शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] — अध्याय 36
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] छत्तीसवाँ अध्याय
शिवलिंग एवं शिवमूर्तिकी प्रतिष्ठाविधिका वर्णन

श्रीकृष्ण बोले – [ हे भगवन् ! ] मैं लिंग तथा मूर्तिकी उत्तम प्रतिष्ठाविधिको सुनना चाहता हूँ, जिसे शिवजीने कहा था ॥ १ ॥

उपमन्यु बोले— [हे कृष्ण ! ] शुक्लपक्षमें अपने [ चन्द्र-तारा आदिके विचारसे] अनुकूल दिनमें शिवशास्त्रमें बतायी गयी रीतिसे प्रमाणके अनुसार लिंग बनाये । शुभ स्थानका चयन करके भू-परीक्षा कर लक्षणोंके प्रतिकूल दोषोंका निराकरण करके दसों उपचार करे। उन दस उपचारोंके अन्तर्गत सर्वप्रथम विनायक ( श्रीगणेश) – का पूजन करके स्थानशुद्धि आदि करे और लिंगको स्नानगृहमें ले जाय ॥ २-४ ॥ कुंकुम आदिके रससे रंजित सोनेकी शलाकासे उसपर लक्षणांकन करे और शिल्पशास्त्रके द्वारा लक्षणोंको उत्कीर्ण करे । उसके बाद आठ प्रकारकी मिट्टियोंसे युक्त जलसे अथवा पाँच प्रकारकी मिट्टियोंसे युक्त जलसे और पंचगव्यसे पिण्डिकासहित लिंगका शोधन करे ॥ ५-६ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


इसके बाद वेदीसहित लिंगका पूजन करके जलाशयमें ले जाकर वहाँ पिण्डिकाके साथ लिंगका अधिवासन करे। सभी शोभाओंसे समन्वित, तोरण ( बन्दनवार) – से सुशोभित, आवरण (चन्दोवा आदि) – से युक्त, कुशकी मालाओंसे आवेष्टित, आठों दिग्गजोंसे युक्त, आठों दिक्पालोंके घटोंसे समन्वित, आठों मंगलद्रव्योंसे युक्त और पूजित, दिक्पालोंसे सुशोभित, पवित्र अधिवासगृहमें पद्मासनसे अंकित एक धातु अथवा काष्ठकी विशाल चौकी बनाकर वहाँपर बीचमें रखे ॥ ७–१० ॥ तत्पश्चात् सुभद्र, विभद्र, सुनन्द तथा विनन्द – इन चार द्वारपालोंका पूजन करके वेदीसहित लिंगको स्नान कराकर पूजन करके उसे कूर्चसहित दो वस्त्रोंसे चारों ओरसे लपेटकर जलको धीरे-धीरे पोंछकर पीठिकाके ऊपर शयन कराये, लिंगका सिर पूर्वकी ओर, सूत्रको नीचेकी ओर तथा पिण्डिकाको इसके पीछे पश्चिमकी ओर रखे ॥ ११–१३ ॥

सभी मंगल द्रव्योंसे युक्त लिंगका वहाँ पाँच रात, तीन रात अथवा एक राततक अधिवासन कराये ॥ १४ ॥ उस स्थान पर पूर्वमें पूजित देवताओंका विसर्जन करके लिंगका पूर्वकी भाँति शोधनकर पुनः पूजन करे और उत्सव करते हुए उसे शयनस्थानपर ले जाय ॥ १५ ॥ वहाँ भी मण्डलके मध्यमें शयनस्थान बनाये और शुद्ध जलसे लिंगको स्नान कराकर क्रमसे पूजन करे ॥ १६ ॥ ईशानकोणमें [गोमयसे] लिपे हुए शुद्ध भूमितलपर कमलकी रचना करके शिवकुम्भका स्थापन कर उसमें शिवका आवाहन करके पूजन करे । वेदीके मध्यमें विधानपूर्वक श्वेत कमल बनाकर उसके पश्चिममें भी पिण्डिकाके लिये कमलकी रचना करे । रेशमी आदि नवीन वस्त्रों अथवा पुष्पों अथवा दर्भोंसे शयन तैयार करके उसपर स्वर्णपुष्प बिखेरे ॥ १७ – १९ ॥

