January 8, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ९५ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय ९५ श्रवणिका व्रत-कथा एवं व्रत-विधि राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! संसार में श्रावणी नाम की जिन देवियों का नाम सुना जाता है, वे कौन हैं और उनका क्या धर्म है तथा वे क्या करती हैं ? इसे आप बतलाने की कृपा करें । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — पाण्डवश्रेष्ठ ! ब्रह्मा ने इन श्रावणी देवियों की रचना की है । संसार में मानव जो कुछ भी शुभ अथवा अशुभ कर्म करता है, वे श्रावणी देवियाँ उस विषय की सूचना शीघ्र ही ब्रह्मा को श्रवण कराती हैं, इसीलिये ये श्रावणी गरुडपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय ७ में भी यह विषय विस्तार से प्रतिपादित है । वहाँ इन्हें देवी न कहकर श्रवण नाम का पुरुष देवता कहा गया है। कहीं गयी हैं । संसार के प्राणियों का नियमन करने के कारण ये पूज्य हैं । ये दूर से ही जान-सुन-देख लेती हैं । कोई भी ऐसा कर्म नहीं हैं जो इनसे अदृश्य हो । इनमें ऐसी विलक्षण शक्ति है जो तर्क, हेतु आदि से अगम्य हैं । जिस प्रकार देवता, विद्याधर, सिद्ध, गन्धर्व, किम्पुरुष आदि पूज्य एवं पुण्यप्रद है, उसी प्रकार ये श्रावणी देवियाँ भी वन्दनीय एवं पुण्यमयी हैं । स्त्री-पुरुषों को इनकी प्रसन्नता के लिये व्रत करना चाहिये तथा जल, चन्दन, पुष्प, धूप, पक्वान्न आदि से इनकी पूजा करनी चाहिये और स्त्रियों तथा पुरुषों को भोजन कराकर व्रत की पारणा करनी चाहिये । इनका व्रत न करने से मृत्यु-कष्ट होता है और यम-यातना सहन करनी पड़ती है । राजन् ! इस विषय में आपको एक आख्यान सुनाता हूँ । प्राचीन काल में नहुष नाम के एक राजा थे । उनकी रानी का नाम ‘जयश्री’ था । वह अत्यन्त सुन्दर, शीलवती एवं पतिव्रता थी । एक बार गङ्गा में स्नान करके वह महर्षि वसिष्ठ के समीपवर्ती आश्रम में गयी, वहाँ उसने देखा कि माता अरुन्धती मुनिपत्नियों को विविध प्रकार का भोजन करा रही है । जयश्री ने उन्हें प्रणाम कर पूछा — ‘भगवति ! आप यह कौन-सा व्रत कर रही हैं ।’ अरुन्धती बोली — ‘देवि ! मैं श्रवणिकाव्रत कर रही हूँ । इस व्रत को मुझे महर्षि वसिष्ठ ने बताया है । यह व्रत अत्यन्त गुप्त और ब्रह्मर्षियों का सर्वस्व है तथा कन्याओं के लिये श्रेष्ठ एवं उत्तम पति प्रदान करनेवाला है । तुम यहाँ ठहरो, मैं तुम्हारा आतिथ्य करूंगी ।’ और उन्होंने वैसा ही किया । तदनन्तर जयश्री अपने नगर में चली आयी । कुछ समय बाद वह उस व्रत को तथा अरुन्धती के भोजन को भूल गयी । समय आने पर जब वह महासती मरणासन्न हुई तो उसके गले में घर्घराहट होने लगी, कण्ठ अवरुद्ध हो गया, मुख से फेन एवं लार टपकने लगा । इस प्रकार दारुण कष्ट भोगते हुए उसे पंद्रह दिन व्यतीत हो गये । उसका मुख देखने से भय लगता था । सोलहवें दिन अरुन्धती जयश्री के घर आयीं और उन्होंने वैसी कष्टप्रद स्थिति में उसे देखा । तब अरुन्धती ने राजा नहुष से श्रवणिका व्रत के विषय में बताया । राजा नहुष ने भी देवी अरुन्धती के निर्देशानुसार जयश्री के निमित्त तत्काल श्रवणिकाव्रत का आयोजन किया । उस व्रत के प्रभाव से जयश्री ने सुखपूर्वक मृत्यु का वरण किया और इन्द्रलोक को प्राप्त किया । श्रीकृष्ण ने पुनः कहा — राजन् ! मार्गशीर्ष से कार्तिक तक द्वादश मासों की चतुर्दशी अथवा अष्टमी तिथियों में भक्तिपूर्वक यह व्रत करना चाहिये । प्रातःकाल नदी आदि में स्नानकर पवित्र हो, श्रेष्ठ बारह ब्राह्मण-दम्पतियों अथवा अपने गोत्र में उत्पन्न बारह दम्पतियों को बुलाकर गन्ध, पुष्प, रोचना, वस्त्र, अलंकार, सिंदूर आदि से उनका भक्तिपूर्वक पूजन करे । सुन्दर, सुडौल, अच्छिद्र, जल से भरे हुए, सूत्र से आवेष्टित तथा पुष्पमाला आदिसे विभूषित स्वर्णयुक्त बारह वर्धनियों (जलपूर्ण कलश) को ब्राह्मणियों के सामने पृथक्-पृथक् रखे । उनमें से मध्य की एक वर्धनी उठाकर अपने सिर पर रखे तथा उन ब्राह्मणियों से बाल्यावस्था, कुमारावस्था तथा वृद्धावस्था किये गये पापों के विनाश, सुखपूर्वक मृत्यु-प्राप्ति तथा संसार-सागर से पार होने और भगवान् के परमपद को पाने के लिये प्रार्थना करे । ये ब्राह्मणियाँ भी कहें — ‘ऐसा ही हो ।’ ब्राह्मणों से पाप के विनाश के लिये प्रार्थना करे । ब्राह्मण उस वर्धनी को उसके सिर से उतार लें और उसे आशीर्वाद प्रदान करें । उन सभी वर्धनियों को ब्राह्मण-पत्नियों को दे दे । हे पार्थ ! इस प्रकार इस श्रवणिका व्रत को भक्तिपूर्वक करनेवाला सभी भोग का उपभोग कर सुखपूर्वक मृत्यु का वरण करता है और उत्तम लोक को प्राप्त करता है । (अध्याय ९५) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe