January 13, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १५९ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १५९ गोसहस्रदान-विधि महाराज युधिष्ठिर ने पूछा — जनार्दन ! आप गोसहस्रदान का विधान बतायें । यह किस समय किस विधि से किया जाता है । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — प्रजेश्वर ! गौएँ सम्पूर्ण संसार में पवित्र हैं और गौएँ ही उत्तम आश्रयस्थान हैं । संसार की आजीविका के लिये ब्रह्माजी ने इनकी सृष्टि की है । तीनों लोकों के हित की कामना से गौ की सृष्टि प्रथम की गयी है । इनके मूत्र और पुरीष से देवमन्दिर भी पवित्र हो जाते हैं औरों के लिये तो कहना ही क्या ! गौएँ काम्य यज्ञों की मूलाधार हैं, इनमें सभी देवताओं का निवास है । गोमय में साक्षात् लक्ष्मी का निवास हैं । ब्राह्मण और गौ-दोनों एक ही कुल के दो रूप हैं । एक में मन्त्र अधिष्ठित हैं और एक में हविष्य-पदार्थ । इन्हीं गौऑ के पुत्रों के द्वारा सारे संसार और देवताओं का भरण-पोषण होता है । राजन् ! आप ऐसी विशिष्ट गुणमयी गौ के दान का विधान सुनें । एकमात्र सर्वगुण तथा सर्वलक्षणसम्पन्न गौ का दान करने पर समस्त कुटुम्ब तर जाता है, फिर यदि अधिक गौएँ दान में दी जायें तो उनके माहात्म्य के विषय में क्या कहा जाय ? प्राचीन काल में महाराज नहुष और महामति ययाति ने भी सहस्रों गौओं का दान किया था, जिसके प्रभाव से वे ब्रह्मस्थान को प्राप्त हो गये । पुत्र की कामना से देवी अदिति ने भी गङ्गाजी के तट पर अपार गोदान किया था, जिसके फलस्वरूप उन्होंने तीनों लोकों के स्वामी नारायण (भगवान् वामन उपेन्द्र) को पुत्ररूप में प्राप्त किया । राजन् ! ऐसा सुना जाता है कि पितृगण इस प्रकार की गाथा गाते हैं क्या मेरे कुल में ऐसा कोई पुण्यात्मा पुत्र होगा, जो सहस्रों गौओं का दान करेगा, जिसके पुण्यकर्म से हम सब परमसिद्धि को प्राप्त कर सकेंगे, अथवा हमारे कुल में सहस्रों गोदान करनेवाली कोई दुहिता (कन्या) होगी जो अपने पुण्यकर्म के आधार पर मेरे लिये मोक्ष की सीढ़ी तैयार कर देगी । राजन् ! अब मैं शास्त्रोक्त सार्वकामिक गोसहस्रदान रूप यज्ञ की विधि बता रहा हूँ । दाता किसी तीर्थस्थान अथवा गोष्ट या अपने घर पर ही दस या बारह हाथ का लम्बा-चौड़ा एक सुन्दर मण्डप बनवाये । उसमें तोरण लगाये जायें । उसके चारों दिशाओं में चार दरवाजे लगाये जायें । मण्डप के मध्य में चार हाथ की एक सुन्दर वेदी बनाये । इस वेदी के पूर्वोत्तर-दिशा (ईशानकोण) में एक हाथ के प्रमाण की ग्रहवेदी का निर्माण करे । ग्रहयज्ञ के विधान से उस पर क्रम से ग्रहों की स्थापना करे । सर्वप्रथम ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र की अर्चना करनी चाहिये । यज्ञ के लिये ऋत्विजों का वरण, पुनः वेदी के पूर्वोत्तर-भाग में एक शिव कुण्ड का निर्माण कर द्वार-प्रदेश में पल्लवों से सुशोभित दो-दो कलशों की स्थापना करनी चाहिये और उनमें पञ्चरत्न