सभी मंगल ध्वनियोंके साथ वहाँ लिंगको लाकर कूर्चसहित दो लाल वस्त्रोंसे चारों ओरसे पिण्डिकाके साथ उसे लपेटकर पूर्वकी भाँति शयन कराये। इसके बाद उसके आगे कमलकी रचना करके उसके दलोंमें क्रमानुसार विद्येश्वरके कलशोंको रखकर बीचमें शैवी वर्धनी स्थापित करे और [वरण] किये गये श्रेष्ठ ब्राह्मण तीनों पद्मांकित मण्डलोंकी परिक्रमा करते हुए आहुति डालें ॥ २०–२२ ॥ [यजनकर्म में वरण किये गये] उन आठ ब्राह्मणोंके प्रति ‘ये भगवान् शिवकी आठ मूर्तियाँ हैं’ ऐसी भावना करे, वे पूर्व आदिके क्रमसे स्थित होकर कर्म सम्पन्न करें अथवा चार दिशाओंमें पाठ तथा जप करनेवाले ब्रह्मा आदि चार ब्राह्मण स्थित हों । वे हवन करें। उनसे पहले आचार्य ईशानकोणमें अथवा पश्चिममें सात द्रव्योंसे यथाक्रम प्रधान होम करे । अन्य ब्राह्मण आचार्यसे आधा अथवा चौथाई हवन करें ॥ २३–२५ ॥

प्रधान होम आचार्य अथवा गुरु कोई एक ही करे, पहले घृतसे एक सौ आठ आहुति देकर पुनः पूर्णाहुति प्रदान करे । मूल मन्त्रसे शिवलिंगके शीर्षदेश पर शिवहस्त रखे । इसके बाद क्रम से सात द्रव्योंसे सौ, पचास अथवा पचीस आहुतियाँ देते हुए बार-बार लिंग तथा वेदिकाका स्पर्श करे । इसके बाद पूर्णाहुति प्रदान करके क्रमसे दक्षिणा दे । आचार्यसे आधी अथवा चौथाई दक्षिणा हवनकर्ताओं को, उसकी आधी दक्षिणा शिल्पीको और अन्य सदस्योंको अपने सामर्थ्यके अनुसार दक्षिणा दे ॥ २६- २९ ॥ तत्पश्चात् गड्ढेमें स्वर्ण-वृषभ अथवा कूर्च रखकर मिट्टीयुक्त जलसे, पंचगव्योंसे तथा पुनः शुद्ध जलसे शुद्ध की हुई तथा चन्दनसे लिप्त ब्रह्मशिलाको गड्ढे में स्थापित करे । इसके बाद शक्तिके नौ नामोंसे करन्यास करके शिवशास्त्रमें कथित विधिके अनुसार बीज, गन्ध तथा औषधियोंके साथ हरिताल आदि धातुओंको ब्रह्मशिलाके ऊपर छोड़े ॥ ३० – ३२ ॥

क्षीरवृक्ष [ दूधवाले ] – के काष्ठसे निर्मित प्रत्येक लिंगको समीप रखकर, मूलमन्त्र पढ़ते हुए उसे ईशानाभिमुख स्थापित करे । उस समय शक्तिबीजका उच्चारण करते हुए स्थानशोधनकर बन्धक द्रव्योंसे पिण्डिकाको स्थिर करे । इसके बाद अर्घ्य – पुष्पादि अर्पित करके परदा डाल दे। तत्पश्चात् यथोचित रीतिसे निषेक आदि कृत्य करके शयनस्थानमें रखे कलशोंको लाकर लिंगके समक्ष उन्हें क्रमशः स्थापित कर दे ॥ ३३–३६ ॥ तत्पश्चात् उन कलशोंका पूजन करके महापूजाका आरम्भ करे। शिवमन्त्रका स्मरण करते हुए शिवकुम्भस्थ जलको अंगुष्ठ-अनामिकाके योगसे ग्रहण करते हुए मूल मन्त्रका उच्चारण करे । मन्त्रज्ञ साधक लिंगके ईशान भागके मध्यमें शक्तिकलश तथा ब्रह्मकलशादिकी स्थापना करे । तदुपरान्त शिवकुम्भके जलसे लिंगमूलका अभिषेक करे। तत्पश्चात् वर्धनीके जलसे पिण्डिकाका तथा विद्येशकलशोंके द्वारा लिंगका अभिषेक करके आधार आदि आसनकी परिकल्पना करे ॥ ३७–४० ॥

तदनन्तर पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख करके हाथ जोड़कर साक्षात् शिव-शिवाका आवाहन करे । वृषभराज अथवा अलंकृत विमानपर आरूढ़ होकर देवी [ पार्वती ]- के साथ आकाशमार्गसे आते हुए, समस्त आभूषणोंकी शोभासे सम्पन्न और सभी प्रकारकी मंगलध्वनि करनेवाले, आनन्दसे विह्वल समस्त अंगोंवाले, [ अपनी] अंजलियोंको मस्तकपर रखे हुए, स्तुति, नृत्य तथा नमस्कार करते हुए ब्रह्मा-विष्णु-महेश- सूर्य-शक्र आदि देवताओं तथा दानवोंसे घिरे हुए भगवान् शिवका स्मरण करते हुए पंचोपचारसे पूजन करके इसका समापन करे ॥ ४१-४४ ॥ पंचोपचारसे बढ़कर पूजाकी कोई भी विधि नहीं है। लिंगकी भाँति प्रतिमाओंमें भी भलीभाँति प्रतिष्ठा करे । लक्षणके उद्धारके समय नेत्रोंको उन्मीलित कर दे, जलाधिवासमें शयन कराते समय प्रतिमाको अधोमुख करके शयन कराये ॥ ४५-४६ ॥

मन्त्रोंसे कुम्भजलमें सुलायी गयी उस मूर्तिका हृदयमें ध्यान करे। आलय (स्थान) – रहितसे आलययुक्त प्रतिष्ठाको श्रेष्ठ कहा गया है। यदि समर्थ हो, तो मन्दिर बनवाकर बादमें प्रतिष्ठाविधि करे और यदि असमर्थ हो, तो लिंग अथवा मूर्तिकी प्रतिष्ठा करके बादमें अपने सामर्थ्यके अनुसार शिवालयका निर्माण करे ॥ ४७-४८ १/२ ॥

अब मैं गृहमें पूजाके योग्य मूर्ति अथवा लिंगकी उत्तम प्रतिष्ठाविधिका वर्णन करूँगा । एक छोटी तथा लक्षणयुक्त मूर्ति अथवा [ वैसा ही] लिंग बनाकर उत्तरायण उपस्थित होनेपर शुक्लपक्षमें शुभ दिनमें शुभ स्थानमें वेदीका निर्माण करके वहाँ पूर्वकी भाँति कमलकी रचना करे। वहाँ पत्र – पुष्प आदि बिखेरकर मध्यमें कलश रखकर उसके चारों दिशाओंमें चार कलश स्थापित करे ॥ ४९–५११/२ ॥ इसके बाद पाँच ब्रह्मोंका उनके पाँच बीजमन्त्रोंसे उन पाँच कलशोंमें न्यास करके उनका पूजन करके, मुद्रा आदि दिखाकर, रक्षाविधान करके और पुनः पूर्वकी भाँति मिट्टी – जल आदिके द्वारा लिंग अथवा मूर्तिका शोधन करके पुष्पसे आच्छादितकर उसे उत्तर दिशामें स्थित उत्तम आसनपर स्थापित करे । तत्पश्चात् उसके सिरपर पुष्प रखकर प्रोक्षणी – जलसे प्रोक्षण करे ॥ ५२-५४ ॥

