July 25, 2019 | Leave a comment शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 19 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः उन्नीसवाँ अध्याय पार्थिव शिवलिंग के पूजन का माहात्म्य ऋषिगण बोले — हे सूतजी ! आप चिरंजीवी हों । आप धन्य हैं, जो परम शिवभक्त हैं । आपने शुभ फल को देनेवाली शिवलिंग की महिमा सम्यक् प्रकार से बतायी । अब आप व्यासजी द्वारा वर्णित भगवान् शिव के सर्वोत्कृष्ट पार्थिव लिंग की महिमा का वर्णन करें ॥ १-२ ॥ सूतजी बोले — हे ऋषियो ! मैं शिव के पार्थिव लिंग की महिमा बता रहा हूँ, आप लोग भक्ति और आदरसहित इसका श्रवण करें । हे द्विजो ! अभी तक बताये हुए सभी शिवलिंगों में पार्थिव लिंग सर्वोत्तम है । उसकी पूजा करने से अनेक भक्तों को सिद्धि प्राप्त हुई है ॥ ३-४ ॥ शिवमहापुराण हे ब्राह्मणो ! ब्रह्मा, विष्णु, प्रजापति तथा अनेक ऋषियों ने पार्थिव लिंग की पूजा करके अपना सम्पूर्ण अभीष्ट प्राप्त किया है । देव, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग, राक्षसगण और अन्य प्राणियों ने भी उसकी पूजा करके परम सिद्धि प्राप्त की है ॥ ५-६ ॥ सत्ययुग में मणिलिंग, त्रेतायुग में स्वर्णलिंग, द्वापरयुग में पारदलिंग और कलियुग में पार्थिवलिंग को श्रेष्ठ कहा गया है । भगवान् शिव की सभी आठ [ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा तथा यजमान — ये शिव की आठ मूर्तियाँ हैं। ] मूर्तियों में पार्थिव मूर्ति श्रेष्ठ है । किसी अन्य द्वारा न पूजी हुई (नवनिर्मित) पार्थिव मूर्ति की पूजा करने से तपस्या से भी अधिक फल मिलता है ॥ ७-८ ॥ जैसे सभी देवताओं में शंकर ज्येष्ठ और श्रेष्ठ कहे जाते हैं, उसी प्रकार सभी लिंगमूर्तियों में पार्थिवलिंग श्रेष्ठ कहा जाता है । जैसे सभी नदियों में गंगा ज्येष्ठ और श्रेष्ठ कही जाती है, वैसे ही सभी लिंगमूर्तियों में पार्थिव लिंग श्रेष्ठ कहा जाता है । जैसे सभी मन्त्रों में प्रणव (ॐ) महान् कहा गया है, उसी प्रकार शिव का यह पार्थिवलिंग श्रेष्ठ, आराध्य तथा पूजनीय होता है । जैसे सभी वर्गों में ब्राह्मण श्रेष्ठ कहा जाता है, उसी प्रकार सभी लिंगमूर्तियों में पार्थिवलिंग श्रेष्ठ कहा जाता है । जैसे सभी पुरियों में काशी को श्रेष्ठतम कहा गया है, वैसे ही सभी शिवलिंगों में पार्थिवलिंग श्रेष्ठ कहा जाता है । जैसे सभी व्रतों में शिवरात्रि का व्रत सर्वोपरि है, उसी प्रकार सभी शिवलिंगों में पार्थिवलिंग सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है । जैसे सभी देवियों में शैवी शक्ति प्रधान मानी जाती है, उसी प्रकार सभी शिवलिंगों में पार्थिवलिंग प्रधान माना जाता है ॥ ९-१५ ॥ जो पार्थिवलिंग का निर्माण करने के बाद किसी अन्य देवता की पूजा करता है, उसकी वह पूजा तथा स्नान-दान आदि की क्रियाएँ व्यर्थ हो जाती हैं । पार्थिव पूजन अत्यन्त पुण्यदायी तथा सब प्रकार से धन्य करनेवाला, दीर्घायुष्य देनेवाला है । यह तुष्टि, पुष्टि और लक्ष्मी प्रदान करनेवाला है, अतः श्रेष्ठ साधकों को पूजन अवश्य करना चाहिये ॥ १६-१७ ॥ उपलब्ध उपचारों से भक्ति-श्रद्धापूर्वक पार्थिव लिंग का पूजन करना चाहिये; यह सभी कामनाओं की सिद्धि देनेवाला है । जो सुन्दर वेदीसहित पार्थिव लिंग का निर्माण करके उसकी पूजा करता है, वह इस लोक में धन-धान्य से सम्पन्न होकर अन्त में रुद्रलोक को प्राप्त करता है । जो पार्थिवलिंग का निर्माण करके बिल्वपत्रों से ग्यारह वर्ष तक उसका त्रिकाल पूजन करता है, उसके पुण्यफल को सुनिये । वह अपने इसी शरीर से रुद्रलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है । उसके दर्शन और स्पर्श से मनुष्यों के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । वह जीवन्मुक्त ज्ञानी और शिवस्वरूप है; इसमें संशय नहीं है । उसके दर्शनमात्र से भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥ १८-२२ ॥ जो पार्थिव शिवलिंग का निर्माण करके जीवनपर्यन्त नित्य उसका पूजन करता है, वह शिवलोक प्राप्त करता है । वह असंख्य वर्षों तक भगवान् शिव के सान्निध्य में शिवलोक में वास करता है और कोई कामना शेष रहने पर वह भारतवर्ष में सम्राट् बनता है । जो निष्कामभाव से नित्य उत्तम पार्थिवलिंग का पूजन करता है, वह सदा के लिये शिवलोक में वास करता है और शिवसायुज्य को प्राप्त कर लेता है ॥ २३-२५ ॥ यदि ब्राह्मण पार्थिव शिवलिंग का पूजन नहीं करता है, तो वह अत्यन्त दारुण शूलप्रोत नामक घोर नरक में जाता है । किसी भी विधि से सुन्दर पार्थिवलिंग का निर्माण करना चाहिये, किंतु उसमें पंचसूत्रविधान नहीं करना चाहिये ॥ २६-२७ ॥ उसे अखण्ड रूप में बनाना चाहिये, खण्डितरूप में नहीं । खण्डित लिंग का निर्माण करनेवाला पूजा का फल नहीं प्राप्त करता है । मणिलिंग, स्वर्णलिंग, पारदलिंग, स्फटिकलिंग, पुष्परागलिंग और पार्थिवलिंग को अखण्ड ही बनाना चाहिये ॥ २८-२९ ॥ अखण्ड लिंग चरलिंग होता है और दो खण्डवाला अचरलिंग कहा गया है । इस प्रकार चर और अचर लिंग का यह खण्ड-अखण्ड विधान कहा गया है । स्थावरलिंग में वेदिका भगवती महाविद्या का रूप है और लिंग भगवान् महेश्वर का स्वरूप है । इसलिये स्थावर (अचर)-लिंगों में वेदिकायुक्त द्विखण्ड लिंग ही श्रेष्ठ माना गया है ॥ ३०-३१ ॥ द्विखण्ड (वेदिकायुक्त) स्थावर लिंग का विधानपूर्वक निर्माण करना चहिये । शिवसिद्धान्त के जाननेवालों ने अखण्ड लिंग को जंगम (चर)-लिंग माना है । अज्ञानतावश ही कुछ लोग चरलिंग को दो खण्डों में (वेदिका और लिंग) बना लेते हैं, शास्त्रों को जाननेवाले सिद्धान्तमर्मज्ञ मुनिजन ऐसा नहीं करते । जो मूढजन अचरलिंग को अखण्ड तथा चरलिंग को द्विखण्ड रूप में बनाते हैं, उन्हें शिवपूजा का फल नहीं प्राप्त होता ॥ ३२-३४ ॥ इसलिये अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक शास्त्रोक्तविधि से चरलिंग को अखण्ड तथा अचरलिंग को द्विखण्ड बनाना चाहिये । अखण्ड चरलिंग में की गयी पूजा से सम्पूर्ण फल की प्राप्ति होती है । द्विखण्ड चरलिंग की पूजा महान् अनिष्टकर कही गयी है । उसी प्रकार अखण्ड अचरलिंग की पूजा से कामना सिद्ध नहीं होती; उससे तो अनिष्ट प्राप्त होता है-ऐसा शास्त्रज्ञ विद्वानों ने कहा है ॥ ३५-३७ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता के साध्यसाधनखण्ड में पार्थिव शिवलिंग के पूजन का माहात्म्यवर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥ Related