भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(मध्यमपर्व — प्रथम भाग)
अध्याय – १२
देव-प्रतिमा-निर्माण-विधि

सूतजी बोले— ब्राह्मणों ! अब मैं प्रतिमा का शास्त्रसम्मत लक्षण कहता हूँ । उत्तम लक्षणों से रहित प्रतिमा का पूजन नहीं करना चाहिये । पाषाण, काष्ठ, मृतिका, रत्न, ताम्र एवं अन्य धातु — इनमें से किसी की भी प्रतिमा बनायीं जा सकती है । om, ॐ(मत्स्यपुराण में प्रतिमा-निर्माण के लिये निम्न वस्तुओं को ग्राह्य बतलाया गया है —
‘सौवर्णी राजती वापि ताम्रो रत्नमयी तथा ।
शैली दारुमयी चापिलौहसीसमयी तथा ॥
रातिकाधातुयुक्ता वा ताम्रकांस्यमयी तथा ।
शुभदारूमयी वापि देगतार्चा प्रशस्यते ॥ (२५८ । २०-२१)
‘सुवर्ण, चाँदी, ताँबा, रत्न, पत्थर, देवदारु, लोहा-सीसा, पीतल और काँसा-मिश्रित अथवा शुभ काष्ठों की बनी हुई देवप्रतिमा प्रशस्त मानी गयी है ।
)
उनके पूजनसे सभी अभीष्ट फल प्राप्त होते हैं । मन्दिर के माप के अनुसार शुभ लक्षणों से सम्पन्न प्रतिमा वनवानी चाहिये । घर में आठ अङ्गुल से अधिक ऊँची मूर्ति का पूजन नहीं करना चाहिये । देवालय के द्वार की जो ऊँचाई हो उसे आठ भागों में विभक्त कर तीन भाग के माप में पिण्ड का तथा दो भाग के माप में देव-प्रतिमा बनाये । चौरासी अङ्गुल (साढ़े तीन हाथ) की प्रतिमा वृद्धि करनेवाली होती है । प्रतिमा के मुख की लम्बाई बारह अङ्गुल होनी चाहिये । मुख के तीन भाग के प्रमाण में चिबुक, ललाट तथा नासिका होनी चाहिये । नासिका के बराबर ही कान और ग्रीवा बनानी चाहिये । नेत्र दो अङ्गुल-प्रमाण के बनाने चाहिये । नेत्र के मान के तीसरे भाग में आँख की तारिका बनानी चाहिये । तारिका के तृतीय भाग में सुन्दर दृष्टि बनानी चाहिये । ललाट, मस्तक तथा ग्रीवा— से तीनों बराबर माप के हों । सिर का विस्तार बत्तीस अङ्गुल होना चाहिये । नासिका, मुख और ग्रीवा से हृदय एक सीध में होना चाहिये । मूर्ति की जितनी ऊँचाई हो उसके आधे में कटि-प्रदेश बनाना चाहिये । दोनों बाहु, जंघा तथा ऊरु परस्पर समान हों । टखने चार अङ्गुल ऊँचे बनाने चाहिये । पैर के अँगूठे तीन अङ्गुल के हों और उसका विस्तार छः अङ्गुल का हो । अँगूठे के बराबर ही तर्जनी होनी चाहिये । शेष अङ्गुलियाँ क्रमशः छोटी हों तथा सभी अङ्गुलियाँ नखयुक्त बनाये । पैर की लम्बाई चौदह अङ्गुल में बनानी चाहिये । अधर, ओष्ठ, वक्षःस्थल, भू, ललाट, गण्डस्थल तथा कपोल भरे-पूरे सुडौल सुन्दर तथा मांसल बनाने चाहिये, जिससे प्रतिमा देखने में सुन्दर मालूम हो । नेत्र विशाल, फैले हुए तथा लालिमा लिये हुए बनाने चाहिये । इस प्रकार के शुभ लक्षणों से सम्पन्न प्रतिमा शुभ और पूज्य मानी गयी है । प्रतिमा के मस्तक में मुकुट, कण्ठ में हार, बाहुओं में कटक और अंगद पहनाने चाहिये । मूर्ति सर्वाङ्ग सुन्दर, आकर्षक तथा तत्तत् अङ्गों के आभूषणों से अलंकृत होनी चाहिये । भगवान् की प्रतिमा देवताओं का आधान होने पर भगवत्प्रतिमा प्रत्येक को अपनी ओर बरबस आकृष्ट कर लेती है और अभीष्ट वस्तु का लाभ कराती है ।

जिसका मुखमण्डल दिव्य प्रभा से जगमगा रहा हो, कानों में चित्र-विचित्र मणियों के सुन्दर कुण्डल तथा हाथों में कनक-मालाएँ और मस्तक पर सुन्दर केश सुशोभित हों, ऐसी भक्तों को वर देनेवाली, स्नेह से परिपूर्ण, भगवती की सौम्य कैशोरी प्रतिमा का निर्माण कराये । भगवती विधिपूर्वक अर्चना करने पर प्रसन्न होती हैं और उपासकों के मनोरथों को पूर्ण करती हैं । नव ताल (साढ़े चार हाथ) —की विष्णु की प्रतिमा बनवानी चाहिये । तीन ताल की वासुदेव की, पाँच ताल की नृसिंह तथा हयग्रीव की, आठ ताल की नारायण की, पाँच ताल की महेश की, नव ताल की भगवती दुर्गा की, तीन-तीन ताल की लक्ष्मी और सरस्वती की तथा सात ताल की भगवान् सूर्य की प्रतिमा बनवाने का विधान है ।
भगवान् की मूर्ति की स्थापना तीर्थ, पर्वत, तालाब आदि के समीप करनी चाहिये अथवा नगर के मध्यभाग में या जहाँ ब्राह्मणों का समूह हो, वहाँ करनी चाहिये । इनमें भी अविमुक्त आदि सिद्ध क्षेत्रों में प्रतिष्ठा करनेवाले के पूर्वा पर अनन्त कुलों का उद्धार हो जाता है । कलियुग में चन्दन, अगरु, बिल्व, श्रीपर्णिक तथा पद्मकाष्ठ आदि काष्ठों के अभाव में मृण्मयीं मूर्ति बनवानी चाहिये ।
(अध्याय १२)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय २ से ३
4.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ४
5.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ५
6.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ६
7.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ७ से ८
8.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय ९
9.
भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १० से ११

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