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भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ८३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ८३
धरणी-व्रत (अर्चावतार-व्रत)

राजा युधिष्ठिर ने कहा — भगवन् ! वेदों में यह कहा गया है कि विधिपूर्वक यज्ञ करने, बड़े-बड़े दान देने और कठिन परिश्रम करने से परमेश्वर की प्राप्ति होती हैं, किंतु कलियुग के प्राणी, जो न दान दे सकते हैं और न ही यज्ञ करने में समर्थ हैं, उनकी मुक्ति किस प्रकार हो सकती हैं, यदि कोई उपाय हो तो आप उसे बतायें ।
om, ॐ
भगवान् श्रीकृष्ण बोले — राजन् ! मैं आपको एक रहस्यपूर्ण बात बतलाता हूँ । प्रलय के समय जब धरणी (पृथ्वी) जल में निमग्न होकर रसातल चली गयी, तब उस समय धरणीदेवी ने अपने उद्धार के लिये व्रत किया था । व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर भगवान् नारायण ने वाराहरूप धारणकर उसे पुनः अपने स्थान पर लाकर स्थापित कर दिया । उस व्रत का विधान इस प्रकार है —

व्रती को मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की दशमी को प्रातःकाल नित्य-स्नानादि क्रियाओं को सम्पन्न कर देवार्चन एवं हवनादि कर्म विधिपूर्वक करने चाहिये । उस दिन पवित्र, अत्यल्प हविष्यान्न-भोजन करना चाहिये । अनन्तर पुनः पाँच पग चलकर हाथ-पाँव धोकर पवित्र हो क्षीर-वृक्ष के आठ अंगुल के दातून से दन्तधावन कर आचमन करना चाहिये । जल से अङ्ग का स्पर्शकर भगवान् जनार्दन का ध्यान करते हुए वह दिन व्यतीत करना चाहिये । एकादशी को निराहार रहकर भगवान के नामों का जप करना चाहिये । द्वादशी को प्रातः नदी आदि के पवित्र जल में स्नान करना चाहिये । स्नान से पूर्व नदी, तालाब अथवा शुद्ध एवं पवित्र स्थान की मृत्तिका ग्रहण करनी चाहिये, मृत्तिका ग्रहण करते समय इस मन्त्र का उच्चारण करे —

“धारणं पोषणं त्वत्तो भूतानां देवि सर्वदा ।
तेन सत्येन मां पाहि पापान्मोचय सुव्रते ॥”
(उत्तरपर्व ८३ । १७)
‘देवि सुव्रते ! जिस शक्ति के द्वारा आप समस्त स्थावर-जंगमात्मक प्राणियों का धारण-पोषण करती हैं, उसी शक्ति के द्वारा मुझे पापों से मुक्त कीजिये तथा सदा मेरा पालन कीजिये ।’

अनन्तर इस मंत्र के उच्चारण पूर्वक आदित्य का दर्शन करे-

“ब्रह्माण्डोदरतीर्थानि करैः स्पृष्टानि ते रवेः ।
भवन्ति भूतानि सतां मृत्तिकामालभेत्पुनः ॥”
(उत्तरपर्व ८३ । १८)
इस ब्रह्माण्ड के उदर मध्यवर्ती समस्त तीर्थ भगवान सूर्य के किरणों से स्पष्ट है, जिनके द्वारा निखिल प्राणियों की सृष्टि होती है अतः इस का आलम्भन कर रहा हूँ ।

पुनः उस मिट्टी को सूर्य को दिखाकर शरीर में लगाकर स्नान करे । तदनन्तर आचमनकर देवमन्दिर में जाकर भगवान् नारायण के अङ्गों की पूजा करे । केशवाय नमः से चरण, दामोदराय नमः से कटि, नृसिंहाय नमः से दोनों ऊरू, श्रीवत्सधारिणे नमः से उरु, कौस्तुभनाथाय नमः से कण्ठ, श्रीपतये नमः से वक्ष, त्रैलोक्याय विजयाय नमः से बाहू, सर्वात्मने नमः से शिर, रथाङ्गधारिणे नमः से चक्र, शंकराय नमः से कमल, गम्भीराय नमः से गदा और शांतमूर्तये नमः से सर्वाङ्ग की अर्चना करनी चाहिए । नारायण के आगे चार जलपूर्ण पटों में चार समुद्रों की परिकल्पना कर स्थापना करे । उन घटों पर तिलपूर्ण पूर्णपात्र स्थापित करे । घटों के मध्य एक पीठ के ऊपर जलपात्र में सुवर्ण, चाँदी अथवा काष्ठ की मत्स्यभगवान् की प्रतिमा बनाकर स्थापित करे । यथाविधि उपचारों से उनका पूजन कर प्रार्थना करे । रात्रि में वहीं जागरण करे । प्रभात में चारों घटों को ऋग्वेदी, यजुर्वेदी, सामवेदी तथा अथर्ववेदी चार ब्राह्मणों की पूजाकर उन्हें निवेदित करे । जलपात्र में स्थापित भगवान् मत्स्य की प्रतिमा ब्राह्मण-दम्पति को प्रदान करे । ब्राह्मणों को पायसान्न से संतृप्त कर पश्चात् स्वयं भी भोजन करे । राजन् ! इस विधि से जो मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी का व्रत करता है, उसे दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है । जन्मान्तर में किये गये ब्रह्महत्या आदि महापातकों से उसकी मुक्ति हो जाती है । यदि निष्कामभाव से व्रत करता है तो उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है, इसमें कोई संदेह नहीं ।

