श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-043
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
तैंतालीसवाँ अध्याय
देवताओं तथा मुनियों द्वारा दुण्ढिराज गणेश तथा छप्पन विनायकों की स्तुति तथा पूजा का वर्णन
अथः त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः
बालचरिते ढुण्डिराजाख्यानं

गृत्समद बोले — गणेशजी द्वारा उस दैत्य दुरासद पर विजय प्राप्त कर लेने के अनन्तर आठों दिक्पाल, मुनिगण, चन्द्रमा, सूर्य, देवगुरु बृहस्पति तथा शुक्राचार्य — ये सभी दुरासद के शत्रु प्रभु देवाधिदेव विनायक की महिमा का इस प्रकार गान करने लगे — [हे प्रभो ! ] आपने दैत्य दुरासद का दमन करके श्रुति – स्मृतिविहित मार्ग की स्थापना की है। दुरासद को पराजित करने में सब प्रकार से अशक्त हम देवताओं को अपने अपने-अपने पद पर प्रतिष्ठित किया है। आप ही इस विश्व की सर्जना करते हैं और आप ही कर्मफलों को प्रदान करने वाले हैं ॥ १-३ ॥ आप समस्त प्राणियों में समान दृष्टि रखते हैं। आप कर्मों में लिप्त नहीं होते । ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि चारों वर्ण आपके ही आश्रय में रहते हैं और सभी प्राणियों के आधार भी आप ही हैं ॥ ४ ॥ आप नाना प्रकार के अर्थों की गवेषणा करते हैं और प्राणियों को उन-उन कर्मों में नियुक्त करते हैं। मनीषियों के द्वारा दुण्ढि (ढुण्ढ्) धातु का प्रयोग गवेषण अर्थ में किया गया है। इसलिये आपकी ‘ढुण्ढि’ यह संज्ञा है और ढुण्ढि के अनन्तर ‘राज’ पद के प्रयोग से आपको ‘दुण्ढिराज’ कहा जाता है ॥ ५१/२

आपका दर्शन, पूजा, ध्यान तथा स्मरण धर्म-अर्थ- काम तथा मोक्ष इस चतुर्विध पुरुषार्थ का साधन है और पुत्र-पौत्र को प्रदान करने वाला है ॥ ६१/२

ऐसा कहकर उन सभी देवता आदि ने मन्दार पुष्पों, शमीपत्रों, हरित वर्ण के दूर्वांकुरों तथा श्वेत पुष्पों और नाना प्रकार के पक्वान्नों के नैवेद्यों और बहुत प्रकार के फलों के द्वारा उन ढुण्ढिराज का पूजन किया ॥ ७-८ ॥ साथ ही रत्नों की महान् राशि अर्पित करके तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन विनायक को सन्तुष्ट किया। इसी प्रकार उन्होंने [अविमुक्तेश्वर श्रीकाशी विश्वनाथजी के बाहर] सातों आवरणों में स्थित सभी छप्पन विनायकों का भी पूजन किया ॥ ९ ॥

तबसे वे सभी छप्पन विनायक वाराणसी नगरी की रक्षा करने के लिये वहीं स्थित हो गये। उनसे अतिरिक्त पाँच मुखवाले एक पंचमुखी विनायक भगवान् विश्वनाथ के द्वार पर स्थित हो गये ॥ १० ॥ अन्य सभी छप्पन विनायक भिन्न-भिन्न नामों से वाराणसी में व्याप्त होकर (सातों आवरणों में) स्थित हो गये। भगवान् विश्वेश्वर के वाराणसी में स्थित हो जाने पर वे सभी भी वहीं स्थित हो गये ॥ ११ ॥ तबसे सूर्य तथा चन्द्रमा के स्थित रहने तक ब्रह्मा आदि सभी देवता तथा सभी मुनिजन अपने-अपने अधिकारों में स्थित हो गये। सभी लोग उसी प्रकार सभी धर्म-कर्मों को करने लगे, जैसा कि वे पूर्व में करते थे ॥ १२ ॥

हे कीर्ते! जिस प्रकार तुमने पूछा था, वह सब मैंने तुम्हें बता दिया है । दुण्डिराज गणेश के अवतार की कथा का श्रवण धर्म [ – अर्थ], काम तथा सुख (मोक्ष) प्रदान करने वाला है। अब मैं तुम्हें काशी के राजा दिवोदास के राज्य से बाहर चले जाने की कथा बताऊँगा ॥ १३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘दुण्डिराजाख्यान’ नामक तैंतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४३ ॥

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