शिवमहापुराण — कोटिरुद्रसंहिता — अध्याय 22
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
कोटिरुद्रसंहिता
इक्कीसवाँ अध्याय
बाईसवाँ अध्याय
परब्रह्म परमात्माका शिव-शक्तिरूपमें प्राकट्य, पंचक्रोशात्मिका काशीका अवतरण, शिवद्वारा अविमुक्त लिंगकी स्थापना, काशीकी महिमा तथा काशीमें रुद्रके आगमनका वर्णन

सूतजी बोले हे श्रेष्ठ ऋषिगण ! अब विश्वेश्वरके महापापनाशक माहात्म्यका वर्णन करूँगा, आपलोग सुनें । संसारमें यह जो कुछ भी वस्तुमात्र दिखायी देता है, वह चिदानन्दस्वरूप, निर्विकार एवं सनातन है ॥ १-२॥

अपने कैवल्य (अद्वैत) – भावमें ही रमनेवाले उस अद्वितीय परमेश्वरको दूसरा रूपवाला होनेकी इच्छा हुई, वही सगुण हो गया, जो शिवनामसे कहा जाता है ॥ ३ ॥ वे ही स्त्री तथा पुरुषके भेदसे दो रूपोंमें हो गये । उनमें जो पुरुष था, वह शिव कहा गया एवं जो स्त्री थी, वह शक्ति कही गयी । हे मुनिसत्तमो ! उन दोनों अदृष्ट चित् तथा आनन्दस्वरूप (शिव-शक्ति)- द्वारा स्वभावसे प्रकृति तथा पुरुष भी निर्मित किये गये । हे द्विजो ! जब इस प्रकृति एवं पुरुषने अपने जननी एवं जनकको नहीं देखा, तब वे महान् संशयमें पड़ गये । उस समय निर्गुण परमात्मासे आकाशवाणी उत्पन्न हुई कि तुम दोनों तप करो, उसीसे उत्तम सृष्टि होगी ॥ ४—७ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


प्रकृति – पुरुष बोले— हे प्रभो ! हे शिव ! तपका कोई स्थान नहीं है, फिर हम दोनों आपकी आज्ञासे कहाँ स्थित होकर तप करें ? ॥ ८ ॥

तब निर्गुण शिवने अन्तरिक्षमें स्थित, सभी सामग्रियोंसे समन्वित, सम्पूर्ण तेजोंका सारभूत, पंचक्रोश (पाँच कोस) परिमाणवाला एक शुभ तथा सुन्दर नगर बनाया, जो कि उनका अपना ही स्वरूप था, [उस नगरको शिवजीने] पुरुषके समीप भेज दिया ॥ ९ – १० ॥ तब वहाँ स्थित होकर [ पुरुषरूप] विष्णुने सृष्टिकी कामनासे उन शिवजीका ध्यान करते हुए बहुत कालपर्यन्त तप किया ॥ ११ ॥ तपस्या के श्रमसे उनके शरीरसे अनेक जलधाराएँ उत्पन्न हो गयीं और उनसे सारा शून्य भर गया । उस समय कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता था ॥ १२ ॥ इसके बाद विष्णुने देखा कि यह क्या आश्चर्य दिखायी दे रहा है! तब इस आश्चर्यको देखकर विष्णुने अपना सिर हिला दिया ॥ १३ ॥

तब विष्णुके कानसे उनके सामने एक मणि गिर पड़ी। वही मणिकर्णिका नामसे एक महान् तीर्थ हो गया ॥ १४ ॥ जब वह पंचक्रोशात्मिका नगरी उस जलराशिमें डूबने लगी, तब निर्गुण शिवने उसे शीघ्र ही अपने त्रिशूलपर धारण कर लिया ॥ १५ ॥ इसके बाद विष्णुने प्रकृति नामक अपनी स्त्रीके साथ वहीं शयन किया, तब शंकरकी आज्ञासे उनके नाभिकमलसे ब्रह्मा प्रकट हुए ॥ १६ ॥ तब उन्होंने शिवकी आज्ञा पाकर अद्भुत सृष्टिकी रचना की। उन्होंने ब्रह्माण्डमें चौदह लोकोंका निर्माण किया। मुनियोंने इस ब्रह्माण्डका विस्तार पचास करोड़ योजन बताया है ॥ १७-१८ ॥

ब्रह्माण्डमें [अपने-अपने] कर्मोंसे बँधे हुए प्राणी मुझे किस प्रकारसे प्राप्त करेंगे – ऐसा विचारकर उन्होंने (शिवजीने) पंचकोशीको [ ब्रह्माण्डसे] अलग रखा ॥ १९ ॥ यह काशी लोकमें कल्याण करनेवाली, कर्मबन्धनका विनाश करनेवाली, मोक्षतत्त्वको प्रकाशित करनेवाली, ज्ञान प्रदान करनेवाली तथा मुझे अत्यन्त प्रिय कही गयी है। परमात्मा शिवने अविमुक्त नामक लिंगको स्वयं स्थापित किया और उससे कहा- हे मेरे अंश- स्वरूप ! तुम्हें मेरे इस क्षेत्रका कभी त्याग नहीं करना चाहिये ॥ २०-२१ ॥ ऐसा कहकर स्वयं सदाशिवने उस काशीको अपने त्रिशूलसे उतारकर मर्त्यलोक संसारमें स्थापित किया ॥ २२ ॥

ब्रह्माका एक दिन पूरा होनेपर भी उस काशीका नाश निश्चत ही नहीं होता । हे मुनियो ! उस समय शिवजी उसे अपने त्रिशूलपर धारण करते हैं ॥ २३ ॥ हे द्विजो ! ब्रह्माद्वारा पुनः सृष्टि किये जानेपर वे काशीको स्थापित करते हैं । [ सभी प्रकारके] कर्मबन्धनोंको नष्ट करनेके कारण इसे काशी कहते हैं ॥ २४ ॥ अविमुक्तेश्वर नामक लिंग काशीमें सर्वदा स्थित रहता है, यह महापातकियोंको भी मुक्त करनेवाला है। हे मुनीश्वरो ! अन्यत्र (मोक्षप्रद क्षेत्रों में ) सारूप्य आदि मुक्ति प्राप्त होती है, किंतु यहाँ प्राणियोंको सर्वोत्तम सायुज्य मुक्ति प्राप्त होती है ॥ २५-२६ ॥ जिनकी कहीं गति नहीं होती, उनके लिये वाराणसीपुरी है; महापुण्यदायिनी पंचकोशी करोड़ों हत्याओंको विनष्ट करनेवाली है ॥ २७ ॥

सभी देवतालोग भी यहाँ मृत्युकी इच्छा करते हैं, फिर दूसरोंकी बात ही क्या है ? शंकरको प्रिय यह नगरी सर्वदा भोग एवं मोक्षको देनेवाली है ॥ २८ ॥ ब्रह्मा, विष्णु, सिद्ध, योगी, मुनि तथा त्रिलोकमें रहनेवाले अन्य लोग भी सदा काशीकी प्रशंसा करते हैं । [ हे महर्षियो!] मैं काशीकी सम्पूर्ण महिमाको सौ वर्षोंमें भी नहीं कह सकता । फिर भी यथाशक्ति वर्णन करता हूँ ॥ २९-३० ॥ जो कैलासपति भीतरसे सत्त्वगुणी, बाहरसे तमोगुणी कहे गये हैं तथा कालाग्निरुद्रके नामसे प्रसिद्ध हैं, वे निर्गुण होते हुए भी सगुणरूपमें प्रकट हुए शिव हैं । उन्होंने अनेक बार प्रणाम करते हुए शंकरसे यह वचन कहा था—॥ ३१ ॥

रुद्र बोले — हे विश्वेश्वर ! हे महेश्वर ! मैं आपका हूँ, इसमें सन्देह नहीं । हे महादेव ! मुझ पुत्रपर अम्बासहित आप कृपा कीजिये। हे जगन्नाथ ! हे जगत्पते ! लोककल्याणकी कामनासे आप यहींपर सदा निवास कीजिये और सबका उद्धार कीजिये; मैं यही प्रार्थना करता हूँ ॥ ३२-३३ ॥

सूतजी बोले — [ तदनन्तर] मन तथा इन्द्रियोंको संयत करनेवाले अविमुक्तने भी बारंबार शिवकी प्रार्थना करके अपने नेत्रोंसे आँसुओं को गिराते हुए प्रसन्नतापूर्वक शिवजीसे कहा- ॥ ३४ ॥

अविमुक्त बोले— हे देवाधिदेव ! हे महादेव ! हे कालरूपी रोगकी उत्तम औषधि ! सचमुच आप त्रिलोकपति हैं और ब्रह्मा तथा विष्णु आदिके द्वारा सेवनीय हैं ॥ ३५ ॥ हे देव! आप काशीपुरीमें अपनी राजधानी स्वीकार कीजिये और मैं अचिन्त्य सुखके लिये आपका ध्यान करता हुआ यहीं निवास करूँगा ॥ ३६ ॥ आप ही मुक्तिदाता एवं कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं, दूसरा कोई नहीं; इसलिये आप लोकोपकारके लिये पार्वतीसहित सदा यहीं निवास करें । हे सदाशिव ! आप [ यहाँ निवास करते हुए ] संसारसागरसे सभी जीवोंका उद्धार कीजिये और भक्तोंका कार्य पूर्ण कीजिये, मैं आपसे बारंबार प्रार्थना करता हूँ ॥ ३७-३८ ॥

सूतजी बोले— इस प्रकार उन विश्वनाथके द्वारा प्रार्थना किये जानेपर सबके स्वामी शंकरजी लोकोपकारार्थ वहाँ भी निवास करने लगे ॥ ३९ ॥ जिस दिनसे वे हर काशीमें आये, तभीसे वह काशी सर्वश्रेष्ठ हो गयी ॥ ४० ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें विश्वेश्वरमाहात्म्यमें काशीमें रुद्रका आगमनवर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥

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