भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ९६ से ९७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ९६ से ९७
नक्त एवं शिवचतुर्दशी-व्रतकी विधि

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! अब आप नक्तव्रत का विधान सुनिये, जिसके करने से मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है । किसी भी मास की शुक्ल चतुर्दशी को ब्राह्मण को भोजन कराकर नक्तव्रत प्रारम्भ करना चाहिये । प्रत्येक मास मे दो अष्टमियाँ और दो चतुर्दशियाँ होती हैं । उस दिन भक्तिपूर्वक शिवजी का पूजन करे और उनके ध्यान में तत्पर रहे ।om, ॐ रात्रि के समय पृथ्वी को पात्र बनाकर उसमें भोजन गया आदि तीर्थों में पृथ्वी पर ही भोजनपात्र के रूप में थालियाँ बनी हुई हैं । पहले जैन, बौद्ध, भिक्षु, संन्यासी उन्हीं में या मिट्टी की बनी थालियों में भोजन करते थे और कुछ लोग हाथ में लेकर भोजन करते थे । उन्हें करपात्री कहते थे । इसमें त्याग, व्रत, तपस्या और सहिष्णुता सब मिश्रित थी। करे । उपवास से उत्तम भिक्षा, भिक्षा से उत्तम अयाचित-व्रत और अयाचित व्रत से भी उत्तम है नक्त-भोजन । इसलिये नक्तव्रत करना चाहिये । पूर्वाह्ण में देवता, मध्याह्न में मुनिगण, अपराह्ण में पितर और सायंकाल में गुह्यक आदि भोजन करते हैं । इसलिये सबके बाद नक्त-भोजन करना चाहिये । नक्तव्रत करनेवाला पुरुष नित्य स्नान, स्वल्प हविष्यान्न-भोजन, सत्य-भाषण, नित्य-हवन और भूमि-शयन करे । इस प्रकार एक वर्ष तक व्रत करके अन्त में घृतपूर्ण कलश के ऊपर भगवान् शिव की मृत्तिका से बनी प्रतिमा स्थापित करे । कपिला गौ के पञ्चगव्य से प्रतिमा को स्नान कराकर फल, पुष्प, यव, क्षीर, दधि, दूर्वाङ्कर, तिल तथा चावल जल में छोड़कर अष्टाङ्ग अर्घ्य प्रदान करे । दोनों घुटनों को पृथ्वी पर रखकर पात्र को सिर तक उठाकर महादेवजी को अर्घ्य दे । अनन्तर अनेक प्रकार के भक्ष्य-भोज्य नैवेद्य निवेदित करे । एक उत्तम सवत्सा गौ और वृषभ वेदवेत्ता ब्राह्मण को दक्षिणा सहित दे । इस व्रत को करनेवाला व्यक्ति दिव्य देह धारण कर उत्तम विमान में बैठकर रुद्रलोक में जाता है । वहाँ तीन सौ कोटि वर्षपर्यन्त सुख भोगकर इस लोक में महान् राजा होता है । एक बार भी जो इस विधान से नक्तव्रत कर श्रीसदाशिव का पूजन करता है, वह स्वर्गलोक को प्राप्त करता है ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने पुनः कहा — महाराज ! अब मैं तीनों लोकों में प्रसिद्ध शिवचतुर्दशी की विधि इस व्रत का वर्णन मत्स्य आदि पुराणों में भी प्राप्त होता है। बता रहा हूँ । यह माहेश्वरव्रत शिवचतुर्दशी नाम से प्रसिद्ध है । इस व्रत में मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को एक बार भोजन करे और चतुर्दशी को निराहार रहकर पार्वतीसहित भगवान् शंकर की गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि उपचारों से पूजा आराधना करे — ‘शिव को नमस्कार है, कहकर उनके चरण, सर्वात्मा को नमस्कार है, कहकर सिर, त्रिनेत्र को नमस्कार है, कहकर भाल, हरि को नमस्कार है, कहकर नेत्र, चन्द्रमुख को नमस्कार है, कहकर मुख, ईशान को नमस्कार है, कहकर उदर, अनंतधर्म को नमस्कार है, कहकर दोनों पार्श्वभाग, ज्ञानरूप को नमस्कार है, कहकर कटि, अनन्त वैराग्य को नमस्कार है, कहकर ऊरू और जानु (जंघे), प्रधान को नमस्कार है, कहकर जंघे, व्योमात्मा को नमस्कार है कहकर गुल्फ, एवं व्योम और व्योमात्म रूप को नमस्कार है, कहकर पृष्ठ की अर्चना करते हुए (मनुष्य को), सृष्टि को नमस्कार है और तुष्टि को नमस्कार है, कहकर वे भगवती पार्वती की आराधना करनी चाहिए । स्वर्ण का वृषभ बनाकर उसकी भी पूजा करे । अनन्तर वह वृषभ तथा स्थापित जलपूर्ण कलश ब्राह्मण को प्रदान कर दे, विविध प्रकार के भक्ष्य पदार्थ भी दे और कहे — ‘प्रीयतां देवदेवोऽत्र सद्योजातः पिनाकधृक् ।’ इस कर्म द्वारा देवाधिदेव, एवं विनाकधारी शंकर प्रसन्न हों— अनन्तर उत्तराभिमुख हो घृत का प्राशन कर भूमि पर शयन करे । प्रतिमास की शुक्ल चतुर्दशी को यही विधान करे और मार्गशीर्ष आदि महीनों में शयन के समय इस प्रकार प्रार्थना करे —

