शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 09
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
नौवाँ अध्याय
उमासहित भगवान् शिव का प्राकट्य, उनके द्वारा अपने स्वरूप का विवेचन तथा ब्रह्मा आदि तीनों देवताओं की एकता का प्रतिपादन

ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] भगवान् विष्णु के द्वारा की हुई अपनी स्तुति सुनकर करुणानिधि महेश्वर प्रसन्न हुए और उमादेवी के साथ सहसा वहाँ प्रकट हो गये ॥ १ ॥ [उस समय] उनके पाँच मुख और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र शोभा पाते थे । भालदेश में चन्द्रमा का मुकुट सुशोभित था । सिर पर जटा धारण किये, गौरवर्ण, विशाल नेत्रवाले शिव ने अपने सम्पूर्ण अंगों में विभूति लगा रखी थी ॥ २ ॥ उनकी दस भुजाएँ थीं । उनके कण्ठ में नीला चिह्न था । वे समस्त आभूषणों से विभूषित थे । उन सर्वांगसुन्दर शिव के मस्तक भस्ममय त्रिपुण्ड्र से अंकित थे ॥ ३ ॥ ऐसे परमेश्वर महादेवजी को भगवती उमा के साथ उपस्थित देखकर भगवान् विष्णु ने मेरे साथ पुनः प्रिय वचनों द्वारा उनकी स्तुति की ॥ ४ ॥ तब करुणाकर भगवान् महेश्वर शिव ने प्रसन्नचित्त होकर उन श्रीविष्णुदेव को श्वासरूप से वेद का उपदेश दिया ॥ ५ ॥

शिवमहापुराण

हे मुने ! उसके बाद शिव ने परमात्मा श्रीहरि को गुह्य ज्ञान प्रदान किया । फिर उन परमात्मा ने कृपा करके मुझे भी वह ज्ञान दिया ॥ ६ ॥ वेद का ज्ञान प्राप्तकर कृतार्थ हुए भगवान् विष्णु ने मेरे साथ हाथ जोड़कर महेश्वर को नमस्कार करके पुनः उनसे पूछा ॥ ७ ॥

विष्णुजी बोले — हे देव ! आप कैसे प्रसन्न होते हैं ? हे प्रभो ! मैं आपकी पूजा किस प्रकार करूं ? आपका ध्यान किस प्रकार से किया जाय और आप किस विधि से वश में हो जाते हैं ? ॥ ८ ॥ हे महादेव ! आपकी आज्ञा से हम लोगों को क्या करना चाहिये ? हे शंकर ! कौन कार्य अच्छा है और कौन बुरा है, इस विवेक के लिये हम दोनों के ऊपर कल्याणहेतु आप प्रसन्न हों और उचित बताने की कृपा करें ॥ ९ ॥ हे महाराज ! हे प्रभो ! हे शिव ! हम दोनों पर कृपा करके यह सब एवं अन्य जो कहने योग्य है, वह सब हम दोनों को अपना अनुचर समझकर बतायें ॥ १० ॥

ब्रह्माजी बोले — [हे मुने !] [श्रीहरि की] यह बात सुनकर प्रसन्न हुए कृपानिधान भगवान् शिव प्रीतिपूर्वक यह बात कहने लगे ॥ ११ ॥

श्रीशिवजी बोले — हे सुरश्रेष्ठगण ! मैं आप दोनों की भक्ति से निश्चय ही बहुत प्रसन्न हूँ । आपलोग मुझ महादेव की ओर देखते हुए सभी भयों को छोड़ दीजिये ॥ १२ ॥ मेरा यह लिंग सदा पूज्य है, सदा ही ध्येय है । इस समय आपलोगों को मेरा स्वरूप जैसा दिखायी देता है, वैसे ही लिंगरूप का प्रयत्नपूर्वक पूजन-चिन्तन करना चाहिये ॥ १३ ॥ लिंगरूप से पूजा गया मैं प्रसन्न होकर सभी लोगों को अनेक प्रकार के फल तो दूंगा ही, साथ ही मन की अन्य अनेक अभिलाषाएँ भी पूरी करूंगा । हे देवश्रेष्ठ ! जब भी आपलोगों को कष्ट हो, तब मेरे लिंग की पूजा करें, जिससे आपलोगों के कष्ट का नाश हो जायगा ॥ १४-१५ ॥ आप दोनों महाबली देवता मेरी स्वरूपभूत प्रकृति से और मुझ सर्वेश्वर के दायें और बायें अंगों से प्रकट हुए हैं ॥ १६ ॥ ये लोकपितामह ब्रह्मा मुझ परमात्मा के दाहिने पार्श्व से उत्पन्न हुए हैं और आप विष्णु वाम पार्श्व से प्रकट हुए हैं ॥ १७ ॥ मैं आप दोनों पर भली-भाँति प्रसन्न हूँ और मनोवांछित वर दे रहा हूँ । मेरी आज्ञा से आप दोनों की मुझमें सुदृढ़ भक्ति हो ॥ १८ ॥

हे विद्वानो ! मेरी पार्थिव-मूर्ति बनाकर आप दोनों उसकी अनेक प्रकार से पूजा करें । ऐसा करने पर आपलोगों को सुख प्राप्त होगा ॥ १९ ॥ हे ब्रह्मन् ! आप मेरी आज्ञा का पालन करते हुए जगत् की सृष्टि कीजिये और हे विष्णो ! आप इस चराचर जगत् का पालन कीजिये ॥ २० ॥

ब्रह्माजी बोले — हम दोनों से ऐसा कहकर भगवान् शंकर ने हमें पूजा की उत्तम विधि प्रदान की, जिसके अनुसार पूजित होने पर शिव अनेक प्रकार के फल देते हैं ॥ २१ ॥

शम्भु की यह बात सुनकर श्रीहरि मेरे साथ महेश्वर को हाथ जोड़कर प्रणाम करके कहने लगे — ॥ २२ ॥

विष्णु बोले — [हे प्रभो !] यदि हमारे प्रति आपमें प्रीति उत्पन्न हुई है और यदि आप हमें वर देना चाहते हैं, तो हम यही वर माँगते हैं कि आपमें हम दोनों की सदा अविचल भक्ति बनी रहे ॥ २३ ॥ आप निर्गुण हैं, फिर भी अपनी लीला से आप अवतार धारण कीजिये । हे तात ! आप परमेश्वर हैं, हमलोगों की सहायता करें ॥ २४ ॥ हे देवदेवेश्वर ! हम दोनों का विवाद शुभदायक रहा, जिसके कारण आप हम दोनों के विवाद को शान्त करने के लिये यहाँ प्रकट हुए ॥ २५ ॥

ब्रह्माजी बोले — [हे मुने!] श्रीहरि की यह बात सुनकर भगवान् हर ने मस्तक झुकाकर प्रणाम करके स्थित हुए उन श्रीहरि से पुनः कहा । वे विष्णु स्वयं हाथ जोड़कर खड़े रहे ॥ २६ ॥

श्रीमहेश बोले — मैं सृष्टि, पालन और संहार का कर्ता, सगुण, निर्गुण, निर्विकार, सच्चिदानन्दलक्षणवाला तथा परब्रह्म परमात्मा हूँ ॥ २७ ॥ हे विष्णो ! सृष्टि, रक्षा और प्रलयरूप गुणों के भेद से मैं ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र का नाम धारण करके तीन स्वरूपों में विभक्त हुआ हूँ । हे हरे ! मैं वास्तव में सदा निष्कल हूँ ॥ २८ ॥ हे विष्णो ! आपने और ब्रह्मा ने मेरे अवतार के निमित्त जो मेरी स्तुति की है, उस प्रार्थना को मैं अवश्य सत्य करूंगा; क्योंकि मैं भक्तवत्सल हूँ ॥ २९ ॥ ब्रह्मन् ! मेरा ऐसा ही परम उत्कृष्ट रूप तुम्हारे शरीर से इस लोक में प्रकट होगा, जो नाम से ‘रुद्र’ कहलायेगा ॥ ३० ॥ मेरे अंश से प्रकट हुए रुद्र की सामर्थ्य मुझसे कम नहीं होगी । जो मैं हूँ, वही ये रुद्र हैं । पूजा के विधि-विधान की दृष्टि से भी मुझमें और उनमें कोई अन्तर नहीं है ॥ ३१ ॥ जैसे जल आदि के साथ ज्योतिर्मय बिम्ब का (प्रतिबिम्ब के रूप में) सम्पर्क होने पर भी बिम्ब में स्पर्शदोष नहीं लगता, उसी प्रकार मुझ निर्गुण परमात्मा को भी किसी के संयोग से बन्धन नहीं प्राप्त होता ॥ ३२ ॥

यह मेरा शिवरूप है । जब रुद्र प्रकट होंगे, तब वे भी शिव के ही तुल्य होंगे । हे महामुने ! [मुझमें और] उनमें परस्पर भेद नहीं करना चाहिये ॥ ३३ ॥ वास्तव में एक ही रूप सब जगत् में [व्यवहार निर्वाह के लिये] दो रूपों में विभक्त हो गया है । अतः शिव और रुद्र में कभी भी भेद नहीं मानना चाहिये ॥ ३४ ॥ [शिव और रुद्र में भेद वैसे ही नहीं है] जैसे एक सुवर्णखण्ड में समरूप से एक ही वस्तुतत्त्व विद्यमान रहता है, किंतु उसी का आभूषण बना देने पर नामभेद आ जाता है । वस्तुतत्त्व की दृष्टि से उसमें भेद नहीं होता ॥ ३५ ॥ जिस प्रकार एक ही मिट्टी से बने हुए नाना प्रकार के पात्रों में नाम और रूप का तो भेद आ जाता है, किंतु मिट्टी का भेद नहीं होता; क्योंकि कार्य में कारण की ही विद्यमानता दिखायी देती है । हे देवो ! निर्मल ज्ञानवाले श्रेष्ठ विद्वानों को यह जान लेना चाहिये । ऐसा समझकर आपलोग भी शिव और रुद्र में भेदबुद्धिवाली दृष्टि से न देखें ॥ ३६-३७ ॥ वास्तव में सारा दृश्य ही मेरा शिवरूप है — ऐसा मेरा मत है । मैं, आप, ब्रह्मा तथा जो ये रुद्र प्रकट होंगे, वे सब-के-सब एकरूप हैं, इनमें भेद नहीं है । भेद मानने पर अवश्य ही बन्धन होगा । तथापि मेरे शिवरूप को ही सर्वदा सनातन, मूलकारण, सत्यज्ञानमय तथा अनन्त कहा गया है — ऐसा जानकर आपलोगों को सदा मन से मेरे यथार्थ स्वरूप का ध्यान करना चाहिये ॥ ३८–४० ॥

हे ब्रह्मन् ! सुनिये, मैं आपको एक गोपनीय बात बता रहा हूँ । आप दोनों प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं, किंतु ये रुद्र प्रकृति से उत्पन्न नहीं हैं ॥ ४१ ॥ मैं अपनी इच्छा से स्वयं ब्रह्माजी की भुकुटि से प्रकट हुआ हूँ । गुणों में भी मेरा प्राकट्य कहा गया है । जैसा कि लोगों ने कहा है कि हर तामस प्रकृति के हैं । वास्तव में उस रूप में अहंकार का वर्णन हुआ है । उस अहंकार को केवल तामस ही नहीं, वैकारिक [सात्त्विक] भी समझना चाहिये; [सात्त्विक देवगण वैकारिक अहंकारकी ही सृष्टि हैं।] यह तामस और सात्त्विक आदि भेद केवल नाममात्र का है, वस्तुत: नहीं है । वास्तवमें हर को तामस नहीं कहा जा सकता ॥ ४२-४३ ॥

हे ब्रह्मन् ! इस कारण से आपको ऐसा करना चाहिये । हे ब्रह्मन् ! आप इस सृष्टि के निर्माता बनें और श्रीहरि इसका पालन करनेवाले हों ॥ ४४ ॥ मेरे अंश से प्रकट होनेवाले जो रुद्र हैं, वे इसका प्रलय करनेवाले होंगे । ये जो उमा नाम से विख्यात परमेश्वरी प्रकृति देवी हैं, इन्हीं की शक्तिभूता वाग्देवी ब्रह्माजी का सेवन करेंगी । पुनः इन प्रकृति देवी से वहाँ जो दूसरी शक्ति प्रकट होंगी, वे लक्ष्मीरूप से भगवान् विष्णु का आश्रय लेंगी । तदनन्तर पुनः काली नाम से जो तीसरी शक्ति प्रकट होंगी, वे निश्चय ही मेरे अंशभूत रुद्रदेव को प्राप्त होंगी । वे कार्य की सिद्धि के लिये वहाँ ज्योतिरूप से प्रकट होंगी । इस प्रकार मैंने देवी की शुभस्वरूपा पराशक्तियों को बता दिया ॥ ४५-४८ ॥ उनका कार्य क्रमशः सृष्टि, पालन और संहार का सम्पादन ही है । हे सुरश्रेष्ठ ! ये सब-की-सब मेरी प्रिया प्रकृति देवी की अंशभूता हैं ॥ ४९ ॥

