January 12, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १२५ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १२५ ग्रहण-स्नान का माहात्म्य और विधान युधिष्ठिरने कहा — द्रव्य और मन्त्रों की विधियों के ज्ञाता (पूर्णवेदविद्) भगवन् ! सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण के अवसर पर स्नान की जो विधि है, मैं उसे सुनना चाहता हूँ । भगवान् श्रीकृष्ण बोले — राजन् ! जिस पुरुष की राशि पर ग्रहण का प्लावन (लगना) होता है, उसके लिये मन्त्र और औषधसहित स्नान का जो विधान है, उसे मैं बता रहा हूँ । ऐसे मनुष्य को चाहिये कि चन्द्र-ग्रहण के अवसर पर चार ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन कराकर गन्ध-माल्य आदि से उनकी पूजा करे । ग्रहण के पूर्व ही औषध आदि को एकत्र कर ले । फिर छिद्ररहित चार कलशों की, उनमें समुद्र की भावना करके स्थापना करे । फिर उनमें सप्तमृत्तिका — हाथीसार, घुड़साल, वल्मीक (बल्मोट-दियाङ), नदी के संगम, सरोवर, गोशाला और राजद्वार की मिट्टी लाकर डाल दे । तत्पश्चात् उन कलशों में पञ्चगव्य, मोती, गोरोचन, कमल, शङ्ख, पञ्चरत्न, स्फटिक, श्वेत चन्दन, तीर्थ-जल, सरसों, राजदन्त (एक ओषधि-विशेष), कुमुद (कुईं) खस, गुग्गुल — यह सब डालकर उन कलशों पर देवताओं का आवाहन इस प्रकार करें — ‘सभी समुद्र, नदियाँ, नद और जलप्रद तीर्थ यजमान के पापों को नष्ट करने के लिये यहाँ पधारें ।’ इसके बाद प्रार्थना करे — ‘जो देवताओं के स्वामी माने गये हैं तथा जिनके एक हजार नेत्र हैं, वे वज्रधारी इन्द्रदेव मेरी ग्रहणजन्य पीड़ा को दूर करें । जो समस्त देवताओं के मुखस्वरूप, सात जिह्वाओं से युक्त और अतुल कान्तिवाले हैं, वे अग्निदेव चन्द्र-ग्रहण से उत्पन्न हुई मेरी पीडा का विनाश करे । जो समस्त प्राणियों के कर्म के साक्षी हैं तथा महिष जिनका वाहन है, वे धर्मस्वरूप यम चन्द्र-ग्रहण से उद्भूत हुई मेरी पीड़ा को मिटायें । जो राक्षसगणों के अधीश्वर, साक्षात् प्राप्ति के सदृश भयानक, खङ्गधारी और अत्यन्त भयंकर हैं, वे निति देव मेरी ग्रहण-जन्य पीडा को दूर करें । जो नागपाश धारण करनेवाले हैं तथा मकर जिनका वाहन है, वे जलाधीश्वर साक्षात् वरुणदेव मेरी चन्द्र-ग्रहण-जनित पीडा को नष्ट करें । जो प्राणरूप से समस्त प्राणियों की रक्षा करते हैं, (तीव्रगामी) कृष्णमृग जिनका प्रिय वाहन है, वे वायुदेव मेरी चन्द्र-ग्रहण से उत्पन्न हुई पीडा का विनाश करें । जो (नव) निधियों के स्वामी तथा खड्ग, त्रिशूल और गदा धारण करनेवाले हैं, वे कुबेरदेव चन्द्रग्रहण से उत्पन्न होनेवाले मेरे पाप को नष्ट करें । जिनका ललाट चन्द्रमा से सुशोभित है, वृषभ जिनका वाहन है, जो पिनाक नामक धनुष (या त्रिशूल को) धारण करनेवाले हैं, वे देवाधिदेव शंकर मेरी चन्द्र-ग्रहण-जन्य पीडा का विनाश करें । ब्रह्मा, विष्णु और सूर्यसहित त्रिलोकी में जितने स्थावर-जङ्गम प्राणी हैं, वे सभी मेरे (चन्द्रजन्य) पाप को भस्म कर दें ।’ इस प्रकार देवताओं को आमन्त्रित कर व्रती ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मन्त्रों की ध्वनि के साथ-साथ उन उपकरणयुक्त कलशों के जल से स्वयं अभिषेक करे । फिर श्वेत पुष्पों की माला, चन्दन, वस्त्र और गोदान द्वारा उन ब्राह्मणों की तथा इष्ट देवताओं की पूजा करे । तत्पश्चात् वे द्विजवर उन्हीं मन्त्रों को वस्त्र-पट्ट अथवा कमलदल पर अङ्कित करें, फिर द्रव्ययुक्त उन कलश को यजमान के सिरपर रख दें । उस समय यजमान पूर्वाभिमुख हो अपने इष्टदेव की पूजा कर उन्हें नमस्कार करते हुए ग्रहण-काल की वेला को व्यतीत करे । चन्द्र-ग्रहण के निवृत्त हो जाने पर माङ्गलिक कार्य कर गोदान करे और उस (मन्त्र द्वारा अङ्कित) पट्ट को स्नानादि से शुद्ध हुए ब्राह्यण को दान कर दे । जो मानव इस उपर्युक्त विधि के अनुसार ग्रहण का स्नान करता है, उसे न तो ग्रहणजन्य पीड़ा होती है और न उसके बन्धुजन का विनाश ही होता है, अपितु उसे पुनरागमनरहित परम सिद्धि प्राप्त हो जाती है । सूर्य-ग्रहण में मन्त्रों में सदा सूर्य का नाम उच्चारण करना चाहिये । इसके अतिरिक्त चन्द्र-ग्रहण एवं सूर्य-ग्रहण-दोनों अवसरों पर सूर्य के निमित्त पद्मराग मणि और निशापति चन्द्रमा के निमित्त एक सुन्दर कपिला गौ का दान करने का विधान है । जो मनुष्य इस (ग्रहण-स्नान की विधि) को नित्य सुनता अथवा दूसरे को श्रवण कराता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर इन्द्रलोक में प्रतिष्ठित होता है । (अध्याय १२५) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe