September 28, 2024 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण — कोटिरुद्रसंहिता — अध्याय 12 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ श्रीशिवमहापुराण कोटिरुद्रसंहिता बारहवाँ अध्याय हाटकेश्वरलिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन ऋषि बोले— हे सूतजी ! आप व्यासजीकी कृपासे सब कुछ जानते हैं, कोई भी बात आपसे अज्ञात नहीं है, इसीलिये हमलोग आपसे पूछते हैं ॥ १ ॥ आपने पूर्वमें कहा था कि लोकमें सभी जगह शिवलिंगकी पूजा होती है । क्या वह लिंग होनेके कारण ही पूजित है अथवा अन्य कोई कारण है ? ॥ २ ॥ शिववल्लभा पार्वती लोकमें बाणलिंगरूपा कही जाती हैं। हे सूतजी ! इसका क्या कारण है, इस विषयमें आपने जैसा सुना है, वैसा कहिये ॥ ३ ॥ महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥ सूतजी बोले— हे ब्राह्मणो ! हे ऋषिसत्तमो ! मैंने व्यासजीसे जो कल्पभेदकी कथा सुनी है, उसीका आज वर्णन कर रहा हूँ, आपलोग सुनें ॥ ४ ॥ पूर्वकालमें दारुवनमें ब्राह्मणोंके साथ जो घटना घटी, उसीको आप लोग सुनें । जैसा मैंने सुना है, वैसा ही कहता हूँ। हे ऋषिसत्तमो ! जो दारु नामक श्रेष्ठ वन है, वहाँ नित्य शिवजीके ध्यानमें तत्पर शिवभक्त [ ब्राह्मण ] रहा करते थे ॥ ५—६ ॥ हे मुनीश्वरो ! वे तीनों कालोंमें सदा शिवजीकी पूजा करते थे और नाना प्रकारके स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति किया करते थे । शिवध्यानमें मग्न रहनेवाले वे शिवभक्त श्रेष्ठ ब्राह्मण किसी समय समिधा लेनेके लिये वनमें गये हुए थे ॥ ७—८ ॥ इसी बीच उन लोगोंकी परीक्षा लेनेहेतु साक्षात् नीललोहित [ भगवान्] शंकर विकट रूप धारणकर वहाँ आये। वे दिगम्बर, भस्मरूप भूषणसे विभूषित तथा महातेजस्वी भगवान् शंकर हाथमें [तेजोमय ] लिंगको धारणकर विचित्र लीला करने लगे ॥ ९ — १० ॥ मनसे उन वनवासियोंका कल्याण करनेके लिये भक्तोंसे प्रेम करनेवाले वे शिव स्वयं प्रेमपूर्वक उस वनमें गये। उन्हें देखकर ऋषिपत्नियाँ अत्यन्त भयभीत हो गयीं और अन्य स्त्रियाँ विह्वल तथा आश्चर्यचकित होकर वहीं चली आयीं। कुछ स्त्रियोंने परस्पर हाथ पकड़कर आलिंगन किया, कुछ स्त्रियाँ आपसमें आलिंगन करनेके कारण अत्यन्त मोहविह्वल हो गयीं ॥ ११–१३ ॥ इसी समय सभी ऋषिवर [ वनसे समिधा लेकर ] आ गये और वे इस आचरणको देखकर [ उसे समझ नहीं सके और ] दुःखित तथा क्रोधसे व्याकुल हो गये । तब शिवकी मायासे मोहित हुए समस्त ऋषिगण दुःखित हो आपसमें कहने लगे— ‘यह कौन है, यह कौन है?’ ॥ १४—१५ ॥ जब उन दिगम्बर अवधूतने कुछ भी नहीं कहा, तब उन महर्षियोंने भयंकर पुरुषका रूप धारण किये हुए उन शिवजीसे कहा— हे अवधूत ! तुम वेदमार्गका लोप करनेवाला यह विरुद्ध आचरण कर रहे हो, अतः तुम्हारा यह विग्रहरूप लिंग [ शीघ्र ही ] पृथ्वीपर गिर जाय ॥ १६—१७ ॥ सूतजी बोले — [ हे महर्षियो ! ] उनके ऐसा कहनेपर अद्भुत रूपवाले उन अवधूतवेषधारी शिवका [वह चिन्मय ] लिंग शीघ्र ही पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ १८ ॥ अग्नितुल्य उस माहेश्वरलिंगने सामने स्थित सभी वस्तुओंको जला डाला और इतना ही नहीं, वह फैलकर जहाँ—जहाँ जाता, सब कुछ भस्म कर देता । वह पातालमें तथा स्वर्गमें भी वैसे ही गया; वह पृथ्वीपर सर्वत्र गया और कहीं भी स्थिर न रहा ॥ १९—२० ॥ सारे लोक व्याकुल हो उठे और वे ऋषिगण अत्यन्त दुःखित हो गये । देवता और ऋषियोंमें किसीको भी अपना कल्याण दिखायी न पड़ा ॥ २१ ॥ जिन देवता और ऋषियोंने शिवजीको नहीं पहचाना, वे सब दुःखित हो आपसमें मिलकर ब्रह्माजीकी शरणमें गये । हे ब्राह्मणो ! वहाँ जाकर उन सभीने ब्रह्माको प्रणाम तथा स्तुतिकर सृष्टिकर्ता ब्रह्मासे सारा वृत्तान्त निवेदन किया ॥ २२—२३ ॥ तब ब्रह्माजी उनका वचन सुनकर उन श्रेष्ठ ऋषियोंको शिवकी मायासे मोहित जानकर सदाशिवको नमस्कारकर कहने लगे — ॥ २४ ॥ ब्रह्माजी बोले— हे ब्राह्मणो! आपलोग ज्ञानी होकर भी निन्दित कर्म कर रहे हैं, तो यदि अज्ञानी लोग ऐसा करें, तो फिर क्या कहा जाय ! ॥ २५ ॥ इस प्रकार सदाशिवसे विरोध करके भला कौन कल्याणकी कामना कर सकता है ! यदि कोई मध्याह्नकालमें आये हुए अतिथिका सत्कार नहीं करता, तो वह अतिथि उसका सारा पुण्य लेकर और अपना सारा पाप उसको देकर चला जाता है; फिर शिवजीके विषयमें तो कहना ही क्या! ॥ २६—२७ ॥ अतः जबतक यह [ शैव] लिंग स्थिर नहीं होता, तबतक तीनों लोकोंमें कहीं भी लोगोंका कल्याण नहीं हो सकता है; मैं यह सत्य कहता हूँ । हे ऋषियो ! अब आपलोग मनसे विचार करें और ऐसा उपाय करें, जिससे शिवलिंगकी स्थिरता हो जाय ॥ २८—२९ ॥ सूतजी बोले— ब्रह्माके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर ऋषियोंने उन्हें प्रणामकर कहा — हे ब्रह्मन् ! अब हमलोगों को क्या करना चाहिये ? आप उस कार्यके लिये आज्ञा प्रदान कीजिये । तब उन मुनीश्वरोंके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर सर्वलोकपितामह ब्रह्माजीने उन मुनीश्वरोंसे स्वयं कहा—॥ ३०—३१ ॥ ब्रह्माजी बोले— हे देवताओ ! आपलोग देवी पार्वतीकी आराधना करके उन शिवासे प्रार्थना कीजिये: यदि वे योनिपीठात्मकरूप धारण कर लें, तो वह शिवलिंग स्थिर हो जायगा ॥ ३२ ॥ हे ऋषिसत्तमो ! अब मैं उस उपायको आपलोगोंसे बताता हूँ, आप लोग सुनिये और प्रेमपूर्वक उस विधिका सम्पादन कीजिये; वे [ अवश्य] प्रसन्न होंगी ॥ ३३ ॥ अष्टदलवाला कमल बना करके उसपर एक कलश स्थापितकर उसमें दूर्वा तथा यवांकुरोंसे युक्त तीर्थका जल भर देना चाहिये। फिर वेदमन्त्रोंके द्वारा उस कुम्भको अभिमन्त्रित करना चाहिये । इसके बाद [ हे महर्षियो ! ] वेदोक्त रीतिसे उसका पूजन करके शिवका स्मरण करते हुए शतरुद्रिय मन्त्रोंसे कलशके जलसे उस शिवलिंगका अभिषेक करना चाहिये, फिर उन्हीं मन्त्रोंसे लिंगका प्रोक्षण करना चाहिये; तब शिवलिंग प्रशान्त हो जायगा ॥ ३४–३६ ॥ इसके बाद योनिरूपा गिरिजा तथा उत्तम बाणलिंगको स्थापितकर उस प्रतिष्ठित शिवलिंगको पुनः अभिमन्त्रित करना चाहिये । उसके अनन्तर सुगन्ध द्रव्य, चन्दन, पुष्प, धूप एवं नैवेद्य आदिसे पूजाकर प्रणाम, स्तुति तथा मंगलकारी गीत — वाद्यके द्वारा परमेश्वरको प्रसन्न करना चाहिये। तत्पश्चात् स्वस्तिवाचन करके ‘जय’ शब्दका उच्चारण करना चाहिये और प्रार्थना करना चाहिये कि हे देवेश ! हे संसारको प्रसन्न करनेवाले ! आप [हमपर ] प्रसन्न होइये; आप ही [ संसारके ] कर्ता, पालन करनेवाले एवं संहार करनेवाले तथा पूर्णतः विनाशरहित हैं । आप इस जगत् के आदि, जगत् के कारण एवं जगत् के आत्मस्वरूप भी हैं । हे महेश्वर ! आप शान्त हो जायँ और सम्पूर्ण जगत् का पालन करें ॥ ३७—४१ ॥ हे ऋषियो! इस प्रकारका अनुष्ठान करनेपर शिवलिंग अवश्य स्थिर हो जायगा । फिर इस त्रैलोक्यमें किसी भी प्रकारका उपद्रव नहीं होगा और सदा सुख रहेगा ॥ ४२ ॥ सूतजी बोले— ब्रह्माके यह कहनेपर वे ब्राह्मण तथा देवता पितामह ब्रह्माजीको प्रणामकर सभी लोकोंको सुखी बनानेकी इच्छासे उन शिवजीकी शरण में गये ॥ ४३ ॥ उन लोगोंने परम भक्तिसे सदाशिवकी पूजा एवं प्रार्थना की, तब प्रसन्न होकर महेश्वरने उनसे कहा—॥ ४४ ॥ महेश्वर बोले – हे देवताओ ! हे ऋषियो ! आपलोग आदरपूर्वक मेरी बात सुनिये। यदि यह शिवलिंग योनिपीठात्मिका (समस्त ब्रह्माण्डका प्रसव करनेवाली ) भगवती महाशक्तिके द्वारा धारण किया जाय, तभी आपलोगोंको सुख प्राप्त होगा। पार्वतीके अतिरिक्त अन्य कोई भी मेरे इस स्वरूपको धारण करनेमें समर्थ नहीं है; उन महाशक्तिके द्वारा धारण किये जानेपर शीघ्र ही यह मेरा निष्कल स्वरूप प्रशान्त हो जायगा ॥ ४५—४६ ॥ सूतजी बोले — हे मुनीश्वरो ! तब यह सुनकर प्रसन्न हुए देवताओं एवं ऋषियोंने ब्रह्माको साथ लेकर पार्वतीकी प्रार्थना की और पार्वती तथा शिवको प्रसन्न करके पूर्वोक्त विधि सम्पादितकर उत्तम लिंग स्थापित किया ॥ ४७—४८ ॥ इस प्रकार मन्त्रोक्त विधानके अनुसार उन देवताओं एवं ऋषियोंने धर्मकी रक्षाके लिये शिव तथा पार्वतीको प्रसन्न किया ॥ ४९ ॥ तत्पश्चात् सभी देवता, ऋषिगण, ब्रह्मा, विष्णु तथा चराचर त्रिलोकीने शिवजीकी विशेष रूपसे पूजा की ॥ ५० ॥ तब शिवजी प्रसन्न हो गये और जगदम्बा पार्वती भी प्रसन्न हो गयीं; इसके बाद उन पार्वतीने उस शिवलिंगको पीठरूपसे धारण कर लिया । हे द्विजो ! तब शिवलिंगके स्थापित हो जानेपर लोकोंका कल्याण हुआ और वह शिवलिंग तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हो गया ॥ ५१—५२ ॥ पार्वतीजी तथा शिवका वह विग्रह हाटकेश्वर— इस नामसे प्रसिद्ध हुआ, उसके पूजनसे सभी लोगोंको सब प्रकारका सुख प्राप्त होता है, इस लोकमें अनेक प्रकारका सुख देनेवाली सम्पूर्ण समृद्धि अधिकाधिक प्राप्त होती है और परलोकमें उत्तम मुक्ति प्राप्त होती है; इसमें कोई विचार नहीं करना चाहिये ॥ ५३—५४ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें लिंगस्वरूपकारणवर्णन नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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