिपूर्वक सिर झुकाकर और अञ्जलि बाँधकर वे विष्णु का ध्यान करते हुए दुर्गा का स्मरण करने लगे । ॥ श्री शिव कृत दुर्गा स्तोत्रं ॥ ॥ महादेव उवाच ॥ रक्ष रक्ष महादेवि दुर्गे दुर्गतिनाशिनि । मां भक्तमनुरक्तं च शत्रुग्रस्ते कृपामयि ॥ १५ ॥ विष्णुमाये महाभागे नारायणि सनातनि । ब्रह्मस्वरूपे परमे नित्यानन्दस्वरूपिणि ॥ १६ ॥ त्वं च ब्रह्मादिदेवानामम्बिके जगदम्बिके । त्वं संहारे च गुणतो निराकारे च निर्गुणात् ॥ १७ ॥ मायया पुरुषस्त्वं च मायया प्रकृतिः स्वयम् । तयोः परं ब्रह्म परं त्वं बिभर्षि सनातनि ॥ १८ ॥ वेदानां जननी त्वं च सावित्री च परात्परा । वैकुण्ठे च महालक्ष्मीः सर्वमंपत्स्वरूपिणी ॥ १९ ॥ मर्त्यलक्ष्मीश्च क्षीरोदे कामिनी शेषशायिनः । स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीस्त्वं राजलक्ष्मीश्च भूतले ॥ २० ॥ नागादिलक्ष्मीः पाताले गृहेषु गृहदेवता । सर्वसस्यस्वरूपा त्वं सर्वैश्वर्यविधायिनी ॥ २१ ॥ रागाधिष्ठातृदेवी त्वं ब्रह्मणश्च सरस्वती । प्राणानामधिदेपी त्वं कृष्णस्य परमात्मनः ॥ २२ ॥ गोलोके च स्वयं राधा श्रीकृष्णस्यैव वक्षसि । गोलोकाधिष्ठिता देवी दृन्दा दृन्दावने वने ॥ २३ ॥ श्रीरासमण्डले रम्या वृन्दावनविनोदिनी । शतशृङ्गाधिदेवी त्वं नाम्ना चित्रावलीति च ॥ २४ ॥ दक्षकन्या कुत्रकल्पे कुत्रकल्पे च शैलजा । देवमाताऽदितिस्त्वं च सर्वाधारा वसुंधरा ॥ २५ ॥ त्वमेव गङ्गा तुलसी त्वं च स्वाहा सती । त्वदंशांशांशकलया सर्वदेवादियोषितः ॥ २६ ॥ स्त्रीरूपं चातिपुंरूपं देवि त्वं च नपुंसकम् । वृक्षाणां वृङरूपा त्वं सृष्टा चाङ्कुररूपिणी ॥ २७ ॥ वह्नौ च दाहिका शक्तिर्जले शैत्यस्वरूपिणी । सूर्ये तेजः स्वरूपा च प्रभारूपा च संततम् ॥ २८ ॥ गन्धरूपा च भूमौ च आकाशे शब्दरूपिणी । शोभास्वरूपा चन्द्रे च पद्मसंघे च निश्चितम् ॥ २९ ॥ सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा च पालने परिपालिका । महामारी च संहारे जले च जलरूपिणी ॥ ३० ॥ क्षुत्तवं दया त्वं निद्रा त्वं तृष्णा त्वं बुद्धिरूपिणी । तुष्टिस्त्वं चापि पुष्टिस्त्वं श्रद्धास्त्वं च क्षमा स्वयम् ॥ ३१ ॥ शान्तिस्त्वं च स्वयं भ्रान्तिः कान्तिस्तवं कीर्तिरेव च । लज्जा त्वं च तथा माया भुक्ति-सुक्तिस्वरूपिणी ॥ ३२ ॥ सर्वशक्तिस्वरूपा त्वं सर्वसंबत्प्रदायिनी । वेदेऽनिर्वचनीया त्वं त्वां न जानाति कश्चन ॥ ३३ ॥ सहस्र वक्त्रस्त्वां स्तोतुं न च शक्तः सुरेश्वरि । वेदा न शक्ताः को विद्वान्न च शक्ता सरस्वती ॥ ३४ ॥ स्वयं विधाता शक्तो न न च विष्णुः मनातनः । किं स्तौमि पञ्चवक्त्रैस्तु रणत्रस्तो महेश्वरि ॥ ३५ ॥ कृपां कुरु महामाये मम शत्रुक्षयं कुरु । इत्युक्त्वा च सकरुणं रथस्थे पतिते रणे ॥ ३६ ॥ आविर्बभूव सा दुर्गा सूर्यकोटिसमप्रभा । नारायणेन कृपया प्रेरिता परमात्मना ॥ ३७ ॥ शिवस्य पुरतः शीघ्रं शिवाय च जयाय च । इत्युवाच महादेवी मायाशक्त्याऽसुरं जहि ॥ ३८ ॥ श्रीमहादेवजी ने कहा — दुर्गति का विनाश करने वाली महादेवि दुर्गे ! मैं शत्रु के चंगुल में फँस गया हूँ; अतः कृपामयि! मुझ अनुरक्त भक्त की रक्षा करो, रक्षा करो। महाभागे जगदम्बिके ! विष्णुमाया, नारायणी, सनातनी, ब्रह्मस्वरूपा, परमा और नित्यानन्दस्वरूपिणी — ये तुम्हारे ही नाम हैं। तुम ब्रह्मा आदि देवताओं की जननी हो । तुम्हीं सगुण रूप से साकार और निर्गुण-रूप से निराकार हो । सनातनि ! तुम्हीं माया के वशीभूत हो पुरुष और माया से स्वयं प्रकृति बन जाती हो तथा जो इन पुरुष – प्रकृति से परे है; उस परब्रह्म को तुम धारण करती हो। तुम वेदों की माता परात्परा सावित्री हो । वैकुण्ठ में समस्त सम्पत्तियों की स्वरूपभूता महालक्ष्मी, क्षीरसागर में शेषशायी नारायण की प्रियतमा मर्त्यलक्ष्मी, स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी और भूतल पर राजलक्ष्मी तुम्हीं हो। तुम पाताल में नागादिलक्ष्मी, घरों में गृहदेवता, सर्वशस्यस्वरूपा तथा सम्पूर्ण ऐश्वर्यों का विधान करने वाली हो। तुम्हीं ब्रह्मा की रागाधिष्ठात्री देवी सरस्वती हो और परमात्मा श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिदेवी भी तुम्हीं हो। तुम गोलोक में श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर शोभा पाने वाली गोलोक की अधिष्ठात्री देवी स्वयं राधा, वृन्दावन में होने वाले रासमण्डल में सौन्दर्यशालिनी वृन्दावनविनोदिनी तथा चित्रावली नाम से प्रसिद्ध शतशृङ्ग पर्वत की अधिदेवी हो। तुम किसी कल्प में दक्ष की कन्या और किसी कल्प में हिमालय की पुत्री हो जाती हो। देवमाता अदिति और सबकी आधारस्वरूपा पृथ्वी तुम्हीं हो। तुम्हीं गङ्गा, तुलसी, स्वाहा, स्वधा और सती हो । समस्त देवाङ्गनाएँ तुम्हारे अंशांश की अंशकला से उत्पन्न हुई हैं। देवि ! स्त्री, पुरुष और नपुंसक तुम्हारे ही रूप हैं। तुम वृक्षों में वृक्षरूपा हो और अंकुर-रूप से तुम्हारा सृजन हुआ है। तुम अग्नि में दाहिका शक्ति, जलमें शीतलता, सूर्यमें सदा तेज: स्वरूप तथा कान्तिरूप, पृथ्वी में गन्धरूप, आकाश में शब्दरूप, चन्द्रमा और कमल समूह में सदा शोभारूप, सृष्टि में सृष्टिस्वरूप, पालन-कार्य में भली-भाँति पालन करने वाली, संहारकाल में महामारी और जल में जलरूप से वर्तमान रहती हो। तुम्हीं क्षुधा, तुम्हीं दया, तुम्हीं निद्रा, तुम्हीं तृष्णा, तुम्हीं बुद्धिरूपिणी, तुम्हीं तुष्टि, तुम्हीं पुष्टि, तुम्हीं श्रद्धा और तुम्हीं स्वयं क्षमा हो । तुम स्वयं शान्ति, भ्रान्ति और कान्ति हो तथा कीर्ति भी तुम्हीं हो। तुम लज्जा तथा भोग- मोक्ष-स्वरूपिणी माया हो। तुम सर्वशक्तिस्वरूपा और सम्पूर्ण सम्पत्ति प्रदान करने वाली हो। वेद में भी तुम अनिर्वचनीय हो, अतः कोई भी तुम्हें यथार्थरूप से नहीं जानता । सुरेश्वरि ! न तो सहस्र मुख वाले शेष तुम्हारा स्तवन करने में समर्थ हैं, न वेदों में वर्णन करने की शक्ति है और न सरस्वती ही तुम्हारा बखान कर सकती हैं; फिर कोई विद्वान् कैसे कर सकता है ? महेश्वरि ! जिसका स्तवन स्वयं ब्रह्मा और सनातन भगवान् विष्णु नहीं कर सकते, उसकी स्तुति युद्ध से भयभीत हुआ मैं अपने पाँच मुखों द्वारा कैसे कर सकता हूँ? अतः महामाये! तुम मुझ पर कृपा करके मेरे शत्रु का विनाश कर दो। करुणासहित यों कहकर रणक्षेत्र में शिवजी के रथ पर गिर जाने पर करोड़ों सूर्यों के समान कान्तिमती दुर्गा प्रकट हो गयीं। उस समय परमात्मा नारायण ने कृपापरवश हो उन्हें प्रेरित किया था । तब वे महादेवी शीघ्र ही शिव के समक्ष खड़ी हो उनके मङ्गल और विजय के लिये यों बोलीं- ‘शिव! मायाशक्ति का आश्रय लेकर असुर का संहार करो ।’ श्रीदुर्गा ने कहा — शंकर! तुम्हारा कल्याण हो ! तुम्हारे मन में जो इच्छा हो, वह वर माँग लो । चूँकि तुम समस्त देवताओं में श्रेष्ठ हो; अतः मैं तुम्हें विजय प्रदान करूँगी । श्रीमहादेवजी बोले — परमेश्वरि ! तुम आद्या सनातनी शक्ति हो; अतः दुर्गे ! ‘दैत्य का विनाश हो जाय’ – यह मेरा अभीष्ट वर मुझे प्रदान करो । भगवती ने कहा — महाभाग ! तुम तो स्वयं ही भगवान् विधाता और ज्योतिर्मय परमेश्वर हो; अतः जगद्गुरो ! श्रीहरि का स्मरण करो और इस दैत्य को जीत लो । इसी बीच सर्वव्यापी विष्णु ने अपनी एक कला से वृष का रूप धारण किया और शूलपाणि शंकर के उस उग्र रथ को, जिसका पहिया ऊपर उठ गया था, प्रकृतिस्थ कर दिया। तत्पश्चात् उसे अपने सिर पर उठा लिया। उन्होंने शंकर को एक मन्त्रपूत शस्त्र भी प्रदान किया। तब शंकर ने उस शस्त्र को लेकर और विष्णु तथा महेश्वरी दुर्गा का ध्यान करके शीघ्र ही त्रिपुर पर प्रहार किया । उसकी चोट खाकर वह दैत्य भूतल पर गिर पड़ा। उस समय देवताओं ने शंकर का स्तवन किया और उन पर पुष्पों की वर्षा की। दुर्गा ने उन्हें त्रिशूल, विष्णु ने पिनाक और ब्रह्मा ने शुभाशीर्वाद दिया । मुनिगण हर्षमग्न हो गये। सभी देवता हर्षविभोर हो नाचने लगे और गन्धर्व -किन्नर गान करने लगे। तात! इसी अवसर पर अनुपम स्तवराज भी प्रकट हुआ — जो विघ्नों, विघ्नकर्ताओं और शत्रुओं का संहारक, परमैश्वर्य का उत्पादक, सुखद, परम शुभ, निर्वाण – मोक्ष का दाता, हरि-भक्तिप्रद, गोलोक का वास प्रदान करने वाला, सर्वसिद्धिप्रद और श्रेष्ठ है । उस स्तवराज का पाठ करने से पार्वती सदा प्रसन्न रहती हैं । वह मनुष्यों के लोभ, मोह, काम, क्रोध और कर्म के मूल का उच्छेदक, बल – बुद्धिकारक, जन्म-मृत्यु का विनाशक, धन, पुत्र, स्त्री, भूमि आदि समस्त सम्पत्तियों का प्रदाता, शोक – दुःख का हरण करने वाला, सम्पूर्ण सिद्धियों का दाता तथा सर्वोत्तम है। इस स्तोत्रराज के पाठ से महावन्ध्या भी प्रसविनी हो जाती है, बँधा हुआ बन्धन-मुक्त हो जाता है, दुःखी निश्चय ही भय से छूट जाता है, रोगी का रोग नष्ट हो जाता है, दरिद्र धनी हो जाता है तथा महासागर में नाव के डूब जाने पर एवं दावाग्नि के बीच घिर जाने पर भी उस मनुष्य की मृत्यु नहीं होती । वैश्येन्द्र ! इस स्तोत्र के प्रभाव से मनुष्य डाकुओं, शत्रुओं तथा हिंसक जन्तुओं से घिर जाने पर भी कल्याण का भागी होता है । तात ! यदि गोलोक की प्राप्ति के लिये आप नित्य इस स्तोत्र का पाठ करेंगे तो यहाँ ही आपको उन पार्वती के साक्षात् दर्शन होंगे । विप्रेन्द्र ! श्रीकृष्ण का वचन सुनकर नन्द ने इस स्तोत्र द्वारा सम्पूर्ण सम्पत्तियों को प्रदान करने वाली पार्वती का स्तवन किया। मुने! तब दुर्गा ने उन्हें गोलोक – वास रूप अभीष्ट वर प्रदान किया। साथ ही जो वेद में भी नहीं सुना गया है, वह परम दुर्लभ ज्ञान, गोकुल की राजाधिराजता और परम दुर्लभ श्रीकृष्ण-भक्ति भी दी। इसके अतिरिक्त नन्द को श्रीकृष्ण की दासता, महत्ता और सिद्धता भी प्राप्त हुई । इस प्रकार वरदान देकर और शम्भु के साथ वार्तालाप करके दुर्गाजी अदृश्य हो गयीं। तब देवता और मुनिगण भी नन्दनन्दन की स्तुति करके अपने-अपने स्थान को चले गये । ( अध्याय ८८ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद भगवन्नन्दसंवाद अष्टाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८८ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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