व्यपोहन स्तव
लिंगपुराण के ८२वें अध्याय में एक महत्त्वपूर्ण स्तव आया है, जिसका नाम है –“व्यपोहनस्तव” । व्यपोहन शब्द में ‘वि’ उपसर्ग है, जिसका अर्थ है ‘विशेषरुप से’ ‘अपोहन’ का अर्थ है, ‘दूर हटाना या छिपाना’ । सूतजी ऋषियों से कहते हैं कि मैं अब आप लोगों को एक ऐसे स्तव (स्तोत्र, स्तुति) – को बताऊँगा, जो अत्यन्त मंगलमय तथा सभी सिद्धियों की प्रदाता है, इस स्तोत्र का मुख्य वैशिष्ट्य यह है कि इस स्तवन के पाठ से व्यक्ति आशुतोष भगवान् शिव की कृपा से अपने सभी पापों को ध्वस्त करके शिवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है, ‘विधूय स्रवपापानि रुद्रलोके महीयते’, ‘व्यपोह्य सर्वपापानि शिवलोके महीयते ।’ इसी आशय से इस स्तव को पापव्यपोहनस्तव (शिव की कृपा से सभी पापों को दूर करने वाला स्तोत्र) भी कहते हैं । mritunjay
सूत उवाच

व्यपोहनस्तवं वक्ष्ये सर्वसिद्धिप्रदं शुभम् ।
नन्दिश्च मुखाच्छ्रुत्वा कुमारेण महात्मना ।।
व्यासाय कथितं तस्माद् बहुमानेन वै मया ।
नमः शिवाय शुद्धाय निर्मलाय यशस्विने ।।
दुष्टान्तकाय सर्वाय भवाय परमात्मने ।
पञ्चवक्त्रो दशभुजो ह्यपञ्चदशैर्युतः ।।
शुद्धस्फटिकसंकाशः सर्वाभरणभूषितः ।
सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः सर्वोपरि सुसंस्थितः ।।
पद्मासनस्थः सोमेशः पापमाशु व्यपोहतु ।
सूतजी बोले – हे ऋषियो ! अब मैं सभी सिद्धियाँ प्रदान करने वाले मंगलमय ‘व्यपोहन स्तव’ को बताऊँगा; इसे नन्दी के मुख से सुनकर महात्मा सनत्कुमार ने व्यासजी को बताया और उनसे परम आदरपूर्वक मैंने सुना । कल्याणकारी, शुद्ध, निर्मल, यशस्वी, दुष्टों का नाश करने वाले, सर्व, भव तथा परमात्मा को नमस्कार है । पाँच मुखों वाले, दस भुजाओं वाले, पन्द्रह नेत्रों से युक्त, शुद्ध स्फटिक के सदृश कान्तिमान्, सभी आभूषणों से विभूषित, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, शान्त, सबसे ऊपर प्रतिष्ठित तथा पद्मासन पर स्थित उमासहित भगवान् शिव पाप को शीघ्र दूर करें ।
ईशानः पुरुषश्चैव अघोरः सद्य एव च ।।
वामदेवश्च भगवान् पापमाशु व्यपोहतु ।
अनन्तः सर्वविद्येशः सर्वज्ञः सर्वदः प्रभुः ।।
शिवध्यानैकसम्पन्नः स मे पापं व्योपहतु ।
सूक्ष्मः सुरासुरेशानो विश्वेशो गणपूजितः ।।
शिवध्यानैकसम्पन्नः स मे पापं व्योपहतु ।
शिवोत्तमो महापूज्यः शिवध्यानपरायणः ।।
सर्वगः सर्वदः शान्तः स मे पापं व्यपोहतु ।
एकाक्षो भगवानीशः शिवार्चनपरायणः ।।
शिवध्यानैकसम्पन्नः स मे पापं व्योपहतु ।
ईशान, तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात तथा भगवान् वामदेव पाप को शीघ्र दूर करें । वे अनन्त, सर्वविद्येश, सर्वज्ञ, सर्वद, प्रभु तथा शिवध्यानैकसम्पन्न मेरे पाप को दूर करें । वे सूक्ष्म, सुरासुरेशान, विश्वेश, गणपूजित तथा शिवध्यानैकसम्पन्न मेरे पाप को दूर करें । वे शिवोत्तम, महापूज्य, शिवधऽयानपरायण, सर्वग, सर्वद तथा शान्त मेरे पाप को दूर करें । वे एकाक्ष, भगवान् ईश, शिवार्चन-परायण तथा शिवध्यानैकसम्पन्न मेरे पाप को दूर करें ।
त्रिमूर्तिर्भगवानीशः शिवभक्तिप्रबोधकः ।।
शिवध्यानैकसम्पन्नः स मे पापं व्योपहतु ।
श्रीकण्ठः श्रीपतिः श्रीमान् शिवध्यानरतः सदा ।।
शिवार्चनरतः साक्षात् स मे पापं व्योपहतु ।
शिखण्डी भगवान् शान्तः शवभस्मानुलेपनः ।।
शिवार्चनरतः श्रीमान् स मे पापं व्योपहतु ।
वे त्रिमूर्ति, भगवान् ईश, शिवभक्तिप्रबोधक तथा शिवध्यानैकसम्पन्न मेरे पाप को दूर करें । वे श्रीकण्ठ, श्रीपति, श्रीमान्, सदा शिवध्यानरत तथा शिवार्चनरत मेरे पाप को दूर करें । वे शिखण्डी, भगवान्, शान्त, शव-भस्मानुलेपन, शिवार्चनरत तथा श्रीमान् मेरे पाप को दूर करें ।
त्रैलोक्यनमिता देवी सोल्काकारा पुरातनी ।।
दाक्षायणी महादेवी गौरी हैमवती शुभा ।
एकपर्णाग्रजा सौम्या तथा वै चैकपाटला ।।
अपर्णा वरदा देवी वरदानैकतत्परा ।
उमासुरहरा साक्षात्कौशिकी वा कपर्दिनी ।।
खट्वांगधारिणी दिव्या कराग्रतरुपल्लवा ।
नैगमेयादिभिर्दिव्यैश्चतुर्भिः पुत्रकैर्वृता ।।
मेनाया नन्दिनी देवी वारिजा वारिजेक्षणा ।
अम्बा या वीतशोकस्य नन्दिनश्च महात्मनः ।।
शुभावत्याः सखी शान्ता पञ्चचूडा वरप्रदा ।
सृष्ट्यर्थं सर्वभूतानां प्रकृतित्वं गताव्यया ।।
त्रयोविंशतिभिस्तत्त्वैर्महदाद्यैर्विजृम्भिता ।
लक्ष्म्यादिशक्तिभिर्नित्यं नमिता नन्दनन्दिनी ।।
मनोन्मनी महादेवी मायावी मण्डनप्रिया ।
मायया या जगत्सर्वं ब्रह्माद्यं सचराचरम् ।।
क्षोभिणी मोहिनी नित्यं योगिनां हृदि संस्थिता ।
एकानेकस्थिता लोके इन्दीवरनिभेक्षणा ।।
भक्त्या परमया नित्यं सर्वदेवैरभिष्टुता ।
गणेन्द्राम्भोजगर्भेन्द्रयमवित्तेशपूर्वकैः ।।
संस्तुता जननी तेषां सर्वोपद्रवनाशिनी ।
भक्तानामार्तिहा भव्या भवभावविनाशनी ।।
भुक्तिमुक्तिप्रदा दिव्या भक्तानामप्रयत्नतः ।
सा मे साक्षान्महादेवी पापमाशु व्योपहतु ।।
जो तीनों लोकों द्वारा नमस्कृत, उल्का के आकारवाली, सनातनी देवी, दक्षकन्या, महादेवी, गौरी, हिमालयपुत्री, कल्याणमयी, एकपर्णा, अग्रजा, सौम्या, एकपटला, अपर्णा, वरदायिनी, वरप्रदान करने में सदा तत्पर, उमा, असुरों का संहार करने वाली साक्षात् कौशिकी, कपर्दिनी, खट्वांग धारण करने वाली, दिव्य, हाथ के अग्रभाग में वृक्ष का पल्लव धारण करने वाली, नृगमेय आदि चारों दिव्य पुत्रों से घिरी हुई, मेना की पुत्री, जल से उत्पन्न, कमल के समान नेत्रों वाली, शोकरहित महात्मा नन्दी की अम्बा (माता), शुभावती की सखी, शान्त स्वभाव वाली, पंचचूडा, वर प्रदान करने वाली, सभी प्राणियों की सृष्टि के लिये प्रकृति के स्वरुप को प्राप्त, अव्यय (शाश्वत), महत् आदि तेईस तत्त्वों से सम्पन्न, लक्ष्मी आदि शक्तियों से सदा नमस्कृत, नन्दनन्दिनी, महादेवी नमोन्मनी, मायामयी, अलंकरण से प्रीति करने वाली, (अपनी) माया से ब्रह्मा आदि एवं चराचर सहित सम्पूर्ण जगत् को क्षुब्ध तथा मोहित करने वाली, योगियों के हृदय में सर्वदा विराजमान, संसार में एक तथा अनेक रुपों में स्थित, नीलकमल के समान नेत्रों वाली, गणेश्वरों-ब्रह्मा-इन्द्र-यम-कुबेर आदि सभी देवताओं के द्वारा परम भक्ति से नित्य स्तुत होने वाली, (उनके द्वारा) स्तुत होकर उनकी माता के रुप में सभी विपत्तियों का नाश करने वाली, भक्तों के कष्टों का हरण करने वाली, भव्य, सांसारिक भावों को नष्ट करने वाली, दिव्य और बिना प्रयास के भक्तों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाली हैं – वे साक्षात् महादेवी मेरे पापों को शीघ्र दूर करें ।।
चण्डः सर्वगणेशानो मुखाच्छम्भोर्विनिर्गतः ।
शिवार्चनरतः श्रीमान् स मे पापं व्यपोहतु ।।
शालंकायनपुत्रस्तु हलमार्गोत्थितः प्रभुः ।
जामाता मरुतां देवः सर्वभूतमहेश्वरः ।।
सर्वगः सर्वदृक् शर्वः सर्वेशसदृशः प्रभुः ।
सनारायणकैर्देवैः सेन्द्रचन्द्रदिवाकरैः ।।
सिद्धैश्च यक्षगन्धर्वैर्भूतैर्भूतविधायकैः ।
उरगैर्ऋषिभिश्चैव ब्रह्मणा च महात्मना ।।
स्तुतस्त्रैलोक्यनाथस्तु मुनिरन्तःपुरं स्थितः ।
सर्वदा पूजितः सर्वैर्नन्दी पापं व्यपोहतु ।।
जो सभी गणों के ईश, शम्भु के मुख से निकले हुए, शिवार्चन में लीन तथा श्रीयुक्त चण्ड हैं; वे मेरे पाप को दूर करें । शालंकायन के पुत्र, हल मार्ग से उत्पन्न, ऐश्वर्यशाली, मरुतों के जामाता, देवता, सभी भूतों के महेश्वर, सर्वव्यापी, सर्वद्रष्टा, शर्व, सर्वेश्वर के समान प्रभुत्व-सम्पन्न, नारायण-इन्द्र-चन्द्र-सूर्य आदि देवताओं-सिद्धों-यक्षों-गन्धर्वो-भूतों, भूतों का सृजन करने वालों-उरगों-ऋषियों-महात्मा ब्रह्मा के द्वारा स्तुत, तीनों लोकों के स्वामी, मुनियों के हृदय में विराजमान और सबके द्वारा सर्वदा पूजित नन्दी (मेरे) पाप को दूर करें ।।
महाकायो महातेजा महादेव इवापरः ।
शिवार्चनरतः श्रीमान् स मे पापं व्यपोहतु ।।
मेरुमन्दारकैलासतटकूटप्रभेदनः ।
ऐरावतादिभिर्दिग्गजैश्च सुपूजितः ।।
सप्तपातालपादश्च सप्तद्वीपोरुजंघकः ।
सप्तार्णवांकुशश्चैव सर्वतीर्थोदरः शिवः ।।
आकाशदेहो दिग्बाहुः सोमसूर्याग्निलोचनः ।
हतासुरमहावृक्षो ब्रह्मविद्यामहोत्कटः ।।
ब्रह्माद्याधोरणैर्दिव्यैर्योगपाशसमन्वितैः ।
बद्धो हृत्पुण्डरीकाख्ये स्तम्भे वृतिं निरुध्य च ।।
नागेन्द्रवक्त्रो यः साक्षाद् गणकोटिशतैर्वैतः ।
शिवध्यानैकसम्पन्नः स मे पापं व्यपोहतु ।।
महातेजस्वी, दूसरे महादेवसदृश, श्रीयुक्त तथा शिव के अर्चन में लीन महाकाय मेरे पाप को दूर करें । जो मेरु, मन्दर, कैलास की चोटियों का भेदन करने वाले हैं; जो ऐरावत आदि दिव्य दिग्गजों से सम्यक् पूजित हैं; सातों पाताल जिनके पैर हैं; सातों द्वीप जिनके ऊरु तथा जंघा हैं; सातों समुद्र जिनके अंकुश हैं; सभी तीर्थ जिनके उदर हैं; जो कल्याणकारी हैं; आकाश जिनका शरीर है; दिशाएँ जिनकी भुजाएँ हैं; चन्द्र, सूर्य तथा अग्नि जिनके नेत्र हैं; जिन्होंने असुररुपी महावृक्षों को काट डाला है; जो ब्रह्मविद्या से परम उत्कट हैं; अपनी चित्तवृत्ति को रोककर दिव्य तथा योगपाश से समन्वित ब्रह्मा आदि महावतों के द्वारा जो हृदयकमलरुपी स्तम्भ में आबद्ध किये गये हैं; जो गजराज के समान मुखवाले हैं; जो साक्षात् करोड़ों गणों से घिरे हुए हैं तथा जो एकमात्र शिवध्यान में लीन हैं, वे (गजानन) मेरे पाप को दूर करें ।।
भृंगीशः पिंगलाक्षोऽसौ भसिताशस्तु देहयुक् ।
शिवार्चनरतः श्रीमान् स मे पापं व्यपोहतु ।।
चतुर्भिस्तनुभिर्नित्यं सर्वासुरनिबर्हणः ।
स्कन्दः शक्तिधरः शान्तः सेनानी शिखिवाहनः ।।
देवसेनापतिः श्रीमान् स मे पापं व्यपोहतु ।
भवः शर्वस्तथेशानो रुद्रः पशुपतिस्तथा ।।
उग्रो भीमो महादेवः शिवार्चनरतः सदा ।
एताः पापं व्यपोहन्तु मूर्तयः परमेष्ठिनः ।।
जो पिंगल वर्ण के नेत्रवाले, भस्म को ग्रहण करने वाले, विशिष्ट देहयुक्त, शिवार्चन में लीन तथा ऐश्वर्यसम्पन्न हैं, वे भृंगीश मेरे पाप को दूर करें । जो (अपने) चार शरीरों से सर्वदा सभी असुरों का संहार करने वाले, शक्तिधर, शान्तस्वभाव, सेनानी, मयूर वाहनवाले, देवसेना के सेनापति तथा श्रीसम्पन्न हैं, वे स्कन्द मेरे पाप को दूर करें । शिवार्चन में सदा संलग्न, भव, शर्व, ईशान, रुद्र, पशुपति, उग्र, भीम तथा महादेव परमेष्ठी (सदाशिव) – की ये मूर्तियाँ (मेरे) पाप को दूर करें ।।
महादेवः शिवो रुद्रः शंकरो नीललोहितः ।
ईशानो विजयो भीमो देवदेवो भवोद्भवः ।।
कपालीशश्च विज्ञेयो रुद्रा रुद्रांशसम्भवाः ।
शिवप्रणामसम्पन्ना व्यपोहन्तु मलं मम ।।
महादेव, शिव, रुद्र, शंकर, नीललोहित, ईशान, विजय, भीम, देवदेव भवोद्भव, कपाली तथा ईश-ये रुद्र के अंश से उत्पन्न हैं – अतः इन्हें रुद्र ही जानना चाहिये; शिव को प्रणाम करने में तत्पर ये (रुद्र) मेरे पाप को दूर करें ।।
विकर्तनो विवस्वांश्च मार्तण्डो भास्करो रविः ।
लोकप्रकाशकश्चैव लोकसाक्षी त्रीविक्रमः ।।
आदित्यश्च तथा सूर्यचांशुमांश्च दिवाकरः ।
एते वै द्वादशादित्या व्यपोहन्तु मलं मम ।।
विकर्तन, विवस्वान, मार्तण्ड, भास्कर, रवि, लोकप्रकाशक, लोकसाक्षी, त्रिविक्रम, आदित्य, सूर्य, अंशुमान् तथा दिवाकर – ये बारह आदित्य मेरे पाप को दूर करें ।।
गगनं स्पर्शनं तेजो रसश्च पृथिवी तथा ।
चन्द्रः सूर्यस्तथात्मा च तनवः शिवभाषिताः ।।
पापं व्यपोहन्तु मम भयं निर्नाशयन्तु मे ।
वासवः पावकश्चैव यमो निर्ऋतिरेव च ।।
वरुणो वायुसोमौ च ईशानो भगवान् हरिः ।
पितामहश्च भगवान् शिवध्यानपरायणः ।।
एते पापं व्यपोहन्तु मनसा कर्मणा कृतम् ।।
आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य तथा आत्मा – ये शिवजी की मूर्तियाँ कही गयी हैं; ये मेरे पाप को दूर करें और मेरे भय का नाश करें । इन्द्र, पावक, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, सोम, ईशान, भगवान् हरि तथा शिवध्यान में लीन प्रभु ब्रह्मा – ये मेरे द्वारा मन तथा कर्म से किये गये पाप को दूर करें ।।
नभस्वान् स्पर्शनो वायुरनिलो मारुतस्तथा ।।
प्राणः प्राणेशजीवेशौ मारुतः शिवभाषिताः ।
शिवार्चनरताः सर्वे व्यपोहन्तु मलं मम ।।
खेचरी वसुचारी च ब्रह्मेशो ब्रह्म ब्रह्मधीः ।
सुषेणः शाश्वतः पुष्टः सुपुष्टश्च महाबलः ।।
एते वै चारणाः शम्भोः पूजयातीव भाविताः ।
व्यपोहन्तु मलं सर्वं पापं चैव मया कृतम् ।।
नभस्वान्, स्पर्शन, वायु, अनिल, मारुत, प्राण, प्राणेश और जीवेश – ये सब शिवभाषित तथा शिवार्चनपरायण मारुत मेरे पाप को दूर करें । खेचरी, वसुचारी, ब्रह्मेश, ब्रह्म, ब्रह्मधी, सुषेण, शाश्वत, पुष्ट, सुपुष्ट, महाबल – ये चारण जो शम्भु की पूजा से अत्यन्त पवित्र हैं, मेरे द्वारा किये गये समस्त पाप तथा दोष को दूर करें ।।
मन्त्रज्ञो मन्त्रवित्प्राज्ञो मन्त्रराट् सिद्धपूजितः ।
सिद्धवत्परमः सिद्धः सर्वसिद्धिप्रदायिनः ।।
व्यपोहन्तु मलं सर्वे सिद्धाः शिवपदार्चकाः ।
यक्षो यक्षेश धनदो जृम्भको मणिभद्रकः ।।
पूर्णभद्रेश्वरो माली शितिकुण्डलिरेव च ।
नरेन्द्रश्चैव यक्षेशो व्यपोहन्तु मलं मम ।।
मन्त्रज्ञ, मन्त्रविद्, प्राज्ञ, सुद्धपूजित, सिद्धवत् और परमसिद्ध – ये सभी (सप्त) सिद्धगण जो सभी सिद्धियों के प्रदाता तथा शिव के चरणों के उपासक हैं, मेरे पाप को दूर करें । यक्ष, यक्षेश, धनद, जृम्भक, मणिभद्रक, पूर्णभद्रेश्वर, माली, शितिकुण्डलि और नरेन्द्र – ये यक्षों के स्वामी मेरे पाप को दूर करें ।।
अनन्तः कुलिकश्चैव वासुकिस्तक्षकस्तथा ।
कर्कोटको महापद्मः शंखपालो महाबलः ।।
शिवप्रणामसम्पन्नाः शिवदेहप्रभूषणाः ।
मम पापं व्यपोहन्तु विषं स्थावरजंगमम् ।।
शिव के प्रणाम में रत तथा शिव के शरीर के आभूषण स्वरुप अनन्त, कुलिक, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, महापद्म, शंखपाल और महाबल मेरे पाप को तथा स्थावर – जंगम विष को दूर करें ।।
वीणाज्ञः किन्नरश्चैव सुरसैनः प्रमर्दनः ।
अतीशयः सप्रयोगी गीतज्ञश्चैव किन्नराः ।।
शिवप्रणामसम्पन्नाः व्यपोहन्तु मलं मम ।
विद्याधरश्च विबुधो विद्याराशिर्विदां वरः ।।
विबुद्धो विबुधः श्रीमान् कृतज्ञश्च महायशाः ।
एते विद्याधराः सर्वे शिवध्यानपरायणाः ।।
व्यपोहन्तु मलं घोरं महादेवप्रसादतः ।
शिव को प्रणाम करने में तल्लीन वीणाज्ञ, किन्नर, सरसेन, प्रमर्दन, अतीशय, सप्रयोगी और गीतज्ञ – ये किन्नरगण मेरे पाप को दूर करें । विद्याधर विबुध, विद्याराशि, विदांवर, विबुद्ध, विबुध, श्रीमान्, कृतज्ञ और महायश – ये सभि शिवध्यानपरायण विद्याधर महादेव की कृपा से मेरे घोर पाप को दूर करें ।।