“शंकराय नमस्तुभ्यं नमस्ते करवीरक ।
अम्बकाये नमस्तुभ्यं महेश्वरमतः परम् ॥
नमस्तेऽस्तु महादेव स्थाणवे च ततः परम् ।
नमः पशुपते नाथ नमस्ते शाम्भवे नमः ॥
नमस्ते परमानन्द नमः सोमार्धधारिणे ।
नमो भीमाय चोग्राय त्वामहं शरणं गतः ॥”
(उत्तरपर्व ९७ । १५-१७)
‘शंकर को नमस्कार है, करवीरक! तुम्हें नमस्कार है, अम्बक को नमस्कार है, महेश्वर को नमस्कार है, महादेव को नमस्कार है, स्थाणु को नमस्कार है, पशुपति को नमस्कार है, शंभु को नमस्कार है, परमानन्द को नमस्कार है, अर्धचन्द्रधारी को नमस्कार है, एवं भीम को नमस्कार है और उग्रदेव ! मैं आपकी शरण में आया हूँ ।’

बारह महीनों में क्रम से गोमूत्र, गोमय, दुग्ध, दधि, घृत, कुशोदक, पञ्चगव्य, बिल्व, यवागू (यवकी कॉजी), कमल तथा काले तिल का प्राशन करे और मन्दार, मालती, धतूर, सिंदुवार, अशोक, मल्लिका, कुब्जक, पाटल, अर्क-पुष्प, कदम्ब, रक्त एवं नीलकमल तथा कनेर— इन बारह पुष्पों से क्रमशः बारहों चतुर्दशियों में उमामहेश्वर का पूजन करे । अनेक प्रकार के भोजन, वस्त्र, आभूषण, दक्षिणा आदि देकर ब्राह्मणों को संतुष्ट कर नीले (कृष्ण) रंग का वृष छोड़े और एक गौ तथा एक वृष सुवर्ण का बना करके आठ मोतियों से युक्त उत्तम शय्या पर स्थापित करे । जल-कुम्भ, शालि-चावल, घृत, दक्षिणासहित सब सामग्री वेद-व्रत-परायण, शान्तचित्त सपत्नीक ब्राह्मणों को प्रदान कर दे । इस व्रत को जो पुरुष भक्तिपूर्वक करता है, उसके माता-पिता के भी सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और वह स्वयं हजार अश्वमेध-यज्ञ का फल प्राप्त करता है तथा दीर्घायु, ऐश्वर्य, आरोग्य, संतान एवं विद्या आदि प्राप्त करता है । बहुत दिनों तक संसार का सुख भोगकर वह विष्णुलोकादि में विहार करता हुआ अन्त में शिवलोक को प्राप्त करता है ।
(अध्याय ९६-९७)

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