January 13, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १४७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १४७ काञ्चनपुरी व्रत – विधि भगवान् श्रीकृष्ण कहते है – महाराज ! एक बार विश्व के उत्पत्ति, पालन और संहारकारक अक्षर पुरुषोत्तम भगवान विष्णु श्वेतद्वीप में सुखपूर्वक बैठे हुए थे । उसी समय जगन्माता लक्ष्मी ने उनके चरणों में पञ्चाङ्ग प्रणाम कर उनसे पूछा — ‘भगवन् ! आप भक्तों पर अनुकम्पा करनेवाले हैं । महाभाग ! मुझ पर भी दया करके कोई ऐसा रूप-सौभाग्यदायक सर्वोत्तम व्रत बतलाये, जिसके आचरण से समस्त तीर्थ आदि पुण्य कर्मों का फल प्राप्त हो जाय ।’ भगवान् विष्णु बोले — देवि ! जिस प्रकार आश्रमों में गृहस्थाश्रम, वर्णों में ब्राह्मण, नदियों में गंगा, जलाशयों में समुद्र, देवताओं में विष्णु (मैं) तथा स्त्रियों में तुम (लक्ष्मी) श्रेष्ठ हो, उसी प्रकार व्रतों में काञ्चनपुरी व्रत उत्तम है । इस व्रत का पहले भगवती पार्वती ने भगवान् शंकर के साथ अनुष्ठान किया था । सीताजी ने भी भगवान् श्रीराम के साथ इसी व्रत का पालन कर अखण्ड साम्राज्य प्राप्त किया था । दमयन्ती के वियोग में राजा नल ने भी इस व्रत को किया था । वनवासी पाण्डवों ने भी द्रौपदी के साथ इस व्रत का आचरण किया और सभी कष्टों से मुक्त होकर साम्राज्य-लाभ किया । भद्रे ! यह व्रत स्वर्ग और मोक्ष को प्रदान करनेवाला है । रम्भा, मेनका, इन्द्राणी (शची) सत्यभामा, शाण्डिली, अरुन्धती, उर्वशी तथा देवदत्ता आदि श्रेष्ठ स्त्रियों ने इस व्रत का आचरण करके सौभाग्य, सुख और अपने मनोरथ प्राप्त किये थे । पाताल में नागकन्याओं ने और गायत्री, सरस्वती एवं सावित्री आदि उत्तम देवियों तथा अन्य नारियों ने सभी कामनाओं की पूर्ति की अभिलाषा से इस व्रत का अनुष्ठान किया था । यह व्रत सभी प्रकार के दुःखों का नाशक, प्रीतिवर्धक तथा व्रतों में उत्तम है, इसलिये इस व्रत का मैं वर्णन कर रहा हूँ । इसके अनुष्ठान से ब्रह्महत्या आदि महापातकों के करनेवाले, तौल-माप में कमी करनेवाले, कन्या बेचनेवाले, गौ बेचनेवाले, अगम्यागमन में लिप्त, मांसभक्षी, जारजपुत्र के यहाँ भोजन करनेवाले, भूमि का हरण करनेवाले आदि पापकर्मी भी पापों से निःसंदेह मुक्त हो जाते हैं । इसकी विधि इस प्रकार है — देवि ! यह काञ्चनपुरी-व्रत किसी महीने में शुक्ल या कृष्ण पक्ष की तृतीया, एकादशी, पूर्णिमा, संक्रान्ति, अमावस्या तथा अष्टमी को उपवासपूर्वक किया जा सकता है । व्रती इस दिन कांचनपुरी बनवाकर दान करे । वह पुर्वाह्ण में नदी आदि के शुद्ध निर्मल जल में स्नान करें । पहले मन्त्रपूर्वक पवित्र मृत्तिका ग्रहणकर उसे शरीर में लगाये फिर जल में गोते लगाये । इस विधि से स्नान कर शुद्धात्मा व्रती घर आये और उस दिन किसी पाखण्डी, विधर्मी, धूर्त, शठ आदि से वार्तालाप न करे । अपना हाथ-पैर धोकर पवित्र हो आचमन करे । एक उत्तम जल से भरा स्वर्णयुक्त शंख लेकर उस जल को द्वादशाक्षर-मन्त्र से अभिमन्त्रित कर ‘हरि’ इस मन्त्र का जप कर जल पी ले । शमीवृक्ष से चार स्तम्भों से युक्त एक वेदी बनाये जो चार हाथ प्रमाण की हो । वेदी को पुष्पमाला, वितान, दिव्य धूप आदि से आधिवासित और अलंकृत कर ले । वेदी के मध्य में एक पद्म की रचना करे । मण्डल के बीच में सुंदर एक भद्रपीठ का निर्माण कराये । भद्रपीठ के ऊपर सुंदर आसन पर लक्ष्मी के साथ भगवान् जनार्दन की स्थापना करे । मण्डल के अग्र भाग में जलपूर्ण कलश की स्थापना कर उसमें क्षीरसागर की