वामदेवी महाजम्भः कालनेमिर्महाबलः ।।
सुग्रीवो मर्दकश्चैव पिंगलो देवमर्दनः ।
प्रह्लादश्चाप्यनुह्लादः संह्लादः किल बाष्कलौ ।।
जम्भः कुम्भश्च मायावी कार्तवीर्यः कृतञ्जयः ।
एतेऽसुरा महात्मनो महादेवपरायणाः ।।
व्यपोहन्तु भयं घोरमासुरं भावमेव च ।
गरुत्मान् खगतिश्चैव पक्षिराट् नागमर्दनः ।।
नागशत्रुर्हिण्यांगो वैनतेयः प्रभञ्जनः ।
नागाशीर्विषनाशश्च विष्णुवाहनाः ।
नानाभरणसम्पन्ना व्यपोहन्तु मलं मम ।।
वामदेवी, महाजम्भ, कालनेमि, महाबल, सुग्रीव, मर्दक, पिंगल, देवमर्दन, प्रह्लाद, अनुह्लाद, संह्लाद, बाष्कलद्वय, जम्भ, कुम्भ, मायावी, कार्तवीर्य, कृतंजय – ये महादेवपरायण महात्मा असुर मेरे घोर भय तथा आसुरी भाव को दूर करें । गरुत्मान्, खगति, पक्षिराट्, नागमर्दन, नागशत्रु, हिरण्यांग, वैनतेय, प्रभंजन, नागाशी, विषनाश, विष्णुवाहन – ये सुवर्ण के रंगवाले तथा अनेकविध आभूषणों से युक्त विष्णुवाहन गरुड़ मेरे पाप को दूर करें ।।
अगस्त्यश्च वशिष्ठश्च अंगिरा भृगरेव च ।
काश्यपो नारदश्चैव दधीचश्च्यवनस्तथा ।।
उपमन्युस्तथान्ये च ऋषयः शिवभाविताः ।
शिवार्चनरताः सर्वे व्यपोहन्तु मलं मम ।।
अगस्त्य, वसिष्ठ, अंगिरा, भृगु, काश्यप, नारद, दधीच, च्यवन, उपमन्यु – ये तथा अन्य शिवभक्त और शिवार्चनपरायण समस्त ऋषि मेरे पाप को दूर करें ।।
पितरः पितामहश्च तथैव प्रपितामहाः ।
अग्निष्वात्ता बर्हिषदस्तथा मातामहादयः ।।
व्यपोहन्तु भयं पापं शिवध्यानपरायणाः ।
लक्ष्मीश्च धरणी चैव गायत्री च सरस्वती ।।
दुर्गा उषा शची ज्येष्ठा मातरः सुरपूजिताः ।
देवानां मातरश्चैव गणानां मातरस्तथा ।।
भूतानां मातरः सर्वा यत्र या गणमातरः ।
प्रसादाद्देवदेवस्य व्यपोहन्तु मलं मम ।।
शिव के ध्यान में तल्लीन रहने वाले पिता, पितामह, प्रपितामह, अग्निष्वात्त, बर्हिषद् तथा मातामह आदि (मेरे) भय एवं पाप को दूर करें । लक्ष्मी, धरणी, गायत्री, सरस्वती, दुर्गा, उषा, शची तथा ज्येष्ठा – ये देवपूजित माताएँ देवताओं की माताएँ, गणों की माताएँ, भूतों की माताएँ तथा अन्य जो भी गणमाताएँ जहाँ-कहीं भी हों – वे सब देवदेव (शिव) – के अनुग्रह से मेरे पाप को दूर करें ।।
उर्वशी, मेनका, चैव रम्भारतितिलोत्तमाः ।
सुमुखी दुर्मुखी चैव कामुकी कामवर्धनी ।।
तथान्याः सर्वलोकेषु दिव्याश्चाप्सरसस्तथा ।
शिवाय ताण्डवं नित्यं कुर्वन्त्योऽतीव भाविताः ।।
देव्यः शिवार्चनरता व्यपोहन्तु मलं मम ।
अत्यन्त भक्तियुक्त होकर शिव के लिए नित्य ताण्डव (नृत्य) करने वाली तथा शिवार्चन में रत रहने वाली उर्वशी, मेनका, रम्भा, रति, तिलोत्तमा, सुमुखी, दुर्मुखी, कामुकी, कामवर्धनी – ये तथा सभी लोकों की अन्य दिव्य अप्सराएँ और देवियाँ मेरे पाप को दूर करें ।।
अर्कः सोमोंऽगारकश्च बुधश्चैव बृहस्पतिः ।।
शुक्रः शनैश्चरश्चैव राहुः केतुस्तथैव च ।
व्यपोहन्तु भयं घोरं ग्रहपीडां शिवार्चकाः ।।
मेषो वृषोऽथ मुथुनस्तथा कर्कटकः शुभः ।
सिंहश्च कन्या विपुला तुला वै वृश्चिकस्तथा ।।
धनुश्च मकरश्चैव कुम्भो मीनस्तथैव च ।
राशयो द्वादश ह्येते शिवपूजापरायणाः ।।
व्यपोहन्तु भयं पाप प्रसादात्परमेष्ठिनः ।
अश्विनी भरणी चैव कृत्तिका रोहिणी तथा ।।
श्रीमन्मृगशिरश्चार्द्रा पुर्वसुपुष्यसार्पकाः ।
मघा वै पूर्वफआल्गुन्य उत्तराफाल्गुनी तथा ।।
हस्तश्चित्रा तथा स्वाती विशाखा चानुराधिका ।
ज्येष्ठा मूलं महाभागा पूर्वाषाढा तथैव च ।।
उत्तराषाढिका चैव श्रवणं च श्रविष्ठिका ।
शतभिषक्पूर्वभदरा च तथा प्रोष्ठपदा तथा ।।
