शिवमहापुराण — उमासंहिता — अध्याय 27
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
उमासंहिता
सत्ताईसवाँ अध्याय
अमरत्व प्राप्त करनेकी चार यौगिक साधनाएँ

देवी बोलीं- योगी योगाकाशसे उत्पन्न वायुपद कैसे प्राप्त करता है, हे प्रभो ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं, तो यह सब मुझे बताइये ॥ १ ॥

शंकर बोले- [ हे देवि ! ] योगियोंके हितकी कामनासे मैंने पहले सभी बातोंको कह दिया है, अब जिस प्रकार योगी कालको अच्छी तरह जीतकर वायुस्वरूप हो जाता है, उसको सुनो ॥ २ ॥ हे सुन्दरि ! उस [ योगसामर्थ्य] – से [मृत्युके ] दिनको जानकर प्राणायाममें तत्पर योगी आधे महीनेमें ही आये हुए कालको जीत लेता है ॥ ३ ॥ हृदयमें स्थित रहनेवाला वायु सदा अग्निको प्रदीप्त करता है। अग्निके पीछे चलनेवाला वह महान् तथा सर्वगामी वायु भीतर और बाहर सभी जगह व्याप्त है । ज्ञान, विज्ञान एवं उत्साह – इन सबकी प्रवृत्ति वायुसे होती है, जिसने इस लोकमें वायुको जीत लिया, उसने इस सम्पूर्ण जगत्को जीत लिया ॥ ४-५ ॥ योगपरायण योगी सम्यक् धारणा – ध्यानमें तत्पर रहे, उसे जरा-मृत्युके विनाशकी इच्छासे सदा धारणामें निष्ठा करनी चाहिये ॥ ६ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


हे मुने! जिस प्रकार लोहार मुखसे वायुके द्वारा धौंकनीको फुलाकर कार्य सिद्ध करता है, उसी प्रकार योगीको भी अभ्यास करना चाहिये ॥ ७ ॥ [प्राणायामके समय जिनका ध्यान किया जाता है ] वे [आराध्य] देव [परमेश्वर] सहस्त्रों मस्तक, नेत्र, पैर और हाथोंसे युक्त हैं तथा समस्त ग्रन्थियोंको आवृतकर उनसे भी दस अंगुल आगे स्थित हैं । प्राणवायुको नियन्त्रितकर व्याहृतिपूर्वक तीन बार गायत्रीका शिरोमन्त्र- सहित जप करे, उसे प्राणायाम कहा जाता है ॥ ८-९ ॥ चन्द्र, सूर्य आदि ग्रह आते-जाते रहते हैं, किंतु प्राणायामपूर्वक ध्यानमें तत्पर योगी आजतक कभी नहीं लौटे अर्थात् कैवल्यको प्राप्त हो गये ॥ १० ॥

हे देवि ! सौ वर्षतक तप करके ब्राह्मण कुशाके अग्रभागके बराबर (बिन्दुमात्र) जलको पीकर जो फल प्राप्त करता है, उसे वह (योगी) एक प्राणायामके द्वारा ही प्राप्त कर लेता है । जो द्विज प्रातःकाल उठकर एक प्राणायाम करता है, वह अपने सभी पापोंको नष्टकर शीघ्र ही ब्रह्मलोकको जाता है ॥ ११-१२ ॥ जो सदा आलस्यरहित होकर एकान्तमें प्राणायाम करता है, वह जरा तथा मृत्युको जीतकर वायुके समान गतिशील होकर आकाशमें विचरण करता है । वह सिद्ध पुरुषका रूप; कान्ति, मेधा, पराक्रम तथा शौर्य प्राप्त कर लेता है और गतिमें वायुके समान होकर प्रशंसनीय सौख्य तथा परम सुख प्राप्त करता है ॥ १३-१४ ॥

हे देवेशि ! जिस प्रकार योगी वायुसे सिद्धि प्राप्त करता है, वह सब मैंने तुमसे कह दिया, अब जिस प्रकार उन्हें तेजसे सिद्धिकी प्राप्ति होती है, उसे मैं तुमसे कहूँगा ॥ १५ ॥ जहाँ दूसरोंकी बातचीतका कोलाहल न हो, ऐसे शान्त एकान्त स्थानमें सुखासनपर बैठकर चन्द्रमा और सूर्य (वाम और दक्षिण नेत्र ) – की कान्तिसे प्रकाशित मध्यवर्ती देश अर्थात् भ्रूमध्यभागमें जो अग्निका तेज अव्यक्तरूपसे प्रकाशित होता है, उसे आलस्यरहित योगी प्रकाशरहित अन्धकारपूर्ण स्थानमें चिन्तन करनेपर निश्चय ही देख सकता है ॥ १६-१७ ॥

योगी यत्नपूर्वक नेत्रोंको हाथकी अँगुलियोंसे कुछ दबाकर उनके तारोंको देखते हुए एकाग्रचित्तसे आधे मुहूर्ततक उनका ध्यान करे ॥ १८ ॥ उसके बाद ध्यान करता हुआ वह अन्धकारमें श्वेत, रक्त, पीत, कृष्ण तथा इन्द्रधनुषके समान कान्तिवाले ईश्वरीय तेजको देखता है ॥ १९ ॥ दोनों भौंहोंके मध्यमें ललाटस्थित बालसूर्यके समान उस तेजको जानकर वह इच्छानुसार कामरूपधारी होकर मनोवांछित शरीरसे क्रीडा करता है ॥ २० ॥ निरन्तर अभ्यासके योगसे उसमें कारणको शान्त करना, आवेश, परकायाप्रवेश, अणिमादि सिद्धियोंकी प्राप्ति, मनसे सारी वस्तुओंका अवलोकन, दूरसे सुननेकी शक्ति, स्वयं अदृश्य हो जाना, अनेक रूप धारण करना एवं आकाशमें विचरणकी शक्ति – यह सब (सामर्थ्य ) उत्पन्न हो जाता है ॥ २१-२२ ॥

