भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय- ३५
सर्पों के विष का वेग, फैलाव तथा सात धातुओं में प्राप्त विष के लक्षण और उनकी चिकित्सा

कश्यपजी बोले – गौतम ! यदि यह ज्ञात हो जाय कि सर्प ने अपनी यमदूती नामक दाढ़ से काटा है तो उसकी चिकित्सा न करे । उस व्यक्ति को मरा हुआ ही समझे । गारुड़ोपनिषद् एवं तार्क्ष्योपनिषद् में यमदूती के नाम से भी मंत्र पढ़े गये है, यहाँ मध्यम नियम का वर्णन है । वैसे भगवत्कृपा से कुछ भी असाध्य नहीं हैं । दिन में और रात में दूसरा और सोलहवाँ प्रहरार्ध साँपों से सम्बन्धित नागोदय नामक वेला कही गयी है । उसमें साँप काटे तो काल के द्वारा काटा गया समझना चाहिये और उसकी चिकित्सा नहीं करनी चाहिये । पानी में बाल डुबोने पर और उसे उठाने पर बाल के अग्रभाग से जितना जल गिरता हैं, उतनी ही मात्रा में विष सर्प प्रविष्ट कराता है । वह विष सम्पूर्ण शरीर में फ़ैल जाता है । जितनी देर में हाथ पसारना और समेटना होता है, उतने ही सूक्ष्म समय में काटने के बाद विष मस्तक में पहुँच जाता है । हवा से आग की लपट फैलने के समान रक्त में पहुँचने पर विष की बहुत वृद्धि हो जाती है । जैसे जल में तेल की बूँद फ़ैल जाती है, वैसे ही त्वचा में पहुँचकर विष दूना हो जाता हैं ।om, ॐ रक्त में चौगुना, पित्त में आठ गुना, कफ में सोलह गुना, वात में तीस गुना, मज्जा में साठ गुना और प्राणों में पहुँचकर वही विष अनन्त गुना हो जाता है । इस प्रकार सारे शरीर में विष के व्याप्त हो जाने तथा श्रवणशक्ति बंद हो जानेपर वह जीव श्वास नहीं ले पाता और उसका प्राणान्त हो जाता है । यह शरीर पृथ्वी आदि पञ्चभूतों से बना है, मृत्यु के बाद भूत-पदार्थ अलग-अलग हो जाते हैं और अपने-अपने में लीन हो जाते हैं । अतः विष की चिकित्सा बहुत शीघ्र करनी चाहिये, विलम्ब होने से रोग असाध्य हो जाता है । सर्पादि जीवों का विष जिस प्रकार प्राण हरण करनेवाला होता है, वैसे ही शंखिया आदि विष भी प्राण को हरण करने वाले होते हैं ।

विष के पहले वेग में रोमाञ्च तथा दुसरे वेग में पसीना आता है । तीसरे वेग में शरीर काँपता हैं तथा चौथे में श्रवणशक्ति अवरुद्ध होने लगती है, पाँचवे में हिचकी आने लगती हैं और छठे में ग्रीवा लटक जाती है तथा सातवें वेगमें प्राण निकल जाते हैं । इन सात वेगों में शरीर के सातों धातुओं में विष व्याप्त हो जाता हैं । इन धातुओं में पहुँचे हुए विष का अलग-अलग लक्षण तथा उपचार इस प्रकार हैं –

आँखों के आगे अँधेरा छा जाय और शरीर में बार-बार जलन होने लगे तो यह जानना चाहिये कि विष त्वचा में हैं । इस अवस्था में आक की जड़, अपामार्ग, तगर और प्रियंगु – इनको जल में घोंटकर पिलाने से विष की बाधा शान्त हो सकती है । त्वचा से रक्त में विष पहुँचने पर शरीर में दाह और मूर्च्छा होने लगती हैं । शीतल पदार्थ अच्छा लगता है । उशीर (खस), चन्दन, कूट, तगर, नीलोत्पल सिंदुवार की जड़, धतूरे की जड़, हींग और मिरच – इनको पीसकर देना चाहिये । इससे बाधा शान्त न हो तो भटकटैया, इन्द्रायण की जड़ और सर्पगन्धा को घी में पीसकर देना चाहिये । यदि इससे भी शांत न हो तो सिंदुवार और हींग का नस्य देना चाहिये और पिलाना चाहिये । इसीका अञ्जन और लेप भी करना चाहिये, इससे रक्त में प्राप्त विष की बाधा शांत हो जाती है ।

