शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] — अध्याय 05
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] पाँचवाँ अध्याय
ऋषियोंके पूछनेपर वायुदेवद्वारा पशु, पाश एवं पशुपतिका तात्त्विक विवेचन

सूतजी बोले – हे महाभाग्यवान् ऋषियो ! नैमिषारण्यनिवासी उन ऋषियोंने विधिपूर्वक वायुदेवको प्रणामकर उनसे पहले पूछा ॥ १ ॥

नैमिषारण्यके ऋषियोंने पूछा – देव! आपने ईश्वरविषयक ज्ञान कैसे प्राप्त किया ? तथा आप अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीके शिष्य किस प्रकार हुए ? ॥ २ ॥

वायुदेवता बोले- महर्षियो ! उन्नीसवें कल्पका नाम श्वेतलोहितकल्प समझना चाहिये । उसी कल्पमें चतुर्मुख ब्रह्माने सृष्टिकी कामनासे तपस्या की। उनकी उस तीव्र तपस्यासे संतुष्ट हो स्वयं उनके पिता देवदेव महेश्वरने उन्हें दर्शन दिया। वे दिव्य कुमारावस्थासे युक्त रूप धारण करके रूपवानोंमें श्रेष्ठ श्वेत नामक मुनि होकर दिव्य वाणी बोलते हुए उनके सामने उपस्थित हुए। वेदोंके अधिपति तथा सबके पालक पिता महेश्वरका दर्शन करके गायत्रीसहित ब्रह्माजीने उन्हें प्रणाम किया और उन्हींसे उत्तम ज्ञान पाया । ज्ञान पाकर विश्वकर्मा चतुर्मुख ब्रह्मा सम्पूर्ण चराचर भूतोंकी सृष्टि करने लगे । साक्षात् परमेश्वर शिवसे सुनकर ब्रह्माजीने अमृतस्वरूप ज्ञान प्राप्त किया था, इसलिये मैंने तपस्याके बलसे उन्हींके मुखसे उस ज्ञानको उपलब्ध किया ॥ ३–८ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


मुनियोंने पूछा- आपने वह कौन – सा ज्ञान प्राप्त किया, जो सत्यसे भी परम सत्य एवं शुभ है तथा जिसमें उत्तम निष्ठा रखकर पुरुष परमानन्दको प्राप्त करता है ? ॥ ९ ॥

वायुदेवता बोले – महर्षियो ! मैंने पूर्वकालमें पशु- पाश और पशुपतिका जो ज्ञान प्राप्त किया था, सुख चाहनेवाले पुरुषको उसीमें ऊँची निष्ठा रखनी चाहिये । अज्ञानसे उत्पन्न होनेवाला दुःख ज्ञानसे ही दूर होता है। वस्तुके विवेकका नाम ज्ञान है । वस्तुके तीन भेद माने गये हैं—जड (प्रकृति), चेतन (जीव) और उन दोनोंका नियन्ता ( परमेश्वर ) । इन्हीं तीनोंको क्रमसे पाश, पशु तथा पशुपति कहते हैं ॥  १०–१२ ॥ तत्त्वज्ञ पुरुष प्रायः इन्हीं तीन तत्त्वोंको क्षर, अक्षर तथा उन दोनोंसे अतीत कहते हैं । अक्षर ही पशु कहा गया है। क्षर तत्त्वका ही नाम पाश है तथा क्षर और अक्षर दोनोंसे परे जो परमतत्त्व है, उसीको पति या पशुपति कहते हैं ॥ १३-१४ ॥

मुनिगण बोले- हे मारुत ! क्षर किसे कहा गया है और अक्षर किसे कहते हैं एवं उन दोनों क्षराक्षरसे परे क्या है ? उसका वर्णन कीजिये ॥ १५ ॥

वायुदेव बोले- प्रकृतिको ही क्षर कहा गया है, पुरुष (जीव ) – को अक्षर कहते हैं और जो इन दोनोंको प्रेरित करता है, वह क्षर और अक्षर दोनोंसे भिन्न तत्त्व ही परमेश्वर कहा गया है ॥ १६ ॥

