September 22, 2024 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण – शतरुद्रसंहिता – अध्याय 15 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ श्रीशिवमहापुराण शतरुद्रसंहिता पन्द्रहवाँ अध्याय भगवान् शिवके गृहपति नामक अग्नीश्वरलिंगका माहात्म्य नन्दीश्वर बोले – [ हे सनत्कुमार!] नारदजीकी बात सुनकर स्त्रीसहित विश्वानरने उसे अत्यन्त दारुण वज्रपातके समान समझा ॥ १ ॥ ‘हाय मैं मर गया’ – ऐसा कहकर वे छाती पीटने लगे और पुत्रके शोक सन्तप्त होकर मूर्च्छित हो गये । शुचिष्मती भी अत्यधिक दुःखित होकर ऊँचे स्वरमें हाहाकार करती हुई व्याकुल इन्द्रियोंवाली होकर रोने लगी ॥ २-३ ॥ शुचिष्मतीके विलापको सुनकर विश्वानर भी मूर्च्छाका त्याग करके उठकर अरे! यह क्या हुआ, यह क्या हुआ, इस प्रकार ऊँचे स्वरमें रोते हुए बोले- हाय ! मेरी सम्पूर्ण इन्द्रियोंका स्वामी, मेरा बाहर विचरनेवाला प्राण तथा मेरे आत्मामें निवास करनेवाला मेरा पुत्र गृहपति कहाँ है ? तब अपने माता-पिताको अत्यधिक शोकसे व्याकुल देखकर शंकरजीके अंशसे उत्पन्न वह बालक गृहपति मुसकराकर कहने लगा—॥ ४-५ ॥ महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥ गृहपति बोला- हे माता ! हे पिता ! क्या हुआ है ? जिससे कि आपलोग इतने दुखी होकर रो रहे हैं, इसका कारण मुझे बताइये । इस तरह आपलोग भयभीत क्यों हो रहे हैं? ॥ ६ ॥ आपलोगोंकी चरणधूलिसे सुरक्षित मेरे शरीरको काल भी मारनेमें समर्थ नहीं हो सकता, फिर अत्यन्त अल्प बिजली मेरा कर ही क्या सकती है? ॥ ७ ॥ हे माता-पिता! आपलोग मेरी प्रतिज्ञा सुनें, यदि मैं आप दोनोंका पुत्र हूँ, तो ऐसा कार्य करूँगा, जिससे मृत्यु भी सन्त्रस्त हो जायगी। हे माता – पिता ! मैं सत्पुरुषोंको सब कुछ देनेवाले सर्वज्ञ मृत्युंजय भगवान्की भलीभाँति आराधना करके महाकालको भी जीत लूँगा, यह मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ ८-९ ॥ नन्दीश्वर बोले- उसकी इस प्रकारकी बातको सुनकर मुरझाये हुए द्विजदम्पती अकालमें हुई अमृतकी सघन वृष्टिके समान दुःखरहित होकर कहने लगे ॥ १० ॥ द्विजदम्पती बोले – [ हे पुत्र ! ] फिर कहो ! फिर कहो ! तुमने क्या कहा कि मुझे काल भी मारनेमें समर्थ नहीं है । फिर बेचारी बिजली कौन है ? तुमने हमलोगोंके शोकका निवारण करनेके लिये मृत्युंजयदेवताका समाराधनरूप उपाय उचित ही कहा है ॥ ११-१२ ॥ शिवजीका आश्रय ही सचमुच ऐसा है, उनसे बड़ा कोई नहीं है, वे सभी पापोंको दूर करनेवाले एवं मनोरथमार्गसे भी परे कामनाको पूर्ण करनेवाले हैं ॥ १३ ॥ हे तात! क्या तुमने नहीं सुना है कि पूर्वकालमें जब श्वेतकेतु कालपाशमें बाँध लिया गया था, तब शिवजीने उसकी रक्षा की थी ? शिलादपुत्र नन्दीश्वर जो केवल आठ वर्षका बालक था, शिवजीने कालपाशसे छुड़ाकर उसे अपना गण तथा विश्वका रक्षक बना दिया ॥ १४-१५ ॥ क्षीरसागरके मन्थनसे उत्पन्न तथा प्रलयाग्निके समान महाभयानक हालाहल विषको पीकर शिवजीने ही तीनों लोकोंकी रक्षा की थी ॥ १६ ॥ जिन्होंने त्रिलोकीकी सम्पत्तियोंका हरण करनेवाले महान् अभिमानी जलन्धर नामक दैत्यको अपने सुन्दर अँगूठेकी रेखासे उत्पन्न चक्रके द्वारा मार डाला । जिन्होंने त्रिलोककी सम्पदाको प्राप्तकर मोहित हुए त्रिपुरको एक ही बाण चलाकर उससे उत्पन्न हुई ज्वालाओंवाली अग्निसे सखा डाला और जिन्होंने त्रिलोकके विजयसे उन्मत्त हुए कामदेवको ब्रह्मा आदिके देखते-ही-देखते दृष्टिनिक्षेपमात्रसे अनंग बना दिया । हे पुत्र ! तुम ब्रह्मा आदिके एकमात्र जन्मदाता, मेघपर सवार होनेवाले, अविनाशी तथा विश्वकी रक्षारूप मणि उन शिवजीकी शरणमें जाओ ॥ १७–२० ॥ नन्दीश्वर बोले – हे मुने! माता – पिताकी आज्ञा पाकर उनके चरणोंमें प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा करके और उन्हें बहुत तरहसे आश्वासन देकर वह वहाँसे चल दिया और उस काशीपुरीमें पहुँचा, जो ब्रह्मा, नारायण आदि देवोंके लिये दुर्लभ, महाप्रलयके सन्तापका विनाश करनेवाली, विश्वेश्वरद्वारा पालित, कण्ठ अर्थात् तटप्रदेशमें हारकी तरह पड़ी हुई गंगाजीसे सुशोभित और अद्भुत गुणोंसे सम्पन्न हरपत्नी [ भगवती गिरिजा] – से शोभायमान है॥ २१–२३ ॥ वहाँ पहुँचकर वे विप्रवर पहले मणिकर्णिका गये । वहाँ विधिपूर्वक स्नान करके प्रभु विश्वेश्वरका दर्शन करके उन बुद्धिमान् ने परम आनन्दसे युक्त होकर तीनों लोकोंके प्राणोंकी रक्षा करनेवाले शिवजीको हाथ जोड़कर सिर झुकाकर प्रणाम किया। वे बार-बार उसे देखकर हर्षित हो रहे थे और मनमें विचार कर रहे थे कि सचमुच यह लिंग परम आनन्दकन्दसे परिपूर्ण है, यह स्पष्ट ही है, इसमें संशय नहीं है । २४–२६ ॥ अहो! इस चराचर त्रिलोकीमें मुझसे बढ़कर कोई धन्य नहीं है, जो कि मैंने आज ऐश्वर्यमय तथा सर्वव्यापी विश्वेश्वरका दर्शन किया ॥ २७ ॥ मेरे भाग्योदयके लिये ही महर्षि नारदने जो मुझे आकर पहले ही बता दिया था, जिससे आज मैं [विश्वेश्वरका दर्शन प्राप्तकर] कृतकृत्य हो गया ॥ २८ ॥ नन्दीश्वर बोले- मुने ! इस प्रकार आनन्दामृतरूपी रसोंद्वारा पारण करके गृहपतिने शुभ दिनमें सर्वहितप्रद शिवलिंगकी स्थापना की ॥ २९ ॥ तत्पश्चात् अजितेन्द्रियोंके लिये अति दुष्कर कठोर नियमोंको ग्रहणकर अनुष्ठानपरायण हुआ पवित्र चित्तवाला वह प्रतिदिन वस्त्रोंसे छाने गये गंगाजलसे पूर्ण एक सौ आठ पवित्र घड़ोंसे शिवजीको स्नान कराने लगा और एक हजार आठ नीलकमलोंसे बनी हई माला समर्पित करने लगा ॥ ३०-३१ १/२॥ पहले वह पक्षमें [एक बार ] फिर महीने – महीनेमें फल-मूल-कन्दको खाकर [छ: महीनेतक] रहा। इसके बाद अत्यन्त धीर वह गृहपति पुनः छः मास सूखे पत्ते खाकर और छः महीने वायु पीकर, फिर छ: महीने एक बूँद जल पीकर तपस्या करनेमें लगा रहा ॥ ३२-३३ ॥ हे नारद! इस प्रकार एकमात्र शिवजीको मनमें धारण करके तपमें निरत उस महात्माके दो वर्ष बीत गये । हे शौनक ! तब जन्मसे बारहवें वर्षमें देवर्षि नारदद्वारा कही गयी बातको मानो सत्य करनेकी इच्छासे स्वयं इन्द्रदेव उसके पास आये और बोले – हे विप्र ! मैं इन्द्र इस उत्तम तपस्यासे अत्यन्त प्रसन्न हो गया हूँ, तुम्हारे मनमें जो अभिलषित हो, उस वरको माँगो, मैं प्रदान कर रहा हूँ ॥ ३४–३६ ॥ नन्दीश्वर बोले—इन्द्रके इस वचनको सुनकर महा- धीर मुनिकुमारने मधुर मधुराक्षरमयी वाणीमें कहा—॥ ३७ ॥ गृहपति बोला – हे मघवन् ! हे वृत्रशत्रो ! मैं वज्र धारण करनेवाले आपको जानता हूँ। मैं आपसे वर नहीं माँगता, मुझे वर देनेवाले तो शिवजी हैं ॥ ३८ ॥ इन्द्र बोले – हे बालक ! मेरे सिवा कोई दूसरा शिव नहीं है, मैं सभी देवताओंका भी देव हूँ । अत: तुम अपना लड़कपन त्यागकर [ मुझसे ] वर माँगो और देर मत करो ॥ ३९ ॥ गृहपति बोला- तुम अहल्याके शीलको नष्ट करनेवाले असाधु हो, पाक नामक असुरका वध करनेवाले पर्वतोंके शत्रु हे इन्द्र ! तुम चले जाओ, यह स्पष्ट है कि मैं शिवजीके अतिरिक्त और किसी देवतासे वरकी प्रार्थना नहीं करता ॥ ४० ॥ नन्दीश्वर बोले – उसकी यह बात सुनते ही क्रोधसे लाल नेत्रोंवाले इन्द्र अपना घोर वज्र उठाकर बालकको भयभीत करने लगे ॥ ४१ ॥ विद्युज्ज्वालाके समान प्रज्वलित वज्रको देखकर नारदकी बातका स्मरण करता हुआ वह बालक भयसे व्याकुल होकर मूर्च्छित हो गया। उसके पश्चात् अन्धकारका नाश करनेवाले गौरीपति शिवजी प्रकट हो गये और हाथके स्पर्शसे उसे जीवित – सा करते हुए उससे बोले- उठो, उठो, तुम्हारा कल्याण हो ॥ ४२-४३ ॥ अपश्यदग्रे चोत्थाय शम्भुमर्कशताधिकम् ॥ ४४ ॥ भाले लोचनमालोक्य कण्ठे कालं वृषध्वजम् । वामाङ्गसन्निविष्टाद्रितनयं चन्द्रशेखरम् ॥ ४५ ॥ कपर्द्देन विराजन्तं त्रिशूलाजगवायुधम् । स्फुरत्कर्पूरगौरांगं परिणद्ध गजाजिनम् ॥ ४६ ॥ तब [ उस अपूर्व स्पर्शको प्राप्त करके ] उसने रात्रिमें सोये हुएके समान अपने नेत्रकमलोंको खोलकर उठ करके अपने आगे सैकड़ों सूर्योंसे भी अधिक प्रकाशमान शिवजीको देखा। उनके मस्तकमें नेत्र शोभित हो रहा था, कण्ठमें विषकी कालिमा थी, वे बैलपर सवार थे, उनके बायीं ओर भगवती पार्वती स्थित थीं, उनके मस्तकपर अर्धचन्द्र सुशोभित हो रहा था, वे जटाजूटसे युक्त थे, त्रिशूल एवं अजगव धनुष धारण किये हुए थे । उनका गौर शरीर कर्पूरके समान उज्ज्वल था और वे गजचर्म धारण किये हुए थे तब गुरुवाक्य तथा आगमप्रमाणसे उन्हें महादेव जानकर हर्षातिरेकसे उसका कण्ठ रुँध गया और शरीर रोमांचित हो गया। उसकी स्मृति लुप्त हो गयी। फिर भी वह जैसे- तैसे क्षणभरके लिये चित्रलिखित पुतलेके समान स्तम्भित हो अवाक् खड़ा रहा॥ ४४–४८ ॥ जब वह न तो स्तुति, न नमस्कार और न कुछ कहनेमें ही समर्थ रहा, तब शिवजीने मुसकराकर उससे कहा- ॥ ४९ ॥ ईश्वर बोले – हे बालक ! हे गृहपते ! मैंने समझ लिया कि तुम हाथमें वज्र लिये हुए इन्द्रसे डर गये हो, अब डरो मत! यह तो मैंने ही तुम्हारी परीक्षा ली थी । मेरे भक्तको इन्द्र, वज्र अथवा काल भी नहीं डरा सकते हैं । यह तो मैंने ही इन्द्रका रूप धारणकर तुम्हें डराया था ॥ ५०-५१ ॥ हे भद्र! अब मैं तुम्हें वर प्रदान करता हूँ कि तुम अग्निका पद ग्रहण करनेवाले हो जाओ। तुम सभी देवताओंके वरदाता बनोगे। तुम सभी प्राणियोंके अन्दर [वैश्वानर नामकी] अग्नि बनकर विचरण करो और दक्षिण एवं पूर्व दिशाके मध्यमें [आग्नेयकोणका ] दिगीश्वर बनकर राज्य करो ॥५२-५३॥ तुम्हारे द्वारा स्थापित यह लिंग [ आजसे ] तुम्हारे ही नामसे [प्रसिद्ध ] होगा । यह अग्नीश्वर नामवाला होगा, जो सभी तेजोंका विशिष्ट रूपसे अभिवर्धन करेगा । अग्नीश्वरके भक्तोंको विद्युत् एवं अग्निसे भय नहीं होगा। उन्हें अग्निमान्द्यका भय नहीं होगा और अकालमरण भी कभी नहीं होगा ॥ ५४-५५ ॥ सम्पूर्ण समृद्धियोंको देनेवाले इस अग्नीश्वर लिंगका काशीमें पूजन करके मनुष्य दैवयोगसे यदि कहीं भी मृत्युको प्राप्त होगा, तो उसे अग्निलोककी प्राप्ति हो जायगी ॥ ५६ ॥ नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार कहकर शिवजीने गृहपतिके [माता-पिता एवं ] बन्धुओंको बुलाकर उनके माता-पिताके देखते-देखते उस बालकको अग्निकोणके दिक्पालपदपर अभिषिक्तकर स्वयं उस लिंगमें प्रवेश किया ॥ ५७ ॥ हे तात! इस प्रकार मैंने परमात्मा शिवके गृहपति नामक अग्निके रूपमें दुर्जनोंको पीड़ा देनेवाले अवतारका वर्णन किया ॥ ५८ ॥ चित्रहोत्र नामक सुखदायिनी, रम्य तथा प्रकाशमान पुरी है, जो लोग अग्निके भक्त हैं, वे वहाँ निवास करते हैं ॥ ५९ ॥ जितेन्द्रिय एवं दृढ़ सत्त्व भाववाले पुरुष अथवा सत्त्वसम्पन्न स्त्रियाँ उस अग्निलोकमें प्रवेश करती हैं, वे सभी अग्निके समान तेजस्वी होते हैं ॥ ६० ॥ अग्निहोत्रमें तत्पर ब्राह्मण, अग्निको स्थापित करनेवाले ब्रह्मचारी तथा पंचाग्नि तापनेवाले तपस्वी लोग भी अग्निके समान तेजस्वी होकर अग्निलोकमें निवास करते हैं ॥ ६१ ॥ जो शीतकालमें शीतको दूर करनेके लिये काष्ठ- समूहका दान करता है अथवा ईंटोंसे अग्निकुण्डका निर्माण करता है, वह अग्निके सान्निध्यमें निवास करता है । जो श्रद्धायुक्त होकर अनाथ व्यक्तिका अग्निसंस्कार करता है अथवा स्वयं अशक्त होनेपर [ इसके लिये ] दूसरेको प्रेरित करता है, वह अग्निलोकमें पूजित होता है ॥ ६२-६३ ॥ एकमात्र अग्निदेव ही द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य)-का परम कल्याण करनेवाले हैं। अग्नि ही उनके गुरु, देवता, व्रत, तीर्थ एवं सब कुछ हैं – ऐसा निश्चित है ॥ ६४ ॥ अग्निके संसर्गमात्रसे क्षणभरमें ही सभी अपवित्र वस्तुएँ पवित्र हो जाती हैं, इसलिये इन्हें पावक कहा गया है ॥ ६५ ॥ ये अग्नि प्राणियोंके साक्षात् अन्तरात्मा हैं और निश्चय ही सब कुछ जला देनेवाले हैं । ये स्त्रियोंकी कुक्षिमें मांसके ग्रासोंको तो पचा देते हैं, किंतु उसीमें रहनेवाले मांसपेशी (गर्भ) – को [ दयावश] नहीं पचाते ॥ ६६ ॥ ये अग्नि साक्षात् शिवकी तेजोमयी दहनात्मिका मूर्ति हैं। यही [अग्निरूपा मूर्ति ] सृष्टि करनेवाली, विनाश करनेवाली एवं पालन करनेवाली है । इनके बिना कुछ नहीं दिखायी पड़ता है ॥ ६७ ॥ ये अग्नि शिवजीके साक्षात् नेत्र हैं । अन्धकारसे पूर्ण इस तमोमय संसारको अग्निके बिना कौन प्रकाशित कर सकता है ॥ ६८ ॥ धूप, दीप, नैवेद्य, दूध, दही, घी एवं मिष्टान्नादि पदार्थ अग्निमें हवन करनेपर स्वर्गमे निवास करनेवाले देवगण उसे प्राप्त करते हैं ॥ ६९ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें गृहपत्यवतार- वर्णन नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥ Please follow and like us: Related