रक्त से पित्त में विष पहुँच जानेपर पुरुष उठ-उठकर गिरने लगता है, शरीर पीला हो जाता है, सभी दिशाएँ पीले वर्ण की दिखायी देती हैं, शरीर में दाह और प्रबल मूर्च्छा होने लगती हैं । इस अवस्था में पीपल, शहद, महुवा, घी, तुम्बे की जड़, इन्द्रायण की जड़ – इन सबको गोमूत्र में पीसकर नस्य, लेपन तथा अञ्जन करने से विष का वेग हट जाता हैं ।

पित्त से विष के कफ में प्रवेश कर जाने पर शरीर जकड़ जाता हैं । श्वास भली-भाँति नहीं आती, कण्ठ में घर्घर शब्द होने लगता है और मुख से लार गिरने लगती है । यह लक्षण देखकर पीपल, मिरच, सोंठ, श्लेष्मातक (बहुवार वृक्ष), लोध एवं मधुसार को समान भाग करके गोमूत्र में पीसकर लेपन और अञ्जन लगाना चाहिये और उसे पिलाना भी चाहिये । ऐसा करने से विष का वेग शान्त हो जाता है ।

कफ से वात में विष प्रवेश करनेपर पेट फुल जाता है, कोई भी पदार्थ दिखायी नहीं पड़ता, दृष्टि-भंग हो जाता है । ऐसा लक्षण होनेपर शोणा (सोनागाछ)- की जड़, प्रियाल, गजपीपल, भारंगी, वचा, पीपल, देवदारु, महुआ, मधुसार, सिंदुवार और हींग – इन सबको पीसकर गोली बना ले और रोगी को खिलाये और अञ्जन तथा लेपन करे । यह ओषधि सभी विषों का हरण करती है ।

वात से मज्जा में विष पहुँच जानेपर दृष्टि नष्ट हो जाती हैं, सभी अङ्ग बेसुध हो शिथिल हो जाते हैं, ऐसा लक्षण होने पर घी, शहद, शर्करायुक्त खस और चन्दन को घोंटकर पिलाना चाहिये और नस्य आदि भी देना चाहिये । ऐसा करने से विष का वेग हट जाता है ।

मज्जा से मर्मस्थानों में विष पहुँच जानेपर सभी इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती है और वह जमीन पर गिर जाता है । काटने से रक्त नही निकलता, केश के उखाड़ने पर भी कष्ट नहीं होता, उसे मृत्यु के ही अधीन समझना चाहिये । ऐसे लक्षणों से युक्त रोगी की साधारण वैद्य चिकित्सा नहीं कर सकते । जिनके पास सिद्ध मन्त्र और ओषधि होगी वे ही ऐसे रोगियों के रोग को हटाने में समर्थ होते है इसके लिये साक्षात् रुद्र ने एक ओषधि कही है । मोर का पित्त तथा मार्जार का पित्त और गन्धनाड़ी की जड़, कुंकुम, तगर, कूट, कासमर्द की छाल तथा उत्पल, कुमुद और कमल – इन तीनों के केसर– सभी का समान भाग लेकर उसे गोमूत्र में पीसकर नस्य दे, अञ्जन लगाये । ऐसा करने से कालसर्प से डँसा हुआ भी व्यक्ति शीघ्र विषरहित हो जाता है । यह मृत-संजीवनी ओषधि है अर्थात् मरे को भी जिला देती है ।
(अध्याय ३५)

See Also :-

1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२

2. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय 3

3. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४

4. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५

5. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६

6. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७

7. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ८-९

8. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १०-१५

9. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६

10. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १७

11. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८

12. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९

13. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २०

14. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१

15. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २२

16. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २३

17. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २४ से २६

18. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २७

19. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २८

20. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २९ से ३०

21. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३१

22. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३२

23. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३३

24. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३४

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