पौष्णं च देव्यः सततं व्यपोहन्तु मलं मम ।
शिव का अर्चन करने वाले सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर, राहु और केतु (मेरे) घोर भय तथा ग्रहकष्ट का निवारण करें । मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ तथा मीन – ये बारह शिवपूजापरायण राशियाँ महेश्वर की कृपा से (मेरे) भय तथा पाप को दूर करें । अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, श्रीयुक्त मृगशीरा, आर्द्रा, पुर्नवसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, महाभाग पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वभादर्पद, उत्तरभाद्रपद तथा रेवती – ये देवियाँ निरन्तर मेरे पाप को दूर करें ।।
ज्वरः कुम्भोदरश्चैव शंकुकरणो महाबलः ।।
महाकर्णः प्रभातश्च महाभूतप्रमर्दनः ।
श्येनजिच्छिवदूतश्च प्रमथाः प्रीतिवर्धनाः ।।
कोटिकोटिशतैश्चैव भूतानां मातरः सदा ।
व्यपोहन्तु भयं पापं महादेवप्रसादतः ।।
ज्वर, कुम्भोदर, शंकुकर्ण, महाबल, महाकर्ण, प्रभात, महाभूतप्रमर्दन, श्येनजित्, शिवदूत – ते प्रीतिवर्धक प्रमथगण और करोड़ों-करोड़ों भूतों सहित माताएँ महादेव की कृपा से (मेरे) भय तथा पाप को सर्वाद दूर करें ।।
शिवध्यानैकसम्पन्नो हिमराडम्बुसन्निभः ।
कुन्देन्दुसदृशाकारः कुम्भकुन्देन्दुभूषणः ।।
वडवानलशत्रुर्यो वडवामुखभेदनः ।
चतुष्पादसमायुक्तः क्षीरोद इव पाण्डुरः ।।
रुद्रलोके स्थितो नित्यं रुद्रैः सार्धं गणेश्वरैः ।
वृषोन्द्रो विश्वधृग्देवो विश्वस्य जगतः पिता ।।
वृतो नन्दादिभिर्नित्यं मातृभिर्मखमर्दनः ।
शिवार्चनरतो नित्यं स मे पापं व्यपोहतु ।।
जो एकमात्र शिव के ध्यान में तल्लीन, हिमालय से प्रादुर्भूत गंगा के जल के समान पापनाशक, कुन्द (पुष्प) तथा चन्द्रमा के समान आकारवाले, कुम्भ-कुन्दपुष्पों और इन्दु को भूषण के रुप में धारण करने वाले, बडवानल के शत्रु, बडवा के मुख का भेदन करने वाले, चारपैरों वाले, क्षीरसागर के समान पाण्डुर वर्णवाले, रुद्रों तथा गणेश्वरों के साथ सदा रुद्रलोक में रहने वाले, विश्व को धारण करने वाले, सम्पूर्ण जगत् के पिता, नन्दा आदि माताओं से सदा घिरे हुए, यज्ञ का विध्वंस करने वाले तथा शिवार्चनपरायण हैं – वे वृषेन्द्र मेरे पाप को सदा दूर करें ।।
गंगा माता जगन्माता रुद्रलोके व्यवस्थिता ।
शिवभक्ता तु या नन्दा सा मे पापं व्यपोहतु ।।
भद्रा भद्रपदा देवी शिवलोके व्यवस्थिता ।
माता गवां महाभागा सा मे पापं व्यपोहतु ।।
सुरभिः सर्वतोभद्रा सर्वपापप्रणाशनी ।
रुद्रपूजारता नित्यं सा मे पापं व्यपोहतु ।।
सुशीला शीलसम्पन्ना श्रीप्रदा शिवभाविता ।
शिवलोके स्थिता नित्यं सा मे पापं व्यपोहतु ।।
रुद्रलोक में स्थित, जगज्जननी गंगा माता मेरे पाप को दूर करें । जो शिवभक्त नन्दा नामक गौ हैं, वे मेरे पाप को दूर करें । भद्रपदवाली, शिवलोक में स्थित, गायों की माता महाभाग्यशालिनी जो देवी भद्रा नामक गौ हैं, वे मेरे पाप को दूर करें । सब प्रकार से कल्याण करने वाली, सभी पापों का नाश करने वाली तथा सदा रुद्रपूजा में लीन रहने वाली वे सुरभि नामक गौ मेरे पाप को दूर करें । शील से सम्पन्न, ऐश्वर्य प्रदान करने वाली, शिवभक्त तथा नित्य शिवलोक में रहनेवाली वे सुशीला नामक गौ मेरे पाप को दूर करें ।।
वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः सर्वकार्याभिचिन्तकः ।
समस्तगुणसम्पन्नः सर्वदेवेश्वरात्मजः ।।
ज्येष्ठः सर्वेश्वरः सौम्यो महाविष्णुतनुः स्वयम् ।
आर्यः सेनापतिः साक्षाद् गहनो मखमर्दनः ।।
ऐरावतगजारुढः कृष्णकुञ्चितमूर्धजः ।
कृष्णांगो रक्तनयनः शशिपन्नगभूषणः ।।
भूतैः प्रेतैः पिशाचैश्च कूष्माण्डैश्च समावृतः ।
शिवार्चनरतः साक्षात् स मे पापं व्यपोहतु ।।
वेदों तथा शास्त्रों के अर्थ तथा तत्त्व के ज्ञाता, समस्त कार्यों का चिन्तन करने वाले, सभी गुणों से सम्पन्न, सर्वदेवेश्वर (शिव) – के पुत्र, श्रेष्ठ, सर्वेश्वर, सौम्य, साक्षात् महाविष्णु के विग्रहस्वरुप, देवताओं के सेनापति, गम्भीरता से युक्त, यज्ञ को विनष्ट करने वाले, ऐरावत हाथी पर सवार, काले तथा घुँघराले केशवाले, कृष्णवर्ण के अंगवाले, लाल नेत्रों वाले, चन्द्रमा तथा सर्प के आभूषणवाले, भूतों-प्रेतों-पिशाचों तथा कूष्माण्डों से घिरे हुए और शिवार्चन में तल्लीन वे आर्य कालभैरव मेरे पाप को दूर करें ।।
ब्रह्माणी चैव माहेशी कौमारी वैष्णवी तथा ।
वाराही चैव माहेन्द्री चामुण्डाग्नेयिका तथा ।।
एता वै मातरः सर्वाः सर्वलोकप्रपूजिताः ।
योगिनीभिर्महापापं व्यपोहन्तु समाहिताः ।।
ब्रह्माणी, माहेशी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, माहेन्द्री, चामुण्डा, आग्नेयिका – समस्त लोकों से पूजित तथा योगिनियों से घिरी हुई ये सभी माताएँ (मेरे) महापाप को दूर करें ।।
वीरभद्रो महातेजा हिमकुन्देन्दुसन्निभः ।
रुद्रस्य तनयो रौद्रः शूलासक्तमहाकरः ।।
सहस्रबाहुः सर्वज्ञः सर्वायुधधरः स्वयम् ।
त्रेताग्निनयनो देवस्त्रैलोक्याभयदः प्रभुः ।।
मातृणां रक्षको नित्यं महावृषभवाहनः ।
त्रैलोक्यनमितःश्रीमान् शिवपादार्चने रतः ।।
यज्ञस्य च शिरश्च्छेत्ता पूष्णो दन्तविनाशनः ।
वह्नेर्हस्तहरः साक्षाद् भगनेत्रनिपातनः ।।
पादांगुष्ठेन सोमांगपेषकः प्रभुसंज्ञकः ।
उपेन्द्रन्द्रयमादीनां देवानामंगरक्षकः ।।
सरस्वत्या महादेव्या नासिकोष्ठावकर्तनः ।
गणेशऽवरो यः सेनानी स मे पापं व्यपोहतु ।।
महातेजस्वी, हिम – कुन्दपुष्प तथा चन्द्रमा के सदृश, रुद्र के पुत्र, भयानक, शूलयुक्त विशाल भुजावाले, हजार भुजाओं वाले, सब कुछ जानने वाले, सभी प्रकार के शस्त्र धारण करने वाले, तीन अग्नि रुप नेत्र वाले, देवस्वरुप, तीनों लोकों को अभय प्रदान करने वाले, ऐश्वर्यशाली, माताओं की सर्वदा रक्षा करने वाले, महान् वृषभ पर आरुढ़, तीनों लोकों से नमस्कृत, श्रीयुक्त, शिव के पादार्चन में तल्लीन, यज्ञ के सिर का छेदन करनेवाले, पूषा के दाँत को तोड़ने वाले, अग्नि के हाथ को नष्ट करने वाले, साक्षात् भग के नेत्र को नीचे गिराने वाले, (अपने) पैर के अँगूठे से सोम के अंग को पीसने वाले, प्रभु नामवाले, उपेन्द्र-इन्द्र-यम आदि देवताओं के अंगरक्षक, महादेवी सरस्वती के ओठ तथा नाक को काटने वाले, गणों के ईश्वर तथा सेनानायक जो वीरभद्र हैं – वे मेरे पाप दूर करें ।।
ज्येष्ठा वरिष्ठा वरदा वराभरणभूषिता ।
महालक्ष्मीर्जगन्माता सा मे पापं व्यपोहतु ।।
महामोहा महाभागा महाभूतगणैर्वृता ।
शिवार्चनरता नित्यं सा मे पापं व्यपोहतु ।।
लक्ष्मीः सर्वगुणोपेता सर्वलक्षणसंयुता ।
सर्वदा सर्वगा देवी सा मे पापं व्यपोहतु ।
सिंहारुढा महादेवी पार्वत्यास्तनयाव्यया ।
विष्णोर्निद्रा महामाया वैष्णवी सुरपूजिता ।।
त्रिनेत्रा वरदा देवी महिषासुरमर्दिनी ।
शिवार्चनरता दुर्गा सा मे पापं व्यपोहतु ।।
ज्येष्ठ, वरिष्ठ, वरदायिनी, श्रेष्ठ आभूषणों से विभूषित तथा जगज्जननी जो महालक्ष्मी हैं – वे मेरे पाप को दूर करें । महाभाग्यवती, महान् भूतगणों से घिरी हुई तथा शिवपूजन में सदा रत जो महामोहा (महामाया) हैं – वे मेरे पाप को दूर करें । सभी गुणों से सम्पन्न, सभी लक्षणों से युक्त, सब कुछ देनेवाली और सर्वत्र गमन करने वाली जो देवी लक्ष्मी हैं – वे मेरे पाप को दूर करें । सिंह पर आरुढ़, पार्वती की पुत्री, शाश्वत, विष्णु की निद्रारुपा, महामाया, वैष्णवी (विष्णु की शक्ति), देवताओं से पूजित, तीन नेत्रों वाली, वर प्रदान करनेवाली, महिषासुर का संहार करनेवाली तथा शिव के अर्चन में तल्लीन जो महादेवी भगवती दुर्गा हैं – वे मेरे पाप को दूर करें ।।