डाल देना चाहिये । तदनन्तर हवन करना चाहिये । तुलापुरुषदान के समान इसमें भी लोकपालों के निमित्त बलि नैवेद्य प्रदान करना चाहिये । सहस्रों गौओं मॅं से सवत्सा दस गौओं को अलग कर उन्हें वस्त्र और माला आदि से खूब अलंकृत कर ले । इन दसों गौओं के मध्य जाकर विधिपूर्वक सबकी पूजा करे । इनके गले में सोने की घंटी, ताँबे के दोहनपात्र, खुरों में चाँदी और मस्तक को सुवर्ण-तिलक से अलंकृत कर सींगों में भी सोना लगा दे । गोमाता के चतुर्दिक् चमर डुलाना चाहिये । इसी प्रसंग में मुनियों ने सुवर्णमय नन्दिकेश्वर (वृषभ) को लवण के ऊपर रखकर अथवा प्रत्यक्ष वृषभ के भी दान का विधान बतलाया है । इस प्रकार दस-दस गौ के क्रम से गोसहस्र या गोशत दान करना चाहिये । यदि संख्या में सम्पूर्ण गौएँ उपलब्ध न हो सके तो दस गौओं की पूजाकर शेष गौओं की परिकल्पना कर उनका दान करना चाहिये । तदनन्तर पुण्यकाल आनेपर गीत एवं माङ्गलिक शब्दों के साथ वेदज्ञ ब्राह्मणों द्वारा सर्वौषधिमिश्रित जल से स्नान कराया हुआ यजमान अञ्जलि में पुष्प लेकर इस प्रकार उच्चारण करे — ‘विश्वमूर्तिस्वरूप विश्वमाताओं को नमस्कार है । लोकों को धारण करनेवाली रोहिणीरूप गौओं को बारंबार प्रणाम है । गौओं के अङ्गों में इक्कीसों भुवन तथा ब्रह्मादि देवताओं का निवास है, वे रोहिणीस्वरूपा माताएँ मेरी रक्षा करें । गौएँ मेरे अग्रभाग मे रहें, गौएँ मेरे पृष्ठभाग में रहें, गौएँ नित्य मेरे चारों ओर वर्तमान रहें और मैं गौओं के मध्य में निवास करूं । चूंकि तुम्हीं वृषरूप से सनातन धर्म और भगवान् शिव के वाहन हो, अतः मेरी रक्षा करो !’ इस प्रकार आमन्त्रित कर बुद्धिमान् यजमान सभी सामग्रियों के साथ एक गौ और नन्दिकेश्वर को गुरु को दान कर दे तथा उन दसों गौ में से एक-एक तथा हजार गौओं में से एक-एक सौ, पचास-पचास अथवा बीस-बीस गौ प्रत्येक ऋत्विज को समर्पित कर दें । तत्पश्चात् उनकी आज्ञा से अन्य ब्राह्मणों को दस-दस या पाँच-पाँच गौएँ देनी चाहिये । एक ही गाय बहुतों को नहीं देनी चाहिये, क्योंकि वह दोषपदायिनी हो जाती है । बुद्धिमान यजमान को आरोग्यवृद्धि के लिये एक-एक को अनेक गौएँ देनी चाहिये । इस प्रकार एक हजार गोदान करनेवाला यजमान एक दिन के लिये पुनः पयोव्रत करे और इस महादान का अनुकीर्तन स्वयं सुनाये अथवा सुने । यदि उसे विपुल समृद्धि की इच्छा हो तो उस दिन ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करना चाहिये । इस विधि से जो मनुष्य एक हजार गौओं का दान करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर सिद्धों एवं चारणों द्वारा सेवित होता है । वह क्षुद्र घंटियों से सुशोभित सूर्य के समान तेजस्वी विमान पर आरूढ़ होकर सभी लोकपालों के लोक में देवताओं द्वारा पूजित होता है । इस गोसहस्र-दान से पुरुष अपने इक्कीस पीढ़ियों का उद्धार कर देता है । गोदान में गौ, पात्र, काल एवं विधि का विशेषरूप से विचार करना चाहिये । (अध्याय १५९) Related