मुनिगण बोले- हे देव ! यह प्रकृति कौन कही गयी है, और यह पुरुष कौन कहा गया है ? इनका सम्बन्ध किसके द्वारा होता है और यह प्रेरक ईश्वर कौन है ? ॥ १७ ॥

वायुदेव बोले- मायाका ही नाम प्रकृति है । पुरुष उस मायासे आवृत है । मल और कर्मके द्वारा प्रकृतिका पुरुषके साथ सम्बन्ध होता है। शिव ही इन दोनोंके प्रेरक ईश्वर हैं ॥ १८ ॥

मुनिगण बोले- माया किसे कहते हैं, मायासे आच्छादित होनेपर पुरुष किस रूपका हो जाता है, यह मल क्या है और कहाँसे आया, शिवतत्त्व क्या है तथा शिव कौन है ? ॥ १९ ॥

वायुदेव बोले – माया महेश्वरकी शक्ति है। चित्स्वरूप जीव उस मायासे आवृत है । चेतन जीवको आच्छादित करनेवाला अज्ञानमय पाश ही मल कहलाता है। उससे शुद्ध हो जानेपर जीव स्वतः शिव हो जाता है । वह विशुद्धता ही शिवत्व है ॥ २० ॥

मुनियोंने पूछा- सर्वव्यापी चेतनको माया किस हेतुसे आवृत करती है ? किसलिये पुरुषको आवरण प्राप्त होता है? और किस उपायसे उसका निवारण होता है ? ॥ २१ ॥

वायुदेवता बोले – व्यापक तत्त्वको भी आंशिक आवरण प्राप्त होता है; क्योंकि कला आदि भी व्यापक हैं। भोगके लिये किया गया कर्म ही उस आवरणमें कारण है। मलका नाश होनेसे वह आवरण दूर हो जाता है ॥ २२ ॥

मुनिगण बोले- हे वायुदेव ! वह कलादि क्या है और उसका फल तथा आश्रय क्या है ? ॥ २३ ॥ किसके भोगसे क्या भोगना पड़ता है, उस भोगका साधन क्या है, मलक्षयका हेतु क्या है और क्षीणमलवाला पुरुष कैसा होता है ? ॥ २४ ॥

वायुदेवता बोले- कला, विद्या, राग, काल और नियति — इन्हींको कलादि कहते हैं । कर्मफलका जो उपभोग करता है, उसीका नाम पुरुष (जीव ) है । कर्म दो प्रकारके हैं – पुण्यकर्म और पापकर्म । पुण्यकर्मका फल सुख और पापकर्मका फल दुःख है। कर्म अनादि है और फलका उपभोग कर लेनेपर उसका अन्त हो जाता है। यद्यपि जड कर्मका चेतन आत्मासे कुछ सम्बन्ध नहीं है, तथापि अज्ञानवश जीवने उसे अपने- आपमें मान रखा है। भोग कर्मका विनाश करनेवाला है, प्रकृतिको भोग्य कहते हैं और भोगका साधन है शरीर । बाह्य इन्द्रियाँ और अन्त:करण उसके द्वार हैं | अतिशय भक्तिभावसे उपलब्ध हुए महेश्वरके कृपाप्रसादसे मलका नाश होता है और मलका नाश हो जानेपर पुरुष निर्मल- शिवके समान हो जाता है ॥ २५–२८ ॥

मुनिगण बोले- कलादि पाँच तत्त्वोंका अलग- अलग कर्म क्या कहा जाता है ? क्या आत्माको ही भोक्ता एवं पुरुषके नामसे पुकारा जाता है ? उस अव्यक्त तत्त्वका स्वरूप क्या है और वह किस प्रकारसे भोगा जाता है ? उस [भोग्य ] -के भोगका आश्रय क्या है और शरीर किसे कहते हैं ? ॥ २९-३० ॥

वायुदेवता बोले- विद्या पुरुषकी ज्ञानशक्तिको और कला उसकी क्रियाशक्तिको अभिव्यक्त करनेवाली है । राग भोग्य वस्तुके लिये क्रियामें प्रवृत्त करनेवाला होता है। काल उसमें अवच्छेदक होता है और नियति उसे नियन्त्रणमें रखनेवाली है । अव्यक्तरूप जो कारण है, वह त्रिगुणमय है; उसीसे जड जगत्की उत्पत्ति होती है और उसीमें उसका लय होता है । तत्त्वचिन्तक पुरुष उस अव्यक्तको ही प्रधान और प्रकृति कहते हैं । अप्रकटित लक्षणोंवाला वह प्रधान तत्त्व कलाओंके माध्यमसे अभिव्यक्तिको प्राप्त करता है । उस सत्त्वादिगुणत्रयात्मक प्रधानका स्वरूप सुख-दुःख-विमोहात्मक है, जो पुरुषके द्वारा भोगा जाता है ॥ ३१–३३ ॥ सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण प्रकृतिसे प्रकट होते हैं; तिलमें तेलकी भाँति वे प्रकृतिमें सूक्ष्मरूपसे विद्यमान रहते हैं। सुख और उसके हेतुको संक्षेपसे सात्त्विक कहा गया है, दुःख और उसके हेतु राजस कार्य हैं तथा जडता और मोह – वे तमोगुणके कार्य हैं। सात्त्विकी वृत्ति ऊर्ध्वमें ले जानेवाली है, तामसी वृत्ति अधोगतिमें डालनेवाली है तथा राजसी वृत्ति मध्यम स्थितिमें रखनेवाली है ॥ ३४-३६ ॥

पाँच तन्मात्राएँ, पाँच भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा प्रधान (चित्त), महत्तत्त्व (बुद्धि), अहंकार और मन—ये चार अन्तःकरण – सब मिलकर चौबीस तत्त्व होते हैं। इस प्रकार संक्षेपसे ही विकार सहित अव्यक्त (प्रकृति)-का वर्णन किया गया ॥ ३७-३८ ॥ कारणावस्थामें रहनेपर ही इसे अव्यक्त कहते हैं और शरीर आदिके रूपमें जब वह कार्यावस्थाको प्राप्त होता है, तब उसकी ‘व्यक्त’ संज्ञा होती है-ठीक उसी तरह, जैसे कारणावस्थामें स्थित होनेपर जिसे हम ‘मिट्टी’ कहते हैं, वही कार्यावस्थामें ‘घट’ आदि नाम धारण कर लेती है। जैसे घट आदि कार्य मृत्तिका आदि कारणसे अधिक भिन्न नहीं है, उसी प्रकार शरीर आदि व्यक्त पदार्थ अव्यक्तसे अधिक भिन्न नहीं हैं । इसलिये एकमात्र अव्यक्त ही कारण, करण, उनका आधारभूत शरीर तथा भोग्य वस्तु है, दूसरा कोई नहीं ॥ ३९-४१ ॥

मुनियोंने पूछा – प्रभो ! बुद्धि, इन्द्रिय और शरीरसे व्यतिरिक्त किसी आत्मा नामक वस्तुकी वास्तविक स्थिति कहाँ है? ॥ ४२ ॥

वायुदेवता बोले- महर्षियो ! सर्वव्यापी चेतनका बुद्धि, इन्द्रिय और शरीरसे पार्थक्य अवश्य है। आत्मा नामक कोई पदार्थ निश्चय ही विद्यमान है; परन्तु उसकी सत्तामें किसी हेतुकी उपलब्धि बहुत ही कठिन है ! सत्पुरुष बुद्धि, इन्द्रिय और शरीरको आत्मा नहीं मानते; क्योंकि स्मृति (बुद्धिका ज्ञान ) अनियत है तथा उसे सम्पूर्ण शरीरका एक साथ अनुभव नहीं होता । इसीलिये वेदों और वेदान्तोंमें आत्माको पूर्वानुभूत विषयोंका स्मरणकर्ता, सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थोंमें व्यापक तथा अन्तर्यामी कहा जाता है ॥ ४३–४५ ॥ उसमें सब कुछ है और वह शाश्वत आत्मा सभीको व्याप्त करके सर्वत्र स्थित रहता है, फिर भी व्यक्तरूपमें कोई भी कहीं भी उसे प्रत्यक्ष नहीं देख पाता है। यह नेत्र तथा अन्य इन्द्रियोंसे भी ग्राह्य नहीं है । वह महान् आत्मा ज्ञानप्रदीप्त मनसे ही ग्राह्य है ॥ ४६-४७ ॥

यह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है न ऊपर है, न अगल-बगलमें है, न नीचे है और न किसी स्थान-विशेषमें। यह सम्पूर्ण चल शरीरोंमें अविचल, निराकार एवं अविनाशीरूपसे स्थित है। ज्ञानी पुरुष निरन्तर विचार करनेसे उस आत्मतत्त्वका साक्षात्कार कर पाते हैं। बहुत कहनेसे क्या प्रयोजन ? आत्मा देहसे पृथक् है । जो लोग इसे अपृथक् देखते हैं, उनको इसका यथार्थ ज्ञान नहीं है ॥ ४८–५० ॥ पुरुषका जो वह शरीर कहा गया है, इससे बढ़कर अशुद्ध, पराधीन, दुःखमय और अस्थिर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। शरीर ही सब विपत्तियोंका मूल कारण है। उससे युक्त हुआ पुरुष अपने कर्मके अनुसार सुखी, दुखी और मूढ़ होता है। जैसे पानीसे सींचा हुआ खेत अंकुर उत्पन्न करता है, उसी प्रकार अज्ञानसे आप्लावित हुआ कर्म नूतन शरीरको जन्म देता है ॥ ५१-५३ ॥

ये शरीर अत्यन्त दुःखोंके आलय माने जाते हैं। इनकी मृत्यु अनिवार्य होती है । भूतकालमें कितने ही शरीर नष्ट हो गये और भविष्यकालमें सहस्रों शरीर आनेवाले हैं, वे सब आ-आकर जब जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, तब पुरुष उन्हें छोड़ देता है। कोई भी जीवात्मा किसी भी शरीरमें अनन्त कालतक रहनेका अवसर नहीं पाता ॥ ५४-५५ ॥ कभी यह शरीरोंमें व्याप्त होकर निवास करता है और कभी उन्हें छोड़ देता है, जैसे चन्द्रबिम्ब आकाशमें कभी चंचल मेघोंसे आच्छादित रहता है और कभी मुक्त रहता है। इसकी वृत्ति देहभेदसे भिन्न-भिन्न रसोंवाली होती है, जिस प्रकार पासा एक होते हुए भी पटलपर फेंके जानेपर भिन्न-भिन्न रूपोंमें दिखायी पड़ता है ॥ ५६-५७ ॥

यहाँ स्त्रियों, पुत्रों और बन्धु बान्धवोंसे जो मिलन होता है, वह पथिकको मार्गमें मिले हुए दूसरे पथिकोंके समागमके ही समान है । जैसे महासागरमें एक काष्ठ कहींसे और दूसरा काष्ठ कहींसे बहता आता है, वे दोनों काष्ठ कहीं थोड़ी देरके लिये मिल जाते हैं और मिलकर फिर बिछुड़ जाते हैं। उसी प्रकार प्राणियोंका यह समागम भी संयोग-वियोगसे युक्त है ॥ ५८-५९ ॥ वह [ परमात्मा] शरीर [ और जीवात्मा] – को [तत्त्वतः] जानता है, किंतु शरीर उसे नहीं जान पाता; परमतत्त्व शरीरादिका द्रष्टा [ज्ञाता ] होकर भी इनके द्वारा दृश्य अर्थात् ज्ञेय नहीं है ॥ ६० ॥ ब्रह्माजीसे लेकर स्थावर प्राणियोंतक सभी जीव पशु कहे गये हैं। उन सभी पशुओंके लिये ही यह दृष्टान्त या दर्शन – शास्त्र कहा गया है। यह जीव पाशोंमें बँधता और सुख-दुःख भोगता है, इसलिये ‘पशु’ कहलाता है। यह ईश्वरकी लीलाका साधन – भूत है, ऐसा ज्ञानी महात्मा कहते हैं। यह जीव अज्ञानी है एवं अपने सुख- दुःखको भोगनमें सर्वदा परतन्त्र है। यह ईश्वरसे प्रेरित होकर स्वर्ग अथवा नरकमें जाता है ॥ ६१–६३ ॥

सूतजी बोले- वायुका यह वचन सुनकर मुनिगण प्रसन्नचित्त हो गये और शैवागममें कुशल वायुदेवको प्रणाम करके कहने लगे ॥ ६४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें शिवतत्त्वज्ञानवर्णन नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥

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