हे हरे ! आप लक्ष्मी का सहारा लेकर कार्य कीजिये । हे ब्रह्मन् ! आप प्रकृति को अंशभूता वाग्देवी को प्राप्तकर मेरी आज्ञा के अनुसार मन से सृष्टिकार्य का संचालन करें और मैं अपनी प्रिया की अंशभूता परात्पर काली का आश्रय लेकर रुद्ररूप से प्रलयसम्बन्धी उत्तम कार्य करूंगा । आप सब लोग अवश्य ही सम्पूर्ण आश्रमों तथा उनसे भिन्न अन्य विविध कार्यों द्वारा चारों वर्णों से भरे हुए लोक की सृष्टि एवं रक्षा आदि करके सुख पायेंगे ॥ ५०-५२१/२ ॥

[हे हरे !] आप ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न तथा सम्पूर्ण लोकों के हितैषी हैं । अतः अब आप मेरी आज्ञा से जगत् में [सब लोगोंके लिये] मुक्तिदाता बनें । मेरा दर्शन होनेपर जो फल प्राप्त होता है, वही फल आपका दर्शन होने पर भी प्राप्त होगा । मैंने आज आपको यह वर दे दिया, यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है । मेरे हृदय में विष्णु हैं और विष्णु के हृदयमें मैं हूँ ॥ ५३-५५ ॥ जो इन दोनों में अन्तर नहीं समझता, वही मेरा मन है अर्थात् वही मुझे प्रिय है । श्रीहरि मेरे बायें अंग से प्रकट हुए हैं, ब्रह्मा दाहिने अंग से उत्पन्न हुए हैं और महाप्रलयकारी विश्वात्मा रुद्र मेरे हृदय से प्रादुर्भूत हुए हैं । हे विष्णो ! मैं ही ब्रह्मा, विष्णु और भव नाम से तीन रूपों में विभक्त हो गया हूँ । मैं रज आदि तीनों गुणों के द्वारा सृष्टि, पालन तथा संहार करता हूँ ॥ ५६-५७१/२ ॥

शिव गुणों से भिन्न हैं और वे साक्षात् प्रकृति तथा पुरुष से भी परे हैं । वे अद्वितीय, नित्य, अनन्त, पूर्ण एवं निरंजन परब्रह्म हैं । तीनों लोकों का पालन करनेवाले श्रीहरि भीतर तमोगुण और बाहर सत्त्वगुण धारण करते हैं । त्रिलोकी का संहार करनेवाले रुद्रदेव भीतर सत्त्वगुण और बाहर तमोगुण धारण करते हैं तथा त्रिभुवन की सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजी बाहर और भीतर से भी रजोगुणी ही हैं । इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र — इन तीनों देवताओं में गुण हैं, परंतु शिव गुणातीत माने गये हैं ॥ ५८-६११/२ ॥

हे विष्णो ! आप मेरी आज्ञा से इन सृष्टिकर्ता पितामह का प्रसन्नतापूर्वक पालन कीजिये । ऐसा करने से आप तीनों लोकों में पूजनीय होंगे ॥ ६२ ॥ ये रुद्र आपके और ब्रह्मा के सेव्य होंगे; क्योंकि त्रैलोक्य के लयकर्ता ये रुद्र शिव के पूर्णावतार हैं ॥ ६३ ॥ पाद्मकल्प में पितामह आपके पुत्र होंगे । उस समय आप मुझे देखेंगे और वे ब्रह्मा भी मुझे देखेंगे ॥ ६४ ॥

ऐसा कहकर महेश, हर, सर्वेश्वर, प्रभु अतुलनीय कृपाकर पुनः प्रेमपूर्वक विष्णु से कहने लगे- ॥ ६५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम खण्ड के सृष्टि-उपाख्यान में शिवतत्त्ववर्णन नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥

 

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