वेदाध्ययनसे सम्पन्न तथा अनेक शास्त्रोंमें प्रवीण ज्ञानीलोग भी अपने पूर्व कर्मोंके वशीभूत होकर मोहित हो जाते हैं। पापसे मोहित हुए मूढ़ मनुष्य लोकमें देखते हुए भी अन्धेके समान नहीं देखते और सुनते हुए भी बहरेके समान नहीं सुनते हैं ॥ २३-२४ ॥ सूर्यके समान वर्णवाले तथा अन्धकारसे परे उस परम पुरुषको मैं जानता हूँ, इस प्रकार जानकर योगी मृत्युका अतिक्रमण कर लेता है, मुक्त होनेके लिये इसके अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है ॥ २५ ॥ [ हे देवि ! ] मैंने तेजस्तत्त्वके चिन्तनकी यह उत्तम विधि तुमसे कह दी, जिसके द्वारा कालको जीतकर योगी अमरत्वको प्राप्त हो जाता है । हे देवि ! अब मैं इससे भी उत्कृष्ट बात कहूँगा, जिससे मृत्यु नहीं होती, तुम सावधानीपूर्वक एकाग्र मनसे सुनो ॥ २६-२७ ॥

हे देवि ! प्राणियोंकी तथा ध्यान करनेवाले योगियोंकी तुरीयावस्था होती है। स्थिर चित्तवाले योगीको सुखद आसनपर यथास्थान स्थित हो शरीरको ऊँचा उठाकर दोनों हाथ सम्पुटितकर चोंचके आकारवाले मुखसे धीरे-धीरे वायुका पान करना चाहिये। थोड़ी ही देरमें तालुमें स्थित जीवनदायी जो जलबिन्दु टपकने लगते हैं, उन अमृतके समान शीतल जलबिन्दुओंको वायुसे ग्रहण करके सूँघे । इस प्रकार प्रतिदिन उसे पीनेवाला योगी मृत्युके वशीभूत नहीं होता है और वह दिव्य शरीरवाला, महातेजस्वी और भूख-प्यास से रहित हो जाता है ॥ २८–३१ ॥ वह मनुष्य बलमें हाथीके समान, वेगमें घोड़ेके समान, दृष्टिमें गरुड़के समान, दूरसे सुननेकी शक्तिवाला, कुण्डलके समान घुँघराले काले केशवाला और गन्धर्वों एवं विद्याधरोंके समान स्वरूपवाला होता है और बुद्धिमें बृहस्पतिके समान होकर देवताओंके सौ वर्षतक जीवित रहता है। ऐसा करता हुआ वह सुखपूर्वक स्वेच्छाचारी रहकर आकाशमें भ्रमण करता है ॥ ३२-३३ ॥

हे वरानने! अब मैं दूसरी विधिका वर्णन करता हूँ, जिसे देवगण भी नहीं जानते, तुम प्रयत्नपूर्वक उसका श्रवण कर ॥ ३४ ॥ योगी अपनी जीभको सिकोड़कर तालुमें लगानेका अभ्यास करे तो कुछ समयके बाद वह लम्बिकाको प्राप्त कर लेती है । तब तालुसे स्पृष्ट हुई वह जिह्वा शीतल अमृतका स्राव करने लगती है, उसको निरन्तर पीता हुआ वह योगी अमरत्व प्राप्त कर लेता है ॥ ३५-३६ ॥ जैसे हाथसे निचोड़नेसे गीली वस्तुसे रस टपकता है, उसी प्रकार रेफाग्र तथा लम्बिकाग्रसे निर्मल कमल- बिन्दुसे प्राप्त वह देवताओंको आनन्द देनेवाला अमृत परपदमें गिरता है । संसारको तारनेवाले, पापनाशक, कालसे बचानेवाले अमृतसारसे जिसने अपने शरीरको आप्लावित कर लिया, वह भूख-प्यास से रहित होकर अमर हो जाता है ॥ ३७ ॥

हे पार्वति ! यह सारा संसार जिस सुखके लिये सदा लालायित रहता है, उसे ये चार प्रकारके योगीजन सदा धैर्य धारण करते हुए अपने अन्तःकरणमें धारण करते हैं। प्राणी स्वप्नमें भी स्वर्गमें अथवा भूमिपर जिसे सुख मानता है, वास्तवमें वह दु:ख ही है, इस प्रकारका सुख तो इन चारों योगियोंके लिये किंचिन्मात्र भी सुखकर नहीं है ॥ ३८ ॥ अतः मन्त्र, तप, व्रत, नियम, नीतिविनयसे युक्त धर्मवेत्ता मनुष्योंसे और औषधियों तथा योगसे युक्त यह रागमयी पृथ्वी उत्तम फल देती है । भूतोंके आदि- देव शिवजी इन चार प्रकारके योगोंसे युक्त होकर विचलित नहीं होते । अतः अब मैं विधिसहित शिव नामक छायापुरुषका वर्णन करता हूँ, जो साक्षात् शिवस्वरूप हैं ॥ ३९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें कालवंचनशिवप्राप्तिवर्णन नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २७ ॥

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