ब्रह्माण्डधारका रुद्राः सर्वलोकप्रपूजिताः ।
सत्याश्च मानसाः सर्वे व्यपोहन्तु भयं मम ।।
भूताः प्रेताः पिशाचाश्च कूष्माण्डगणनायकाः ।
कूष्माण्डकाश्च ते पापं व्यपोहन्तु सामहिताः ।।
ब्रह्माण्ड को धारण करने वाले तथा सभी लोकों द्वारा पूजित सभी सत्य और मानस रुद्र मेरे भय को दूर करें । जो भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्डगणनायक तथा कूष्माण्ड हैं – वे समाहितचित्त होकर (मेरे) पाप को दूर करें ।।
अनेन देवं स्तुत्वा तु चान्ते समापयेत् ।
प्रणम्य शिरसा भूमौ प्रतिमासे द्विजोत्तमाः ।।
व्यपोहनस्तवं दिव्यं यः पठेच्छ्रणुयादपि ।
विधूय सर्वपापानि रुद्रलोके महीयते ।।
हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! प्रत्येक महीने में इस (व्यपोहनस्तव) – से शिव की स्तुति करके भूमि पर मस्तक टेककर प्रणाम करके अन्त में सम्पूर्ण अनुष्ठान का समापन करना चाहिये । जो इस दिव्य ‘व्यपोहनस्तव’ को पढ़ता अथवा सुनता है, वह समस्त पापओं को ध्वस्त करके रुद्रलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ।।
कन्यार्थी लभते कन्यां जयकामो जयं लभेत् ।
अर्थकामो लभेदर्थं पुत्रकामो बहून् सुतान् ।।
विद्यार्थी लभते विद्यां भोगार्थी भोगमाप्नुयात् ।
यान् यान् प्रार्थयते कामान् मानवः श्रवणादिह ।।
तान् सर्वान् शीघ्रमाप्नोति देवानां च प्रियो भवेत् ।
पठ्यमानमिदं पुण्यं यमुद्दिश्य तु पठ्यते ।।
तस्य रोगा न बाधन्ते वातपित्तादिसम्भवाः ।
नाकाले मरणं तस्य न सर्पैरपि दंध्यते ।।
कन्या की अभिलाषा रखनेवाला कन्या प्राप्त करता है, विजय की कामना करनेवाला विजय प्राप्त करता है, धन की इच्छा रखने वाला धन प्राप्त करता है, पुत्र की कामना करनेवाला अनेक पुत्र प्राप्त करता है, विद्या चाहने वाला विद्या प्राप्त करता है और सुख चाहनेवाला सुख प्राप्त करता है; मनुष्य जिन-जिन कामनाओं की प्रार्थना करता है, इसके श्रवण से इस लोक में उन सबको शीघ्र प्राप्त कर लेता है और देवताओं का प्रिय हो जाता है । जिस किसी के निमित्त इस पवित्र स्तव को पढ़ा जाता है, उसे वात, पित्त आदि से होने वाले रोग पीड़ीत नहीं करते हैं, असमय में उसकी मृत्यु नहीं होती है और उसे सर्प नहीं डँसते हैं ।।
यत्पुण्यं चैव यज्ञानां चैव यत्फलम् ।
दानानां चैव यत्पुण्यं व्रतानां च विशेषतः ।।
तत्पुण्यं कोटिगुणितं जप्त्वा चाप्नोति मानवः ।
गोघ्नश्चैव कृतघ्नश्च वीरहा ब्रह्महा भवेत् ।।
शरणागतघाती च मित्रविश्वासघातकः ।
दुष्टः पापसमाचारो मातृहा पितृहा तथा ।।
व्यपोह्य सर्वपापानि शिवलोके महीयते ।।
जो पुण्य तीर्थों की यात्रा करने से, जो फल यज्ञों के करने से, जो पुण्य दान करने से होता है; उससे करोड़ों गुना फल इसे जप करके मनुष्य प्राप्त करता है । जो गाय की हत्या करने वाला, कृतघ्न, वीरघाती, ब्रह्महत्यारा, शरणागत का वध करनेवाला, मित्र के साथ विश्वासघात करने वाला, दुष्ट, पापमय आचरण वाला और माता-पिता का वध करने वाला होता है, वह भी (इसके पाठ से) सभी पापों से मुक्त होकर शिवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ।।

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