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भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १३८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १३८
ध्वजारोपणका विधान और फल

नारदजी बोले — साम्ब ! अब मैं ब्रह्माजी द्वारा वर्णित ध्वजारोपण की विधि बताता हूँ । पूर्वकाल में देवता और असुरों में जो भीषण युद्ध हुआ, उसमें देवताओं ने अपने-अपने रथों पर जिन-जिन चिह्नों की कल्पना की, वे ही उनके ध्वज कहलाये । उनका लक्षण इस प्रकार है — ध्वज का दण्ड सीधा, व्रणरहित और प्रासाद के व्यास के बराबर लम्बा होना चाहिये अथवा चार, आठ, दस, सोलह या बीस हाथ लम्बा होना चाहिये । ध्वजा का दण्ड बीस हाथ से अधिक लम्बा न हो और सम पर्वों वाला हो । उसकी गोलाई चार अङ्गुल होनी चाहिये ।om, ॐध्वज के ऊपर देवता को सूचित करनेवाला चिह्न बनवाना चाहिये । भगवान् विष्णु के ध्वज पर गरुड, शिवजी की ध्वजा पर वृष, ब्रह्माजी की ध्वजा पर पद्य, सूर्यदेव की ध्वजा पर व्योम, सोम की पताका पर नर, बलदेव की पताका पर फालसहित हल, कामदेव की पताका पर मकरध्वज, इन्द्र की ध्वजा पर हस्ती, दुर्गा की ध्वजा पर सिंह, उमादेवी की ध्वजा पर गोधा, रेवत की ध्वजा पर अश्व, वरुण की ध्वजा पर कच्छप, वायु की ध्वजा पर हरिण, अग्नि की ध्वजा पर मेष, गणपति की ध्वजा पर मूषक का तथा ब्रह्मर्षियों की पताका पर कुश का चिह्न बनाना चाहिये । जिस देवता का वाहन हो, वही ध्वजा पर भी अंकित रहता है ।

विष्णु की ध्वजा का दण्ड़ सोने का और पताका पीतवर्ण की होनी चाहिये, वह गरुड़ के समीप रखनी चाहिये । शिवजी का ध्वजदण्ड चाँदी का और श्वेत वर्ण की पताका वृष के समीप स्थापित करे । ब्रह्मा का ध्वजदण्ड ताँबे का और पद्मवर्ण की पताका कमल के समीप रखे । सूर्यनारायण का ध्वजदण्ड सुवर्ण का और व्योम के नीचे पँचरंगी पताका होनी चाहिये, जिसमें किंकिणी लगी रहे एवं पुष्पमालाओं से संयुक्त हो । इन्द्र का ध्वजदण्ड सोने का और हस्ती के समीप अनेक वर्ण की पताका होनी चाहिये । यम का ध्वजदण्ड लोहे का और महि पके समीप कृष्णवर्ण की पताका रखनी चाहिये । कुबेर का ध्वजदण्ड मणिमय और मनुष्य-पाद के समीप रक्त वर्ण की पताका रखे । बलदेव का ध्वजदण्ड चाँदी का और तालवृक्ष के नीचे श्वेतवर्ण की पताका रखनी चाहिये । कामदेव का ध्वजदण्ड त्रिलौह (सोना, चाँदी और ताँबा-मिश्रित)—का और मकर के समीप रक्तवर्ण की पताका स्थापित करनी चाहिये । कार्तिकेय का ध्वजदण्ड त्रिलोह का और मयूर के समीप चित्रवर्ण की पताका एवं गणपति का ध्वजदण्ड ताम्र का अथवा हस्तिदन्त का एवं मूषक के समीप शुक्लवर्ण की पताका और मातृकाओं के ध्वजदण्ड अनेक रूपों के तथा अनेक वर्णों की अनेक पताकाएँ होनी चाहिये । रेवन्त की पताका अश्व के समीप लालवर्ण की, चामुण्डा का ध्वजदण्ड लौह का और मुण्डमाला के समीप नीले वर्ण की ध्वजा होनी चाहिये । गौरी का ध्वजदण्ड ताम्र का और इन्द्रगोप (बीरबहूटी कीट) के समान अतिशय रक्तवर्ण की ध्वजा होनी चाहिये । अग्नि का ध्वजदण्ड सुवर्ण का और मेष के समीप अनेक वर्ण की पताका होनी चाहिये । वायु का ध्वजदण्ड लौह का और हरिण के समीप कृष्णवर्ण की पताका होनी चाहिये । भगवती का ध्वजदण्ड सर्वधातुमय, उसके ऊपर सिंह के समीप तीन रंग की पताका होनी चाहिये ।इस प्रकार ध्वज का पहिले निर्माण कर उसका अधिवासन करे । लक्षण के अनुसार वेदी का निर्माण करे, कलश की स्थापना कर सर्वौषधि-जल से ध्वज को स्नान कराये । वेदों के मध्य में उसे खड़ाकर सभी उपचारों से उसकी पूजा करे और उसे पुष्पमाला पहनाये, दिक्पाल को बलि देकर एक रात तक अधिवासन करे । दूसरे दिन भोजन कराकर शुभ मुहूर्त में स्वस्तिवाचन आदि मङ्गल कृत्य सम्पन्न कर ध्वज को मन्दिर के ऊपर आरूढ़ करे । ध्वजारोहण के समय अनेक प्रकार के वाद्यों को वजाये, ब्राह्मणगण वेद-ध्वनि करें । इस प्रकार देवालय पर ध्वजारोहण कराना चाहिये । ध्वजारोहण करानेवाले की सम्पत्ति को सदा वृद्धि होती रहती है और वह परम गति को प्राप्त करता है । ध्वजरहित मन्दिर में असुर निवास करते हैं, अतः ध्वजरहित मन्दिर नहीं रखना चाहिये । ध्वजारोहण के समय इन मन्त्रों को पढ़ना चाहिये —

“एह्यहि भगवन् देव देववाहन वै खग ॥
श्रीकरः श्रीनिवासश्च जय जैत्रोपशोभित ।
व्योमरूप महारूप धर्मात्मंस्त्वं च वै गतेः ॥
सांनिध्यं कुरु दण्डेऽस्मिन् साक्षी च ध्रुवतां व्रज ।
कुरु वृद्धिं सदा कर्तुः प्रासादस्यार्कवल्लभ ॥
ॐ एह्येहि भगवन्नीश्वरविनिर्मित उपरिचरवायुमार्गानुसारिञ्छ्रीनिवास रिपुध्वंस यक्षनिलय सर्वदेवप्रियं कुरु सांनिध्यं शान्तिं स्वस्त्ययनं च मे । भयं सर्वविघ्रा व्यपसरन्तु ॥
(ब्राह्मपर्व १३८ । ७३-७६)

स्वच्छ दण्ड में पताका को प्रतिष्ठित करे तथा पताका का दर्शन करे । इस प्रकार भक्तिपूर्वक जो रवि का ध्वजारोपण करता है, वह श्रेष्ठ भोगों को भोगकर सूर्यलोक को प्राप्त करता है ।(अध्याय १३८)

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