॥ शनैश्चरं प्रति विष्णुनोपदिष्टं संसार-मोहन-गणेश-कवचम् ॥

विनियोगः- ॐ अस्य श्री गणेश कवच मंत्रस्य, प्रजापतिः ऋषिः, वृहती छन्दः , श्रीगजमुख विनायको देवता, गं बीजं, गीं शक्तिः, गः कीलकम्, धर्मकामार्थमोक्षेषु, श्री गणपति प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।

॥ विष्णुरुवाच ॥
संसारमोहनस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः । ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवो लम्बोदरः स्वयम् ॥ १ ॥
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः । सर्वेषां कवचानां च सारभूतमिदं मुने ॥ २ ॥
ॐ गं हुं श्रीगणेशाय स्वाहा मे पातु मस्तकम् । द्वात्रिंशदक्षरो मन्त्रो ललाटं मे सदावतु ॥ ३ ॥
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं गमिति च संततं पातु लोचनम् । तालुकं पातु विघ्नेशः संततं धरणीतले ॥ ४ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीमिति च संततं पातु नासिकाम् । ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा पात्वधरं मम ॥ ५ ॥
दन्तानि तालुकां जिह्वां पातु मे षोडशाक्षरः ॥ ६ ॥

ॐ लं श्रीं लम्बोदरायेति स्वाहा गण्डं सदावतु । ॐ क्लीं ह्रीं विघ्न-नाशाय स्वाहा कर्ण सदावतु ॥ ७ ॥
ॐ श्रीं गं गजाननायेति स्वाहा स्कन्धं सदावतु । ॐ ह्रीं विनायकायेति स्वाहा पृष्ठं सदावतु ॥ ८ ॥
ॐ क्लीं ह्रीमिति कङ्कालं पातु वक्ष:स्थलं च गम् । करौ पादौ सदा पातु सर्वाङ्गं विघ्ननिघ्नकृत् ॥ ९ ॥
प्राच्यां लम्बोदरः पातु आग्नेय्यां विघ्न-नायक: । दक्षिणे पातु विघ्नेशो नैर्ऋत्यां तु गजाननः ॥ १० ॥
पश्चिमे पार्वतीपुत्रो वायव्यां शंकरात्मजः । कृष्णस्यांशश्चोत्तरे च परिपूर्णतमस्य च ॥ ११ ॥
ऐशान्यामेकदन्तश्च हेरम्बः पातु चो‌र्ध्वतः । अधो गणाधिपः पातु सर्वपूज्यश्च सर्वतः ॥ १२ ॥
स्वप्ने जागरणे चैव पातु मां योगिनां गुरु: ॥ १३ ॥
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् । संसारमोहनं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥ १४ ॥
श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके रासमण्डले । वृन्दावने विनीताय मह्यं दिनकरात्मजः ॥ १५ ॥
मया दत्तं च तुभ्यं च यस्मै कस्मै न दास्यसि । परं वरं सर्वपूज्यं सर्वसङ्कटतारणम् ॥ १६ ॥
गुरुमभ्य‌र्च्य विधिवत् कवचं धारयेत्तु यः । कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः ॥ १७ ॥
अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च । ग्रहेन्द्र-कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ १८ ॥
इदं कवचमज्ञात्वा यो भजेच्छंकरात्मजम् । शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ १९ ॥
॥ श्रीब्रह्मवैवर्त्ते शनैश्चरं प्रति विष्नोपदिष्टं संसारमोहनं गणेशकवचं ॥
(गणपतिखण्ड 13/78-96)

भावार्थ :-
विष्णु ने कहा- शनैश्चर ! इस ‘संसार-मोहन’ नामक कवच के प्रजापति ऋषि हैं, बृहती छन्द है और स्वयं लम्बोदर गणेश देवता हैं । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में इसका विनियोग कहा गया है । मुने ! यह सम्पूर्ण कवचों का सारभूत है । ‘ॐ गं हुं श्रीगणेशाय स्वाहा’ यह मेरे मस्तक की रक्षा करे । बत्तीस अक्षरों वाला मन्त्र सदा मेरे ललाट को बचावे । ‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं गम्’ यह निरन्तर मेरे नेत्रों की रक्षा करे । विघ्नेश भूतल पर सदा मेरे तालु की रक्षा करें । ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं’ यह निरन्तर मेरी नासिका की रक्षा करे तथा ‘ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा’ यह मेरे ओठ को सुरक्षित रखे । षोडशाक्षर-मन्त्र मेरे दाँत, तालु और जीभ को बचावे । ‘ॐ लं श्रीं लम्बोदराय स्वाहा’ सदा गण्ड-स्थल की रक्षा करे । ‘ॐ क्लीं ह्रीं विघ्न-नाशय स्वाहा’ सदा कानों की रक्षा करे । ‘ॐ श्री गं गजाननाय स्वाहा’ सदा कंधों की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं विनायकाय स्वाहा’ सदा पृष्ठभाग की रक्षा करे । ‘ॐ क्लीं ह्रीं’ कंकाल की और ‘गं’ वक्ष:स्थल की रक्षा करे । विघ्ननिहन्ता हाथ, पैर तथा सर्वाङ्ग को सुरक्षित रखे । पूर्वदिशा में लम्बोदर और अगिन्कोण में विघ्न-नायक रक्षा करें । दक्षिण में विघ्नेश और नैर्ऋत्यकोण में गजानन रक्षा करें । पश्चिम में पार्वतीपुत्र, वायव्यकोण में शंकरात्मज, उत्तर में परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का अंश, ईशानकोण में एकदन्त और ऊ‌र्ध्वभाग में हेरम्ब रक्षा करें । अधोभाग में सर्वपूज्य गणाधिप सब ओर से मेरी रक्षा करें । शयन और जागरणकाल में योगियों के गुरु मेरा पालन करें।

वत्स ! इस प्रकार जो सम्पूर्ण मन्त्रसमूहों का विग्रहस्वरूप है, उस परम अद्भुत संसार-मोहन नामक कवच का तुमसे वर्णन कर दिया । सूर्यनन्दन ! इसे प्राचीनकाल में गोलोक के वृन्दावन में रासमण्डल के अवसर पर श्रीकृष्ण ने मुझ विनीत को दिया था । वही मैंने तुम्हें प्रदान किया है । तुम इसे जिस किसी को मत दे डालना । यह परम श्रेष्ठ, सर्वपूज्य और सम्पूर्ण संकटों से उबारनेवाला है । जो मनुष्य विधिपूर्वक गुरु की अभ्यर्चना करके इस कवच को गले में अथवा दक्षिण भुजापर धारण करता है, वह निस्संदेह विष्णु ही है । ग्रहेन्द्र ! हजारों अश्वमेध और सैकडों वाजपेय-यज्ञ इस कवच की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकते। जो मनुष्य इस कवच को जाने बिना शंकर-सुवन गणेश की भक्ति करता है, उसके लिये सौ लाख जपने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता ।

पुरश्चरणः- १० लाख जप ।

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