इसके बाद पुष्पोंसे पूजन करके जयध्वनिके साथ ईशानसे लेकर विद्येश्वरतकके कुम्भोंसे मूलमन्त्रके द्वारा स्नान कराये। पुनः पाँच कलाओंका न्यास तथा पूर्वकी भाँति पूजन करके वहाँ देवीके साथ भगवान् त्रिलोचनकी नित्य आराधना करे । अथवा मूर्तिसे युक्त तथा मन्त्राभिमन्त्रित एक कुम्भको कमलके बीचमें रखकर शेष सब कुछ पूर्वकी भाँति करे ॥ ५५-५७ ॥ अत्यधिक दोषयुक्त लिंगका शोधन करके उसे पुनः स्थापित करे, दोषयुक्त लिंगका प्रोक्षण करे और थोड़ा दोषयुक्त लिंगका पूजन करे । बाणसंज्ञक लिंगोंकी प्रतिष्ठा करे अथवा न करे; क्योंकि वे तो शिवजीके द्वारा पहले ही
संस्कार-सम्पन्न किये गये हैं । अन्य लिंग जो बाणसदृश दिखायी देते हैं, उनकी स्थापना कर लेनी चाहिये । स्वयंभू लिंग, देवताओं द्वारा स्थापित लिंग तथा ऋषियोंद्वारा स्थापित लिंगके पीठरहित होनेपर उन्हें पीठमें बैठाकर सम्प्रोक्षणविधान करके उनमें शिवका पूजन करे, उनकी प्रतिष्ठा नहीं की जाती है ॥ ५८- ६१ ॥

जले हुए, क्षतिग्रस्त तथा विशीर्ण अंगवाले लिंगको जलाशयमें डाल देना चाहिये, किंतु जोड़े जा सकनेवाले लिंगको जोड़कर उसकी प्रतिष्ठा करनी चाहिये । विशीर्ण हुए लिंग अथवा मूर्तिमें देवताकी पूजाके उपरान्त हृदयमें उद्वासन करके उस [लिंग आदि ] -का सन्धान या त्याग जो उचित हो, उसे करना चाहिये ॥ ६२-६३ ॥ एक दिन पूजा छूट जानेपर दूसरे दिन दुगुना पूजन करे और दो रात पूजाके छूट जानेपर महापूजा करे तथा इससे भी अधिक समयतक यदि पूजा न हुई हो तो सम्प्रोक्षण करे। यदि एक माससे अधिक अनेक दिनों तक पूजा बाधित हो गयी हो, तो कुछ लोग पुनः प्रतिष्ठाका और कुछ लोग सम्प्रोक्षणका विधान बताते हैं ॥ ६४-६५ ॥

लिंग आदिके सम्प्रोक्षणमें पूर्वकी भाँति शिवजीका उद्वासन करके पाँच अथवा आठ बार मिट्टीयुक्त जलसे स्नान कराकर पुनः गायके दूध आदिसे स्नान कराये और कुशोदकसे शोधन करके एक सौ आठ बार मूलमन्त्रके द्वारा प्रोक्षणीके जलसे प्रोक्षण करे ॥ ६६-६७ ॥ लिंगके मस्तकपर पुष्प – कुशसहित हाथ रखकर कम-से-कम पाँच बार या एक सौ आठ बार जप करे और इसके बाद मूलमन्त्रसे सिरसे लेकर पीठतकका स्पर्श करे। शिवजीका आवाहन करके पूर्वकी भाँति महापूजा करे । स्थापित लिंगके उपलब्ध न होनेपर शिवस्थानमें, जलमें, अग्निमें, सूर्यमें अथवा आकाशमें भगवान् शिवकी पूजा करे ॥ ६८-७० ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके उत्तरखण्डमें प्रतिष्ठाविधिवर्णन नामक छत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३६ ॥

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