शिवमहापुराण — कैलाससंहिता — अध्याय 22
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
कैलाससंहिता
बाईसवाँ अध्याय
यतिके लिये एकादशाह – कृत्यका वर्णन

स्कन्दजी बोले – मुनिश्रेष्ठ वामदेव ! यतिका एकादशाह प्राप्त होनेपर जो विधि बतायी गयी है, उसका मैं तुम्हारे स्नेहवश वर्णन करता हूँ । मिट्टीकी वेदी बनाकर उसका सम्मार्जन और उपलेपन करे । तत्पश्चात् पुण्याहवाचनपूर्वक प्रोक्षण करके पश्चिमसे लेकर पूर्वकी ओर क्रमसे पाँच मण्डल बनाये और स्वयं श्राद्धकर्ता उत्तराभिमुख बैठकर कार्य करे । प्रादेशमात्र लंबा-चौड़ा चौकोर मण्डल बनाकर उसके मध्यभागमें बिन्दु, उसके ऊपर त्रिकोण मण्डल, उसके ऊपर षट्कोण मण्डल और उसके ऊपर गोल मण्डल बनाये ॥ १–३१/२ ॥ फिर अपने सामने शंखकी स्थापना करके पूजाके लिये बतायी हुई पद्धतिके क्रमसे आचमन, प्राणायाम एवं संकल्प करके पूर्वोक्त पाँच आतिवाहिक देवताओंका देवेश्वरी देवियोंके रूपमें पूजन करे ॥ ४-५ ॥ उत्तरकी ओर आसनके लिये कुश डालकर जलका स्पर्श करे । पश्चिमसे आरम्भ करके पूर्वपर्यन्त जो मण्डल बताये गये हैं, उनके भीतर षडध्वाविधिसे पीठके रूपमें पुष्प रखे और उन पुष्पोंपर क्रमशः उक्त पाँचों देवियोंका आवाहन करे । पहले अग्नि-पुंज-स्वरूपिणी आतिवाहिक देवीका आवाहन करते हुए इस प्रकार कहे—’ॐ ह्रीं अग्निरूपामातिवाहिकदेवताम् आवाहयामि नमः ‘ । इस प्रकार सर्वत्र वाक्ययोजना और भावना करे । इस तरह पाँचों देवियोंका आवाहन करके प्रत्येकके लिये आदरपूर्वक स्थापनी आदि मुद्राओंका प्रदर्शन करे ॥ ६-८ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


तत्पश्चात् ह्रां ह्रीं ह्रूं हैं ह्रौं ह्रः – इन बीजमन्त्रोंद्वारा षडंगन्यास और करन्यास करे । इसके बाद उन देवियोंका इस प्रकार ध्यान करना चाहिये-

पाशांकुशाभयाभीष्टपाणिचन्द्रोपलप्रभाः ॥ ९ ॥
रक्तांगुलीयकच्छायरञ्जिताखिलदिङ्मुखा ।
रक्ताम्बरधराः कारपदपंकजशोभिताः ॥ १० ॥
त्रिनेत्रोल्लासिवदनपूर्णचन्द्रमनोहराः ।
माणिक्य मुकुटोद्भासिचन्द्रलेखावतंसिताः ॥ ११ ॥
कुण्डलामृष्टगण्डाश्च पीनोन्नतपयोधराः ।
हारकेयूरकटककांचीदाममनोहराः ॥ १२ ॥
तनुमध्याः पृथुश्रोण्यो रक्तदिव्याम्बरावृताः ।
माणिक्यमयमंजीरसिंजत्पदसरोरुहाः ।
पादांगुलीयकश्रोणीर्मंजुलातिमनोहराः ॥ १३ ॥

 उन सबके चार- चार हाथ हैं। उनमेंसे दो हाथोंमें वे पाश और अंकुश धारण करती हैं तथा शेष दो हाथोंमें अभय और वरद मुद्राएँ हैं। उनकी अंगकान्ति चन्द्रकान्तमणिके समान है। लाल अँगूठियोंकी प्रभासे उन्होंने सम्पूर्ण दिशाओंके मुख-मण्डलको रँग दिया है। वे लाल वस्त्र धारण करती हैं। उनके हाथ और पैर कमलोंके समान शोभा पाते हैं। तीन नेत्रोंसे सुशोभित मुखरूपी पूर्ण चन्द्रमाकी छटासे वे मनको मोहे लेती हैं। माणिक्यनिर्मित मुकुटोंसे उद्भासित चन्द्रलेखा उनके सीमन्तको विभूषित कर रही है। कपोलोंपर रत्नमय कुण्डल झलमला रहे हैं। उनके उरोज पीन तथा उन्नत हैं। हार, केयूर, कड़े और करधनीकी लड़ियोंसे विभूषित होनेके कारण वे बड़ी मनोहारिणी जान पड़ती हैं। उनका कटिभाग कृश और नितम्ब स्थूल हैं । उनके अंग लाल रंगके दिव्य वस्त्रोंसे आच्छादित हैं । चरणारविन्दोंमें माणिक्य – निर्मित पायजेबोंकी झनकार होती रहती है। पैरोंकी अँगुलियोंमें बिछुओंकी पंक्ति अत्यन्त सुन्दर एवं मनोहर है ॥ ९–१३ ॥

शक्तिविशिष्ट अनुग्रहमूर्ति शिवजीके द्वारा क्या सिद्ध नहीं हो सकता, अर्थात् सब कुछ सिद्ध हो सकता है। इसलिये वे देवियाँ महेश्वरकी भाँति शक्त्यात्मक मूर्तिवाले अनुग्रहसे सम्पन्न हैं। अतः उनके अनुग्रहसे सब कुछ सिद्ध हो सकता है। सबपर अनुग्रह करनेवाले भगवान् शिवने ही उन पाँच मूर्तियोंको स्वीकार किया है। इसलिये वे दिव्य, सम्पूर्ण कार्य करनेमें समर्थ तथा परम अनुग्रहमें तत्पर हैं ॥ १४-१५ ॥ इस प्रकार उन सब अनुग्रहपरायण कल्याणमयी देवियोंका ध्यान करके इनके लिये शंखस्थ जलके बिन्दुओं द्वारा पैरोंमें पाद्य, हाथोंमें आचमनीय तथा मस्तकोंपर अर्घ्य देना चाहिये। तदनन्तर शंखके जलकी बूँदोंसे उनका स्नानकर्म सम्पन्न कराना चाहिये ॥ १६-१७ ॥

[ स्नानके पश्चात् ] दिव्य लाल रंगके वस्त्र और उत्तरीय अर्पित करे। बहुमूल्य मुकुट एवं आभूषण दे [इन वस्तुओंके अभावमें मनके द्वारा भावना करके इन्हें अर्पित करना चाहिये ] । तत्पश्चात् सुगन्धित चन्दन, अत्यन्त सुन्दर अक्षत तथा उत्तम गन्धसे युक्त मनोहर पुष्प चढ़ाये ॥ १८-१९ ॥ अत्यन्त सुगन्धित धूप और घीकी बत्तीसे युक्त दीपक निवेदन करे | इन सब वस्तुओंको अर्पण करते समय आरम्भमें ‘ओं ह्रीं’ का प्रयोग करके फिर ‘समर्पयामि नमः’ बोलना चाहिये यथा ‘ॐ ह्रीं अग्न्यादिरूपाभ्यः पञ्चदेवीभ्यः दीपं समर्पयामि नमः ।’ इसी तरह अन्य उपचारोंको अर्पित करते समय वाक्ययोजना कर लेनी चाहिये । दीपसमर्पणके पश्चात् हाथ जोड़कर प्रत्येक देवीके लिये पृथक्-पृथक् केले के पत्तेपर पूरा-पूरा सुवासित नैवेद्य रखे। वह नैवेद्य घी, शक्कर और मधुसे मिश्रित खीर, पूआ, केलेके फल और गुड़ आदिके रूपमें होना चाहिये । ‘भूर्भुवः स्वः ‘ बोलकर उसका प्रोक्षण आदि संस्कार करे ॥ २०-२२ ॥

फिर ‘ॐ ह्रीं स्वाहा नैवेद्यं निवेदयामि नमः बोलकर नैवेद्य-समर्पणके पश्चात् ‘ॐ ह्रीं नैवेद्यान्ते आचमनार्थं पानीयं समर्पयामि नमः।’ कहते हुए बड़े प्रेमसे जल अर्पित करे। मुनिश्रेष्ठ ! तत्पश्चात् प्रसन्नतापूर्वक नैवेद्यको पूर्व दिशामें हटा दे और उस स्थानको शुद्ध करके कुल्ला, आचमन तथा अर्घ्यके लिये जल दे। फिर ताम्बूल, धूप और दीप देकर परिक्रमा एवं नमस्कार करके मस्तकपर हाथ जोड़ इन सब देवियोंसे इस प्रकार प्रार्थना करे ॥ २३–२५ ॥ ‘हे श्रीमाताओ! आप अत्यन्त प्रसन्न हो शिव- पदकी अभिलाषा रखनेवाले इस यतिको परमेश्वरके चरणारविन्दोंमें रख दें और इसके लिये अपनी स्वीकृति दें’ ॥ २६ ॥ इस प्रकार प्रार्थना करके उन सबका, वे जैसे आयी थीं, उसी तरह विदा देकर, विसर्जन कर दे और उनका प्रसाद लेकर कुमारी कन्याओंको बाँट दे या गौओंको खिला दे अथवा जलमें डाल दे। इसके सिवा और कहीं किसी प्रकार भी न डाले । यहीं पार्वण करे । यतिके लिये कहीं भी एकोद्दिष्ट – श्राद्धका विधान नहीं है ॥ २७-२८ ॥ यहाँ पार्वण श्राद्धके लिये जो नियम है, उसे मैं बता रहा हूँ। मुनिश्रेष्ठ ! तुम उसे सुनो। इससे कल्याणकी प्राप्ति होगी। श्राद्धकर्ता पुरुष स्नान करके प्राणायाम करे । यज्ञोपवीत पहन सावधान हो हाथमें पवित्री धारण करके [देश-कालका कीर्तन करनेके पश्चात् ] ‘मैं इस पुण्यतिथिको पार्वण श्राद्ध करूँगा’ इस तरह संकल्प करे । संकल्पके बाद उत्तर- दिशामें आसनके लिये उत्तम कुश बिछाये । फिर जलका स्पर्श करे ॥ २९-३१ ॥

उन आसनोंपर दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले चार शिवभक्त ब्राह्मणोंको बुलाकर भक्तिभावसे बिठाये। वे ब्राह्मण उबटन लगाकर स्नान किये होने चाहिये ॥ ३२ ॥ उनमेंसे एक ब्राह्मणसे कहे — ‘ आप विश्वेदेवके लिये यहाँ श्राद्ध ग्रहण करनेकी कृपा करें।’ इसी तरह दूसरेसे आत्माके लिये, तीसरेसे अन्तरात्माके लिये और चौथेसे परमात्माके लिये श्राद्ध ग्रहण करनेकी प्रार्थना करके संयतचित्त श्राद्धकर्ता श्रद्धा और आदरपूर्वक उन सबका यथोचितरूपसे वरण करे ॥ ३३-३४ ॥ फिर उन सबके पैर धोकर उन्हें पूर्वाभिमुख बिठाये और गन्ध आदिसे अलंकृत करके शिवके सम्मुख भोजन कराये ॥ ३५ ॥

तदनन्तर वहाँ गोबरसे भूमिको लीपकर पूर्वाग्र कुश बिछाये और प्राणायामपूर्वक पिण्डदानके लिये संकल्प करके तीन मण्डलोंकी पूजा करे। इसके बाद पहले पिण्डको हाथमें ले ‘आत्मने इमं पिण्डं ददामि’ ऐसा कहकर उस पिण्डको प्रथम मण्डलमें दे दे। तत्पश्चात् दूसरे पिण्डको ‘अन्तरात्मने इमं पिण्डं ददामि’ कहकर दूसरे मण्डलमें दे दे । फिर तीसरे पिण्डको ‘परमात्मने इमं पिण्डं ददामि’ कहकर तीसरे मण्डलमें अर्पित करे । इस तरह भक्तिभावसे विधिपूर्वक पिण्ड और कुशोदक दे। तत्पश्चात् उठकर परिक्रमा और नमस्कार करे ॥ ३६–३९ ॥ तदनन्तर ब्राह्मणोंको विधिवत् दक्षिणा दे। उसी जगह और उसी दिन नारायणबलि करे । रक्षाके लिये ही सर्वत्र श्रीविष्णुकी पूजाका विधान है। अतः विष्णुकी महापूजा करे और खीरका नैवेद्य लगाये ॥ ४०-४१ ॥

इसके बाद वेदोंके पारंगत बारह विद्वान् ब्राह्मणोंको बुलाकर केशव आदि नाम – मन्त्रोंद्वारा गन्ध, पुष्प और अक्षत आदिसे उनकी पूजा करे | उनके लिये विधिपूर्वक जूता, छाता और वस्त्र आदि दे। अत्यन्त भक्तिसे भाँति- भाँतिके शुभ वचन कहकर उन्हें सन्तोष दे ॥ ४२-४३ ॥ फिर पूर्वाग्र कुशोंको बिछाकर ‘ॐ भूः स्वाहा, ॐ भुवः स्वाहा, ॐ स्वः स्वाहा’ ऐसा उच्चारण करके पृथ्वीपर खीरकी बलि दे । मुनीश्वर ! यह मैंने एकादशाहकी विधि बतायी है। अब द्वादशाहकी विधि बताता हूँ, आदरपूर्वक सुनो ॥ ४४-४५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें यतियोंका एकादशाहकृत्यवर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.