कल्पना करे । कलश पर चार पल, दो पल अथवा एक पल की कांचनपुरी की स्वर्णमयी प्रतिमा बनाकर स्थापित करे । उसके आगे कदली-स्तम्भ और तोरण लगाये । फिर ब्राह्मणों द्वारा उसकी प्रतिष्ठा कराये । उस पूरी के मध्य में विष्णुसहित लक्ष्मी की सुवर्णमय प्रतिमा की स्थापना करनी चाहिये । पञ्चामृत से देवेश नारायण तथा लक्ष्मी को स्नान कराकर मन्त्रों का उच्चारण करते हुए चन्दन, पुष्प आदि उपचारों द्वारा उनका पूजन करना चाहिये । इन्द्रादि लोकपालों की पूजा भी यथाक्रम से करनी चाहिये । विघ्ननिवारण के लिये गणपति तथा नवग्रहों का पूजन कर हवन करना चाहिये । तत्पश्चात् पायस, सोहाल, फेनी, मोदक आदि का नैवेद्य अर्पितकर देश-काल के अनुसार फल भी अर्पण करना चाहिये । दस दिशाओं में दस-घृतपूरित दीपक प्रज्वलित करे । पुष्पमाला, चन्दन आदि भी चढ़ाये, साथ ही विष्णु-स्तव-राज, पुरुष-सूक्त आदि का पाठ करे । सोलह सपत्नीक ब्राह्मणों में लक्ष्मी-विष्णु की भावना कर पूजा करे । अन्त में पूजित सभी पदार्थ उन्हें निवेदित कर प्रार्थना करे कि ‘ब्राह्मण देवता ! भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न हो जायँ ।’ शय्या-दान तथा गो-दान भी करे । जो कांचनपुरी आदि की प्रतिमा पूजित की गयी है, उसे वस्त्र से आच्छादितकर अपने नेत्रों को वस्त्र से ढककर दीप के साथ मण्डप में ले आये और आचार्य कहे – ‘आप सभी कामनाओं को देनेवाली एवं दुःख-दुर्भाग्य को दूर करनेवाली इस रमणीय कांचनपुरी का दर्शन करें ।’ अनन्तर व्रती नेत्र के वस्त्र को खोलकर गुरु के सम्मुख पुष्पाञ्जलि देकर उस शुभ पुरी का दर्शन करे । तदनन्तर चाँदी, ताँबे अथवा किसी शंख में पञ्चरत्न, गङ्गाजल, फल, सरसों, अक्षत, रोचना तथा दहीमिश्रित अर्घ्य बनाकर भगवान् विष्णु को प्रदान करे और प्रार्थना करे – ‘सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाले भगवान् लक्ष्मीनारायण ! आप इस सुवर्णपुरी के प्रदान करने से मनोवाञ्छित फल पूर्ण करे । नारायण ! लक्ष्मीकान्त ! जगन्नाथ ! आप इस अर्घ्य को ग्रहण करें, आपको नमस्कार है । इस प्रकार महातेजस्वी भगवान् विष्णु को अर्घ्य देकर भक्तिपूर्वक देवी लक्ष्मी को भी अर्थ्य प्रदान करना चाहिये और कहना चाहिये कि ‘देवि ! आप ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, पार्वती एवं भगवान् कार्तिकेय से पूजित हैं । धर्म की कामना से मेरे द्वारा भी आप पूजित हैं, आप मुझे सौभाग्य, पुत्र, धन, पौत्र प्रदान करें । देवि ! आप मेरे द्वारा प्रदत्त इस अर्घ्य को ग्रहण कर मुझे सुख प्रदान करें । इस प्रकार व्रत को पूर्णकर महोत्सव मनाये एवं रात्रि में जागरण करे । निद्रारहित होकर जागरण करने से सौ यज्ञों का फल प्राप्त होता है । प्रातःकाल निर्मल जल से स्नानकर पितर और देवताओं की पूजा कर सपत्नीक ब्राह्मणों को वस्त्र देकर भोजन कराये और यथाशक्ति दक्षिणा प्रदान कर क्षमा-याचना करे । दीन, अंध, बधिर, पंगु आदि सबको संतुष्ट करे । अनन्तर पारणा करे । तदनन्तर मधुर पायसयुक्त व्यञ्जन से मित्र और बान्धवों के साथ भोजन करे । ऐसा करने से व्रती ब्रह्मलोक को प्राप्त कर ब्रह्मा के साथ आनन्दमय जीवन व्यतीत करता है । अनन्तर रुद्रलोक, उसके बाद विष्णुलोक को प्राप्त करता है । देवि ! काञ्चनपुरी नामक यह व्रत पूर्वसमय में तुमने भी किया था, उसी पुण्य के प्रभाव से त्रैलोक्यपूजित मुझे स्वामी के रूप में तुमने प्राप्त किया है । (अध्याय १४७) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe