December 30, 2018 | Leave a comment भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ – अध्याय ८ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व — चतुर्थ भाग) अध्याय ८ मध्वाचार्य, श्रीधराचार्य, विष्णुस्वामि, वाणीभूषण, भट्टोजिदीक्षित तथा वराहमिहिराचार्य आदि की उत्पत्ति का वर्णन बृहस्पति जी बोले — इन्द्र ! पहले त्रेतायुग में अयोध्यापुरी में शक्रशर्मा नामक एक ब्राह्मण उत्पन्न हुआ, जो अत्यन्त पुण्य एवं देवोपासना में तत्पर रहता था । प्रसन्नचित्त होकर वह ब्राह्मण अश्विनीकुमार, एकादश रुद्र, आठ वसु और सूर्यदेव की यजुर्वेद के मन्त्रों द्वारा पृथक्-पृथक् अर्चना करने के उपरान्त हव्य (घी और दुग्ध के बने) पदार्थों द्वारा उन्हें नित्य तृप्त करता रहता था । उसके उस प्रेम से प्रसन्न होकर क्षुद्र देवों समेत उन तैंतीस देवों ने उसके दुर्लभ मनोरथ को सुलभ बनाया । दस सहस्र वर्ष तक तरुण एवं आरोग्य रहकर सुखी-जीवन व्यतीत किया । पश्चात् शरीर परित्यागकर सूर्य में लीन हो गया । वहाँ उनके मण्डल में एक लाख वर्ष तक रहकर सभी देवों के प्रसाद से वह ब्रह्मलोक पहुँच गया । वहाँ दिव्य आठ सहस्र वर्ष तक स्थित रहा, जहाँ उसके मण्डल में स्वयं सूर्यदेव रहते थे । इसे सुनकर देवों समेत सुरेश ने विनम्र होकर आषाढ़ मास में भास्कर की उपासना की । उस आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन इस भूतल पर प्रकट होकर सूर्य ने उन देवों से कहा —भीषण कलि के समय में अत्यन्त रमणीक उस वृन्दावन में उत्पन्न होऊँगा तथा सूर्यरूप से ब्राह्मण देवकार्य की सिद्धि करुँगा । माधव नामक ब्राह्मण के घर उनके पुत्र रूप में उत्पन्न होकर वह बालक मधु नाम से प्रख्यात, महायोग्य एवं वैदिक धर्म का प्रचारक होगा । सूत जी बोले — इतना कहकर सूर्यदेव ने देव-कार्य के लिए तैयार होकर अपने शरीर से तेज निकालकर वृन्दावन में भेज दिया । वहाँ उत्पन्न होकर उस बालक ने अपने विरोधियों को अपने वशीभूत कर उन्हें भुक्ति-मुक्तिप्रदायिनी वैष्णवी शक्ति (मंत्र) प्रदान किया (अपना शिष्य बनाया) । उसी दिन से इस भूमण्डल में उनकी ‘मध्वाचार्य’ के नाम से प्रख्याति हुँई । बृहस्पति ने कहा — द्वापर युग में मेघशर्मा नामक एक ब्राह्मण हुआ, जो ज्ञानवान्, मतिमान्, धार्मिक एवं वेद-धर्म का प्रचारक था । वह भक्तिमान् कृषि (खेती) के द्वारा जो कुछ उपार्जित करता था, उसके दशांश आय से नित्य देवों की अर्चना करता रहा । एक बार राजा शान्तनु के राजकाल में उनके राज्य में अनावृष्टि हुई । केवल मेघशर्मा के क्षेत्रों (खेतों) में, जो एक कोश का विस्तृत था, मेघवृष्टि करते थे । उस समय (दूकानों पर) एक मुद्रा प्रदान करने पर एकद्रोण अन्न मिलता था । मेघशर्मा ही धन-धान्य-पूर्ण थे, और अन्य प्रजागण उस अनावृष्टि से अत्यन्त पीड़ित होकर राजा शान्तनु की शरण में पहुँचे । उनके दुःख से दुःखी होकर राजा ने मेघशर्मा को बुलवाकर कहा — द्विजश्रेष्ठ ! आपको नमस्कार है । आप मेरे गुरु होने की कृपा करें तथा विप्र ! जिससे राज्य में अनावृष्टि न हो, उसके लिए आज्ञा प्रदान करें । राजा के इस प्रकार कहने पर मेघशर्मा ने उनसे कहा — श्रावण मास के आरम्भ होने पर बारह वेद के निष्णात् विद्वानों को बुलाकर सूर्य के मन्त्र का एक लक्ष जप कराइये । पश्चात् पूर्णिमा के दिन व्रती रहकर ब्राह्मणों द्वारा उस मन्त्र की दशांश आहुति प्रज्वलितकर अग्नि में डलवाकर तथा सविधान तर्पण-मार्जन सुसम्पन्न होने पर कृतकृत्य होते हुए सुख का अनुभव कीजिये । इसे स्वीकार कर राजा ने जप के उपरान्त वैदिक ब्राह्मणों को भोजन कराया । उसी समय प्रसन्न होकर सूर्य ने मेघ रूप से पृथ्वी को चारों ओर से आच्छादितकर अत्यन्त वृष्टि की । उसी समय से राजा शान्तनु सूर्यव्रत का पारायण करते हुए उस व्रत के प्रभाव से नृपश्रेष्ठ एवं अत्यन्त पुण्यात्मा प्रख्यात हुए । वे अपने हाथों से जिसका स्पर्श कर लेते थे वृद्ध होने पर भी युवा हो जाता था । सूर्यदेव के प्रभाव से मेघशर्मा भी इसी भाँति के थे । इस प्रकार मेघशर्मा ने पाँच सौ वर्ष का तरुण और आरोग्य जीवन व्यतीत कर अन्त में देहावसान के समय सूर्य रूप होकर सूर्यलोक की प्राप्ति की । एक लाख वर्ष वहाँ रहकर वह पश्चात् व्रह्मलोक की प्राप्ति करेगा । इस प्रकार उपदेश देने वाले बृहस्पति को प्रसन्न होकर भगवान सूर्य ने प्रयाग में प्रकट होकर अपना साक्षात् दर्शन दिया और उन देवों से कहा भी — म्लेच्छराज कलियुग के समय मैं वृन्दावन में अवतरित होकर देवकार्य करने का निश्चय कर रहा हूँ । सूत जी बोले — इतना कहकर भगवान् सूर्य ने उस वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया । वहाँ पहुँचकर वेदशर्मा के घर उत्पन्न होकर ‘श्रीधर’ नाम से अत्यन्त ख्याति प्राप्त की । उस निपुण विद्वान् ने श्रीमद्भगवत्पुराण को अत्यन्त रहस्यमय समझकर विद्वानों के हितार्थ उसकी एक अत्यन्त सुन्दर टीका की, जो श्रीमद्भागवत पुराण पर ‘श्रीधरी’ के नाम से विद्वानों द्वारा अत्यन्त सम्मानित है । बृहस्पति बोले — पहले कलियुग के आरम्भ समय में प्रांशुशर्मा नामक एक ब्राह्मण था, जो नित्य वेद एवं शास्त्रों का अध्ययन करने वाला, देवता तथा अतिथि के पूजक, सत्यवक्ता, महासाधु और चोरी, हिंसादि दोषों से रहित थे । वह सदैव भिक्षाटन द्वारा अपने पुत्र तथा पत्नी का पालन करता था । भूपते ! एक बार भिक्षा के लिए जाते हुए मार्ग में उसे मायावी एवं धूर्त कलि दिखाई दिया । उसने एक सौन्दर्यपूर्ण वाटिका का निर्माणकर ब्राह्मण के वेष में उससे कहा — प्रांशुशर्मन् ! मेरी एक बात सुनो ! यह मेरी सुन्दर वाटिका है, आप इसमें चलने की कृपा करें । ब्राह्मण की यह बात सुनकर प्रांशुशर्मा उस वाटिका में जाकर विश्राम करने लगे । पश्चात् उस दुष्ट कलि ने उस वाटिका के सुन्दर एवं गधुर फल तोड़कर भोजनार्थ उन्हें अर्पित किया और हाथ जोड़कर प्रांशुशर्मा से कहा — विप्र ! मेरे साथ इस कलिंदफल के भक्षण करने की कृपा कीजिये । इसे सुनकर ब्राह्मण ने हँसकर मधुरवाणी से कहा — विद्वानों ने बहेड़ा नामक वृक्ष और कलिंदफल में कलि की स्थिति रहती है, इसलिए मैं इसका ग्रहण नहीं कर सकता । यदि आपने ब्राह्मण सेवा के निमित्त इसे अर्पित किया है, तो मैं इसे शालग्राम भगवान् को समर्पितकर उनके प्रसादरूप में इसका भक्षण करूँगा, क्योंकि शालग्राम स्वयं ब्रह्मरूप हैं, जो सच्चिदानन्द रूप कहते ज़ाते हैं तथा उनके दर्शन से अभक्ष्य भी भक्ष्य हो जाता है । इसे सुनकर कलि अत्यन्त लज्जित और निराश हो गया । ब्राह्मण ने उस फल को लेकर भूमिग्राम को प्रस्थान किया । वहाँ पहुँचने पर राजा ने वहाँ आकर ब्राह्मण से पूँछा — विप्र ! आप क्या लिए हैं, मेरी उसे देखने की इच्छा है । इसे सुनकर प्रांशुशर्मा ने वत्स-मुण्ड की भाँति उस फल को लेकर राजा को अर्पित किया । उस समय उसे देखकर ब्राह्मण को अत्यन्त आश्चर्य भी हुआ । उस समय उस कलि राजा ने वेंत की छड़ी से ब्राहाण को ताड़ित कर लोहे की श्रृंखला से हाथ-पैर बाँधकर जेल में डाल दिया । प्रातःकाल सूर्य के उदय होने पर दुःखी प्रांशुशर्मा ने ऋग्वेद के मन्त्रों द्वारा भगवान् सूर्य की आराधना की । उस समय प्रसन्न होकर सनातन एवं भगवान् सूर्य ने साक्षात् उस ब्राह्मण के कानों में आकाशवाणी की सुनकर प्रांशुशर्मा ने वत्स-मुण्ड की भाँति उस फल को लेकर राजा को अर्पित किया। उस समय उरो देखकर ब्राह्मण को अत्यन्त आश्चर्य भी हुआ । उस समय उस कलि राजा ने वेत की छड़ी रे ब्राहाण को ताड़ित कर लोहे की श्रृंखला से हाथ-पैर बाँधकर जेल में डाल दिया। प्रातःकाल सूर्य के उदय होने पर दुःखी प्रांशुशर्मा ने ऋग्वेद के मंत्रों द्वारा भगवान् सूर्य की आराधना की। उस समय प्रसन्न होकर सनातन एवं भगवान् सूर्य ने साक्षात् उस ब्राह्मण के कानों में आकाशवाणी की – विप्र ! महाभाग ! भगवान् विष्णु स्वयं काल (समय) रूप हैं । उन्होंने इस विश्व के पालनार्थ चार युगों का निर्माण किया है, जिनमें कलि समस्त विश्व के विनाशार्थ उत्पन्न किया गया है । अतः इस घोर कलि के समय तुम विष्णु की माया द्वारा रचित कलिंजर नामक पुरी में रहकर अपना सुखी-जीवन व्यतीत करो । भास्कर ने इस प्रकार कहकर उस ब्राह्मण को सुरक्षित रखते हुए कलिंजर नगर भेज दिया । उस ब्राह्मण ने वहाँ रहकर सवा सौ वर्ष अपनी पत्नी एवं पुत्र समेत सुखी जीवन व्यतीत कर सूर्यलोक की प्राप्ति की । भाद्रपद मास में सूर्य होकर दस सहस्र वर्ष तक स्थित रहकर पश्चात् ब्रह्मलोक पहुँचकर परमानन्द की प्राप्ति की । विप्र ! इस प्रकार बृहस्पति की कही हुई समस्त कथा मैंने तुम्हें सुना दी है । पुनः भाद्रपद मास की पूर्णिमा के दिन अट्ठाइसवें कलियुग के समय कलिंजर नगर में आकर स्वयं भास्कर देव ने शिवदत्त के घर जन्म ग्रहण किया । विष्णु शर्मा के नाम से उनकी ख्याति हुई । वे वेद एवं शास्त्रों के मर्मज्ञ तथा विष्णुदेव के उपासक थे । उन्होंने भगवान् के मन्दिर में चारों वर्णों के मनुष्यों को बुलाकर कहा -धर्मात्मा विष्णु ही सबके ईश्वर हैं। शिष्य ! मैं उस कारण को बता रहा हूँ, जिससे वे विश्व-निर्माण के कारण के भी कर्ता हो गये हैं। सुनो ! भगवान् सच्चिदानन्द घन चौबीस तत्वों में परिणत होकर लोकों के हितार्थ देवों की उत्पत्ति करते हैं। अतः विप्र ! महाभाग ! भगवान् विष्णु स्वयं काल (समय) रूप हैं। उन्होंने इस विश्व के पालनार्थ चार युगों का निर्माण किया है, जिनमें कलि समस्त विश्व के विनाशार्थ उत्पन्न किया गया है। अतः इस घोर कलि के समय तुम विष्णु की माया द्वारा रचित कलिंजर नामक पुरी में रहकर अपना सुखी-जीवन व्यतीत करो। भास्कर ने इस प्रकार कहकर उस ब्राह्मण को सुरक्षित रखते हुए कलिंजर नगर भेज दिया। उस ब्राह्मण ने वहाँ रहकर सवा सौ वर्ष अपनी पत्नी एवं पुत्र समेत सुखी जीवन व्यतीत कर सूर्यलोक की प्राप्ति की। उस भादों के मास में सूर्य होकर दश सहस्र वर्ष तक स्थित रहकर पश्चात् ब्रह्मलोक पहुँचकर परमानन्द की प्राप्ति की । विप्र ! इस प्रकार बृहस्पति की कही हुई समस्त कथा मैंने तुम्हें सुना दी है। उस भादों मास की पूर्णिमा के दिन अट्ठाइसवें कलियुग के समय कलिंजर नगर में आकर स्वयं भास्कर देव ने शिवदत्त के घर जन्म ग्रहण किया। विष्णुशर्मा के नाम से उनकी ख्याति हुई । वे वेद एवं शास्त्रों के मर्मज्ञ तथा विष्णुदेव के उपासक थे । उन्होंने भगवान् के मन्दिर में चारों वर्गों के मनुष्यों को बुलाकर कहा — धर्मात्मा विष्णु ही सबके ईश्वर हैं । शिष्य ! मैं उस कारण को बता रहा हूँ, जिससे वे विश्व-निर्माण के कारण के भी कर्ता हो गये हैं । सुनो ! भगवान् सच्चिदानन्द घन चौबीस तत्वों में परिणत होकर लोकों के हितार्थ देवों की उत्पत्ति करते हैं । अतः वे सबके अधीश्वर कहे जाते हैं और इसीलिए जिस प्रकार सेवक की प्रथम पूजा होकर फिर राजा की पूजा होती है, उसी प्रकार समस्त देवों की पहले पूजा करने के पश्चात् विष्णु की पूजा सबको करनी चाहिए । इसे सुनकर वहाँ के लोगों ने उनकी बड़ी प्रशंसा की और विष्णुस्वामी’ के नाम से उनको ख्याति करते हुए अत्यन्त हर्ष की प्राप्ति की । विप्र ! इस प्रकार मैंने विष्णुस्वामी की उत्पत्ति की कथा तुम्हें सुना दिया । किन्तु बृहस्पति द्वारा कही गई एक सुन्दर कथा का वर्णन पुनः कर रहा हूँ, सुनो — बृहस्पति बोले — पहले समय में चैत्ररथ नामक प्रदेश में मेधावी मुनि द्वारा मंजुघोषा नामक अप्सरा के गर्भ से ‘भगशर्मा’ नामक एक ब्राह्मण बालक उत्पन्न हुआ । माता-पिता के परित्याग कर देने पर वह बालक श्रद्धालु होकर तप द्वारा सूर्य की उपासना करने लगा । सौ वर्ष तक आराधना करने के उपरान्त सूर्यमण्डल के मध्यभाग में रहने वाली सावित्री नामक देवी ने, जो सम्पूर्ण सूर्य की जननी एवं उनके मण्डल की कन्या हैं, प्रसन्न पूर्ण प्रकट होकर उस ब्राह्मण को कुआर (आश्विन) मास के मण्डल का राजा बनाया । उस लोक के निवासियों द्वारा पूजित होकर उस ब्राह्मण ने प्रत्येक आश्विन (कुआर) मास में एक लाख सहस्र वर्ष तक सूर्य रूप में लोक को आकाश प्रदान किया । अतः देवेन्द्र ! उन्हीं सूर्य की आराधना करो वे तुम्हारे कार्य सफल करेंगे । इसे सुनकर उन्होंने आश्विनमास के सूर्य की आराधना की, जिससे प्रसन्न होकर सूर्य ने वहाँ आविर्भूत होकर देवों से कहा — मैं कान्यकुब्ज प्रदेश में सत्यदेव नामक ब्राह्मण के घर ‘वाणीभूषण’ के नाम से उनके पुत्र रूप में अवतरित होऊँगा । सूत जी बोले — इतना कहकर भगवान् सूर्य ने उस कान्यकुब्ज प्रदेश में उत्पन्न होकर उन पाखण्डी ब्राह्मणों पर विजय प्राप्ति की, जो अत्यन्त मांसभक्षी थे । देवप्रिय सूर्य ने अपने नाम के आधार पर छन्द ग्रन्थ की रचना की। उस समय मत्स्य, मांस, मृग, भेड़ और बकरी आदि के मांस भोजी उन ब्राह्मणों ने एकत्रित होकर उनसे घोर शास्त्रार्थ करना आरम्भ किया और अधर्ममित्र कलि द्वारा सुरक्षित रहकर उन ब्राह्मणों ने इन्हें पराजित कर उनके घर में बलात् मत्स्यकेतु (मछली का झंडा) स्थापित कराया । उस समय विष्णुप्रिय उस ब्राह्मण ने वैष्णवी शक्ति आवाहन कर भक्षण की गई मछली को अपने मुख से जीवित निकालकर उन लोगों को दिखाया, जिससे वे सब आश्चर्य चकित हो गये । पश्चात् वैष्णव मत को प्रधान मानकर वे सब उनके शिष्य हो गये । बृहस्पति बोले — सरयू नदी के तट पर देवयाजी नामक कोई ब्राह्मण रहता था, जो समस्त देवों का भक्त एवं वेदपाठी था । उसका पुत्र दारुण जन्मग्रहण के समय ही मृतक हो गया । उसे सुनकर उस ब्राह्मण ने उसी समय सूर्यदेव को प्रसन्न किया, जिससे उनके प्रसाद से वह जीवित होकर विवस्वान् नाम से प्रख्यात हुआ । सोलह वर्ष की अवस्था तक उसने समस्त विद्याओं में निपुणता प्राप्त की, जो पुत्रवान्, धार्मिक एवं सूर्यव्रत परायण था । एक बार शिवरात्रि के दिन आभूषणों से सुसज्जित सुशीला नामक उसकी पत्नी पति सेवार्थ उनके समीप आई । शिव के व्रत रहने वाले उस ब्राह्मण ने अपनी पत्नी के मुख सौन्दर्य पर मुग्ध होकर कामपीड़ित होने पर उस रात्रि के समय बलात् उसे पकड़कर उसका उपभोग किया जिससे उस मैथुन करने के दोष से उसे महान् कुष्ठ हो गया — उसका लिंगेन्द्रिय गिर गया, गुदा भ्रष्ट हो गई और समस्त शरीर उस असाध्य रोग से अत्यन्त पीड़ित हो गया । किसी के उपदेश देने पर उसने निराहार एवं संयमपूर्वक बारह रविवार व्रत का अनुष्ठान किया, जिससे उस व्रत के प्रभाव से उसकी समस्त पीड़ा नष्ट हो गई । उस समय से सूर्य में उसकी अत्यन्त श्रद्धा उत्पन्न हुई जिससे उस ब्राह्मण श्रेष्ठ ने आदित्य हृदय स्तोत्र का प्रतिदिन जप-पाठ करके सौन्दर्यपूर्ण रूप की प्राप्त की । जो पहले स्त्रियों द्वारा निन्दित एवं त्याज्य था, स्त्रियाँ अब इस रूप में उससे याचना करने लगी । किन्तु उसने अपने ब्रह्मचर्य व्रत को अखण्डित रखकर अनवरत ब्रह्मा का ध्यान एवं उपासना किया । इस प्रकार उस ब्राह्मण ने सौ वर्ष की आयु तक ज्ञानवान् एवं रोगहीन रहकर अपने सुखी जीवन व्यतीत करने के उपरान्त शरीर त्यागकर सूर्य मण्डल के मध्य में सूर्य रूप से स्थित रहकर प्रत्येक कार्तिक मास में एक लाख वर्ष तक आकाश को प्रकाशित किया । अतः महेन्द्र ! देवों समेत तुम उसी सूर्य की आराधना करो । सूतजी बोले — इसे सुनकर महेन्द्रदेव ने एक मास तक सविधान भास्कर देव की उपासना की । पूर्णिमा के दिन सूर्य ने प्रसन्न होकर स्वयं दर्शन देकर उनसे कहा —तुम्हारा कार्य करने के लिए मैं तैयार हूँ । उन धूर्त एवं पाखण्डी भट्ट पण्डितों को, जिन्होंने सूत्रपाठ, धातुपाठ तथा अन्य पाठ को खण्डितकर स्वर-वर्ण के अर्थों को भी नष्ट कर दिया है, पराजित कर मैं वेदों का उद्धार करने जा रहा हूँ । इतना कहकर सूर्य ने काशी में जाकर वेदशर्मा दीक्षित के घर अवतरित होकर ‘दीक्षित’ के नाम से ख्याति प्राप्त की । बारह वर्ष की आयु तक उन्होंने सम्पूर्ण शास्त्रों में निपुणता प्राप्तकर पार्वतीप्रिय भगवान् विश्वनाथ देव की आराधना आरम्भ की । तीन वर्ष के अनन्तर प्रसन्न होकर भगवान् विश्वनाथ ने उन्हें महाज्ञानी बनाया, जिससे उनके हृदय में व्यक्त और अव्यक्त का पूर्ण ज्ञान उदय हो गया । अव्यक्त में बुद्धि के स्थिर होने पर उसे द्वादशाङ्ग कहा गया है, और अहंकारभूत व्यक्त में स्थिरबुद्धि को विद्वानों ने अजन्मा कहा है । उसी प्रकार अविद्या को भी षोडशाङ्ग रूप वाली बताया गया है । अव्यक्त परब्रह्म का नाम है तथा व्यक्त, शब्द (नाद) मय का । वह व्यक्त, जो अहंकार रूप एवं लोकस्रष्टा है, अट्ठारह प्रकार का होता है । विद्वानों ने वृष रूपधारी उस मुख्य नन्दी यान (वाहन) के विषय में बताया है कि उसकी चार सींगें तीन चरण, दो सिर, सात हाथ हैं तथा दो प्रकार से आबद्ध होकर वह नित्य शुद्धात्मा मुख में स्थित है । उस वृष के सिर में ‘सुवन्त, तिङन्त, कृदन्त और अव्यय रूप चार सीगें, भूत, वर्तमान एवं भविष्यत् रूप तीनों चरण, रूढ़ि-योगरूढ़ि दो सिर, कर्त्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, सम्बन्ध और अधिकरण रूप सात भुजाएँ एवं स्वरयुक्त वाक्य तथा विभक्त्यन्त पद, इन दोनों से आबद्ध है । अतः नन्दिमुख रूप को नमस्कार है । उस वृष के ऊपर अव्यक्त लिङ्गधारी वह ब्रह्म नित्य स्थित रहता है। इस प्रकार उस वृष और लिङ्ग द्वारा अहंकार उत्पन्न होता है, जो स्वयं हरि, षोडशात्मा नारायण, अनेक रूप एवं एक रूप रहता है । इस प्रकार इस विशाल ज्ञान को अपने हृदय में स्थितकर दीक्षित ने धूर्त भट्टों को पराजित कर सिद्धान्त कौमुदी का निर्माण किया, जिससे ‘भट्टोजिः (भट्टोजिदीक्षित) के नाम से उनकी अत्यन्त ख्याति हुई । बृहस्पति बोले — पहले कांचीपुरी में ‘गणक’ नामक एक ब्राह्मण रहता था, जो वैदिक धर्मानुयायी राजा सत्यदेव का पुरोहित था । एक बार उस धीमान् गणक ब्राह्मण ने राजा सत्यदेव से कहा — हाराज ! पुष्य नक्षत्र युक्त यह अभिजित नामक मुहूर्त उपस्थित हो रहा है । आप इसमें बाजार लगवाना आरम्भ करें तो, इससे अधिक धन का लाभ होगा ! इसे सुनकर राजा ने अपने नगर में डिंडिंम (डुग्गी) की ध्वनि द्वारा सभी लोगों को एकत्र किया । सुरोत्तम ! उपस्थित लोगों से राजा ने जो कुछ कहा, मैं बता रहा हूँ, सुनो ! उसने उन्हें आज्ञा प्रदान किया कि इस बाजार में जिस वस्तु का क्रेता (खरीददार) कोई निपुण वैश्य न हो सकेगा, उसे मैं अवश्य क्रय (खरीद) कर लूंगा । यह मेरी सत्य प्रतिज्ञा है । इसे सुनकर शूद्रों ने भी भाँति-भाँति की वस्तुएँ बनाकर उस विशाल बाजार में विक्रयार्थ लाना आरम्भ किया । एक बार एक लोहार ने लोहे की दरिद्र की मूर्ति बनाकर उस बाजार में विक्रयार्थ उपस्थित किया और सौ रुपया उसका निर्धारित मूल्य बताया । राजा ने देखा कि उस दरिद्र की मूर्ति को कोई क्रय (खरीद) नहीं कर रहा है, तो सौ रूपया देकर स्वयं सबका क्रय कर अपने भवन के कोषागार में उसे स्थापित की । उसी दिन आधी रात के अंधेरे समय में राजा के भवन से कर्म, धर्म, और लक्ष्मी उनके देखते-देखते सामने से होकर निकल गये । पश्चात् सत्यपुरुष ने भी राजा से कहा — राजन् ! जिसके गृह में दरिद्र निवास करता है, वह मनुष्य कर्तव्य-पालन नहीं कर सकता । कर्तव्यहीन होने पर उसका धर्म भी इस पृथ्वी पर स्थित नहीं रह सकता । धर्मरहित होने पर उसके घर लक्ष्मी भी कभी सुशोभित नहीं हो सकती हैं और लक्ष्मीविहीन होकर मैं कभी नहीं रहता हूँ । इतना कहकर सत्य वहाँ से चलना चाहता था कि राजा ने उन्हें रोककर विनम्र वाणी द्वारा उनसे कहा — सत्य ! मेरी एक बात सुनने की कृपा करें । देव ! आप मुझे अत्यन्त प्रिय हैं, अतः आपका त्याग मैं कभी नहीं कर सकता । क्या अब भी आप जाना चाहेंगे । इसे सुनकर सत्यदेव उनके घर लौट गये, पश्चात् लक्ष्मी भी राजा के यहाँ लौटने के लिए उत्सुक हुई । उन्हें उद्यत देखकर राजा ने कहा — देवि ! तुम सदैव चंचल रही हो, किन्तु मातः ! अब मेरे महल में चलकर अपनी अचल स्थिति करें । इसे सुनकर लक्ष्मी ने उन्हें वरदान प्रदान किया और उनके घर अचल निवास भी । अनन्तर उस नृपश्रेष्ठ ने अपने गणक पुरोहित को बुलाकर समस्त वृत्तान्त निवेदनपूर्वक उन्हें एक लाख स्वर्ण मुद्रा प्रदान किया । उस समय पुरोहित के घर पुत्र-जन्म हुआ था । गणक ने उस धन से उसी बालक का सुचारू रूप से पोषण किया । मार्गशीर्ष के शुभ दिन में जन्म ग्रहण करने के नाते उसका नाम पूषा हुआ जिसने सूर्य की आराधना द्वारा ज्योतिषशास्त्र में अत्यन्त सुख्याति प्राप्त की । तदुपरान्त शरीर त्यागने पर वह देवाधिदेव सूर्य के प्रसाद से उन्हीं में लीन हो गया । अतः देवेन्द्र ! तुम उसी मार्गशीर्ष (अगहन) मास के सूर्य की अर्चना करो । सूतजी बोले — इन्द्र के पूजन करने पर उस समय पुषा नामक सूर्य ने वहाँ उपस्थित होकर देवों से मधुर वाणी द्वारा कहा — उज्जयिनी पुरी में रुद्रपशु के गृह में उत्पन्न होकर मैं ज्योतिषशास्त्र प्रवर्तक एवं मिहिराचार्य के नाम से ख्याति प्राप्त करूंगा । इतना कहकर भगवान् पूषा ने उस ब्राह्मण के घर बालक रूप में जन्म ग्रहण किया । मूल गण्डान्त नक्षत्र तथा शुभदायक, अभिजित योग में उत्पन्न होने के नाते उस बालक को उसके माता-पिता ने काष्ठ की सन्दूक में उसे बन्दकर आधी रात के समय नदी में डाल दिया । नदी द्वारा वह बालक समुद्र में पहुँच गया, वहाँ राक्षसियों द्वारा सुरक्षित रहकर समुद्र से लंका में पहुँचा । वहाँ रहकर उसने ज्योतिषशास्त्र का विशेषाध्ययन किया, जिससे जातकफलित और मूकप्रश्न आदि की विशेष निपुणता उन्हें प्राप्त हुई । पश्चात् राक्षसेन्द्र विभीषण के पास पहुँचकर उन्होंने कहा — भक्तराज, एवं हरिप्रिय विभीषण ! तुम्हें नमस्कार है । राक्षसियों द्वारा मेरा अपहरण हुआ है अतः मैं आपकी शरण में प्राप्त हूँ । इसे सुनकर उस राजा ने उस वैष्णव ब्राह्मणश्रेष्ठ को उनकी जन्मभूमि में पहुँचा दिया । वहाँ पहुँचकर उसने म्लेच्छों द्वारा विनष्ट उस वेदाङ्ग ज्योतिषशास्त्र का, जो सनातन एवं तीन भागों में विभक्त है, पुनः उद्धार किया । (अध्याय ८) Related