इसी प्रकार स्नानादि कर पौष मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को उपवास कर भगवान् जनार्दन की कूर्मरूप में पूजा करनी चाहिये । माघ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को उपवासपूर्वक भगवान् वराह की प्रतिमा का पूजनकर ब्राह्मण को दान करना चाहिये । इसी प्रकार फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को उपवासपूर्वक भगवान् नरसिंह की प्रतिमा का, चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को भगवान् वामन की प्रतिमा का, वैशाख शुक्ल द्वादशी को परशुरामजी की प्रतिमा का, ज्येष्ठ मास की शुक्ल द्वादशी को भगवान् राम-लक्ष्मण की प्रतिमा का, आषाढ़ शुक्ल द्वादशी को भगवान् वासुदेव (कृष्ण) की प्रतिमा का, श्रावण मास की शुक्ल द्वादशी को बुद्ध भगवान् की तथा भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को उपवासपूर्वक भगवान् कल्कि की प्रतिमा का यथाविधि अङ्ग-पूजन आदि कर घटों की स्थापना करके पूजित प्रतिमा आदि ब्राह्मणों को निवेदित कर देनी चाहिये ।

इस प्रकार दस मासों में भगवान् के दशावतारों का पूजनकर पूर्व-विधान से आश्विन शुक्ल द्वादशी को उपवास-पूर्वक भगवान् पद्मनाभ की तथा कार्तिक द्वादशी को वासुदेव की पूजा करनी चाहिये । अन्त में प्रतिमा तथा घटों को ब्राह्मण को निवेदित कर दे । उन्हें भोजन कराकर, दक्षिणा प्रदान करे तथा दीनों, अनाथों को भी भोजन-वस्त्र आदि से संतुष्ट करना चाहिये और फिर स्वयं भी भोजन करना चाहिये ।

राजन् ! इस प्रकार द्वादश मासों में जो इस व्रत करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर विष्णु-सायुज्य को प्राप्त करता है । धरणीदेवी ने इस व्रत को किया था । इसीलिये यह धरणीव्रत के नाम से प्रसिद्ध हुआ । प्राचीन काल में दक्षप्रजापति ने इस व्रत का अनुष्ठानकर प्रजाओं का अधिपतित्व प्राप्त किया था । राजा युवनाश्व ने इस व्रत के अनुष्ठान से मान्धाता नामक श्रेष्ठ पुत्र को प्राप्तकर अन्त में शाश्वत ब्रह्मपद प्राप्त किया था । इसी प्रकार हैहयाधिपति कृतवीर्य ने इस व्रत के प्रभाव से महान् पराक्रमी चक्रवर्ती राजा सहस्त्रार्जुन को पुत्ररूप में प्राप्त किया था । शकुन्तला ने भी इस व्रत के प्रभाव से राजर्षि दुष्यन्त को पति-रूप में तथा श्रेष्ठ भरत को पुत्र-रूप में प्राप्त किया था । इसी प्रकार अन्य कई श्रेष्ठ चक्रवर्ती राजाओं तथा श्रेष्ठ पुरुषों ने इस व्रत के प्रभाव से उत्तम फल प्राप्त किया था । जो भी इसे करता है, भगवान् नारायण उसका उद्धार कर देते हैं ।
(अध्याय ८३) वाराहपुराण के ३९वें अध्याय से ५०वें तक ठीक इसी प्रकार इन द्वादश द्वादशी-व्रतों की कथा एवं व्रत विधि का विस्तार से वर्णन हुआ है ।

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